सलिल सरोज कुछ जलाना है तो... अगर कुछ जलाना ही है तो जला दो मुझे जाति-धर्म के इस रिवाज़ से हटा दो मुझे अगर नहीं जगह मेरे लिए अब समाज में क...
सलिल सरोज
कुछ जलाना है तो...
अगर कुछ जलाना ही है तो जला दो मुझे
जाति-धर्म के इस रिवाज़ से हटा दो मुझे
अगर नहीं जगह मेरे लिए अब समाज में
किसी पत्थर जैसे दीवार में लगा दो मुझे
फीका हो गया हूँ तुम्हारी चमक के सामने
बुझते सूरज के साथ-साथ ही बुझा दो मुझे
कहाँ तक ढो पाओगे मेरे विरोधी विचार यूँ
उफनते नदी पर टूटे पुल सा बिछा दो मुझे
मैं सच हूँ ,ज्यादा देर तक सह नहीं पाओगे
अपने घर से किसी लाश सा उठा दो मुझे
सलिल सरोज
कार्यकारी अधिकारी
लोक सभा सचिवालय
संसद भवन
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खान ज़फर
१_ अजंता
अजंता की गुफाओं के थे कौन संगतराश
के जिनकी याद में सारी गुफाएं रोती है/
तपस्वी थे वह ऐसे महान त्यागी थे
कि जिनके तप ने पत्थरों को जुबानें बख्शी/
जरा खामोश रहो तन्हा जाओ उनके पास
कुछ धड़कन ए और सदाएं भी सुनाई देंगी/
कुछ भटकती हुई रूहें भी नजर आएंगी
जैसे कुछ खोज रही है वहां अंधियारे में/
यह सिलसिला यहां सदियों से चला आता है
कहीं उनका वोह संगतराश नजर आता है/
कि जिस ने पत्थरों को जुबानें बख्शी
और खुद गुमनाम रहा सदियों से/
खान ज़फर।
२_ मानवता
कब तक जले स्नेह रिक्त
मानव मंदिर का दिया
है गिन रही अंतिम श्वास
संभव है कहीं मानवता/
मानवता की करुणा सिसक
प्रतिध्वनित हो मिट जाती है
विज्ञान के इस युग में शायद
वह सिहर सिहर रह जाती है/
क्योंकि कहीं आलोक हो गया बंदी
मानव से मानवता ही शर्माती है/
खान ज़फर।
३- पथिक
सुप्त है यह विश्व सारा
मार्ग धूमिल तिमिर कारा/
मैं पथिक हूं ज्ञान पग का
दो मुझे तुम प्रभु सहारा/
श्याम धन की ओट में से
झांकता जैसे सितारा/
चाह में आलोक की है
तिमिर का सौंदर्य सारा/
प्रभु ना रक्षा के लिए
यह प्रार्थना की साधना है/
मौन की संवेदना ही
शक्ति की आराधना है
शक्ति की आराधना है//
खान ज़फर।
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अजय अमिताभ सुमन
किरदार
क्या खबर भी छप सकती है,
फिर तेरे अखबार में,
काम एक है, नाम अलग बस,
बदलाहट किरदार में।
अति विशाल हैं वाहन जिसके ,
रहते राज निवासों में ,
मृदु काया सुंदर आनन पर ,
आकर्षित लिबासों में ।
ऐसों को सुन कर भी क्या ,
ना सुंदरता विचार में ,
काम एक है, नाम अलग बस,
बदलाहट किरदार में।
रोज रोज का धर्मं युद्ध ,
मंदिर मस्जिद की भीषण चर्चा ,
वोही भिन्डी से परेशानी ,
वोही प्याज का बढ़ता खर्चा।
जंग छिड़ी जो महंगाई से ,
अब तक है व्यवहार में ,
काम एक है, नाम अलग बस,
बदलाहट किरदार में।
कुछ की बात बड़ी अच्छी ,
बेशक पर इनपे चलते क्या ,
माना की उपदेश बड़े हैं ,
पर कहते जो करते क्या ?
इनको सुनकर प्राप्त हमें क्या,
ना परिवर्तन आचार में,
काम एक है, नाम अलग बस,
बदलाहट किरदार में।
सम सामयिक होना भी एक,
व्यक्ति को आवश्यक है ,
पर जिस ज्ञान से उन्नति हो,
बौद्धिक मात्र निरर्थक है ।
नित अध्ययन रत होकर भी,
है अवनति संस्कार में ,
काम एक है, नाम अलग बस,
बदलाहट किरदार में।
क्या खबर भी छप सकती है,
फिर तेरे अखबार में,
काम एक है, नाम अलग बस,
बदलाहट किरदार में।
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जग में है सन्यास वहीं
जग में डग का डगमग होना ,जग से है अवकाश नहीं ,
जग जाता डग जिसका जग में,जग में है सन्यास वहीं ।
है आज अंधेरा घटाटोप ,सच है पर सूरज आएगा,
बादल श्यामल जो छाया है,एक दिन पानी बरसायेगा।
तिमिर घनेरा छाया तो क्या , है विस्मित प्रकाश नहीं,
जग में डग का डगमग होना जग से है अवकाश नहीं।
कभी दीप जलाते हाथों में, जलते छाले पड़ जाते हैं,
कभी मरुभूमि में आँखों से, भूखे प्यासे छले जाते हैं।
पर कई बार छलते जाने से, मिट जाता विश्वास कहीं?
जग में डग का डगमग होना, जग से है अवकाश नहीं।
सागर में जो नाव चलाये, लहरों से भिड़ना तय उसका,
जो धावक बनने को ईक्षुक,राहों पे गिरना तय उसका।
एक बार गिर कर उठ जाना पर होता है प्रयास नहीं,
जग में डग का डगमग होना जग से है अवकाश नहीं।
साँसों का क्या आना जाना एक दिन रुक हीं जाता है,
पर जो अच्छा कर जाते हो, वो जग में रह जाता है।
इस देह का मिटना केवल, किंचित है विनाश नहीं।
जग में डग का डगमग होना, जग से है अवकाश नहीं।
जग में डग का डगमग होना ,जग से है अवकाश नहीं ,
जग जाता डग जिसका जग में,जग में है सन्यास वहीं ।
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अखबार-ए-खास
वाह भैया क्या बात हो गए,अखबार-ए-सरताज हो गए।
कल तक लाला फूलचंद थे,आज हातिम के बाप हो गए।
भिखमंगे पहले आते थे,लाला के मन ना भाते थे,
मैले कुचले थे जो बच्चे,लाला को ना लगते अच्छे।
चौराहे पे कूड़ा पड़ा था,लाला को ना फिक्र पड़ा था,
लाला नाक दबाके चलता,कचड़े से बच बच कर रहता।
पर चुनाव के दिन जब आते,लाला को कचरे मन भाते,
ले कुदाल हाथों में झाड़ू ,जर्नलिस्ट को करता हालू।
फ़ोटो खूब खिचाता है,लाला सबपे छा जाता है,
कि जनपार्टी के खास हो गए,वाह भैया क्या बात हो गए।
अखबार-ए-सरताज हो गए,कल तक लाला फूलचंद थे,
आज हातिम के बाप हो गए, वाह भैया क्या बात हो गए।
अजय अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार सुरक्षित
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शक्ति त्रिपाठी "देव"
दर्द भरे मुक्तक
जिसे दौलत हुई प्यारी, कहां वो नेक होते हैं,
वो पैसों के लिए ,तेजाब मुंह पर फेंक देते हैं,
निकल जाता है अपना काम तो ऐसे भी हैं बंदे ,
चिता की आग में भी रोटियों को सेंक लेते हैं।।
हवा के रुख से ,जिस दीपक को, अक्सर हम बचाते हैं,
उन्हीं के लौं, होके निर्मम, हथेली को जलाते हैं।
मगर बुझने नहीं देते कि, जिनको प्रेम है उनसे ,
हथेली चीज क्या ,वो दांव पर जीवन लगाते हैं।।
सिखाया था जिसे मैंने ,वो क्या रिश्ता निभाते हैं।
मेरे तरकश के ही तीरों को ,मुझपे आजमाते हैं।
मगर उनकी अदा, ऐ यार मुझको रास आती है।
जिसे उर में छुपाया है , वही मुझको सताते हैं।।
मेरी अर्थी सजाने को, कोई तैयार बैठा है,
बताऊं किस तरह सबको, कि मेरा यार बैठा है।
प्रतीक्षा है उसे केवल, हमारे दम निकलने की,
हमारे जिस्म में खंजर, वो कब का मार बैठा है।।
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शक्ति त्रिपाठी "देव"
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शंकर सिंह परगाई
शोधार्थी शिक्षा विभाग श्रीनगर गढ़वाल उत्तराखण्ड भारत
कविता – भेड़िया और समाज
भेड़ियों ने स्वांग रचा
वो इंसानी बस्ती में
शामिल हो गए
बिल्कुल तुम्हारे
अपनों की तरह
तुम्हारे संग
भोजन किया
तुम्हारे संग
जनगीत गाये
तुम्हारे संग
नाचे
हर जश्न
तुम्हारे संग मनाया
भेड़िये फिर एक दिन
चौकोने हुए
उन्होंने सबसे पहले
अपने करीबी मित्रों को मारा
क्योंकि वो जानते थे
उनका हरेक राज
फिर उन्होंने
काबिज करनी चाही सत्ता
और वो
हर अँधेरी रात
एक एक कर
सारे पहरेदारों को मारते रहे
मगर
ये क्या
भेड़िया एक दिन
बेनकाब हुआ
जब वो
नोंचा जा रहा था
एक मासूम बच्चे का गोश्त
भेड़िया तब
खदेड़ दिया गया
इंसानी सभ्यता से
मानवीय समाज से
पर
सीख लिया कुछ इंसानों ने
भेड़िये का
स्वांग रचना
बेहद मीठे बोल बोलना
और घुल गए
समाज के बेहद नाजुक सतहों पर
तब से अब तक
जारी है जंग
लेकिन
इंसान बेहद कम है
और भेड़िये झुण्ड में है !
झुण्ड है
भेडियो का
मगर डरते है भेड़िये
जब एक निस्वार्थ इंसान
दहाड़ता है
भेड़ियें
दुबक जाते है
ये काफी है कि
इंसान विजित होगा
भेड़िये से
पर जरुरी है दहाड़
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शिव कुमार 'दीपक'
दीवाली के दोहे -
✍ शिव कुमार 'दीपक'
दीवाली का अर्थ है , खुशियां रहें समीप ।
आलोकित हो जगत सब,जलें ज्ञान के दीप ।।-1
दीवाली के दिन हुआ, जगमग आँगन द्वार ।
घर-घर में दीपक जले, लुटा प्यार ही प्यार ।।-2
रंग-बिरंगी रोशनी, खुशियां करें किलोर ।
पंचमुखी दीपक जलें, घर में चारों ओर ।।-3
मिट जाये आतंक सब,रहे न अत्याचार ।
तभी हमें अच्छा लगे, दीपों का त्यौहार ।।-4
किया निमंत्रण प्रेम का, दीपों ने स्वीकार ।
दीवाली के दिन किया, रजनी का शृंगार ।।-5
दीप जले थे रात भर ,करते रहे प्रकाश ।
दूर - दूर मावस रही, सारी रात उदास ।।-6
घर-घर में दीपक जले, तरह-तरह के रंग ।
गगन धरा पर आ गया, लेकर तारे संग ।।-7
घी के दीपक अब कहाँ, मँहगाई की मार ।
शहर-गाँव घर मोम के, दीपक जलें हजार ।।-8
साफ सफाई हर तरफ, स्वच्छ हुए घर द्वार ।
रोगों से लड़ता मिला , दीपों का त्यौहार ।।-9
इस मतवाली नींद से,जाग जिंदगी जाग ।
बाहर तेरे रोशनी , अंदर बुझा चिराग ।।-10
तेज पटाखे फुलझड़ी,धूं-धूं चले अनार ।
हवा विषैली कर गया, दीपों का त्यौहार ।।-11
तेज पटाखे, फुलझड़ी,मीठा,खील ,अनार ।
माँग-माँग कर सो गए, पूजा,अजय कुमार ।।-12
दीपक ज्योति ज्ञान की,- --हरे तिमिर अज्ञान ।
पढ़ी लिखी जो बालिकी, घर-वर की पहचान ।।-13
घर-घर आती स्वच्छता,सुखी रहें परिवार ।
जाती घर से गन्दगी , आते जब त्यौहार ।।-14
शमा जली करती रही, तूफ़ां से संघर्ष ।
भगा तिमिर रोशन हुआ,दीपक का उत्कर्ष ।।-15
✍ शिव कुमार 'दीपक'
बहरदोई,सादाबाद
हाथरस (उ०प्र०)
पिन-281307
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चंचलिका
" ज़िंदगी और मौत हैं दो छोर "
क्यों विचलित होता है
बार बार मन
ज़िंदगी और मौत
दो कड़ी है जानकर भी
क्यों उलझता है
बार बार मन ......
कुछ गुज़र गया है वक्त
कुछ गुज़रना अभी बाकी है ....
कैसे कह दें
सारे अच्छे सुकून के पल
जी लिए हम
शायद और भी कुछ
खुशनुमा पल को
जीना अभी बाकी है ......
ज़िंदगी को ग़र
बेशुमार प्यार दिया है
तो हँसते हँसते
मौत को भी गले लगाना है ......
यही जीवन की
कड़वी सच्चाई है
कौन इसे झुठला कर
केवल ज़िंदगी की आगोश में
छुप सकता है ......
उम्र के संग उलझती
झुर्रियां तो बस
समय का एक
अंतराल है .....
एक जन्मदिन के साथ
एक साल का कम होना
ज़िंदगी का मौत के क़रीब
पहुँचना है ......
अगर ज़िंदगी आज है
तो मौत भी आज ,
अभी , इसी पल
कभी भी , तय है
यही सत्य है , कटु सत्य है .......
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तालिब हुसैन 'रहबर'
ढलती शाम
और पीले पड़ते चाँद के साथ
निखर जाता है प्रेम
उन तारों की तरह
फैला देता है अपने पर
चुनने लगता है
संयोग के मोती
उड़ेल देता है दूर कहीं
विरह की उमस
तपती धरा पर
शीतल चाँदनी की
कालिंदी बिखेर कर
बुनने लगता है
नए घोंसले प्रेम
अपनी अंजुरी में
समेटता हुआ इस संसार की तपन
एक नई तृप्ति की तलाश में
निकल जाता है प्रेम
सुना है दबे पांव ही आता है प्रेम....
~तालिब हुसैन 'रहबर'
शिक्षा संकाय , जामिया मिल्लिया इस्लामिया
नई दिल्ली-110025
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संजय कर्णवाल
1 जीवन से उम्मीदें नही तुम तोड़ो।
उत्साह के संग तुम नाता जोड़ो।
अगर हो सके तुमसे कोई काम अच्छा
यही मकसद है इस जीवन का सच्चा
सार कोई जो मिल जाय हमको
मिसाल आशाओ की दे जगको
2
हर एक चीज की कीमत जानो
अपने आप को तुम पहचानो
जब तक जान सको न,क्या होता
है,जग में तुम ये सब जानो।
बेहतर समझो,बेहतर सीखो
खुद को भी कुछ तुम मानो
कोई जज्बा हो तुम में अच्छा
कुछ करने का अपने मन में ठानो।
3,,
चले हम साथ चले समय की धारा के
बढे हम आगे बढ़े समय की धारा के
नहीं कभी लौट सका गया वक़्त साथी रे
बन जाता ये वक़्त बड़ा ही सख्त साथी रे
कदर इसकी करो तुम जीवन सँवर जायेगा
यही एक दिन तुम पर हजारों खुशियां लुटायेगा
4
इस जहाँ को हम मेहनत से अपनी कर सके
कुछ अच्छा तो हम करे हर नया प्रयास।
हो बस अपना पक्का इरादा न रुक सके किसी
मुश्किल से कदम अपना हो नई हर तलाश।।
जो रंग है इन बहारों में, वो खिले बड़ी मशक्कतों से
कोई पूछे जड़ से मूलों से, महकते फूलो से सब
दरख्तों से
5
जो भी लगता है बड़ा प्यारा मन को
नई दिशा देता है हमारे जीवन को
हमने महसूस किया कुछ ऐसा जब
कुछ तो होने लगा अहसास धड़कन को
जो भी सोचा है बड़ी गहराई से
एक नया आयाम मिला जीवन दर्शन को
बड़ी संजीदगी से जो निभाते कर्म
नहीं भुला सकता जमाना उनके समर्पण को
6
रुक जाते कदम अपने कभी चलते चलते
ठहर जाते कही राही, कभी आगे निकलते
कोई देते सन्देश हमें जीवन के रस्ते
कोई चलते ही रहते,कोई राह बदलते
हर कोई चलता यहाँ अपने अंदाज से
कुछ आगे बढ़ते,कुछ रह जाते हाथ मलते
हर पल लहराती है कुदरत की मौजें
सबके दिलों में कुछ अरमान मचलते
7
रास्ते मिले तो मंजिल अपनी मिल जायेगी
अरमानों की बगिया एक दिन खिल जायेगी
जग में सबने कुछ तय जरूर किया है
जिसने सोचा मन से तो मंजिल खिंची आयेगी
मुश्किलें तो बेशुमार है सारे जग में
ये मुश्किलें हमको कब तक तड़फायेगी
जो डटे है हिम्मत से अपने मुकाम पर
उनकी हिम्मते हर हाल में एक रंग लाएगी
8
हमें अपने कर्मों से बनाना है बेहतर
ज़िन्दगी का हर पल सजाना है बेहतर
दिन और रातें गुजरते रहे हैं
कही पल दो पल ठहरते रहे है
मुसाफ़िर राहो का कुछ सोचता है
समय की नदी की उमंग देखता है
9
अपने सारे गम भूल जाओ,
दुसरों को भी तुम हँसाओ।
खुद आगे बढोऔर सबको
तुम सदा आगे बढ़ाओ।।
जीने का तुम ये रहस्य जान लो
वक़्त की सच्ची बात पहचान लो
सच्चे मोती दिये कुदरत ने
उनका तुम सम्मान करो
खुद पर भी तुम प्यारे दोस्तों
एक अहसान करो।
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दूर कहीं से आती हैं पवन सुहानी
धीरे धीरे से गुनगुनाती कोई कहानी
तनमन को शीतलता देकर आगे बढ़ जाती
छू कर जिसको अपनी फसलें लहलाती
झोंके बनकर,आगे बढ़ कर दूर दूर तक जाय
देख देख कर जिनको फूल सदा मुस्काय ।
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श्याम चंदेले
तेरे इश्क़ की अदालत में
पेशी की तारीखें
अक्सर लंबी क्यूँ होती है
मैं ही मुवक्किल
मैं ही वक़ील
तो फिर
ज़िरह की तारीख़
अक़्सर लंबी क्यूँ होती है
अब तो फैसला सुना ही दो
अब ये तारीखें
बर्दाश्त यूँ नहीं होती है
तेरे इश्क़ की अदालत में
पेशी की तारीखें
अक्सर लंबी क्यूँ होती है।।
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सुरेन्द्र कल्याण
"वाल्मीकि नाम"
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वाल्मीकि नाम जपे जीत होय
न जपे तो होय हार
जन-मानस जाने बावला
होय जीवन बर्बाद !!
गुरु नाम जपने से
आय सुख शाज,
गुरु ध्यान लाय ऐ जात
जात बने, जग विख्यात !!
अपना छोड़ गैर संघ-लागी
जन जाने मुर्ख विलाप,
हे ठीक परंतू
अपने बिना कि सार !!
मेरे सभी चिंतन हरन
ध्यान मन ले लाए
प्रभु बीच अंतर काम करिय
बने पुरुष महान, ले अजमाए !!
भगवान होय चारों ओर एक
समझ एक बात सही,
अपने गुरु ताक नहीं
फिर कैसे होय विवेक !!
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नाम :-सुरेन्द्र कल्याण
गाँव :-बुटाना, तहसील नीलोखेड़ी जिला करनाल (हरियाणा)
यूनिकोड डाक - surenderkalyan100@gmail.com
शिक्षा - BA हिंदी
सम्मान - भारतीय दलित साहित्य अकादमी दिल्ली सम्मान (2017)
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सुनील कुमार
।। मुक्तक।।
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(1)
न कोई शिकवा न कोई गिला हम करेंगे
बस तेरी सलामती की दुआ हम करेंगे
जब कभी याद आएगी तेरी तन्हाई में
अश्कों को आंखों से जुदा हम करेंगे।।
(2)
****************************
न कोई शिकवा न कोई गिला होगा
संग मेरे तेरी यादों का कारवां होगा
पता नहीं जिंदगी का क्या फलसफा होगा
पर मेरा दर्द ही एक दिन मेरी दवा होगा।।
(3)
******************************
गीत कविता या गजल मैं तेरे नाम लिखूं
अपनी सुबह और शाम मैं तेरे नाम लिखूं
दिल से अपने तेरे दिल को मैं पैगाम लिखूं
अपनी धड़कन और सांसे मैं तेरे नाम लिखूं।।
(4)
*****************************
चलते चलते एक खता हम कर लें
दिल कहता है तुझसे गले तो मिल लें
भूलकर तेरे सारे सितम
तुझको बांहों में अपनी भर लें
न जाने फिर कब हो तुझसे मिलना
दीदार तेरा जी भर तो कर लें।।
(5)
*******************************
दर्द देकर मुझको जो हंसता है
सुना है तनहा अक्सर वो भी रोता है
जब भी मिलता है कहता है भूल जाओ मुझको
अरे वही जो मेरी तस्वीर को सीने से लगाकर रखता है।।
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प्रस्तुति- सुनील कुमार
जिला- बहराइच,उत्तर प्रदेश।
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अविनाश तिवारी
*हमारे राम*
राम केवल नाम नहीं
राम जीवन का आधार है।
राम है संस्कृति हमारी
राम जड़ चेतन का व्यापक
विस्तार है।
उद्घोष जय श्री राम का
संचरण ऊर्जा का उदगार है
जिसे लगता युद्धघोष यह
वो विक्षुब्ध एक विकार है।
हिंसा को तुम धर्म से जोड़े
जिसका आधार आहिंसा परमो धर्म: है,
मानवता का त्रास हरा जिस राम
ने,मर्यादा जिनका मर्म है।
जिस राम ने शबरी के जूठे बेर को
खाया था
हंसते हुए केवट को अपना मित्र जिन्होंने बनाया था।
रावण दहन सत्य की जीत असत्य की हार है
राम ही प्रेरणा जीवन का सन्मार्ग है।
नफरत के बीज जातीयता से फलते हैं
राम जन जन के हृदय में बसते हैं।
राम भारत की संस्कृति है
राममय संसार है
राम जगत के पालनहार
राम ही करतार है।
@अवि
अविनाश तिवारी
अमोरा
जांजगीर चाम्पा
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बिलगेसाहब
जिंदगी क्या है 'बिलगे'???
जिंदगी एक हमसफ़र है,,,,
मगर धोखेबाज और कपटी हमसफ़र..!
आपके पैदा होते ही आपको वो आकर मिली थी
तब से वो तुम्हारे साथ है...
पूरी शिद्दत के साथ उसने लुभाया आपको
आप भी उसपर फिदा हो गए
उसके बिना रह पाना आपके लिए नामुमकिन हो गया...
लेकिन क्या आपने कभी पूछा जिंदगी को..
की वो कौन है?
कहाँ से आई हो?
मुझे क्यों मिली?
और मुझे कहाँ लेकर जा रही हो?
पूछोगे तो भी वो बताएगी नहीं कि सच क्या है...
सच ए है कि,,,
मौत एक अजनबी, कपटी,बागी,धोखेबाज साथी है
किसी को गोद में लेकर
किसी की उंगली पकड़कर
किसी को कंधे पर बैठाकर
तो किसी का पैर पकड़ के घिसटते हुए
वो मौत तक ले जा रही है
मौत से मिलाने के लिए.....!!!
मौत उम्र के रथ पर सवार होकर
हौले हौले रफ्तार में वो आपको अपने साथ
मौत तक ले जा रही है
इस सफर में वो हमें कइयों से मिलाती है..
जैसे सपने,अरमान,रिश्ते,ख्वाहिशें,जिम्मेदारीयां,.....
इन सब में हम इतने उलझ जाते है कि कभी
हम फुर्सत ही नहीं निकाल पाते कि
हम जिंदगी से पूछे कि जिंदगी के साथ हम कहाँ जा रहे है...
मौत किसी गुमनाम नगरी की महारानी है
जिसे गुलामों की जरूरत है अपने नगर के काम करवाने के लिए.....
जिंदगी मौत की प्रधान मंत्री है जिसपर गुलामों को ले आनी की जिम्मेदारी होती है....
इसलिए जिंदगी को कुछ मानधन भी मिलता होगा...
और फिर जिंदगी अपने काम पर लग जाती है
हम जैसे कई मासूमों के साथ पैदा होते ही मुलाक़ात कर लेती है,उसे अपना
दोस्त बना लेती है,चिकनी चुपड़ी बातों से बहलाती हैं और हमें उम्र के रथ पर बैठाकर,
हमारे हाथ में सपने,अरमान,ख्वाहिशें, जिम्मेदारियां और रिश्तों के खिलौने देकर
मौत तक मौत से मिलाने के लिए ले जाती है....!
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@सफ़र(By- बिलगेसाहब)
पहुंचना मौत तक ही है तो
फिजूल सफर क्यों करे हम...
क्यों ना मंजिल को हासिल कर लिया जाए...
वक्त से पहले....
उम्र भी तो थक गई हो गई,,
दौड़ते दौड़ते.....
साँसों को भी तो थकान होती होगी,,
चलते चलते......
कब तक यूँ ही खुद को गुमराह करते रहेंगे हम...
पता है कि मंजिल मौत है......
फिर भी कब तक सफर करते रहेंगे हम...
आँखों में सपने दिल में ख्वाहिशें लेकर,
आखिर कहाँ तक चल पाएंगे हम..
किसी मुकाम पर छोड़ कर इन्हें,
फिर से तनहा हो जाएंगे हम.....
हमारे काफ़िले में शरीक हर एक हमसफर,
अकेला छोड़ तुम्हें ....
चले जायेंगे बहुत दूर...
फिर चाहे वो उम्र हो या फिर साँसे...
तब खुद को पूरी तरह से अकेले पाएंगे हम....
चारों तरफ कुछ नजर नहीं आएगा...
फिर हल्की सी किसी के कदमों की आहट सुनाई देगी....
और जैसे ही पीछे मुड़ के देखोगे......
तो सामने नजर आएगी 'मौत'.
....
फिर हम कुछ समय तक बौखलाएंगे,घबरायेंगे,
मुड़ के पीछे फिर जब नजर जाएगी....
तो कोई रास्ता नजर नहीं आएगा....
जो लेके जाए हमें जिंदगी की और.......
.....
....
और फिर मौत हमें अपनी और खिंच लेगी..जोर से..
और अपने कंधों पर बैठा कर बहुत दूर लेकर जाएगी...
बहुत दूर...जहाँ से लौटना नामुनकिन होगा...!
..
...
फिर क्यों भला इस नौबत से गुजर जाए हम....
जब पता है की मंजिल मौत है...
फिर क्यों बेवकूफों की तरह सफर करते रहे हम........!
Penned by- बिलगेसाहब(MADhukar Bilge)
-बिलगेसाहब(MADhukar Bilge)
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