1.कविता-“सचेत रहना भारत!” अब समय आ गया, मेरे भारत देश। तुम सचेत हो जाना, जो हैं शत्रु देश॥ कितनी बार पड़ोसी दे...
1.कविता-“सचेत रहना भारत!”
अब समय आ गया, मेरे भारत देश।
तुम सचेत हो जाना, जो हैं शत्रु देश॥
कितनी बार पड़ोसी देशों ने,
अपनी सीमाओं पर किया है प्रहार।
दंगे-फसाद और हुड़दंग मचाके,
हम भारतवासियों को किया परेशान॥
अब सचेत हो जाना।
दुश्मन को मात दे जाना॥
यही है मंत्र अपना।
जो सदियों से पुराना॥
मेरे भारत देश! तू जिन्दा है सदियों से।
विश्व-वन्दनीय और पूज्य गुरू हैं॥
किन्तु पता नहीं इन शैतानों को,
कि- यह पाश्विक आचरण है।
क्योंकि आज तक कभी,
बन्दर ने अदरक का स्वाद जाना है॥
नहीं-नहीं, अब नहीं बख्शेंगे।
आज तक का नियम टूट चुका है॥
हम निभा रहे थे, अपना व्रत अब तक।
किन्तु अब इसके, नहीं है काबिल॥
कौन ऐसा दया-दानी, जो करेगा माफ?
भारत ही तो है, तपस्वी और दयावान॥
सकल विश्व में अकेले भारत ने फहराया।
युगों से अपना परचम बहुत ही प्यारा॥
तुम यूँ ना समझना, यह तुम्हारी भूल होगी।
कि- भारत अब भी क्षमा, कर देगा पापियों को भी॥
भारत देश की ताकत और देवताओं का वरदान।
शास्त्र-पुराण के साथ हैं लेशबद्ध कई सारे हथियार॥
जिधर देखेंगे हम, उधर मच जायेगी त्राहि-त्राहि।
हो जायेगी उथल-पुथल और महाप्रलय की आँधी॥
अब सचेत हैं हम, गलती ना करना तुम।
भारत माँ के वचन, निभाने का किया है प्रण॥
सावधानी रखोगे तो सही, वरना मारे जाओगे सभी।
समय रहते सावधान हो जाओ, नहीं तो विनाश है अभी॥
- रतन लाल जाट
2.कविता-“क्षत्राणी”
वो हिन्दुस्तानी नारियाँ,
घर की चाहरदीवारी लाँघकर।
मातृभूमि की रक्षा के लिए,
अपने प्राणों का बलिदान कर॥
देशप्रेम की आग जलाये रखी थी।
लज्जा का आँचल त्याग,
जोश की हुँकारें भरी थी।
वो रानी लक्ष्मीबाई थी,
जो पीठ पर बाँध अपने लाल को।
होकर घोड़े पर सवार,
कूद पड़ी थी क्रान्ति में जो॥
लड़ी थी जोर-शोर से,
अंग्रेजों के सामने।
नहीं रूकी थी तलवार,
जब तक प्राण शेष थे॥
वो रानी दुर्गावती
और पतिव्रता कर्णावती।
जिन्होंने शीश दुश्मन के काट
मातृभूमि के खातिर जोत जगायी॥
उन्होंने तानें मार-मार, हुँकारें भरते हुए।
साहस भरा था हिम्मत हार चुके स्वामी में॥
वो हाड़ी रानी थी जिसने,
रूप-सौन्दर्य पर मोहित पति को।
प्रस्तुत कर दिया शीश अपना
काटकर भेज दिया रण में उसको॥
वो पन्नाधाय थी,
जिसने कुँवर की रक्षा में।
खुद अपने बेटे की,
कुर्बानी जो दी है॥
उसने बचाया था मेवाड़ का तिलक।
जो सबके लिए था बहुत मुश्किल॥
ऐसी वीरांगनाओं ने किया,
रणभूमि में अमर नाम अपना।
परिचय दिया साहस और बहादूरी का॥
वो थी वीर क्षत्राणियाँ,
जिनको प्राणों से ज्यादा आजादी प्यारी।
अपनी मातृभूमि के लिए,
अपने सर्वस्व की दे दी कुर्बानी॥
एक क्षत्राणी ने सैकड़ों दुश्मनों को।
मार भगाया था इस वतन से दूर कोसों॥
जय हो मेवाड़ धरा की,
जो यहाँ जन्म पायी हजारों क्षत्राणियाँ।
उन्हें अपना शत्-शत् नमन,
एकबार पुनः जन्म लें दुबारा॥
- रतन लाल जाट
3.कविता-“शहीदों को नमन”
आज वो दिन आया है कि-
हम भारत माँ के गीत गायें।
उन हजारों शहीदों को हमारा,
भीगे नयनों से नमन हैं॥
नेताजी सुभाष को हमारा सलाम।
नौकरी छोड़ अंग्रेजों की,
किया आजादी का पाठ॥
क्रान्ति की बुझती मशाल को,
एकबार फिर से जलाया।
रूके आजादी के रथ को,
हिम्मत करके आगे बढ़ाया॥
पता नहीं कि- एकदिन वो हो गये गुम।
भारत माँ के आँचल में तन-मन अर्पण॥
आजाद अपना वादा था।
भगतसिंह एक विश्वास था॥
दुःखों के सागर रामप्रसाद बिस्मिल थे।
जलती एक मशाल थे साथी उनके॥
जिसको बाद में रखा जलाये।
गाँधी-नेहरू और पटेल ने॥
हर शहीद था अपने आप में अंगार।
साहस, संघर्ष और त्याग भरा काम॥
जो कुछ भी था अपने पास।
हँसते हुए सब कर दिया दान॥
आज दिन है मेरे वीर-शहीदों का।
निडर होके पहना फाँसी का फंदा॥
भारत माँ का आँचल,
आज लगता है सुना उनके बिन।
एक विपदा से आजाद हुए,
तो दूसरी आ खड़ी है फिर॥
आओ, एकबार इस देश की रक्षा में
तन-मन से हम मिलके कुर्बानी दें।
आज जो पर्व हैं, हमको उस पर गर्व है।
हजारों वीरों को, शत्-शत् नमन हैं॥
- रतन लाल जाट
4.कविता-“अब यही करना बाकी है"
एक भी ना चली अपनी,
अब तक मिलती रही नाकामी।
हार मानने का विचार आया,
लेकिन वो किसे स्वीकार्य था॥
हार मान लेने पर,
बेरंग हो जायेगा जीवन।
खोजना होगा हमें कारण,
और बढ़ाने होंगे कदम।।
बाधा मुख्य नहीं,
मुख्य है निवारण उसका।
तभी छू सकेंगे,
शिखर हम सफलता॥
जैसे सामना किया जाता है,
बिना किसी भय के।
दुश्मन का सिर कत्ल किया जाता है,
खुल्लेआम खड़्ग उठाके॥
अब यही करना बाकी है॥
जो भी हो रहा, वो सब अच्छा है।
उसी को मान बैठना, तो एक लाचारी है॥
लेकिन यह तय है,
कि- मोती आसानी से नहीं मिलते।
इसके लिए तो गहराई में,
गोते लगाये है जाते॥
हिम्मत हार जाना,
पाप कर्म कहलाता है।
जो हासिल हम खुद करे,
वो पुण्य काम कहलाता है॥
अब यही करना बाकी है॥
डरना नहीं शोभा देता, डर तो कायरता है।
भले ही क्यों न हो मुकाबला मौत से।।
कभी ईंट का जवाब देना।
पत्थर से आवश्यक हो जाता॥
तब ही नया युग आता।
इतिहास उज्ज्वल चमकाता।।
अब यही करना बाकी है॥
- रतन लाल जाट
5.कविता-“धरती माँ का कर्ज"
आज दिन तक कोई ना ऐसा हुआ है।
जो धरती माँ का कर्ज चुका पाया है॥
बताओ तुम? ऐसा कोई काम नहीं है।
जिसके साक्षी रवि-चन्द्र नहीं रहे हैं॥
हर देह में सबकुछ इससे ही बना है।
हर रग में अंश इसी का खून बहता है॥
तो फिर ऐसी दौलत कोई दौलत है?
जिससे कर्ज यह कोई चुका सकता है॥
अरे! सबकुछ यहीं से पाया है।
फिर हम कैसे स्वामी मान बैठे हैं?
कई सारे जन्म लेकर भी।
हम सदा रहेंगे इसके ऋणी॥
अपने पूर्वजों के पूर्वज।
जिन पर भी शेष रहा ऋण॥
सोचो, फिर हम क्या चुका पायेंगे?
कर्ज इसका इस जीवन भर में।।
जब देह पूरी धरती के अवयव से बनी।
वह एकदिन मिल इसी में जायेगी॥
तब भी कर्ज कुछ बाकी रहेगा।
इसके लिए फिर जन्म नया है लेना॥
और यदि हम जैसे ब्याज जोड़े।
तो यह ऋण कभी नहीं चुक पाये॥
हम इसके ब्याज पर ही,
जीते और मरते।
दास्ता में बंधकर ही,
बार-बार आते-जाते॥
यह अटूट बंधन और शाश्वत चक्र है।
जिसके निमित्त हम सब बने हैं।।
धरती माँ की पावनता
स्वर्ग से भी निराली है।
जिसके ऋणी मानव ही क्या?
देवतागण सदा रहेंगे।।
आओ, इसे शत्-शत् नमन करें।
और पाई-पाई कर कुछ तो लौटायें॥
तब यह धरती माँ हमको,
और कई उपहार देगी।
इसीलिए कुछ करते जाओ,
जब तक है अपनी जिंदगी॥
- रतन लाल जाट
6.कविता-“सँवरती जिन्दगी”
फूल-सी नन्ही कली थी,
जब पाँच बसंत गुजरे थे।
ज्यों-ज्यों आया मधुमास,
वल्लरी भर गयी यौवन से॥
दूर-दूर तक फैली थी सौरभ इसकी।
महक पाकर मंडराने लगे भँवरे भीनी-भीनी॥
निमंत्रण मिला था उस वक्त।
मंडराने लगा सारा भ्रमर-दल॥
उस सँवरती जिन्दगी को,
बुरी नजर ना लग जाये।
कभी यह हरी-भरी बेल,
मुरझा नहीं जाये।।
मौन इशारा था एकांत,
फैल गयी चारों ओर खबर।
पास आकर देखा था,
फूल-कली को जब॥
होंठों से मधुमय-रस टपक रहा था।
आस्वादन करने के लिए मीठा।।
इस तरह सँवरती जिन्दगी,
प्यारी मालूम होती थी।
जो शायद सबसे अलग थी,
एक-दूजे में खोयी हुई॥
ऐसा मिलन था।
दिल से दिल का॥
फिर भी मूर्ख?
नहीं समझता।
महत्त्व फूल का,
पागल भँवरा॥
इस सँवरती जिन्दगी को,
दीर्घायु प्राप्त हो।
सदा चाहना,
इस बसंत को॥
- रतन लाल जाट
7.कविता-“मनमोहक दृश्य"
नीले अम्बर का आँगन था।
जहाँ दिनकर का उजाला॥
इस विस्तृत लोक में आज प्यारा।
मेघों के बीच एक छोटा-सा घर बना था॥
तीक्ष्ण आलोक के बीच,
अंधकार-सा है यह।
नीरवता के परिवेश में कंपित,
घोर- गर्जनापूर्ण है यह॥
कालिमा के बीच श्वेत पावस-धार।
इस उमस को ठण्डी करने पहुँची आज॥
सहमा-सा है हरकोई इसके बीच में।
जो इस लगी झड़ी में भीगे-भीगे हैं॥
सूखा है फिर भी आ गया।
सकल समुद्र का नीर यहाँ॥
यहाँ-वहाँ की जमीन है बनी ।
कहीं तट और अथाह तल कहीं॥
जहाँ तालाब, नदी और सागर
सब एक-समान लगते हैं।
यह इन्द्रजाल भू पर
एक गजब का खेल हैं॥
हरकहीं से कर रहा है कोई
गर्जना भरी पुकार।
चपला के बीच उसकी चमक
इस घर को करती है जगमग॥
कौन लाता है इतना पानी?
कैसे भरे हैं इसको बिना पेन्दे के पात्र में?
यह एक पावन शक्ति,
जो अगणित भद्रजनों की भक्ति है॥
- रतन लाल जाट
8.कविता-"स्वर्ग का स्वर्ग"
देखा है स्वर्ग आपने कभी कहीं क्या?
सुना है बहुत लेकिन पाया है कहाँ?
जहाँ रहता है दिनकर-शशि।
वहाँ धरती-आसमां के बीच बसी॥
सितारों की जगमग,
नद-दल की कल-कल।
पायस घटा की झर-झर,
बहती है स्नेह, प्यार और प्रेम धार॥
लेते हैं नव-अवतार यहाँ से।
रहते हैं सुख-दुःख के चक्र में॥
विलिन हो जाते हैं अन्त समय में।
बताओ? और भी स्वर्ग देखा कहीं आपने॥
बनते हैं बन्धु-सखा, रहते हैं साथ सदा।
बाद में क्या? देखा है आपने किसी को वहाँ॥
आते हैं स्वर्ग से यहाँ, खोजते हो क्यों तुम वहाँ?
आश्रय-स्थल है सबकी यह अवनि।
अजर-अमर, स्थिर-परिवर्तित है गति॥
वेश है हरित रंग का,
खेत में खड़ी फसल-सा।
नाच है लहराना इनका,
गान है पवन का चलना।
विभूति है मरू-भूमि की,
मणिकांचन है रण-धरा की।
रत्नाभूषणों की खान है यहाँ,
भोग-विलास की दुकान है यहाँ॥
गागर है ढ़ुलकते प्रेम की,
उर है ममता का परमनिधि।
संग है आपसी सहयोग-प्रीति,
भजन है मंगल-मोक्ष प्राप्ति॥
बैर-शत्रुता, घृणा-ईर्ष्या-द्वेष।
कलंकित मलिन-सा है वेश॥
भूल जाओ तुम इनको,
हाँ, स्वर्ग का निर्माण करो॥
यही है माँ जयती-भारती,
जहाँ है स्वर्ग की निशानी।
वहाँ है दया-दान और मान-सम्मान।
बँधी है मानव-कल्याण के पाश॥
ढ़हा रहे हो यह स्वर्ण-स्वर्ग।
खोज करोगे वह पतित-नरक॥
किसने किसको कहाँ देखा है?
लौट करके फिर उसको पुकारा है॥
इस नरकीय-जीवन पथ को,
परम स्वर्गीय मंडित कर दो।
जीवित हो तब तक मौज करो।
फिर यही स्वर्ग में लीन हो जाओ॥
- रतन लाल जाट
9.कविता-“श्याम प्रियजन"
रूप सौन्दर्य के परमनिधि हो तुम,
विधाता के दो वर्णों में से एक प्राप्त।
मत दिखाना कभी बड़पन रूप पर,
श्याम-नील-सा है जिनका तन॥
इन श्वेत जनों को कह दो शीघ्र।
कितना आकर्षण हैं तीव्र?
घनश्याम प्रिय रंग से हो अनजान।
यह रूप-सौन्दर्य का है एक निशान॥
इसकी उज्ज्वलता का होगा आभास।
जब शिखर पर हो मार्तण्ड का प्रहार॥
उस समय खुले अम्बर के नीचे।
रजनी की गोद छोड़ रहना खड़े॥
फिर होगी अग्नि-परीक्षा तुम्हारी।
कच्चा दिल मलिन हो जायेगा तभी॥
उसी क्षण चमक की दीप्ति बढ़ायेगी।
स्वर्णिम किरण से उभरे स्वेद की लड़ी॥
बाहर का थोथा-उथला रूप।
जो रिझाता है तुमको खूब॥
लेकिन ना है मालूम किसी को।
कब मिले अन्तर्मन उनके वो?
जरा रूप-सौन्दर्य के गढ़।
उनसे ना लेना कभी टक्कर॥
उनमें सागर जितना है प्यार भरा।
और सरगम अपने प्रिय की श्वाँसों का॥
उनको तुम देखते हो घृणा से।
तो फिर वो घृणित ही होंगे?
लेकिन घन-श्याम रखते हैं श्रद्धा तुम पर।
जो पूजित है कितने ही जनों में आज तक॥
उस श्याम-सरीखे रूप पर।
कोई ना कोई तो जीवित है मगर॥
तुमसे कम नहीं है त्याग-समर्पण।
साथ ही उनकी दुःख-पीड़ा का गम॥
तुम क्या जानते हो?
साथ कब तक निभाया जाता है॥
यह सीखो उनसे,
जो विरह-अग्नि में।
दिन-रात पल-पल जलते हैं॥
यह सात जन्मों तक संग रहकर भी।
नहीं होना चाहेंगे एक-दूसरे से जुदा कभी॥
ऐसे श्याम-प्रियजनों में,
अपनत्व भरा प्रेम-प्रवाहित है॥
- रतन लाल जाट
10.कविता-“शिव-पुकार"
फागुन का बीता एक पक्ष।
मनायी शिव-रात्रि सहर्ष॥
बीत चली है वो आज।
अंतिम शीत की रात॥
कल से चलेगी हवायें,
जोर-शोर से गरमाके।
शिखर पर ऋतुराज है,
कर ले अपनी पूर्ण साज ये॥
जल्दी थी तरूवर को,
त्यागे इन पुराने पत्तों को।
इनको दो नव-दूत पवन के हाथों,
ताकि फिर नवल परिधान धर सको॥
कर तैयारी जोर-शोर से रवि।
तू बरसा विषम तेज अग्नि॥
चल तू बस कर जल्दी।
बन्द कर अपना राज अभी॥
ए लहलहाते खेतों,
अब तुम्हारी हरी को हरि कर।
दूर-दूर तक हुई शुष्क भूमि,
आ रही है पुकार शिव प्रलय नृत्य॥
छोड़ दो शीतलता,
इस जाड़े की निशा।
रखो दाम्पत्य-प्रेम,
शिव-पार्वती-सा॥
चाहे जलें, बरसें, काँपें।
सकल लोक का कल्याण करें॥
अपनों-परायों को भूल जायें।
फिर शिव-भार को याद करें॥
जब पाओगे सिद्धि तुम,
तुम बीच बहेगी गंग।
बस, यहाँ ही नहीं बहती धार।
तीनों लोक में करती है उपकार॥
विनाश करो इन पापों का,
संहार करो नर-राक्षषों का।
पुण्य-पथ का प्रकाश,
यहाँ आलोकित करो आज॥
- रतन लाल जाट
11.कविता-“प्यारी दुनिया"
यह दुनिया सच्ची है।
जिसे दुनिया ही झूठा कहती है॥
खुद झूठे हैं, तो सच्चा कौन होगा?
वह है जैसा, सब लगता है वैसा॥
अच्छी है यह दुनिया।
विदा होने वालों ने कहा॥
मगर जो जी रहे हैं यहाँ।
उनको लगती है बुरी दुनिया॥
इसे स्वर्ग कहा जाता है।
जबकि इसके वासी नरक में हैं॥
इसका शाश्वत विधान है।
जो सदा ही एक समान है॥
जिनका जीवन क्षणभंगुर है।
वो नाश के कगार खड़े हैं॥
इन सबकी है जड़।
धरा की सतह के अन्दर॥
इस वट की टहनियाँ है।
अपना सारा संसार ये॥
कहते हैं यह काम,
अगले जन्म में करेंगे।
क्यों करते हो उसका इन्तजार?
क्या पता? आप फिर जन्म पायेंगे॥
सब कर्मों की पवित्र-स्थली,
यही धरती माँ का है आँचल।
जिसके कर्मों की पूजा में ही,
चाँद-सूरज हैं पहरेदार॥
यह प्यारी दुनिया,
ब्रह्माण्ड की एक बाला है।
जिसकी महिमा से टक्कर
नौ नक्षत्र भी नहीं कर पाते हैं॥
अब बोल के तुम सुनाओ।
तब जानूँ मैं सच्चा उसको॥
कितना प्यारा-प्यारा?
यह लोक है हमारा॥
- रतन लाल जाट
12.कविता-“वो बसंत था"
वो बसंत था,
जो अब बीत चुका।
जिसके थोड़े-से पल,
सदियों तक याद छोड़ गये हैं।
वो दिन स्वर्ग से भी बढ़कर,
बड़े ही मधुर रसमय थे॥
लेकिन अब यहाँ पतझड़ और ग्रीष्म
इन दोनों का ही हैं मौसम
क्यों रोयें हम?
बीती-गुजरी कहानी यह॥
हम मानव हैं, पुनः कर्म के बल पर।
नये इतिहास को रचें, सत्य के पथ पर॥
इसीलिए अब, आगे की सोचेंगे हम।
चाहे आँसुओं की नदियाँ बहा दें।
दुःख-पीड़ा के सागर उमड़ जायें॥
लेकिन लौट नहीं सकता है,
कभी वो बसंत।
तो क्या फिर हम बुला पायेंगे,
भंवरे को कलियों के संग॥
साथ ही कोयल की मीठी कूक
और भंवरे की वह गूँज
आगे अब यह गर्म-ज्वाला
परख सकती है हमको।
अपने को इसके योग्य बना
फिर उत्साह से सामना करो॥
दुःखी होने पर सुखों का वैभव भी
अच्छा नहीं लगता।
तो फिर दुःखी होने की बात क्या?
ठोकर खाकर भी पुनः एकबार तुम
पर्वत से लो टक्कर करो हिम्मत।
यदि ऐसा ना हो सका,
तो गिरते ही तुम जाओगे मर॥
मानव हो तुम!
कभी पशु-तुल्य भाव ना आये।
अपने बुद्धि-कौशल से,
रजनी के तम बीच चाँद उगायें॥
इसी कर्मठता के सामने,
एकदिन पुनः आयेगा वो बसंत।
या यूँ कहें कि-
उससे भी लाख गुना बेहत्तर॥
चाहे आज ही सृष्टि-प्रलय हो।
फिर भी पथ पर अटल रहो॥
अपने मनुज होने की निशानी को।
कभी फिक्का ना पड़ जाने दो॥
तुम धरा की धार हो।
सारे दुःख भेद डालो॥
सुखों की चाँदनी निशा में भी,
घोर कालिमा का भय मत भूलो।
और दुःख के काँटे चूभे,
तो फूलों की कोमलता याद करो॥
- रतन लाल जाट
13.कविता-“आगे ही देखें"
पीछे कितने कंटक थे?
या सुमन बिछी गलियाँ हैं।
छुट गये हैं वे सब,
जो अतीत बन रह गये हैं अब।
क्यों मुड़-मुड़कर देखें हम?
छोड़कर इन्हें आगे बढ़ाये कदम॥
कितने ही मिलेंगे? फिर जुदा हो जायेंगे।
हमें क्या लेना-देना था? सबकुछ राह में एक रोड़ा था।
किसी ने वहीं रोकना चाहा।
बढ़ती मंजिल से नीचे धकेला॥
मोह ने बाँध दिया हमको,
अनिश्चित राह को ही मंजिल मान लिया।
जल उठे थे क्रोध से हम,
आगे छा गया है घना अंधेरा॥
तोड़ दो इनसे रिश्ता-नाता,
सचेत हो चलें अकेला।
पीछे मत देखना,
नहीं है कुछ भी नया॥
आगे ही होंगे, अमरता के निशाने।
हम चलें अब कर्मठता के सहारे॥
कहीं मिलेगा हमको साथ,
कहीं झेलेंगे अकेले ही आघात।
मिलेगा उसी को हमराही का दर्जा।
जो बढ़ायेगा कदम सीना तानके अपना॥
ऊँची होगी निगाहें, जज्बा होगा दिल में।
वो ही पार जायेंगे मंजिल के,
जो आगे ही मंजिल को देखेंगे॥
नहीं तो रह जायेंगे, वहीं पर खड़े।
जहाँ काँटे हैं और वो भरे आह अकेले॥
कहाँ जाऊँ? कहाँ रूकूँ?
नहीं बचा है पीछे कोई अब,
आगे खिसक गया है सबकुछ॥
- रतन लाल जाट
14.कविता-“मृत्यु के बाद"
कहाँ थे इतने दिन पहले?
कुछ दिनों के मेहमान हैं॥
फिर एकदिन पहुँच जायेंगे।
वहीं जहाँ से आये थे॥
यह जीव आता है,
फूर्व-कर्मों का फल भोगने।
कुछ कर्म बन्धन
शिथिल हो जकड़ जाते
और कुछ जकड़न से
थोड़े ढ़ीले भी हो जाते हैं॥
जैसे कोई निकला हो,
अनंत काल की यात्रा पर।
लम्बी दूरी हैं वहाँ, जगह-जगह पर॥
मिलते हैं स्थान उसको।
थोड़ा रूकने-ठहरने के लिए
जैसे कोई धर्मशाला हो॥
यह धर्मशाला न हमारी है
और न ही किसी दूसरे की॥
सभी आते-जाते हैं,
कीट-पतंगे की भाँति॥
वो चलते रहते हैं,
कुछ खाते और पाते भी हैं।
यदि कोई रूक जाये,
तो यह कर्महीनता एक पाप हैं॥
यहाँ पर आना और रूकना।
कुछ करना और चला जाना॥
घुमते पहिये की भाँति
आते हैं बार-बार।
सभी यहाँ पर नये-नये बन॥
पुनः जीर्ण-शीर्ण बन जाते हैं,
वो कुछ कर्म करके।
पुराने वस्त्र त्याग कर।
लौट आता है नवीन बन॥
जैसे उठती हैं समुद्र की लहरें।
या रोज सूर्योदय हो जैसे॥
कितने ही मिलते हैं,
बिछुड़के अनजान से।
बिना परिचय के,
जीवन गुजार देते हैं॥
किन्तु वहाँ पर तो सभी अनजान हैं।
या एक ही जान के छोटे बिखरे टुकड़े॥
मृत्यु मुक्ति नहीं हैं,
कर्म ही सर्वोच्च है।
जिसके ही बल पर,
सबकुछ बदल सकता है॥
राह में भटकना, मंजिल पर पहुँचना।
या धीरे-धीरे सीढ़ियाँ, चढ़ना और उतरना॥
यह विधान है, सबका आदि-अन्त।
मगर आत्मा-परमात्मा हैं इनसे अलग॥
जो निर्णय-कर्त्ता है, जीवन-पथ पर।
वो निस्वार्थ भाव से, अपना फैसला कर॥
उसके कर्म ही जीवात्मा को साथ ले।
निकल जाते हैं राह पर अकेले॥
ना किसी का संग है, ना कोई है जूदा।
सभी है अपने आप में पूरा॥
जब तक आपको,
कर्म-फल मिलना बाकी है।
पुनर्जन्म ले-लेकर,
यात्रा पर भ्रमण करना है॥
आना है, जाना है,
कहीं न आश्रय-स्थल हमारा।
बिरले जन ही है,
जिनको मिलती है मंजिल वहाँ॥
मंजिल पर जाने वाला,
कर्म-फल का भोगी।
जो जीवन-यात्रा का पथिक
और कठिन-पथ का बटोही॥
वही पायेगा मृत्यु के बाद शान्ति।
और उसी का नाम है मुक्ति॥
- रतन लाल जाट
15.कविता-"हरीतमा"
जेठ मास की गर्म-लपेटों की झंकार।
हरण कर लिया वसुधा का श्रृंगार॥
सूख गयी है हरियाली।
दिखायी दे रही है माटी॥
कहीं-कहीं है घास का मृत तिनका बाकी।
इसे भी प्रचण्ड पवन उड़ा जाने की तैयारी॥
आयी है काली-काली घटा।
चा गयी नील-गगन में घनी॥
लग गयी सावन की झड़ी।
प्रकृति पट अपने बदलती॥
दूर-दूर तक नजर आता है केवल।
धरती का हरित रंग-रूप और न कुछ॥
लहराने लगी है फसलें।
बिछ गयी घास-पट्टी चरागाह में॥
कूकने लगी कोयल,
नाचने लगा मयूर।
महक उठा अजब-दृश्य,
संगीत-सा हुआ मधुर॥
आया है मधुमास यहाँ,
भ्रमर-दल का गूँजार यहाँ।
अनमोल फसलों का श्रृंगार यहाँ।
पीत-हरित और रंग है अनेक यहाँ॥
लाल-श्वेत, कोमल-कलियाँ।
बहुरंगों से सज्जित सिन्दुर-सा॥
देखो, मनोरम आनंद-उल्लास का मद।
हैसो, गायन-नृत्य के साधक बन॥
ढ़ोलक-डमरू, पाजेब-घुँघरू की तान।
जैसे हेमंत-शिशिर, शरद्-बसंत की गान॥
प्रभाकर का प्रथम प्रकाश।
अवनि-तल का अरूण आँचल॥
जमी ओस की बुन्दें बर्फ बन।
भानु के भ्रमण का उनको भय॥
धीरे-धीरे टपकने लगी ओस।
गलता है रोदन-स्वर का जोर॥
मन्द है मधुमास का रवि।
उज्ज्वल है चन्द्रमा की छवि॥
लगता है दिन दोपहर में तिमिर-सा।
शोभित है रजनी यहाँ चाँदनी-आभा॥
सुनें, खिलती कलियों की चटकन।
देखें, दोपहर में बाली की लटकन॥
गायें, चेत्र की चलती पवन के संग।
नाचें, रिमझिम बरसती भादों की फूँहार बन॥
- रतन लाल जाट
16.कविता-“नव परिधान"
वाह, आज बदला है मौसम।
आया है बसंत ऋतुराज॥
शिशिर का तुषारापात
और ग्रीष्म का वज्र-प्रहार।
दोनों से अलग है यह
प्रकृति का अनमोल उपहार॥
जो आता है, नवजीवन में।
उत्साह, उमंग और साहस भरा।
जादू-सा बन महकता॥
सुनायी देती है कोयल की मृदुवाणी।
चकोर को मिलन की आशा देती-सी॥
मोर अपने रंग-बिरंगे पँख फैलाकर,
वन-उद्यान में करते हैं नाच।
शुक भी कई दिनों के बाद,
लेते हैं विभिन्न स्वाद॥
जिनमें हैं गेहूँ की बाली
और सरसों की डाली।
या वन-वाटिका में,
मीठे-ताजे फल खाते हैं।
आज यह ऋतुराज बसंत,
सकल सृष्टि में साकार हुआ।
नया और अद्भूत,
प्यार और मोद भरा॥
आसपास फैली हरियाली,
लगती है रंगीन वेशभूषा में।
सजी-सी प्यारी,
जैसे कोई प्रिया है॥
जो लिए सतरंगे,
फूल चुने गुलदस्ते।
अपने कर-कमलों से,
कोमल बाँहों में भरे झूमती है॥
तभी आता है भंवरा मुस्कराके।
बंशी बजाता हुआ होले-होले ॥
वो प्रकृति-परी दिवानी का,
सौरभ के संग गुँजार करता सजना।
दोनों आज आलिंग्न हो,
इजहार करता है चिर-मिलन का॥
ऐसा समां देखकर,
प्रफ्फुलित हो उठा मेरा मन।
आओ-आओ ऋतुराज बसंत,
नव-सन्देश लेकर॥
मेरे एकांत नीरस जीवन में।
छा जाओ प्रकृति-प्रेम हो जैसे॥
- रतन लाल जाट
17.कविता-"ऐसे मौसम में"
आकाश में मंडराते बादल काले-काले
चारों ओर गूंजते और उमड़ते-घुमड़ते
नदी-तालाब घर-गली सब पानी से भरे
आती मनभावन हवा सौंधी मिट्टी से
ऐसे मौसम में किताबें नई-नई बस्ते भरे
घर-परिवार खेतों में फसल नई उगाते
मौसम एक नया और नया उत्साह है
खेल हजार और अनगिनत सपने हैं
हरियाली से हरे-भरे कोमल मन उनके
बरसात में धूले तन बहुत ही प्यारे लगे
कोरे कागज पे बूंद लगते आखर उभरे
अभी उगे पौधे नई पौशाक पहने हुए
ऐसे मौसम में जन्नत के नज़ारे थे
जहाँ हम पढ़ने-गुनने घर से निकले
और देखो आज पता नहीं ऋतू कौनसी है
क्या पाना और कहाँ जाना तय नहीं है
- रतन लाल जाट
18.कविता-“जगमग रोशनी”
पहले हमारी जिन्दगी में, जगमग रोशनी थी।
सितारे चमकते थे, जैसे दीपक हो कई॥
थोड़े ही दिनों के बाद,
आया कोई जन्मों का बैरी।
सारे दीप बुझकर हो गये राख,
मगर एक दीपक मंजिल दिखाये था हरघड़ी॥
अब उठा है दुश्मन मेरा हवा का बवंडर बनके।
जो शायद बुझा देगा उस दीये को क्षणभर में॥
और मैं अंधेरे में कहीं गुम हो जाऊँगा।
कहीं भी नया चाँद क्यों नजर नहीं आता?
बस, सोचकर यही सबकुछ।
काँप उठता हूँ झकझोर कर॥
उस रब से दुआ करता कि-
क्या पता चाँद कब निकले?
कम से कम इस दीये को,
सलामत रख बुझने ना दे॥
कभी तो दया कर,
सत्य को इतना ना परख।
इस अग्नि में जलकर,
वो नये रूप में ना जाये ढ़ल॥
- रतन लाल जाट
19.कविता-"कुछ ऐसा"
सपने में ना सोचा
हुआ है कुछ ऐसा
साथ माँगा ना मिला
वो मिला जो ना चाहा
उम्मीदें टूटने लगी तो
नया सवेरा हो आया
अपनों से छुटे तो
औरों से दिल जुड़ा
आँसू के बदले प्यार
अंधकार में पतवार
खुदा को है जो मंजूर
वो ही बनता मुकद्दर
आज नहीं तो कल होगा
कुछ तो परिणाम भी निकलेगा
- रतन लाल जाट
20.कविता-"कितना अजब"
खुशी उसकी हँसाती है हमको
गम उसका रूलाता है हमको
जीने से जीते है
मरने से मरना है
जड़ सूख गई है
तो फूल मुरझाना है
बात मालुम है यह सबको
दीपक पतंग से दूर ना जाता
चाँद से चातक रूठ ना जाता
सूरज से अलग किरण है क्या
परमात्मा से दूर आत्मा है कहाँ
हर कोई कहता है हर एक को
फिर भी बादल बिना बरसते
पानी में आग जलती देखते
अँधेरे में आँखें बंदकर चलते
जीत नजदीक देखके भी रूकते
कितना अजब लगता है तुमको
- रतन लाल जाट
21.कविता-"जब तक"
आँखें ढूंढती रहती है जब तक दीदार ना हो
दिल तड़पता रहता है जब तक बात ना हो
यदि हम मिल नहीं पाते तो मिलते है सपनों में
ये नामुमकिन है जब याद तुम्हारी ना आये हमको
प्यार में समर्पण के साथ विश्वास चलता है
दिल का दर्द जानता है सिर्फ दिलदार ही तो
फूलों का खिलना काँटे कब जानते हैं
चाँद का प्यार चकोर ही जानता है क्यों
- रतन लाल जाट
22.कविता-"तेरा बिना रहा ना गया"
जब मैं घबरा गया, तेरा बिना रहा ना गया
तो आया मैं दौड़ा-दौड़ा, तू ही सहारा नजर आया
बाहों में भरा तब ऐसा लगा
जैसे जहाँ सारा ही पा लिया
दर्द-ए-गम हवा हो गये
गुल-ए-दिल खिल उठे
तू बन गयी दवा दिल की
तुझमें ही बस गयी मेरी जिन्दगी
अब ना दूर जाना, करो तुम मुझसे वादा
बातें खत्म होने का, नाम नहीं लेती हैं
और वक्त गुजर जाता, खबर ना होती है
आँखों में आँखें डालकर, हम देखा करते हैं
दिल से दिल का हाल, बतलाया करते हैं
कितना हसीन है पल भर का, देखो ये नजारा
- रतन लाल जाट
23.कविता-"दिल मेरा खाली है क्यूँ"
सारी ही जगह मैं घूम रहा हूँ
फिर भी दिल मेरा खाली है क्यूँ
इतने चेहरे सामने है मेरे
फिर भी लबों पर खामोशी है क्यूँ
बात यह कोई जाने ना
प्यारे दिल तुझको ही पता
लबों की बात सुनकर
लोग बातें करते हैं
आँखों की गहराई पढ़कर
कुछ ना समझ पाते हैं
अपने भी अनजान से
खड़े होकर हमको देखा करते हैं
पर अपनों के दिलों को
वो कभी ना जानते हैं
तो फिर अपना पुकारते हैं क्यूँ
- रतन लाल जाट
24.कविता-"ये दिल हर पल"
ये दिल हर पल खून के आँसू पी रहा है
तेरे बिन घुट-घुटकर ये पागल मर रहा है
ना कभी हँस रहा और ना खुलकर रो रहा है
बस, चुपके-चुपके अकेला आँहे भर रहा है
यह कैसा प्यार और मोहब्बत क्या है
एक सजा जिसका कोई नाम ना है
दिन-रात बस यादों की कैद में बंद है
आँसू की बूंदें ही बन गयी जंजीर है
काली दीवारों पर तेरा ही चेहरा दिख रहा है
ना कुछ बोल रहा और ना ही कुछ सुन रहा है
हर एक आवाज तेरी लगती है
कहानी भी अपनी ही बयाँ करती है
पर समझने वाला कोई नहीं है
ना ही मानता किसी और की ये
पर जब तू इसे समझाएगा तो
तेरी हर बात को मानेगा रे
तू ही इसका किनारा नजर आ रहा है
तेरे ही दरिया में ये क्यों डूबा जा रहा है
कभी तेरे बिना एक पल ना जी पायेगा
दिन-रात बस तुझको ही चाहेगा ये
तू ही इस दर्द की दवा है
और अब तू ही बन मसीहा रे
कर दे आजाद इस परिंदे को
बिना पंखों के उड़ नहीं पा रहा है
बार-बार नीचे गिर-गिरकर आ रहा है
ये दिल हर पल खून के आँसू पी रहा है
- रतन लाल जाट
25. कविता-"हो तुम"
जलती आग को
बुझाने वाली
ठंडक हो तुम
उठते तूफान को
शान्त करने वाली
एक धार हो तुम
दिल के आकाश में जो
टिमटिमाते हैं सितारे
उस बीच बनी तस्वीर हो तुम
उजड़ी जीवन बगिया को
सुगन्धित करने वाली
कोई और नहीं बस हो तुम
भीतर के ज्वालामुखी को
बाहर लाने वाली
प्रबल शक्ति हो तुम
दुखों का जो
नाश है करती
सुखद स्मृति हो तुम
आती-जाती साँसों को
नयी गति प्रदान करती
संजीवन जैसी हो तुम
- रतन लाल जाट
26.कविता-“करतूत"
गली एक गाँव की,
जहाँ पर लगा रहता।
जमखट दिन-रात,
मनती रहती रंगरेलियाँ॥
करतूत उनके,
बहुत बुरे थे।
जो अवसर पाकर,
नहीं चुकते॥
दौड़ आते वो,
देखकर उनको।
धीरे-धीरे मिल,
खुश होते वो॥
मानो एक विशाल गढ्ढ़ा है,
जो कीचड़ से भरा।
उसमें स्नान करते हैं,
जैसे पर्व महाकुंभ का॥
कौन क्या कर रहा है?
पता नहीं किसी को है॥
चारों ओर फैली है।
हवस और वासनाएँ॥
चन्द क्षणों की वो महफिल,
जब खत्म हो जाती।
तब वहाँ पर केवल,
दुर्गंध ही रह जाती॥
सबकी अपनी होती है एक सीमा।
अच्छा लगे जब तक है मर्यादा॥
लेकिन इनका हाल बुरा।
जो बवाल मचाते हैं यहाँ॥
अंकुश समाज का उन्हें खटकता है।
रिश्ते-नाते तोड़ कलंक लगाते हैं॥
मानो देख नगर में घुमता हाथी,
कुते कर कुछ नहीं पाते हैं।
तब शेष रह जाता काम यही,
वो भौंकते रहते हैं॥
करते कर्म-बुरा,
और झूठी प्रशंसा।
ओछेपन पर आना,
इज्जत अपनी लुटाना॥
जीवन की सभी मंजिलें,
सद्कर्म की नींव पर हैं खड़ी।
उनको नहीं कोई दीवार,
सपने में नसीब होती॥
जो रहते हैं सने हुए,
बाहर-भीतर गन्दगी से।
ना कोई है डर किसी को।
बस भोग में ही आनन्द उनको॥
- रतन लाल जाट
27.कविता-“बाप के घर"
उसने जन्म पाया, जब बाप के घर।
तो नाराज हो पिता, चिढ़े बेटी पर॥
खिन्न मन से उसका,
किया लालन-पालन।
कोई फिक्र नहीं थी,
क्योंकि वह तीसरी संतान॥
खेलने की उम्र में,
किशोरी बन पा गयी शिक्षा।
पढ़ने के समय उसे,
प्रवेश गृहस्थी में मिला॥
कोमल कली-सी बेटी को,
फूल बन खिलना था।
किन्तु काँटा समझकर,
सबने चाहा उससे छुटकारा॥
वह भोली-भाली और अति-सरला।
जो बात-बात पर रोती, नहीं सीखा हँसना॥
बाप का घर बन गया उसके लिए।
जैसे यम का कोई घर-द्वार है॥
कभी प्यार भरा एक शब्द नहीं सुना।
नहीं किसी ने कभी उसे कुछ समझाया।।
रोती हुई देख उसको
और रूलाया गया।
राह पूछती जब वह
तो हमेशा भरमाया॥
स्वर्ग की रानी जैसी,
लगती थी वह।
आज प्यारी धरती,
बन गयी है एक नरक॥
देखा तो नहीं अच्छा,
कभी सुना तक नहीं।
न ही ज्ञान अच्छे-बुरे का,
दिया किसी ने उसको कभी॥
उसका सच्चा मन और था कोरा तन।
जैसे साँचे में ढ़ला, वैसा ही पाया रंग॥
न जाने कैसी किस्मत थी उसकी?
और बन गयी दुःख भरी कहानी॥
बाप के घर ही वह,
बीता गयी सारा यौवन।
फिर सौंप दिया ले दहेज,
और के हाथों जीवन॥
दाम्पत्य जीवन नहीं,
वह बंद थी दास्ता में।
वाल्सल्य का सुख कहाँ?
कौन जो उसका अपना है?
जन्म से ही हुआ,
ऐसा जीवन प्रारंभ।
नारी होकर उसका
निर्ममतापूर्वक हुआ अंत॥
बीज जो बोया था,
बाप के घर।
वो कलंक नहीं मिटेगा,
जन्मों तक॥
- रतन लाल जाट
28.कविता-“बहिनें"
कभी सुना था कि-
बड़ी बहिन माँ समान होती है।
अब यह बात लगती,
केवल कोरी-कल्पना ही है॥
क्योंकि ऐसा कभी नहीं लगता कि-
उन्होंने एक ही कोख में जन्म लिया है।
और उन दोनों के बीच लगता,
जमीं-आसमां का अंतर है॥
उसके भी बड़ी बहिनें थी,
पर, कैसे मानती वो माँ जैसी।
जो हरवक्त लड़ती-झगड़ती,
और बात-बात पर ईर्ष्या करती थी॥
कभी-कभी तो वह घण्टों रोती रहती थी।
गालियाँ ही नहीं, पिट भी देती थी?
बहिनें निर्लज्ज होकर,
उसे भी चाहती।
चलाना अपनी राह पर,
दिन-रात कोशिश करती॥
वो सबसे छोटी थी,
लक्षण बड़े बेजोड़ थे।
किन्तु उसकी राह,
सुन्दर दिखती, पर काँटें थे॥
अभी तक शूल, फूल समझ चूमे थे।
किन्तु अब उसको जरूर, चूभा करते थे॥
वह करती क्या? मुँह मोड़ रह जाती।
बहिनों के आगे, वह मजबूर थी॥
कौन उसकी माने? सुनता उसकी कोई नहीं।
तब उसके ख्वाब रह जाते कल्पना कोरी॥
न खाने-पीने का ढ़ंग,
और न कोई आचरण-व्यवहार।
मन में आये, जो बोले
और चले नीच चाल॥
फिर वो करे भी क्या?
आखिर वो बहिनें हैं।
सोचती है कि-
एकदिन चली जायेगी।
ससुराल अपने,
सदा के लिए सभी।।
इसके अलावा वो और कर भी क्या पाती थी?
आखिर हार कर उनकी ही राह पर चलने लगी थी॥
- रतन लाल जाट
29.कविता-“क्यों रब्बा मुझे यहाँ पर भेजा?”
क्यों रब्बा मुझे यहाँ पर भेजा?
क्या यही सब मेरे नसीब में था?
जो औरों की चिंताएं, मुझको सदा घेरे है।
दूसरों का दुःख, मेरा सुख भी बिसरा देता है॥
जब तुझे मालूम है ऐसा ही होगा?
तो बीच में मुझे क्यों है घसीटता?
क्यों रब्बा मुझे यहाँ पर भेजा?
क्या यही सब मेरे नसीब में था?
गम ही दुनिया का रंग है।
दुःख ही इसकी पहचान है॥
फिर कैसे हम गम भूल जायें?
और कैसे सुख-चैन से जीयें?
इससे तो अच्छा यह था,
कि- मुझे नरक में भेजा होता।
क्यों रब्बा मुझे यहाँ पर भेजा?
क्या यही सब मेरे नसीब में था?
कम से कम मेरे साथ सभी को,
ज्ञात रहता कि- कौनसी है ठोर वो?
जहाँ मुझे आश्रय मिला है।
इतना ही मैंने कर्म किया है॥
यहाँ तो कुछ नहीं पाया।
फिर भी सब कुछ है मिला॥
क्यों रब्बा मुझे यहाँ पर भेजा?
क्या यही सब मेरे नसीब में था?
पापों से पापी खुश रहता है,
पूण्य है कहाँ पर?
सुख वो चाहता है ऐसा,
जो औरों को देता है दर्द॥
क्या इन आँखों से यही देखना बाकी था?
तो कान इससे पहले ही फूट गये क्यों ना?
क्यों रब्बा मुझे यहाँ पर भेजा?
क्या यही सब मेरे नसीब में था?
30.कविता-“सीख”
मेरा यह स्वर्ग ढ़ह जायेगा।
सबकुछ यही छुट जायेगा॥
फिर क्यों मैं? इसके मद में पागल हूँ।
यह सब एकदिन छोड़के, जाना है यूँ॥
मालूम है सबको, लेकिन मानते हैं नहीं।
हम ही कहनेवाले है, फिर भी ऐसा करते नहीं॥
इस बात की है हम लोगों की पहचान
कि नश्वर है यह अपना सारा संसार
अपनों से हम दुःखी हैं।
तो परायों को क्या सुख देंगे?
सकल संसार है क्षणभंगूर
फिर भी है यहीं पर जीवन
कुछ भी निश्चित नहीं है।
तो भी चलता जीवन का सफर है?
कोई अपना संगी नहीं,
तब कौन है जीवन-साथी?
विनाशी जगत्, फिर क्या अमर?
गुनाह कई करके भी है पावन॥
मेरा यह स्वर्ग ढ़ह जायेगा।
सबकुछ यही छुट जायेगा॥
- रतन लाल जाट
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