तेजपाल सिंह 'तेज' की कुछ ग़ज़लें -एक- -एक- वो क्या गए कि निशानियां तक भी नहीं मिलतीं, चौखट पे मेरी, बत्तियां तक भी नहीं जलतीं । ...
तेजपाल सिंह 'तेज' की कुछ ग़ज़लें
-एक-
-एक-
वो क्या गए कि निशानियां तक भी नहीं मिलतीं,
चौखट पे मेरी, बत्तियां तक भी नहीं जलतीं ।
पथरा गयी हैं शहर के इंसान की आँखे तलक ,
यूँ जड़ हुईं कि पुतलियां तक भी नहीं हिलतीं।
ज़रा-ज़रा सी बात पर कल तख़्त पलट जाते थे,
क्या बात है अब कुर्सियां तक भी नहीं हिलतीं।
जादू बदलते दौर का कुछ यूँ चढ़ा कि आज,
बिना वजन के अर्जियां तक भी नहीं चलतीं।
कल ‘तेज’ हवा में भी यां ज़मीन हिलती थी,
अब आँधियों में पत्तियां तक भी नहीं हिलतीं।
-दो-
आँख बाँधकर अंधियारे में, चला रहे हैं लठिया लोग,
एक-दूसरे की छाती पर, पीस रहे है दलिया लोग।
जैसी प्रजा वैसा राजा , कथन आज भी ताज़ा है,
पनप रहे संसद के जैसे, चोर, निकम्मे, घटिया लोग।
क्या नेता क्या अफ़सर सारे, कर्तव्यों को भूल गए,
सिर पर लादे घूम रहे हैं, अधिकारों की गठिया लोग।
माना कि वैज्ञानिक युग है, लेकिन समझ नहीं आती,
बाँध कमर से पत्थर, कैसे पार करेंगे नदिया लोग।
क को ख, ख को ग कहते, परदेशी को स्वदेशी,
उम्र की पहली ही सीढ़ी पर्, लगता है गए सठिया लोग ।
-तीन-
घर के आगे मस्जिद मेरे, घर के पीछे मन्दिर है,
लेकिन मेरे घर की छत से ग़ायब आज कबूतर है ।
मानवता के दाम गिरे, है मज़हब का बाजार गरम,
एक पाले में अल्लाह-ताला, एक पाले में ईश्वर है ।
अब कैसे उम्मीद करें, भवसागर से तिर जायेंगे,
छोटी-मोटी नदियों में ही डूबा आज समन्दर है ।
आने-जाने वाले मेरे घर की ईटें गिनते हैं,
सियासत के खूनी पंजों ने लिक्खा मिरा मुकद्दर है ।
‘तेज’ हवाएं चलीं आज फिर, छप्पर कौन संभालेगा,
मेरा घर तो धूप-छाँव का जाना-माना दफ़्तर है ।
-चार-
आख़रिश घर से कोई निकला तो है,
संगदिल मानस ज़रा पिघला तो है।
गो भूख के मारे भी हैं ज़िन्दा यहाँ,
भूख का मसला मगर मसला तो है।
रात भी एक रोज बदल जायेगी,
आजकल दिन का चलन बदला तो है।
बेशक कि कल मक़्बूल इमारत होगी,
आस का परबत ज़रा पिघला तो है ।
नहला हुआ बेकार तो चिंता न कर,
हाथ में तेरे अभी दहला तो है।
-पाँच -
आबो-हवा में ढल गये लगते हैं लोग आज,
स्वप्न में भी आदतन लड़ते हैं लोग आज ।
लगता है कि भूले यहाँ सब लोग हँसने का शऊर,
कि आँसुलों की तर्ज पर हँसते हैं लोग आज।
तज़ दिया साँपों ने शायद आज डसने का चलन,
एक-दूसरे को बेख़तर डसते हैं लोग आज।
आग पर चलने का सब हैं कर रहे अभ्यास,
सिरफिरों-सा आचरण करते हैं लोग आज।
एक ज़रा-सी ज़िन्दगी, यहाँ काटे नहीं कटती,
पर मृत्यु से लड़ने का दम भरते हैं लोग आज ।
-छ: -
सुधियों का इतिहास लिये,
ख़ुशियों का अहसास लिये।
आती है नित नयी सहर,
कुछ—भूली बिसरी आस लिये।
अबस पोस्टर दीवारों पर,
चिपके हैं आकाश लिये।
लूट-मार और दंगे हत्या सब,
ज़ारी हैं विश्वास लिये।
अधिकारों की सेज सजी है,
कर्तव्यों से अवकाश लिये।
-सात-
नये दौर में अधिकारों की सेज सजी,
रफ़्ता-रफ़्ता प्रशासन पर ज़ंग लगी ।
नैतिकता और मानवता के सीने पर,
विध्वंसों ने पाली-पोसी एक सदी ।
सहरा-सहरा तल्ख़ समन्दर की पीडा,
है मनाँगन में भूखी-प्यासी एक नदी ।
लंगड़े-लूले थके विचारों से ना टूट,
बेशक इनकी सिंहासन पर नजर लगी ।
रक्षक और भक्षक के जैसे भेद मिटे,
अपनी चौखट पर धनिया की लाज लुटी।
-आठ-
आयोग पर आयोग बिठाते रहिये,
गोया कि हरेक जुर्म छुपाते रहिये ।
सिरफिरे जाहिल, उनींदे शख़्स को,
थपकियां देकर ही सुलाते रहिये ।
जब कभी भी न्याय की बातें उठें,
तो धार्मिक उन्माद जगाते रहिये ।
चीख़ हो धरती की, या फिर हो हंसी,
बस! आवाज़् में आवाज़ मिलाते रहिये ।
‘तेज’ कुछ करने की यां प्रथा नहीं,
बस! वायदों के जाल बिछाते रहिये।
-नौ-
लौटकर फिर आ गया शैतान कोई,
फिर गगन-सा छा गया शैतान कोई ।
पढ़ते—पढ़ते धूप का अख़बार को,
ओढ़कर फिर सो गया शैतान कोई ।
पेट की ज्वाला बुझाने के लिए,
आग पर फिर सो गया शैतान कोई ।
मैकदे की सीढ़ियों को चूमकर,
भीड़ में फिर खो गया शैतान कोई ।
माँ के सूखे स्तनों से खीझकर,
अश्क पी फिर सो गया शैतान कोई ।
-दस-
कौन कहता है कि ग़म-गुस्तर नहीं,
कि कातिलों के हाथ में ख़ंजर नहीं ।
चाक दामन कर गये पर देखिये,
हाथ में उनके कोई नश्तर नहीं ।
पहनने को पहनते हैं कोट पर,
कोट में अपने कोई अस्तर नहीं ।
चन्द गमले देखकर कहने लगे,
आज धरती पर कहीं बंजर नहीं ।
बेख़ुदी में 'तेज' किससे पूछिये,
गुनगुनाता क्यों मिरा बिस्तर नहीं ।
(मेरे ग़ज़ल स्ंग्रह 'दृष्टिकोण' से उद्धृत)
तेजपाल सिंह तेज’ (जन्म 1949) की गजल, कविता, और विचार-विमर्श की लगभग दो दर्जन किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं - दृष्टिकोण, ट्रैफिक जाम है, गुजरा हूँ जिधर से, हादसो के शहर में, तूंफ़ाँ की ज़द में ( गजल संग्रह), बेताल दृष्टि, पुश्तैनी पीड़ा आदि (कविता संग्रह), रुन - झुन, खेल - खेल में, धमाचौकड़ी आदि ( बालगीत), कहाँ गई वो दिल्ली वाली ( शब्द चित्र), पांच निबन्ध संग्रह और अन्य। तेजपाल सिंह साप्ताहिक पत्र ग्रीन सत्ता का साहित्य संपादक, चर्चित पत्रिका अपेक्षा का उपसंपादक, आजीवक विजन का प्रधान संपादक तथा अधिकार दर्पण नामक त्रैमासिक का संपादक भी रहे हैं। स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त होकर आप इन दिनों स्वतंत्र लेखन के रत हैं। हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार ( 1995-96) तथा साहित्यकार सम्मान (2006-2007) से भी आप सम्मानित किए जा चुके हैं।
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