(1) कविता- क्योंकि हम भी उन जैसे हैं हम भी उन जैसे हैं जो हासिल मंजिलें कर जाते हैं फर्क बस इतना है वो दिन-रात लगे रहते और नींदें अपनी ...
(1) कविता-
क्योंकि हम भी उन जैसे हैं
हम भी उन जैसे हैं
जो हासिल मंजिलें कर जाते हैं
फर्क बस इतना है
वो दिन-रात लगे रहते
और नींदें अपनी गंवाते हैं
बहाने कोई खोजते नहीं
जी-जान से मेहनत करते हैं
हम भी उन जैसे हैं
बहुत कुछ समानताएं
मिलती-जुलती-सी हैं
वो ही आर्थिक-तंगी
वो ही लाचारी-मजबूरी
वो ही संघर्ष भरी कहानी
वो ही आदत सपने सँजोने की
फिर भी सोचो क्यों
हम उन जैसे नहीं हैं
क्योंकि हिम्मत हार जाते हैं
क्योंकि ताने सहे नहीं पाते हैं
क्योंकि कोरी बातें करते हैं
क्योंकि कल्पना में जीते हैं
चाहो तो दिखा सकते हो
तुम भी उन जैसे हो
यदि नेक इरादे हैं
दिल में जुनून है
असीम शक्ति और
अदम्य साहस हैं
और खुद पर
अटूट विश्वास हैं
तो छू सकते आसमां
पा सकते हैं सफलता
हिमालय पर पताका
और अंतरिक्ष में यात्रा
क्योंकि हम भी उन जैसे हैं
- रतन लाल जाट
(2) कविता-
अब बहुत कुछ बदल गया है
एक टाँग पर
लंगड़ी खेलते
अधनंगे फटे-पुराने
पहने कुर्ता-हाफपैंट
हँसी-खुशी
सारे आस-पड़ोस
मोहल्ले के बच्चे
पेड़ पर चढ़ना
उछलना-कूदना
माँ-बाप और बड़ों की
मार खाना या बचने के लिए
दादी के पास जा छुपना
अब बहुत कुछ
बदल गया है
वो राखी के झूले
नारियल का पानी
वो दीपावली पर
फूलझड़ी और
लम्बी-गोल टिकिया
होली के रंग
केसूए से बने
अब बहुत कुछ
बदल गया है
वो दाल-चना
या ज्वार-मक्का के
सेके हुए दाने
पूरा झुण्ड
हाथ पकड़े
दौड़ लगाते
बेरोकटोक यहाँ-वहाँ
लड़के-लड़की साथ
कोई डर नहीं था
किसी अनहोनी का
अब बहुत कुछ
बदल गया है
रेडियो का आनन्द
गोठा कुल्फी का मजा
मेले में झूला-चक्करी
खेत-खलिहान में
लुक-छिप्पी के खेल
रंग-बिरंगे खेल
अब बहुत कुछ
बदल गया है
तीज-त्योहार
मीठे पकवान
मेलजोल और
प्यार के साथ
छिप कर रोना
शर्म से झुकना
दुख सह लेना
संघर्ष करना
अब बहुत कुछ
बदल गया है
- रतन लाल जाट
(3) कविता-
क्योंकि हम भगवान नहीं इंसान हैं
राह भटकना कोई बड़ी बात नहीं
यदि सुबह का भूला शाम को घर लौट आये
गिरना भी कोई बड़ी बात नहीं
लेकिन गिरकर भी वापस सम्भलना मुख्य है
हार होना कोई बड़ी बात नहीं
क्योंकि हार में ही छिपा रहस्य जीत का है
भूल होना भी बड़ी बात नहीं
जब कोई हाथ जोड़ उसे स्वीकार कर ले
झूठ बोलना भी बड़ी बात नहीं
इस झूठ से यदि किसी निर्दोष का बचाव है
कौन कहता गलती होती नहीं
क्योंकि हम भगवान नहीं इंसान है
- रतन लाल जाट
(4) कविता-
अपनों को छोड़ जो गैरों को चाहे
अपनों को छोड़ जो गैरों को चाहे
वो क्या परायों को अपनायेगा
जिसने कदम-कदम पर झूठ बोले
वो क्या औरों को विश्वास दिलायेगा
घर में अपने बैठा जो भेदी है
दूसरों का क्या साथ कभी निभायेगा
जन्म देने वाले माँ-बाप का नहीं है
क्या वो दुनिया का हितैषी बन पायेगा
ऐसे नकली मुखौटे वालों से
सचेत रहने वाला ही आगे बढ़ पायेगा
- रतन लाल जाट
(5) कविता-
धन्य है वो जिसे मिली ऐसी पत्नी
जो अपने पति को परमेश्वर मानती
उसको छोड़ नहीं किसी को देखती
पति का कहा कभी नहीं टालती
धन्य है वो जिसे मिली ऐसी पत्नी
हर कदम पर साथ निभाती
नहीं कभी संकट में छोड़ती
नित पति की दीर्घायु माँगती
धन्य है वो जिसे मिली ऐसी पत्नी
सपने वो उसके ही देखती
दिन-रात साकार करने में लगती
बिन उसके जीना नहीं एकपल चाहती
धन्य है वो जिसे मिली ऐसी पत्नी
- रतन लाल जाट
(6) कविता-
मैं क्या करूँ
वो दिल में उतरने लगे
तो मैं क्या करूँ
वो सपने में आने लगे
तो मैं कहाँ जाऊँ
वो नजदीक आ रहे
धीरे-धीरे ना जाने क्यूँ
वो दरिया बन मुझे
डूबो रहे हैं क्यूँ
दुनिया मेरी बदल रही है
धड़कन भी बढ़ रही है
हाल अपना अजब-सा है
ये नजारे भी रँगीन हैं
आलम है गम-ओ-हँसी के
कुछ तो हलचल मची है
बदले-बदले चेहरे
झुकी-झुकी-सी नजरें
जो कुछ तो छुपाये हैं
राज कई अपने में
भला कैसे पहचानूँ मैं
रात के इस अँधेरे में
अब नहीं चाहता है दिल तड़पना
अब नहीं चाहता हूँ मैं बिखरना
अब नहीं नींदे अपनी है गँवाना
अब ना खुशियों को कभी लुटाना
याद है मुझको वो दिल का लगाना
याद है मुझको वो लबों की हँसी चुराना
- रतन लाल जाट
(7) कविता-
फिर भी वो याद करते हैं
सबकुछ बदल गया है
कभी ना मिलन होना है
भूत सारा बीत गया है
सपने थे जो टूट गये हैं
फिर भी वो याद करते हैं
जाने क्यों मालूम नहीं है
कोशिश तो करते होंगे
पर अनायास ही लबों पे
नाम आ ही जाते होंगे
जब खुद को पाते अकेले
तब ही वो याद करते हैं
जाने ऐसा क्या शेष है
शायद यादें आज भी जिंदा है
दिल में कहीं तो ठौर बाकी है
सपने अब भी शायद आते हैं
जरूरत कभी महसूस होती है
इसीलिए वो याद करते हैं
नहीं तो किसे आज फुर्सत है
- रतन लाल जाट
(8) कविता-
आजकल
प्यार एक नाम
केवल फैशन
दिखाने
और कुछ पाने
के लिए
टाइम पास
एक खेल
स्वार्थ पर
है टिका
सबकुछ
जब चाहो
भ्रमित कर
पास बुलाओ
कसमें-वादे
करके झूठे
और कोशिश
सब राज
रहे छुपे
एक-दूसरे की
देखादेखी
सीख जाते
जाल बिछाने
जब तक
हाथ ना आये
मछली
तब तक
न जाने
कितने सपने
और ख्वाब
दिखाते
पर अवसर
निकलते ही
जाल सब
फेंककर
ऐसे दिखते
औरों के सामने
जैसे कभी कुछ
हुआ ही नहीं है
- रतन लाल जाट
(9) कविता-
कोई मेरा नहीं
भरे-पूरे घर-परिवार में
कई अपने होने के बावजूद
लोग कहते हैं
कि कोई मेरा नहीं है
कुछ भी फिक्र नहीं है
सब लोग स्वार्थी है
काम से ही मतलब है
इसलिए वो चाहते हैं
कोई अपना हो सिर्फ अपना
जो उनकी सुने-समझे
चाहे खूब लड़े-झगड़े
लेकिन झूठा प्यार ना दे
हर बात सच-सच बोले
भले ही थप्पड़ मारे
पर जैसा दिखे वैसे ही रहे
और जो बोले वो ही करे
- रतन लाल जाट
(10) कविता-
महात्मा जी
मुँह में राम बगल में छुरी
कहावत नहीं है यह झूठी
रावण आते नजर हरकहीं
पहने मुखोटा राम का पाखंडी
गले मिलकर छुर्रा चलाये
मीठा जहर देकर मारे
तिलक-छापा है दिखावा
उल्टी माला जपते सदा
धर्म व्यवसाय के व्यापारी
गृहस्थ से ज्यादा है कामी
बन बैठे अरबपति-मायावी
कई नामचीन महात्मा जी
- रतन लाल जाट
कवि-परिचय
रतन लाल जाट S/O रामेश्वर लाल जाट
जन्म दिनांक- 10-07-1989
गाँव- लाखों का खेड़ा, पोस्ट- भट्टों का बामनिया
तहसील- कपासन, जिला- चित्तौड़गढ़ (राज.)
पदनाम- व्याख्याता (हिंदी)
कार्यालय- रा. उ. मा. वि. डिण्डोली
प्रकाशन- मंडाण, शिविरा और रचनाकार आदि में
शिक्षा- बी. ए., बी. एड. और एम. ए. (हिंदी) के साथ नेट-स्लेट (हिंदी)
ईमेल- ratanlaljathindi3@gmail.com
COMMENTS