01 नाथ पच्चीसी (25दोहे) नाथ न ऐसे नरन से,रखहु प्रति अरु द्वेष। भीतर मन बैरी भया, बाहर साधू भेष।। नाथ न मन से जो कहे, उसकी सुधि ना लेह। ...
01
नाथ पच्चीसी (25दोहे)
नाथ न ऐसे नरन से,रखहु प्रति अरु द्वेष।
भीतर मन बैरी भया, बाहर साधू भेष।।
नाथ न मन से जो कहे, उसकी सुधि ना लेह।
उसकी कथनी करनी में,अंतर बड़ो बिदेह।।
नाथ नचावे जो जनु, खाली करिके बात।
उ जन पहिले पांव परि, पाछे मारी लात।।
शून्य विराजै एक ह्वै, तीन जीव संसार ।
एक पाइ जो जीव ह्वै, उसका बेड़ापार ।।
पुरुषारथ तो चारि है, फल भी मिलहि चारि।
पाँच ज्ञानकर्मेंद्रिया, चारि शत्रु देइ मारि।।
जीव नरक के द्वार से , खुद को रखियो दूर।
अंह न करियो तू कभी , अंह करे है चूर।।
नाथ नेह नद में नहीं, कोई घुलता घात।
नेह में जुजन छल करै,ऊ पाछे पछितात।।
नाथ सकल संसार में, करम ही आपन होत।
बाकी सब माया बसे, हर दम करत है चोट।।
नाथ प्रीति की रीति में, एक पे है विश्वास।
उसकी सत्ता ही चले, वोही जग का खास।।
परमपिता परमेश्वर , पाक प्रेम की खान।
स्वार्थसिद्धि जगप्रेम है,झूठा नाथ जहान।।
मय मयकश मयखाने,तीनो मिलि इक होत।
ब्रह्म जीव माया मिली, नाथ शून्य तब होत।।
तन धन ढूढंत फिरै, ढूढंत मन है मीत।
नाथमीत जो मिलत है,जीवा गावै गीत।।
सकल मनोरथ पाइके, प्रभु को जहियों भूलि।
याद करहिं तब प्रभु को,जब लागहि हाथे धूलि।।
अंतरमन में छलबसे, बाकी प्रेमापार।
ऐसे कैसे जीव तू , होवे भव के पार।।
अहं द्वेष अभिमान को,करो प्रभू तुम दूर ।
अपने अहं के सम्मुख, बरबस हूँ मजबूर।।
मन अभिमानी होत है, बस चलता ना मोर।
मन से मैं कमजोर हूँ , प्रभु तेरो अब जोर।।
स्वारथ मन में है छुपा, दीन हीन मैं नाथ।
तुम्ही भरोसो हो मेरो, सिर पर राखो हाथ।।
माया मुझमें मय भरे, मोह भरे उत्पात ।
लालच तृष्णा साथ है, मैं मानव कै जात।।
नाव है मंझधार में , को है पार लगाय।
उत्तर इसका एक ही, गुरु चरनन झुक जाय।।
गुरु कृपा जब होत है , प्रभु कृपा मिली जात।
जो गुरु मन से रूठता, तो मन है पछितात।।
मुहब्बता तुम ना करो, जग से रहियो दूर ।
इश्क का हर एक लम्हा,कर देता मजबूर ।।
पीर हृदय कि पीर है, मत रहियो अंजान ।
सारे कारज होइहें , इश्क नहीं आसान ।।
हर लमहा आसान है, जीता है इंसान।
इश्क का लम्हा वो घड़ि, पल पल निकले जान ।।
दिल की अभिलाषा रही, इश्क मुझे मिल जाए।
पहिले तड़पे इश्क कुफिर् , इश्क उसे तड़पाए ।।
रहो इश्क से दूर तो , मन दुनिया घबराय ।
नयन निरेखे मीत को, चैन हृदय को आय।।
02
गजल
हृदय में सागर की गहराई रखना
लबों पे शब्दों की बेहयाई रखना
सुनो इश्क़ करना शौक से मगर
अंजाम में बस जुदाई रखना
जुदा होना गुनाह नहीं है
गुनाह है संजो के तनहाई रखना
वह भूखा है आखिर मर जाएगा
तुम याद खुदा की खुदाई रखना
उठो 'नाथ' फिर मोहब्बत करो
अंधेरे के लिए बस रोशनाई रखना
03
सबसे सवाल यह है पर सब मौन हैं
कि अगर मैं सफ़र पर हूं तो मेरा कौन है
कौन चाहता है इश्क में राधा बनना
आजकल इश्क में मिलने का दौर है
अब मोहब्बत में मीरा मिलने से रही
बनता उनका हर दिन कान्हा कोई और है
निकलते हैं आजकल हर बात के मायने
खुदा खुद बताए आखिर वह कौन है
04
मिट्टी को मिट्टी का हिसाब दो
मिट्टी पूछती है जवाब दो
आखिर रंगना है इक दिन मिट्टी के रंग
तो अपनी रातों को मिट्टी का ख्वाब दो
सोचो कहां तक का है सफर तुम्हारा
अपनी आंखों की चमक में आब दो
उन्होंने छोड़ दिया तो रोते क्यों हो
हृदय को इश्क का आफताब दो
'नाथ' छोड़ो चलो अब इस संसार को
रंग मिट्टी को अपने लाज़वाब दो
05
वो नया रिश्ता बनाने में, पुराना भूल गये
साथ जो पल बिता ,वो जमाना भूल गये
जब छोड़ दिया था इस जमाने ने उनको
मैंने गले लगाया वो गले लगाना भूल गए
कहते तुम्हें देखकर चैन मिलता दिल को
अब वो मुझे देख कर मुस्कुराना भूल गए
06
देखो कली को ,वो शर्मिंदा कर गई
कांटों के बीच में, खुद को जिंदा कर गई
कांटों के बीच रहकर,खुद को बदल लिया
कांटों को पीछे छोड़ा ,आगे निकल लिया
अपने दर्द ऐ जिगर को वो परिंदा कर गई
कांटों के बीच में, खुद को जिंदा कर गई
उसने बताया कि गर , फ़िजा खिलाफ हो
तुम कर्म अपने करना ,जहां खिलाफ़ हो
खुद नाथ के चरणों का बाशिंदा कर गई
कांटों के बीच में, खुद को जिंदा कर गई
07
नदी पहाड़ आसमाँ , सागर में उतर गए
बातें करते रहे, कभी बातों से मुकर गए
अपना साया देख के गर्वित हुए हर्षित हुए
साये में कमियां देखि मुंह फेर के निकल गए
08
रावण
हर साल सत्य को जिताया जा रहा
हर साल रावण को जलाया जा रहा
ऐ कैसे उधेड़बुन में मैं फंस गया कि
कहां से हर साल रावण को लाया जा रहा
कुछ रिश्ते रावण बना देते हैं दुनिया वालों
जरा सोचो कहां से रावण बनाया जा रहा
मां बाप को बेटे का हारना अब स्वीकार नहीं
इसलिए उसे सोने का लंका दिखाया जा रहा
राम बन इस दुनिया में कोई जी नहीं सकता
नाथ तभी तो औलादों में रावण जगाया जा रहा
09
मिलेंगे जग में राम बहुत ,
पर रावण नामी नहीं मिलेंगे
राम कर्म नहीं करने वाले ,
रावण कामी बहुत मिलेंगे
नाम नहीं बस रखते रावण ,
पर उसके ही कर्म हैं करते
राम नाम का लिया सहारा,
पर उनके सा कर्म ना करते
नाम से कुछ ना होने वाला,
गुण को भी अपनाओ प्यारे
पुतला तुमने बहुत है फूंका,
रावण मन को जलाओ प्यारे
10
गज़ल
कितना नजदीक था वो , जो दूर हो गया
मेरे इश्क से ही वो , जो मशहूर हो गया
वो हूकुमत जो पैरों पर गिरा करता था
आज कैसे इतना मगरूर हो गया
कल वह किसान जो आंखों का ख्वाब था
सुना है आज बेबस मजबूर हो गया
कल जिनकी गिनती, होती थी चोरों में
वज़ीर बना है , इतना शऊर हो गया !
11
जब तुमने पहली बार मुझे चूमा था
मेरा हृदय भी खुशियों से झूमा था
फिर कसके समेटा था तुमने बाहों में
खोने लगे थे हम मौसम की आहों में
हाथ बदन पर शरारत करने लगे थे
हम एक दूजे के लिए मचलने लगे थे
वो काम का भाव वक्त का मजबूरी था
पर हम अलग हुए यह फैसला ज़रूरी था
12
हमने माना कि मोहब्बत में जुदाई है
पर यही तो मोहब्बत की सच्ची खुदाई है
पास रह के कसमें तो निभा ही लेते हैं
जुदा हो के कसमें किसने निभाई हैं
बस इतनी सी बात से परेशान हो गए
कहते फिरते हो मोहब्बत में मिली बेवफाई है
मोहब्बत में कृष्ण उसको मिला करते हैं
जिसने राधा बनने की कसमें खाई है
13
भोजपुरी
दुअरे चारिगो समाजसेविन क जमाव नाहि होत
भईया हो अगर गंऊआ में चुनाव नाहि होत
हम जानत हईं एक घर से कई घर हो जाला
सब एक रहत त कब्बो घरमा बिखराव नाहि होत
इ भूख पागल क देहलसि ह ओह बेचारे के
पेट ना रहत त ओकर दुश्मन से लगाव नाहि होत
हम किसान कइसे बचतीं जा मऊसम के मारि से
अगर दुअरे नाथ निमियां के छावं नाहि होत
14
लब पे राम का नाम सजालो
ना तुम मन का मैल निकालो
सच के नाम तमाशा होता
झूठों को ना निराशा होता
मैंने देखा है कि झूठे,
पुतले यहाँ जला करते हैं
बिना हृदय में राम बसाये, रावण नहीं मरा करते हैं
लोगों से अभिमान ना छूटे
मोह की डोरी कभी ना टूटे
लालच तृष्णा अरु बेईमानी
ज्ञानी क्यों करते नादानी
पैसा हाथ का मैल जान के
फिर भी हाथमला करते हैं
बिना हृदय में राम बसाये, रावण नहीं मरा करते हैं
स्वार्थसिद्धि में हाथ हिलाते
हृदय -हृदय से नहीं मिलाते
छिपा हुआ है असली चेहरा
मानव मन घाती जो ठहरा
जो खुद को अपना कहते हैं
अक्सर वही छला करते हैं
बिना हृदय में राम बसाये, रावण नहीं मरा करते हैं
15
सुनो सुनाते लोकतंत्र की कहानी
कोई ना होता ,इसमें राजा - रानी
झुण्ड के द्वारा शीर्ष चुना जाता है
लोकतंत्र भी कभी ठगा जाता है
झुण्ड में होते सभी तरह के ज्ञानी
अपने मन की करते हैं मनमानी
जनता को ये हुक्म दिया जाता है
जन का इसमें कहाँ सुना जाता है
सभा कहे जो वही , तुम्हें सुनना है
जातिधर्म ओ क्षेत्र को ही चुनना है
इससे बाहर यदि कोई जायेगा
कान खोल के सुनो वो पछतायेगा
अपने धर्म का , नेता ही अच्छा है
धर्म का चश्मा धर्म का ही कच्छा है
खतरे में है धर्म हमारा सुन लो
कट्टर है नेता मेरा तुम चुन लो
राजनीति की बनी अभी परिभाषा
कौआ भी बोले कोयल की भाषा
दिन चुनाव के जब भी आ जाते हैं
बगुले भी हंस चाल दिख लाते हैं
नाथ गोरखपुरी
COMMENTS