खचाखच भरी उस भीड़ में दर्शक कोई नहीं था। सभी किलर थे। इधर हज़ारों थे , उधर वो था अकेला। सिरों के ही दस हो जाने से क्या होता है... जिन्दा रह...
खचाखच भरी उस भीड़ में दर्शक कोई नहीं था। सभी किलर थे। इधर हज़ारों थे , उधर वो था अकेला। सिरों के ही दस हो जाने से क्या होता है... जिन्दा रहने के लिए पापी पेट तो एक ही था। उसे मारने की तैयारियां बहुत जोरों से चल रही थी।
मैंने पंजा छाप वाले भाजपाई से पूछा - उसे बचाओगे नहीं ? उसके मरने के बाद पार्टी में अब सेंध कौन लगाएगा ? सुनकर पंजा मुस्कुराया और... चेहरा उसका कमल हो गया।
मैंने उस वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता से कहा - आप भी कुछ नहीं कर रहे हैं, उसके मर जाने के बाद तो बाज़ार से मुखौटों की बिक्री ही समाप्त हो जाएगी। सुनकर वह कुर्ता की जेब से चश्मा निकालकर, अपना चेहरा फोटोजेनिक एंगल में सेट करने में व्यस्त हो गया।
मैं पोलिस मैन की ओर दौड़ा और निवेदन किया , आपकी तो डूयटी ही है सरेआम हो रहे मार-पीट को रोकना, फिर यहां तो उसकी हत्या की साजिश खुलेआम रची जा रही है, वो भी सार्वजनिक चंदा लेकर !!! मैंने उस स्टार वाले वर्दीधारी को याद दिलाया की उसे बचाव वरना... वरना ? वे गुर्राए मुझ पर। परन्तु हिम्मत बटोरकर मैंने उनसे कहा - वरना बड़े अधिकारियों और राजनैतिक आकाओं के दौरा व्यवस्था के लिए हथकण्डे कौन हैण्डल करेगा ? सुनकर वह स्टार वाला, अपने से ज्यादा स्टार वाले को सैल्यूट मारने चला गया।
डॉक्टर से पूछा मैंने - उसके मर जाने के बाद अजन्में कन्या-भ्रूण की हत्या करके अब उसे ठिकाने कौन लगाएगा ? तो क्या अब अपने विदेशी दौरों के लिए मँहगी दवाइयों की प्रिस्क्रिप्सन लिखने की परम्परा ही समाप्त हो जाएगी ? सुनकर वह भुनभुनाते हुए... अनहोनी के लिए पहले से तैयार एम्बुलेंस में घुस गया।
वार्ड ब्वाय से तक पूछा मैंने - इमरजेंसी वार्ड के पेशेन्ट के लिए खून की दलाली अब कौन करेगा ?
ऐन-केन- प्रकारेण जुगाड़मेन्ट करके अपना प्रोजेक्ट पास करा लेने में माहिर, आत्मसम्मोहित , उस स्वयंभू एन० जी० ओ० प्रमुख से भी गिड़गिड़ाया मैंने - भाई साहब ! आपका तो काम ही है जन-सेवा और आपकी एप्रोच का तो क्या कहना ! आप तो कम से कम इस सरेआम अपराध को रोकिये, वरना... वरना ? वह भी उसी पुलिसिया अंदाज़ में गुर्राया ...सहमकर, फिर फुसफुसा कर मैंने उनसे कहा- वरना इस तरह रावण महोदय के निपट जाने से उन्हें और उनकी सेवाभावी संस्था को बहुत हानि हो सकती है। ये सुनकर उस नॉन - गवर्नमेण्ट- प्रमुख के कान और रोंगटे दोनों खड़े हो गये...परंतु अनजान बनकर और मासूमियत मेण्टेन करते हुए उन्होंने मुझसे पूछा - रावण के मरने से तो समाज का उत्थान,सर्वांगीण विकास ही होगा ना ? उससे भला हमें क्या हानि हो सकती है ? बल्कि इससे तो हमारे रजिस्टर्ड - बायलॉज के उद्देश्यों की ही पूर्ति होगी। मैंने उनके भोलेपन का पर्दाफाश करते हुए हिम्मत करके कहा - अजी ज़नाब ! उनके मर जाते ही दूसरों के बच्चों और महिलाओं की सेवा करने के बहाने मिलने वाले सरकारी अनुदानों के बिना अपने खुद के बच्चो का करियर कैसे सँवारोगे ? बीबी-बच्चों सहित, अनुदानों के भरोसे सेट हो चुके अपने अन्य रिश्तेदारों के भविष्य को भी क्या दाँव में लगाओगे ? सुनकर वह...पहले से ज्यादा बेशरम अंदाज़ में अपनी संस्था का बैनर टांगने में तल्लीन हो गया।
उनकी बेशर्मी ने मुझे भी प्रोत्साहित किया और पास में खड़े निगम के बाबू से तक पूछ लिया कि उसका मरना तो तय है , तो क्या अब टेन्डर रेट आऊट नही होगा ?
भीड़ से अलग - थलग खड़े उस उदास आध्यात्मिक के पैर पकड़कर पूछा मैंने- रावण जी के मर जाने के बाद आपके आश्रम में अब ब्लू - फिल्मों का कैसेट कौन सप्लाई करेगा प्रभु !!! सुनकर वे मेडिटेशन में लीन हो गए...
हताश हो कर दूर में खड़े एक साहित्यकार की ओर दौड़ा मैं। उनसे मैं कुछ कहता उससे पहले ही उन्होंने मुझसे पूछा। आज मेरा छपा है , लगभग सभी पेपर ने कव्हर किया है , तुम पढ़े कि नहीं ? ...और जब मैंने अस्वीकृति में अपना सिर डुलाया तो बड़े निकृष्ट भाव से मुझे घूरा , फिर बोले -आजकल गंभीर रीडर्स बचे ही कितने है ? पता नहीं कहाँ जा रहा है ये समाज !!! मैंने पूरे आदरभाव से और पुरज़ोर सावधानी रखकर आचार्य से कहा - अपनी सामग्री आप अब सोशल मीडिया में क्यों नहीं भेजते ? अब तो उसी का ज़माना है...ये सुनकर वे चीखे मुझपर , फिर गरजे - क्या सामग्री ? रचनाओं को , सृजनशीलता को तुम लोग सामग्री कहते हो, शर्म नहीं आती ?
वे और भड़कते कि उसी समय सौभाग्य से एक पत्रकार जी आ गए। वे साहित्कार महोदय के छपे विचारों की तारीफ करने लगे। मामला शांत हो गया। मैं धीरे से खिसक गया।
अचानक उस भीड़ में मुझे जिन्स के साथ कुर्ता में एक प्रसिद्द नाटककार दिखे। मेरी आँखे चमकी। पुरजोर ताकत और उम्मीद के साथ उनके सामने गिड़गिड़ाया- हे कलाधर्मी ! समाज के दर्पण !! क्या आप भी इस सार्वजनिक पाप के हिस्सेदार होंगे ? आपको तो मरते लंकेश को बचाना ही चाहिए अन्यथा...( आगे कहने के लिए हिम्मत बटोरनी पड़ी ) अन्यथा...डेली दारु पीने वाले किन्तु दशहरा के दिन राम का अभिनय करने वाले, नारी समस्या पर खेले जाने वाले नाटक के रिहर्सल के दौरान उस नाटक के लड़की पात्र को ही प्रैग्नेन्ट कर देने की हैसियत और पुरुषत्व रखने वाले अमर पात्र की ही मौत हो जायेगी। फिर वैसे जुझारू नाटककार व जीवन्त नाटकों की परम्परा और ज्यादा संकट में आ जायेंगे।ये सब सुनकर रंगकर्मी महोदय का चेहरा पहले से ज्यादा रंगीन हो गया। वे मुझसे बोले - बस इस आग को सम्हाल कर रखना, यही आग चाहिए समूची व्यवस्था को बदल देने के लिए !!! वे चले गये गज़ब की अदाकारी के साथ।
उसे मारने की तैयारियाँ अब अंतिम चरण में थी।
नगर भ्रमण करके राम- लक्ष्मण और हनुमान जी की सेना उस विशाल आयोजन स्थल में प्रवेश कर रही थी। रौशनी और आतिशबाजी का असर तेज़ होने लगा। भीड़ उसे मारने के लिए व्याकुल थी। सरेआम उसका मर्डर होने वाला था। मैंने अपना अंतिम प्रयास करते हुए उस भव्य प्रांगण में उपस्थित नेताओ , अधिकारियो,कर्मचारियो , कलाकार, पत्रकार , प्रोफेसर ,गुरूजी , गुरुनुमा , मोटिवेटर , डायरेक्टर , फाउंडर, डॉक्टर , कंपाउंडर , आदमी और आदमीनुमा सभी के दिल - दिमाग में सनसनी पैदा करना चाहा अपने सवालों से।
परंतु बहुत तल्लीन दिखे वे सब , मारने से पहले उसे सजाने - संवारने - निहारने में।
और अंततः वह मार दिया गया , सरेआम , रंगीन रोशनियों में।
आयोजको का महीनों का टेन्शन स्वाहा हो गया।
इस भव्य आयोजन के लिए , चन्दा देने के बाद भी कुर्सी नहीं मिलने पर कुनमुनाते खड़े उस सेठ को भी शांति मिली... और सुकून मिला चुकारा पाकर पंडाल के लिए गढ्ढा खोदने वालों को।
और अब किलर लौट रहे थे अपने-अपने कीलों ( घर ?) की ओर..!
विजयी हुए इस युद्ध में हम !
हम फिर जीत गए , महीनों की थकान के बाद,अथक जुगाड़ के बाद अपने ही हाथों बनाये गए कागज़ - कमचिल (बांस की पतली डंडियों) के रावण को मारकर।
... योगेश अग्रवाल, राजनांदगांव छत्तीसगढ़ ।
ईमेल - rtiworld@gmail.com
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