बच्चों में कौतूहल भरने वाली लोक कहावतें और खेल कहाँ खो गये ? आत्माराम यादव पीव बच्चों में मेघनाशक्ति का अद्भुत संचार करने वाली किस्से कहानिय...
बच्चों में कौतूहल भरने वाली लोक कहावतें और खेल कहाँ खो गये ?
आत्माराम यादव पीव
बच्चों में मेघनाशक्ति का अद्भुत संचार करने वाली किस्से कहानियाँ, कहावतों का एक दौर गुजरे मुश्किल से तीन दशक बीते हैं। इतिहास गवाह है कि दादी और नानी जब अपने नौनिहाल को शाम को भोजन के बाद बिस्तर में लेकर लेटती थी तब विश्वास,आश्चर्य और समाधानकारक बाल मनोवृत्ति की कहानियां, किस्से,कहावतें बच्चों को संगीतात्मक लय में सुनाकर उनके मन की एकाग्रता को अदभुत शक्ति से भर देती थी। खेल खेल में बच्चे लोककथाओं की इस मेघना को अपने चरित्रनिर्माण में भी विकसित कर संसार के इस ज्ञान से परिचित हो जाया करते थे। इतना ही नहीं नानी-दादी के इन किस्से,कहावतों के साथ बच्चों में जहाँ पशुपक्षियों की कहानियों से पशु-पक्षियों से प्रेम व पर्यावरण की शिक्षा ग्रहण की जाती वही, परियों एवं दानवों की कथाओं से जादू चमत्कारों से परिचित होते तो दूसरी ओर ऐतिहासिक किस्से कहानिया उनका ज्ञानवर्धन कराती तो पराक्रम भरी किस्से उन्हें पुरूषार्थी बनाते और उनमें समस्याओं को सुलझाने की सीख पहेलियों से मिलती रहीं है जो आज के इस संचारक्रान्ति के दौर में दूर तक देखने को नहीं मिलती है और इन्टरनेट ने उन्हें समय के आगे का ज्ञान देकर उनके बचपन को प्रतिस्पर्धा की अग्नि में भस्म कर रखा है।
जब टेलिविजन नहीं था तब बरसात के दिनों में बच्चे घरों में घरोंदें का खेल खेलते जिसे कोई कोई घरूआ पतुआ भी कहता। जब बच्चे बिस्तर पर आराम करते तब घर के माता,पिता,बुआ आदि कोई को बुलाते और वे अपनी हथेली पर बच्चे का हाथ रखते तथा दूसरे हाथ से बच्चे के हाथ पर ताली बजाकर कहते - आटे बाँटे दही चटाके,बरफूले बंगाली फूले, बाबा लाये तोरई, भूंजि खाये मोरईं। दूसरी कहावत बहुत प्रचलित रहीं जिसमें बिल्ली की चालाकी को लेकर कहा गया कि - काहू के मूँड़ पै चिल मदरा,कौआ पादे तऊ न उड़ा,मैं पादू तो झट उड़ा। उस समय घर में बाँस की पिंची और कपड़े के बीजना हुआ करते थे जिन्हें हाथ में लेकर बच्चे कहते थे-बाबा बाबा पंखा दे, पंखा है सरकार का, मैं भी हॅूं दरबार का, अच्छा एक लेलो। इससे हवा नहीं आती, अच्छा एक और लेलो। एक खेल में कई बच्चें गोलघेरे में खड़े होते और एक उनके बीच में खड़ा होता तब सब लड़के उसे पूछते- हरा समन्दर, गोपी चन्दर, मछली मछली कितना कितना पानी? गोलघेरे के भीतर वाला बालक अपने हाथों के पैरों के टखने तक लगाकर कहता, इत्ता इत्ता पानी। फिर दूसरा बालक पूछता,अब कित्ता पानी। बीच घेरे वाला बालक हर सवाल पर जवाब देता और अपनी चोटी तक पानी बताता, तब सभी दूर खड़े होकर घेरा बनाते और घेरे के अन्दर वाला उन्हें छूता, अगर कोई छुआ जाता तो उसे मछली बनकर ऐसे ही घेरे से बाहर निकलने का प्रयास करना होता और उस गोलघेरे को समुन्दर माना जाता।
बच्चों को खुश करने के लिये उसकी हथेलियों पर अपनी हाथों की थपकी देकर घर की महिलायें गाती है - अटकन-बटकन, दही-चटाकन। बाबा लाये सात कटोरी,एक कटोरी फूटी,भैईया की किस्मत रूढ़ी। यह कहकर बच्चें की एक अंगुली पकड़कर कहती है कि यह छिंगुनी अंगुली चाचा की, दूसरी भैईया की, तीसरी माँ की, चैथी कक्का की और पाँचवें पर अंगूठा पकड़कर कहती है कि यह गाय का खूंटा। फिर अपनी दो उॅंगलियां बालक की बाँह पर अपनी अंगुली के पोरों से चलाते हुए उसकी काँख तक ले जाती है और कहती है कि-डुकरिया अपने बासन भाँड़े उठाईले, मेरो बूढ़ो बैल पानी पीने आ रयो है। फिर आपई बच्चों को भरमाते हुये डुकरिया बनकर कहती है -ए पूत मेरौ चकला रह गयो, ए पूत मेरो बेलन रह गयो। और फिर बच्चे की काँख तक अपनी अंगुली लेजाकर गुदगुदाती है और बालक खूब जोरों से खिलखिलाकर हॅसता रहता है जिसका आंनन्द और सुख से पूरा परिवार खुशी से झूम उठता है। एक खेल में बच्चों को बहलाने के लिये आसमान में चन्दा मामा की ओर दिखाते हुये कहती है कि -चन्दा मामा दूर के, पुये पकाये बूर के, आप खाये थाली में मुन्ना के दे प्याली में, प्याली गयी टूट, मुन्ना गया रूढ। बच्चा इस खेल में जहाँ खुले आसमान में चन्दा को देखकर प्रसन्न होता है वही उसे प्रकृति को जानने-समझने का अवसर मिलता है जिसके अनुभव उसे प्रसन्नता देते है।
एक खेल में बच्चों की चुहुलबाजी रोमाचिंत करती है जिसमें दो बच्चे खेलते है और एक दूसरे से पूछता है-काय बुढ़िया,काय ढूंढ रयी है। दूसरा बोलता है-सुई। फिर पहले वाला पूछता है सुई को काय करेगी?दूसरा जबाव देता है-कथरी सीऊॅगी। फिर कथरी का काय करेगी। जबाव-रूपया धरूँगी। रूपईन का काय करेगी, भैस लूंगी। भैस का काय करेगी?दूध पीऊॅगी, दूसरा बालक तुरन्त जवाब देता है कि दूध के नाम मूत पीले और जो बालक बुढ़िया बना होता है वह जवाब सुनकर उसे मारने दौड़ता है।बुरे व्यक्ति की संगत से बचने के लिये एक छोटी की कहानी प्रचलित रही है जिसमें एक बिल्ली एक घर में मक्खन के मटके में अपना मुंह डालती है लेकिन जब निकालने की कोशिश की तो वह बहुत परेशान हुई और असफल रही। घबराहट में उसने मटका तोड़ दिया किन्तु मटके की किनारी/घाँघरी उसकी गर्दन में पड़ी रह गयी। वह वहाँ से भूखी ही चली गयी। रास्ते में उसे एक मुर्गा मिला उसने बिल्ली से पूछा मौसी कहाँ जा रही हो, बिल्ली ने कहाँ बेटा मैं भगवान की भक्त हो गयी हॅू और तीर्थ व्रज को जा रही हॅू। मुर्गे ने पूछा, तेरे गले में य क्या है? बिल्ली ने कहा, यह केदारनाथ भगवान का कंकन है , मुर्गे ने पूछा, क्या मैं भी चलूं, बिल्ली ने कहा, बेटा तरी मर्जी, चल। मुर्गा बिल्ली के साथ हो गया, रास्ते में बिल्ली ने उस मुर्गे को खा लिया, तब से यह कहावत प्रचलित हुई कि बुरे का साथ बुरा होता है। ऐसे एक नहीं सैकड़ों उदाहरण मिलेगे जो स्थानीय भाषाओं,बोलियों में प्रचलित है जिनमें कई प्रकार के किस्से कहानियाँ एवं कहावतें मौजूद है जिन्हें आज के दौर की पीढी पूरी तरह भूल गयी है। दादी-नानी के द्वारा बच्चों को जो वीर गाथायें, किस्से,कहानियाँ,लोकोक्तिया एवं लोकभाषाओं की कहावतें सुनाई जाती थी वे उनके भविष्य निर्माण के साथ उन्हें प्रकृति की विशेषताओं, धरती की सभ्यताओं,समाज तथा धर्म प्रथाओं से जोड़े रखती थी वहीं हास्यास्पद चुटकुले,किस्से-कहावतें,गीत बच्चों को स्वस्थ मनोरंजन के अलावा उन्हें संकटकाल में स्वयं को सुरक्षित रखने की सीख देकर इस परम्परा को जीवित रखे हुये थे जो अब शनेःशनेः समाज से विदा होने को है,जिसे बचाये रखने के विषय में हमारे प्रयास जारी रहे तो सदियों से नानी-दादी की इन धरोहरों को बचाया जा सकेगा।
आत्माराम यादव पीव
वरिष्ठ पत्रकार
जब उसने कनपटी पर पिस्तोल तानी ?
संस्मरण
बात 1978 के मार्च महीने की है! उस दिन होली थी और अगले ही दिन आठवी बोर्ड की परीक्षा होनी थी ! तब मै एसएनजी स्कूल में कक्षा 8 वीं का छात्र था और ललितकिशोर तिवारी जी उस समय गणित के टीचर थे और अपने कुछ सहपाठियों के साथ बडे़ अनुनय साथ गणित में कमजोर होने पर परीक्षा समय टयूशन के लिये राजी किया। नियमित टयूशन के लिये हम उनके घर पर गणित विषय पढ़ने जा रहे थे। शाम 4-5 बजे का वक्त रहा होगा जब हम सभी मित्र जिनमें देवेन्द्र रूसिया और बनवारी यादव (पहलवान ) शामिल थे अपने घर से टयूशन को निकले । हमारे पास टीचर को देने के लिए टयूशन फीस के 60 रूपये प्रतिमाह के हिसाब से तीनों के पास 180 रूपये थे ,जो हमने देवेन्द्र को रखने को दे दिए ! ग्वालटोली रेलवे पुलिया से सतरास्ता और बालागंज जाने वाली पुलिया ही आवागमन के लिये चालू थी और उस पुलिया से सीधे बालागंज जाने का रास्ता था जिससे जुमेराती आने जाने में समय बचता था। इस रास्ते में तब चारों ओर रेत के अम्बार लगे होते थे और सुबह शाम आसपास के तांगेवाले अपने घोड़ों को लोट लगवाने आते। तब आज जैसा अतिक्रमण नहीं था और चारों ओर मैदान था और आमलोग श्रीराम राठौर वाली पक्की सड़क पकडने के लिये दौड़ लगाता तो कोई बाबूलाल फौजदार के घर के बाजू में जहॉ शांति निकेतन स्कूल बन गया है से निकल जाता था। छात्रावास के दोनों ओर पर्याप्त जगह थी जिसमें ट्रकों का आवागमन रेत लाने लेजाने को होता था।
उस सार्वजनिक मार्ग से हम भी अपने घर से टीचर के घर जाने के लिये ग्वालटोली की पुलिया निकलते हुये गुजरे। पर ये क्या अचानक पुलिया निकलते ही 3 कुचवंदिया समाज के युवको ने पिस्तोल निकालकर तान दी और कहा हेंड्सअप ..! अचानक देवेन्द्र मै जाने कहाँ से फुर्ती आई की वह पूरी ताकत से सतरास्ते की और भागा। उन युवको मै एक ने देवेन्द्र को पकड़ने की कोशिश की लेकिन वह सफल नहीं हुआ और देवेन्द्र तहसील के पास उनके चाचा की कपडे की दुकान पर जाकर रुका !
देवेन्द्र के भागने के बाद उन युवको ने पिस्तोल ताने हुए हमें बालागंज जाने बाले कच्चे रास्ते पर रेत के ढेर पर ले जाकर हाथ ऊपर रखकर खड़े होने को कहा। जब उन युवकों को बताया गया कि तीनों की फीस तो देवेन्द के पास थी और वह भाग गया तब !(अब वह आम रास्ता बंद है और अतिक्रमण हो गया है ) उन्होंने हमारी तलाशी लेकर कुछ न मिलने पर छोड़ दिया !
अगले दिन हमारे एक सहपाठी शंकर ने स्कूल मै उक्त घटना का जिक्र किया और सारा हाल पूछा,जबकि यह बात हम तीनो और हमारे शिक्षक श्री तिवारी जी को पता थी तब इसे सारी घटना कैसे मालूम हुई । कुरेदने पर हमारे सहठपाठी ने बताया की हममे से किसी एक ने टियुशन फीस ले जाने की बात की तब उस सहपाठी ने बात सुन ली और हमारे टयूशन जाने का समय पता कर लिया तब उस सहपाठी ने कुचबंदिया समाज के युवको को य बात बताकर हमें लुटने की योजना बनायी ताकि इस 160 रूपये का कुछ हिस्सा हमारे सहपाठी को भी मिल सके !जब स्कूल मै उसके मुह से सारी जानकारी मिली तो यह बात हमने हमारे टीचर श्री तिवारी जी को बताई ..तो तिवारी जी ने आव देखा न तब और हमारे सहपाठी को स्कूल की खिड़की से उठाकर फैक दिया ..लेकिन हमारे सहपाठी की किस्मत अच्छी थी ..एक दिन पहले ही वहा कुस्ती के लिए मिटटी रखी गई थी और बह बच गया तथा एक बड़ी दुर्घटना होने से बच गई ! आज भी यह घटना याद आती है तो मन सिहर उठता है !
कविताएँ
तुम सबसे अंनूठी हो मॉ
दुख आया तो दवा नहीं ली
हारी नहीं, तू खुद से लडी थी
पिताजी देखे, सख्त बहुत थे
तनखा लाकर वे दादी को देते
पाई पाई को तू तरसा करती
मजबूरी थी तू मजदूरी करती
बेकार हुये जब कपड़े पिता के
झट सिलवाती,,रहे न हम उघडे
वे भी क्या दिन अपने थे मॉ
होटल में बर्तन हम धोते थे मॉ
हिमालय सा दुख, अकेले झेला
नियति ने खेल तुझसे खेला
एक नहीं कई बार हुआ था
गुनियों का सत्कार हुआ था
बीमारी से तेरा हाल बुरा था
डाक्टर थे पर तुझे न दिखाया
दादी ने गुनियो को बुलवाया
नस उठी है उसे बिठलाना है
गुनियों ने यह फरमान सुनाया
दहकती आग में सरिये सुलगाये
तेरी पीठ, छाती में दाग लगाये
सह न सकी दर्द तू चीत्कार उठी
पीव कोई न पसीजा बने सभी हठी।
गुपचुप ऑसू पी, तू चेहरे से मुस्काई मा
दुख तेरा हिमालय सा, तू बताती राई मॉ।
ये कैसा इलाज था माँ
जब जब तुझको गर्म सरियों से दागा
सुन चीत्कार तेरी, मैं हुआ अभागा
जमी पर लिटा तेरे हाथ-पैर जकड़ते
नंगे बदन पर गर्म सरिया वे धरते
हाय कैसा इलाज,दर्द मर्ज बढ़ जाता
उठती नसों को, कैसे आग से बिठाता
मॉ गरमागरम सरियों से तू दागी जाती
सुलगती आग से तेरी चमड़ी जल जाती
दादी,काकी और बुआजी तब आती
कंबल में लपेटे तुझे फिर जमी पर सुलाती।
हाय कैसा था मॉ, वह समय पुराना
जले जख्मों पर न दवा न मल्हम लगाना
पुराने जमाने के वे दकियानूसी गुनिये
बीमार सोचवाले वे नासूरों के बुनिये
एक तू ही नहीं कई माताये इन्होंने दागी
अनगिनत घरों में थी, कई दर्द की अनुरागी
मेरे चारोधाम
जिन माता पिता से जीवन पाया
उनको शत शत करू प्रणाम
जिनसे है मेरी होली,दीवाली
उनका सुत हूं, है मुझे गुमान
जिनसे है सारे पर्वो की खुशिया
उनके परिश्रम का परिणाम
मुझे सहज ही सब तीर्थ मिले
माता पिता ही मेरे चारोधाम
पीव चरणों में उनके सब तीर्थो की छविया
मुखमण्डल पर उनके, बिराजे राधाश्याम
जिनके कन्धों पर बचपन बीता
झुके उन कन्धे,पर, बुढावा विराजमान
क्यों राम नहीं तुम बन सके
क्यों राम नहीं तुम बन सके
कारण तो बतला दो भैईया ?
मातपिता से क्यों मुंह मोड़ा
कारण तो समझा दो भैईया ?
कमी कहॉ हुई उनकी ममता में
क्यों बोलना वे भूले भैईया ?
बहिन भाई से क्यों प्रीति तोड़ी
अनमोल खजाना क्या पाया भैईया?
जिस माता पिता ने जन्म दिया,
अंधेरी उनकी हर शाम क्यों भैईया ?
उम्र के संग बढती गई उनकी पीर,
बहते उनकी ऑखों से नीर क्यों भैईया?
राम भले ही तुम बन न सके
कठोर पत्थरदिल क्यों बने भैईया ?
लाल रूढे नहीं सब हिलमिल रहेंगे
खुशियों अपार घर ऐसा बनाया भैईया ?
धेला एक न बेटों से लिया जिसने
उस घर में उनका अपमान क्यों भैईया?
बूढ़े पेडों की तरह है उनकी छाया
फिर उनके होने से कोहराम क्यों भैईया ?
उनके जीते जी रिश्ते हुये बेदखल सभी
आर्शीवचन देने वाले सूर्य से अस्त क्यों भैईया?
राम भले ही तुम बन न सके
पीव क्षमा करते रहे वे,हमारी सारी भूल क्यों भैईया ?
बनाया सपनों कासंग रहेंगे मिलकर सारे
मात पिता का घर में अपमान क्यो ?
बूडे पेडों की तरह है मातपिता की छाया
फिर उनके जीते जी रिश्तों किये बेदखल क्यों ?
‘पीव’ सूर्य सा अस्त होते ये बूढे माता पिता
जीते रहो तुम सदा,देते ऐसा आर्शीवचन क्यों ?
आत्माराम यादव पीव
वरिष्ठ पत्रकार
सिटी पोस्ट आफिस के पास, उर्मिल किराना गली, मोरछली, चैक, होशगाबाद मध्यप्रदेश
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