अंग्रेज़ शासनकाल की अनेकों विधि-व्यवस्थाओं के विरूद्ध गांधीजी ने अनेकों अवज्ञा-आंदोलन चलाए, किंतु नमक क़ानून तोड़ने वाला अवज्ञा-आंदोलन, आज़ादी क...
अंग्रेज़ शासनकाल की अनेकों विधि-व्यवस्थाओं के विरूद्ध गांधीजी ने अनेकों अवज्ञा-आंदोलन चलाए, किंतु नमक क़ानून तोड़ने वाला अवज्ञा-आंदोलन, आज़ादी के संपूर्ण इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण और यादगार माना जाता है। तब गांधी साठ बरस के थे। साठ बरस के गांधी ने तक़रीबन 385 किलोमीटर लंबी यात्रा मात्र 24 दिन में और बिना किसी मानचित्र की मदद से पूरी की थी। गांधीजी के साथ चल रहे कुल जमा अस्सी लोगों में से किसी के भी पास अंग्रेज़-सरकार से लड़ने के लिए कोई भी हथियार नहीं था। था तो सिर्फ़ गांधी की अहिंसा का विश्वास। नमक क़ानून तोड़ने के पीछे जो राजनीतिक और मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण दिखाई देता है, उससे गांधी के बेहतर रणनीतिक कौशल का पता चलता है।
गांधी ने नमक आंदोलन के लिए 6 अप्रैल 1930 का दिन ही क्यों चुना? इसके दो प्रमुख कारण नज़र आते हैं। इसी दिन, ग्यारह बरस पहले जलियाँवाला नरसंहार हुआ था और इसी दिन रौलेट एक्ट के विरोध में पहली हड़ताल हुई थी। उन्नीसवीं सदी के यूरोप और अमेरिका में सरकार-विरोधी प्रदर्शन होना एक सामान्य बात हो चली थी। तब के ज़्यादातर विरोध-प्रदर्शन हालांकि शांतिपूर्ण ही हुआ करते थे, किंतु उन सभी प्रदर्शनों को अहिंसक की बजाय ’निष्क्रिय प्रतिरोध’ ही कहा जाता था। गांधी इस ’निष्क्रिय प्रतिरोध’ शब्द से असहमत थे। उनका सवाल था कि ’बेहद सक्रियतापूर्ण नागरिक विरोध प्रदर्शन’ ’निष्क्रिय’ कैसे कहा जा सकता है? इसलिए उन्होंने शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन में प्रतिरोध का विज्ञान जोड़ दिया और यह ’अहिंसा’ बन गया। ’अहिंसा’ की एक मात्र शर्त होती है, प्रतिरोध-शून्यता के लिए सतत् अभ्यास।
’प्रतिरोध-शून्यता’ के लिए सतत अभ्यास की शर्त पर चलते हुए गांधी ने वर्ष 1906 से 1914 के बीच, दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के ख़िलाफ़ होने वाली लड़ाई लड़ी और ’सत्य’ के लिए लड़ने के क्रम में ’सत्याग्रह’ शब्द का आविष्कार किया। वर्ष 1908 में गांधी ने अपने लेख में लिखा था कि ’सत्याग्रही व्यक्ति भय और दास की मानसिकता से मुक्ति पा जाता है। सत्याग्रह असल में एक मनोभाव है।’ वर्ष 1915 में गांधी जब दक्षिण अफ्रीका से भारत आए, तो बाद इसके उन्होंने अहिंसा की अपनी इसी अवधारणा का निरंतर विकास किया और आगे चलकर गांधी की यही अवधारणा एक राजनीजिक-विचार भी बन गई।
गांधी के अहिंसा-विचार की पहली राजनीतिक परीक्षा वर्ष 1919 में तब हुई, जब रौलेट एक्ट के ख़िलाफ़ जलियाँवाला बाग़ में शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे निहत्थे भारतीय नागरिकों पर गोलियाँ बरसाई गईं। उस नरसंहार से संसार स्तब्ध रह गया था और समूचा देश आक्रोशित था। इस हाहाकारी बर्बर दशा को गांधी के अहिंसक असहयोग आंदोलन ने एक बेहद ही सही, किंतु कं्रातिकारी दिशा दी। वर्ष 1920 से 1922 तक चले उक्त आंदोलन की सफलता से अंग्रेज़-शासकों तक यह संदेश पहुँच ही गया कि अहिंसक नागरिकों पर हिंसक हमला करना ख़तरनाक हो सकता है। गांधी की अहिंसा, अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ एक श्रेष्ठ हथियार साबित हुई। कालांतर में भी गांधी के विचार सर्वाधिक प्रासंगिक और चिरस्थायी साबित होते गए। गांधी का नाम और छवि ज़ेहन में आते ही सत्य, अहिंसा, शांति, संयम और सहनशीलता की अवधारणाएँ स्वतः ही जीवंत हो उठती हैं। आधुनिक युग के ’अग्रदूत’ मार्टिन लूथर किंग से लेकर नेल्सन मंडेला तक सभी गांधी से यही प्रेरणा लेते रहे हैं।
इतिहासकार क्लॉड मार्को विट्स ने अपनी पुस्तक ’अनगांधियन गांधी’ में लिखा है कि गांधी दुनिया के बड़े-बड़े रणनीतिज्ञों से कहीं बेहतर रणनीतिकार थे। उनमें नए तरीक़ों का अविष्कार करने की एक ऐसी अद्भुत क्षमता विद्यमान थी, जो अंग्रेज़-सरकार के लिए वास्तविक आश्चर्य का विषय बन जाती थी। यह सिर्फ़ गांधी का ही करिश्मा था कि वे किसी भी विपरीत स्थिति को अपने अनुसार ढाल लेते थे। इससे साबित होता है कि गांधी न सिर्फ़ एक बेहतरीन व कुशल राजनीतिक प्रचारक थे, बल्कि अपने हर अभियान पर मीडिया को आकर्षित करने का हुनर भी जानते थे। 2 अक्टूबर गांधी जयंती का दिन बतौर ’अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस’ भी मनाया जाता है ताकि गांधी की अहिंसा का सच नई सदी का नया संसार, बेहतर जान सके।
लियो टॉलस्टॉय और मार्टिन लूथर किंग जूनियर की तरह मोहनदास करमचंद गांधी ने भी देश के लिए अपना परिवार छोड़ दिया था। भारतीय इतिहासकार रामचंद्र गुहा और ईरानी-कनाड़ाई दार्शनिक रॉमिन जहानबेगल मानते हैं कि गांधी बहुत कुछ थे, लेकिन एक आदर्श पिता नहीं थे। ये कैसा दिलचस्प इत्तफ़ाक है कि जिस गांधी को दुनिया ने ’महात्मा’ और देश ने ’राष्ट्रपिता’ माना, वही गांधी एक ’आदर्श पिता’ नहीं माने गए? हालांकि लेखिका संध्या मेहता ने उन्हें एक प्रिय पिता ज़रूर माना है और रामचंद्र गुहा ने भी कहा है कि गांधी एक रौबदार हिंदू पिता थे। परिवार से बाहर के लोगों के लिए उनके मन में गहरी संवेदना और चिंता थी, किंतु वे ख़ुद के पुत्रों की पीड़ा नहीं देखते थे। रॉमिन जहानबेगलू ने अपनी क़िताब ’द ग्लोबल गांधी ऐसेज़ इन कंपरेटिव’ पॉलिटिकल फ़िलासफी’ में गांधी को ’जिद्दी’ लिखा है, जो महान् नेता हैं, लेकिन ज़रूरी नहीं है कि वे अच्छे पिता भी हों।
तेरह बरस की उम्र में शादी करने वाले मोहनदास करमचंद गांधी के चार बेटे थे। हरिलाल, मणिलाल, रामदास और देवदास। कस्तूरबा गांधी मात्र उन्नीस बरस की थीं, जब वर्ष 1888 में बड़े बेटे हरिलाल का जन्म हुआ। गांधी भी कस्तूरबा के हम उम्र ही थे। किशोर माता-पिता के यहाँ संतान पैदा होना तब एक आम बात थी, लेकिन हरिलाल के पिता कोई आम व्यक्ति नहीं थे। वे एक साथ दो लड़ाईयाँ लड़ रहे थे। एक अंग्रेज़ सरकार के साथ और दूसरी हरिलाल के साथ।
हरिलाल के जन्म वर्ष 1888 में ही गांधी ने बैरिस्टरी के लिए लंदन जाना तय कर लिया था। जन्म के शुरूआती तीन बरस माँ और बेटे ने कैसे गुज़ारे, इसकी सिर्फ़ कल्पना ही की जा सकती है। तेज़ी से घट रहे हालातों ने गांधी को दक्षिण अफ्रीका पहुँचा दिया। वहाँ के भारतीयों पर गांधी का गहरा असर हुआ। लोग उन्हें ’गांधी भाई’ कहने लगे और वर्ष 1906-1907 में ’गांधी भाई’ अपने सार्वजनिक जीवन के शिखर पर थे। हरिलाल तब तक उन्नीस बरस के हो गए थे। उन्नीस वर्षीय हरिलाल ने गांधी परिवार के क़रीबी बोरा परिवार की बेटी चंचल से ’गांधी भाई’ की इच्छा के खिलाफ़ शादी करने का फ़ैसला किया। गांधी नहीं चाहते थे कि कम उम्र में शादी करने की जो ग़लती उन्होंने की, वहीं गलती उनका बेटा भी करे, लेकिन गांधी समझ चुके थे कि हरिलाल बहुत ज़िद्दी है।
गांधी वर्ष 1908 में जब पहली बार जेल गए, तो उन्होंने हरिलाल को अदालत भेजा। अब तक हरिलाल ’गांधी भाई’ के संघर्ष में सिर्फ़ भागीदार ही नहीं, बल्कि उनका विकल्प भी हो गए थे। लोग उन्हें बतौर ’छोटे गांधी’ पहचानने लगे थे, किंतु कुछ ही समय पश्चात एक झगड़े के बाद हरिलाल न सिर्फ़ घर से चल दिए, बल्कि उन्होंने दक्षिण अफ्रीका भी छोड़ दिया। जब गांधी और कस्तूरबा भारत लौटे तो हरिलाल स्टेशन पहुँचे ज़रूर, लेकिन कटनी शहर के रेल्वे स्टेशन पर ’महात्मा गांधी’ की जय से बेहद खिन्न थे। तब कटनी रेल्वे स्टेशन पर हरिलाल अकेले ऐसे व्यक्ति थे, जो ’महात्मा गांधी’ की जय के बजाय माता ’कस्तूरबा की जय’ बोल रहे थे।
हरिलाल की नशाख़ोरी, उच्छृंखल व्यवहार, हास्यास्पद ढ़ंग से इस्लाम क़बूलने और मूर्खतापूर्ण ढ़ंग से हिंदू महासभा के माध्यम से हिंदू-धर्म स्वीकारने की पारिवारिक घटनाओं ने गांधी को बेहद दुःखी किया। गांधी अंग्रज़ों से तो बख़ूबी जीत गए, लेकिन अपने ही बेटे हरिलाल से बुरी तरह हार गए। हरिलाल ब्रिटेन जाकर बैरिस्टर बनना चाहते थे, लेकिन पिता गांधी ने हरिलाल के इस विचार को रद्द कर दिया। पिता-पुत्र के रिश्ते तनावपूर्ण हो गए, ठीक तब जब गांधी ने हरिलाल की शादी अपने हिसाब से करवाना चाही। गांधी के साथ रहना आसान नहीं था। गांधी का जीवन-लक्ष्य हमेशा ही बड़ा रहा। गांधी ने कभी भी ख़ुद को सीमित नहीं किया। गांधी समूची दुनिया और समूची मानवता को अपना घर-परिवार मानते रहे। गांधी ने ख़ुद को कभी भी उस शख़्स की तरह नहीं देखा, जो सिर्फ़ पति या पिता हो। गांधी ने ’मेरे बच्चों के साथ मेरे प्रयोग’ की बजाय ’मेरे सत्य के प्रयोग’ की अवधारणा को अपने जीवन का अविष्कार बना लिया। गांधी सिर्फ़ महात्मा और राष्ट्रपिता ही नहीं, बल्कि एक कुशल रणनीतिकार और कूटनीतिक विचारक भी थे। गांधी की अहिंसा पर्यावरण की कविता है।
दुनिया में अनेकों लोग ऐसे हैं, जो आज भी गांधी की अहिंसा के विचार से असहमत हो सकते हैं, अगर ऐसा नहीं होता तो दुनिया परमाणु हथियारों की प्रतिस्पर्धा में शामिल नहीं होती और एक शांतिपूर्ण-सामंजस्यपूर्ण जीवन का निर्माण हो चुका होता, विज्ञान व तकनीक का उपयोग मानवीय संवेदनापूर्ण व्यवहारिकता के लिए किया जाता और मनुष्य व प्रकृति के बीच का तमाम रिशता हृदय-विदारक नहीं होता। गांधी का सोच-विचार आधुनिक औद्योगिकीरण से असहमत होने के बावजूद अहिंसक, प्रकृति-रक्षक और शोषण से मुक्त समाज के लिए सर्वाधिक माकूल व्यवस्था प्रदान करने वाली अवधारणा थी, जिसे समझना मुश्किल नहीं होना चाहिए, किंतु खेद का विषय है कि गांधी-भक्त व्यापारियों ने ही गांधी को एक रहस्यमयी पहेली बना दिया। गांधी की प्रशंसा करना आसान है, उन्हें समग्रता में समझना कठिन है और उनका सुझाया रास्ता अपनाना तो लगभग असंभव है। मानवीय इतिहास के इस सर्वाधिक उपभोक्तावादी समय और समाज में आज गांधी का सादा लिबास, अल्पाहार, सप्ताह में एक दिन मौन, यौन-संबंधों में आत्मानुशासन कैसे संभव है? गांधी के ये प्रयोग सचमुच विरल थे; क्योंकि गांधी के इन्हीं प्रयोगों ने गांधी को संसार-भर में सर्वाधिक सम्मानित व्यक्ति का दर्ज़ा दिलवाया। दुनिया सब कुछ समझते हुए भी पिछड़ती गई और गांधी सत्य की पहेलियाँ बुझाते हुए अपनी अहिंसा के साथ जीवन-सत्य के क़रीब पहुँचते गए।
गांधी के विचारों की सबसे बड़ी विशेषज्ञता यही है कि उन्होंने सत्य और अहिंसा के प्रयोग को प्रतिरोध के विज्ञान से जोड़कर, एक नई राजनीति का आविष्कार किया। हालांकि यह एक बेहद ही कठिन राह होती है और लगभग असंभव भी, लेकिन असंभव को संभव कर देना ही गांधी की अहिंसा है। ’एक गाल पर चाँटा खाने के बाद दूसरा गाल आगे बढ़ा देने वाले’ अपने अहिंसक आचरण के लिए गांधी को भले ही आज भी आलोचना का विषय बनाया जाता हो, किंतु इसके लिए जिस आत्मानुशासन की चरम आवश्यकता होती है, वह सिर्फ़ निरंतर अभ्यास से ही अर्जित किया जा सकता है। गांधी अपनी अहिंसा की सफलता के लिए जीवन भर अभ्यास करते रहे। ज़रूरी है कि गांधी की डेढ़ सौ वीं जयंती वर्ष में इस अभ्यास का और अधिक विस्तार होना चाहिए। अन्यथा नहीं है कि तकनीकी तौर पर सर्वाधिक उन्नत इस युग ंमें और इस युग से आगे के युग में भी, गांधी तथा गांधी की अहिंसा के समुच्चय की प्रासंगिकता बनी रहेगी। ज़ाहिर है कि गांधी ने जिस अहिंसक-विश्व का सपना देखा था, वह एक ना एक दिन ज़रूर साकार होगा; क्योंकि गांधी की अहिंसा पर्यावरण की जिस कविता का प्रस्ताव करती है, उसमें मनुष्य, ईश्वर और प्रकृति अर्थात् विज्ञान, नैतिकता और जीवन, तीनों दृष्टिकोणों की समग्रता का समावेश उपलब्ध है। गांधी की अहिंसा, भय मुक्ति से आती है और भय-मुक्त बनाती है। गांधी की अहिंसा, भयमुक्ति और पर्यावरण की कविता है।
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सम्पर्क-331, जवाहरमार्ग, इंदौर-452002
ईमेलः rajkumarkumbhaj47@gmail.com
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