कविता कुत्ते,हाथी और लोग देवेन्द्र कुमार पाठक हाड़तोड़ मेहनत के बाद ब्यालू कर गहरी...
कविता
कुत्ते,हाथी और लोग
देवेन्द्र कुमार पाठक
हाड़तोड़ मेहनत के बाद
ब्यालू कर गहरी नींद में
सोये हैं खेत-मजूर,खेतिहर......
भोंक रहे हैं कुत्ते लगातार
गली-गली से निकलकर
गाँव के बाहर तक आकर
इतना ही कर सकते हैं वे
अपनी कई पीढ़ियों से
हर दौर में कुत्ते इतना ही करते रहे हैं..........
जब निकलता है कोई मदांध हाथी
खेतों की हरियाती फसलों को रौंदता
खाता कमतर पौधों को ज़्यादातर कुचलता-खौंदता
बगिया-बाड़ी के पेड़ों की डालियों को तोड़ता
लगातार भोंकते कुत्तों से वह कतई नहीं डरता
और बाज नहीं आते कुत्ते भी भोंकने से.....
लोग जागते हैं कुत्तों के भोंकने से
जागे हुये लोग लाठियाँ ले-ले
अपने -अपने घरों से निकलकर
दौड़ते हैं गोलबन्द होकर
खेतों-बाड़ियों,बगियों की ओर
मदांध बेख़ौफ़ निरंकुश हाथी के पीछे
पूरा गाँव खदेड़ रहा है हाथी को
साथ में भोंकते-दौड़ते हैं वफादार कुत्ते
खाते हैं जिनकी बजाते हैं उनकी
वे पीढ़ियों से जगाते रहे हैं
भोंक-भोंककर सोये लोगों को
निरंकुश,मदांध ताकतवरों के खिलाफ
गोलबन्द होकर जूझने को
अपनी मेहनत के हक-भाग बचाने को...
अब भी भोंकते हैं कुछ कुत्ते
सोये जन को जगाते हैं.........
बावजूद उन नमकहरामों के
जो पाकर कुछ हड्डियां भूलकर भोंकना
लार बहाते पूँछ हिलाते हैं.........
अब भी भोंकना नहीं छोड़ते
कुछ नमकहलाल कुत्ते ............
******कविता
एंज्वॉय करने का.....
उम्र के ढहते कगार पर खड़े
एकाकी पेड़ की तरह
अपने कमरे में अपनी उम्र से भी बड़े
पुश्तैनी तख्त पर एकाकी पड़े
बूढ़े बाबा की बच्चे-सी ललक-हुलक
कभी कोई तो उसके भी पास आये भूल-भटक
करे कुछ चुहल कुछ देर बतकही मुझसे
हैरान होकर सुने गुज़रे वक़्त के किस्से.......
व्यथित मन से कोई कुछ होकर चिंतातुर
पूछे कुछ सवाल हैरानी से घिर-भरकर
गायब होती जा रही चीजों,रुचियों-आदतों को लेकर
अपने ही दायरे में कैद होकर
सिकुड़ती जा रही सोच-समझ,
अवमूल्यित होते रिश्तों-नातों पर
पहचान खोती जा रही
अपनी बोली-बानी के शब्दों की
टूटती जा रही लय-तान
लोक के गीतों-गानों,कविताई की
इन बदतर होते जाते हालात पर
दिनदहाड़े घिर आती अबूझे खौफ़ की रात पर......
कुछ पूछे समझे-बूझे
बैठे साथ भले घड़ी भर
लेकिन कुछ बात-संवाद कर
संवेदन का तार जो खिंचा-तना है
ज़ेहन में उलझावअकहाव घना है
उससे कोई उलझे-जूझे, ...........
किसी दिन किसी एक पड़पोते ने
जाने किस रौ में नजदीक आकर
अपनी जवान हथेलियों में
बाबा का कंकंपाता हाथ
थरथराती हथेलियाँ थामकर
सहलाते कहा- सलाहा,
' बाबा,कोई उम्मीद किसी से न करिये,
किसी को रोका-टोंका न करिये,
खाते-पीते मस्त पड़े रहिये,
ज्यादा सोचा मत करिये,
ज़िन्दगी है जैसी जितनी भी-
एन्ज्वाय करने का...."
अवाक् रह गईं क्षणांश को दो पीढ़ियाँ
दोनों की अपनी-अपनी सांसें
चढ़ती-उतरती रहीं ख़ामोशी की सीढ़ियाँ .....
जा चुका है पड़पोता कब का
बाबा को सुखाभास देकर अपनेपन का
उम्मीद से परे रहकर एंज्वॉय करने का.....
***********
साईपुरम कॉलोनी,कटनी,म.प्र.
00000000000000000
अंकित कुमार
बस यही जिंदगी है
जिन्दगी के, मैं कितने इम्तिहान पास करूं
एक पास करता हूं तो, हो जाता है दूसरा शुरू
फिर लड़ता हूं, गिरता हूं
फिर संभलता हूं , संघर्ष करता हूं
फिर से लड़ता हूं, ओर परास्त कर देता हूं
अपने ज्ञान-शील हथियार से
फिर मन में खुशी होती है कि
चलो ऐ भी इम्तिहान पास कर दिया
इधर खुशी की शुरूआत हुई, ही होती है कि
मेरे दरवाजे पर कोई दस्तक देता है
दरवाजा खोलता हूं ओर देखता हूं कि
एक ओर तलवार मेरी गर्दन पर लटक रही होती है
ओर देखता हूं कि इस बार संघर्ष लंबा और ज्यादा कठिन है
मगर मैं हार नहीं मानता हूं
फिर से तैयार होता हूं ,
अपने ज्ञान-शील हथियार के साथ
फिर से जीत हासिल करता हूं उस पर
मैं अब थोड़ा थक चुका हूं
मगर, फिर भी दस्तक देना चाहता हूं
एक जनून और लगन के साथ
फिर से नई चुनौतियों का सामना करना चाहता हूं
फिर से इन्हें परास्त करना चाहता हूं
फिर से जिन्दगी का वही दौर शुरू हो जाता है
ये दौर बस यूं ही चलता रहता है.....
000000000000000
प्रमोद कुमार तिवारी
पैमाना ।।
उठा कर देखना ।
ख़्वाबों का भार ।
हौसलों की तराजू में ।
बस यही पैमाना है आरज़ू में ।
दिन में वही ख़्वाब दिखे ,
रात चैन न आए ।
फिर भी चेहरा मुस्कुराए ।
बस यही पैमाना है आरज़ू में ।
असफलता तो आएंगी ।
अकेले में रुलायेगी ।
सब शून्य ।
साथ बस ख़्वाब फिर भी ।
यही तो पैमाना है आरज़ू में ।
दिखेगा शायद तुम्हें घना अंधियारा ।
दूर तक । अकेले तुम।
हथेलियों में पसीना भी आ जाए ।
कदम लड़खड़ाए फिर भी न गिरो तुम ।
यही तो पैमाना है आरज़ू का ।
कुछ ज़ख्म खुद से लगेंगे ।
कुछ ग़ैरों से लगेंगे ।
अच्छा है ।
अनेक चोटें फिर भी न टूटे ।
सुंदर मूर्ति पहले पत्थर ।
यही तो पैमाना है आरज़ू का ।
कभी बारिश , कभी तूफां , कभी गर्मी ,
कभी चुभती सर्दी ।
पर तुम और तुम्हारा ख़्वाब और हौसला ।
बस यही चाहिए भरपूर।
यही तो पैमाना है आरज़ू का ।।
@ प्रमोद
000000000000000
सिद्धार्थ संचोरी
*जब तुम मिलोगे*
बचपन मे जैसे किया करते थे ,
ऐसे ही अपना बना लिया ,
एक टोफी के दो टुकड़े करके,
जब तुम मिलोगे तो बताएंगे।
जेब मे होते हुए भी पेन ,
हर रोज तुम से ही ,
पेन मांगा करते थे,
जब तुम मिलोगे तो बताएंगे।
दिल में तो तुम ही थे,
सिर्फ जलाने के लिए,
जिक्र किसी और का करते थे,
जब तुम मिलोगे तो बताएंगे।
उस दिन रूठे थे तुमसे,
और दूर भी भाग रहे थे,
सता नहीं रहे आँसू छुपा रहे थे
जब तुम मिलोगे तो बताएंगे।
बड़े जातिवादी थे,
जब से तुझसे मिले,
सब भूल गए हम,
जब तुम मिलोगे तो बताएंगे।
हर रोज एक ही जगह ठहरे,
फितरत न थी ऐसी,
और अब वही ढूंढते है तुझको,
जब तुम मिलोगे तो बताएंगे।
तूने औकात में रहने को कहा,
औकात एक छोटी चीज है,
हम उसे नहीं रखते,
जब तुम मिलोगे तो बताएंगे।
00000000000000
डॉ. शशि गोयल
मॉं तू याद बहुत आई
तू तो चली गई दुनिया से
छोड़ गई सब कपड़े गहने
एक एक ईटों को बांटा
बांट लिये आभूषण सबने
प्यार दुलार नेह ममता की
साथ ले गई छाया अपने
हम बच्चों के हित में बांधे
पुड़िया पुड़िया कितने सपने
सारा तम आंचल में बांधा
चाँद सितारे टांगे कितने
माँ का आंचल ठंडक देता
धूप दुपहरी लगती तपने
माँ की गोदी गरमी देती
शीत लहर से लगते कंपने
माँ की पहनी धोती छटकर
मेरे हिस्से में है आई
माँ के तन की खुशबू सारी
मैंने उनमें है जो पाई
भीग गई आंखें पा माँ को
तन से उन्हें लगाई
इसी रूप में माँ तू मेरे
पास सदा को आई
आंचल का सा साया लगता
मेरे सिर पर छाया
माँ की ममता नेह प्यार सब
मुझमें आन समाया।
DR.Shashi Goyal
, Agra 282010
shashigoyal3@gmail.com
00000000000000000
शशांक मिश्र भारती
शिक्षक दिवस
पांच सितम्बर को हम सब, शिक्षक दिवस मनाये हैं,
दिये हैं भाषण लम्बे -चौड़े प्रशस्ति के गान दुहराये हैं।
बच्चा न पहुंचा हो सच्चों में उसकी गणना न अच्छों में,
सब उद्देश्य गए बिसरायें हैं हम शिक्षक दिवस मनाये हैं।
हम पर अविश्वास है होता श्रम, निष्ठा, परस्वार्थ सोता,
मूल्यांकन मृगमरीचिका सा पाठ्यक्रम गिरगिट है होता।
न समाज ने दायित्व निभाये हैं हम शिक्षक दिवस मनाये हैं।
पुरस्कार -सम्मान सूची में जब चाटुकारिता चलती हो,
पद, पदस्थापन पदलोलुपता से आत्मा सच की मचलती हो।
आदर्श महानगुरुओं के विस्मृत हम शिक्षक दिवस मनाये हैं।
जब समाज कर्त्तव्य भुलाता है न एकलव्य कोई बनपाता है,
कबीर न खोजपाते गुरु को न गुरु संदीपन हो पाता है।
मूल्य सभी गये बिसराये हैं हम शिक्षक दिवस मनाये हैं।।
शशांक मिश्र भारती
संपादक देवसुधा हिन्दी सदन बड़ागांव शाहजहांपुर 242401 उ0प्र0
000000000000000000
निशेश अशोक वर्द्धन
(1)साहस और धीरता
(16,16 सममात्रिक)
जो अटल खंभ-सा खड़ा रहे,
विपदा के झंझावातों में।
मन में साहस की ज्योति लिए,
जगता संकट की रातों में।
वो ही पाता है लक्ष्य सदा,
जीवन को सफल बनाता है।
उसने जितने सिद्धांत दिए,
जग उसको ही अपनाता है।
गिरि के मस्तक पर गिरती है,
पावस में अविरल वृष्टिधार।
अविचल रहकर वो सहता है,
हिमवर्षण का निर्मम प्रहार।
धारण करता है धैर्य सतत,
निज में वह मोद मनाता है,
फिर आता है मधुमय वसंत,
उसको भूषण पहनाता है।
पीकर अपमानों की ज्वाला,
पाञ्चाली नहीं अधीर हुई।
उसकी वो बिखरी केशराशि,
कौरव की मृत्यु-लकीर हुई।
निज अटल धैर्य का पुरस्कार,
उस द्रुपदसुता ने पाया था।
अंजलि में भर रक्त भीम ने,
दुःशासन का लाया था।
रघुपति ने भी निज जीवन में,
अगणित विपदाएँ झेली थी।
नित क्रूर काल-सी कानन में,
फिरती ताड़का अकेली थी।
लघु वय में ही रघुनंदन ने,
उस कुटिला का संहार किया।
इस साहस और शूरता का,
जगती ने जयजयकार किया।
संघर्षनिरत ही रहे सदा,
शिशुपन से गोवर्धनधारी।
दानवी शक्तियों ने मिलकर,
नित-नित लाईं विपदा भारी।
विप्लव को बाँहों में समेट,
प्रभु ने जग का उद्धार किया।
उन वासुदेव को वंदन है,
जिसने पवित्र संसार किया।
जाओ अतीत की ओर सुनो,
झंकार सुनाई देती है।
उस अभिमन्यु के बाणों की,
बौछार दिखाई देती है।
उसकी स्मृतियों को अब भी,
आँचल में धरा सुलाती है।
हल्दीघाटी की वीरभूमि,
राणा के यश को गाती है।
शूलों से आच्छादित पथ पर,
सानंद साहसी चलते हैं।
उनकी उमंग के झोंकों से,
विघ्नों के संकट टलते हैं।
युग के ललाट पर गौरवमय,
निज क्रांतिलेख लिख जाते हैं।
उन वीरों के पगवंदन में,
हम सादर शीश झुकाते हैं।
(2) सबको मरघट तक जाना है
जो इस धरती पर आया है,
उसको एक दिन मरना होगा।
क्षुधित काल के विकल उदर को,
एक दिन अवश्य भरना होगा।
निर्धन या धनवान सभी को,
इस मरण-बिन्दु तक आना है।
सबको मरघट तक जाना है।
सोने की थाली में खाओ,
या रजत-पात्र में दूध पियो।
शयन करो तुम कुसुम-सेज पर,
अथवा विलास में सतत जियो।
कालानल की ज्वालाओं में,
इस तन को यहाँ गलाना है।
सबको मरघट तक जाना है।
स्वर्णभवन में वास करो,
अथवा तुम धनकुबेर कहलाओ।
कौन बचा है कालदंत से,
मन में मंथन कर बतलाओ।
वह आग चिता की धधकेगी,
इस तन को वहाँ मिटाना है।
सबको मरघट तक जाना है।
तुम वैर पालते थे जिनसे,
वे ही कंधों पर लाएँगे।
जो तुमको अतिशय प्यारे थे,
वो परिजन चिता सजाएँगे।
जिसको तुम कौर खिलाते थे,
उसको ही आग जलाना है।
सबको मरघट तक जाना है।
जब कभी भटक जाते थे तुम,
जो हाथ पकड़ घर लाते थे।
वो दूर देश के सकल मित्र,
जो साथ-साथ घर आते थे।
वो झिझकेंगे घर लाने में,
अब अंतिम वही ठिकाना है।
सबको मरघट तक जाना है।
मिट्टी का पुतला यह तन है,
नित क्षरणशील यह जीवन है,
जिसपर करते हो अहंकार,
वह ढलनेवाला यौवन है।
हरि के चरणों की शरण गहो,
उनको न कभी बिसराना है।
सबको मरघट तक जाना है।
जग के हित में सदुपाय करो,
सबके मुख पर मधुहास खिले।
सेवा का घुलने दो पराग,
तुमको सबका आशीष मिले।
इसमें सार्थकता जीवन की,
कुछ और न जग में पाना है।
सबको मरघट तक जाना है।
जिसने जग के आँसू पोंछे,
वह वंदनीय पद पाता है।
जनमानस में ध्रुवतारा-सा,
वह सज्जन नर बस जाता है।
अमरत्व यही,शुभ कीर्ति यही,
जीवन में यही कमाना है।
सबको मरघट तक जाना है।
रचनाकार--निशेश अशोक वर्द्धन
उपनाम--निशेश दुबे
ग्राम+पोस्ट--देवकुली
थाना--ब्रह्मपुर
जिला--बक्सर(बिहार)
पिन कोड--802112
000000000000
बृजेन्द्र श्रीवास्तव ‘उत्कर्ष’
|| प्रिय विक्रम!||
प्रिय विक्रम!
चाँद पर यथाभिलाषित हो,
भारत के अरमानों से पालित हो,
इसरो के संस्कारों से संचालित हो,
हम सबकी उमंगों से उल्लासित हो,
चंदा मामा भोले शंकर के सिर का ताज है,
तू भारत के ज्ञान-विज्ञान-मान का नाज़ है,
धरती माँ और चंदा मामा के बीच साज है,
वीर हनुमान की तरह करना तुझे बड़ा काज है||
प्रिय विक्रम!
यदि तू संकट में है,
तो कृष्ण को याद कर कर्म कर,
राम को याद कर परेशानी को हर,
नचिकेता बन यम से भी न डर,
अर्जुन बन संकट में भी लक्ष्य पूर्ण कर,
गांधी बन चल लोक-कल्याण की डगर,
लौट आने पर तेरा अभिनंन्दन होगा,
माँ भारती के लाल तेरा वंदन होगा||
प्रिय विक्रम,
अब तुम्हारी चिंता बहुत सताती है,
संदेश न आने की व्याकुलता डराती है,
तुम्हारे बिन सूना सब संसार है,
तुम्हारी कुशलता के लिए दुआओं में डूबा,
तुम्हारा प्यारा भारत परिवार है।।
बृजेन्द्र श्रीवास्तव ‘उत्कर्ष’
0000000000000000000000
संतोष मिश्र
जीवन का यह खेल निराला है।
हर दीन दुखी ,का भी रखवाला है।
सामर्थ्य समय है ,जो मतवाला है।
चिन्ता छोड़ के कर्म करो तुम ऊपर वाला है।
बुरे दिनों मे संयम रख ले ,वह हिम्मत वाला है।
जीवन का यह खेल निराला है।
निज कर्मों का फल निश्चित है,
जो कभी न टलने वाला है।
स्वयं करो औ स्वयं भरो,जो होने वाला है।
कदम कदम पर स्वयं है लड़ना,न घर, न बाहर वाला है ।
जीवन का यह खेल निराला है।
एक मूल मंत्र जीवन मे, सबका साथ निभाने वाला है।
वाणी में संयम का रखना,एक जीत दिलाने वाला है।
सच्चे मन से कर्म करो ,बस, फल मिलने ही वाला.है।
हर तम में होती घोर निराशा ,पर पीछे एक उजाला है।
जीवन का यह खेल निराला है।
0000000000000000
प्रो. संजीव कुमार
भूख गरीब की
************
इस भूख का मै क्या करूँ?
दिन हो या रात मुझे सताती है,
औरों को खाता देख और बढ़ जाती है,
अपने पेट को दूसरे के भाग्य से कैसे जोड़ूँ ,
इस भूख का मैं क्या करूँ ?
बूझे ना भूख तो यह बीमारी ले आती है,
और वह आकर मेरे बाँहें झुका देती है,
झुके हुये बाँहों से पत्थर कैसे तोड़ूँ,
इस भूख का मैं क्या करूँ ?
बचे -खुचे जूठन की खोज निरंतर करता हूँ ,
लङता हूँ कुत्तों से भी जूठन के लिए,
अपने जीवन के तरु को कैसे मोड़ूँ?
विवशता हमें भीख पर ले आई है,
और यह दुनिया दूर धुत्कार देती है,
उजड़े किस्मत को और कितना उजाड़ूँ,
इस भूख का मै क्या करूँ ?
मन को तसल्ली देता हूं कि कभी तो भर पेट खाऊँगा,
कुछ कौर स्वादिष्ट चावल रोटी के चबाऊँगा।
इस भूख का मैं क्या करूँ ?
मनन करता हूँ कि बस मर ही जाऊँ,
धरा पर नहीं तो अम्बर पर जाकर खाऊँ,
भूखे पेट कब तक खुले अम्बर की चादर ओढ़ूँ,
इस भूख का मैं क्या करूँ ?
*********************
*प्रो. संजीव कुमार*
एसोशिएट प्रोफेसर, अर्थशास्त्र विभाग,मगध सेंट्रल इंटर कॉलेज,
नवादा (बिहार)
ग्राम :-कुशा ,पोस्ट :- नरहट
जिला :- नवादा :- 805122
kumarsanjeev8051@rediffmail.com
000000000000
अशोक बाबू माहौर
मिट्टी जमी है
हे! चिड़िया
तेरे ऊपर मिट्टी जमी है
कीचड़ चिपकी है
बैठी है धूल
आसन लगाए
जा कहीं नदी तालाब में
पर धो ले
स्नान कर ले
सज धज ले
प्रकृति की गोद में
ताकि सुन्दर दिख सके
धुँधले शहर में
और निहार सके
सब तुझे
प्रफुल्लित हो
देख सके उड़ना तेरा
मन मोहक निराला!
परिचय
अशोक बाबू माहौर
साहित्य लेखन :हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं में संलग्न।
प्रकाशित साहित्य :हिंदी साहित्य की विभिन्न पत्र पत्रिकाएं जैसे स्वर्गविभा, अनहदक्रति, साहित्यकुंज, हिंदीकुुुंज, साहित्यशिल्पी, पुरवाई, रचनाकार, पूर्वाभास, वेबदुनिया, अद्भुत इंडिया, वर्तमान अंकुर, जखीरा, काव्य रंगोली, साहित्य सुधा, करंट क्राइम, साहित्य धर्म, रवि पथ, पूर्वांचल प्रहरी, हरियाणा प्रदीप जय विजय, युवा प्रवर्तक, ट्रू मीडिया, अमर उजाला, सेतु हिंदी, कलम लाइव, जयदीप पत्रिका, सौराष्ट्र भारत आदि में रचनाऐं प्रकाशित।
सम्मान :
इ- पत्रिका अनहदक्रति की ओर से विशेष मान्यता सम्मान 2014-15
नवांकुर साहित्य सम्मान
काव्य रंगोली साहित्य भूषण सम्मान
मातृत्व ममता सम्मान
साहित्य विचार प्रतियोगिता आदि
प्रकाशित पुस्तक :साझा पुस्तक
(1)नये पल्लव 3
(2)काव्यांकुर 6
(3)अनकहे एहसास
(4)नये पल्लव 6
(5)काव्य संगम
अभिरुचि :साहित्य लेखन।
संपर्क :ग्राम कदमन का पुरा, तहसील अम्बाह, जिला मुरैना (मप्र) 476111
00000000000
ब्रजेश त्रिवेदी
बाई
घर तुझसे हैं ,घर जैसा , न जाना ख़ुदा है कैसा
तू जागे , तब सूरज आँखे खोले ,
क्या कोयल , क्या मिश्री ओ बंशी , जब तू कुछ बोले
घर के कोने कोने तुझको ही रोज पुकारें " बाई"
जब जब मैं हारा , बस तेरा रहा सहारा
सब मुझको डांटे - मारे , तब रोती आँखे तुझे पुकारे
तू झट आके ,पल्लू में मुझे छिपाले
इक हाथ से आँसू पोछे , इक से दे मुझे मिठाई
मन जब थक जाता , तब तड़प के बोले ""बाई""
बचपन में जब मैं गिर जाऊँ, तुझे मलहम लगाता पाऊँ
ठंडी में , गर्मी में या बारिश के पानी में ,तुझे एक सा पाऊँ
क्या तेरी लाचारी , क्या तेरी बीमारी
बस जाने घर की चार दिवारी
महल अटारी सब सूने ,बस इक आवाज पुकारे ""बाई""
क्या होली क्या दीवाली , तेरी सूरत देवो वाली
जब तू कपड़े पहनाये , काला टीका लगा मुझे सजाए
चार चवन्नी दे , राजा मुझे बनाये
सब कुछ आज कमाया, फिर भी कुछ न कर पाया
दे दे तू फिर वही चवन्नी ओ "" बाई""
सब कुछ है खाने को , कुछ नही अब पाने को
बस जी करता है, तेरे पल्लू में बंधी चीज खाने को
अब जब कोई मुझको डांटे , ये मन तुझ से सब छुपाये
बड़े होकर ,अब वो बचपन का रोता बेटा तुझे पुकारे "" बाई""
--
सुबह सुबह इक सदा सी सुनाई देती है
रोजेदारों को जैसे रमजान की सुबह दिखाई देती है
की उसे तुम मेरा फ़ख्त इक वहम कहते हो
वो पुरनम आंखे मुझे रातो को सोने नही देती है
यूँ तो मैं सब कुछ , मिटा दूँ इस दुनियां से
मगर गफ़लत मैं हूँ , सूरत उसकी हर जगह दिखाई देती है
मयकदो में बैठकर तुम मयकशी की बातें करते हो
वो आँखे खोले तो , दुनिया नशे में दिखाई देती है
सुना है की उसने जुल्फों को संवारा ही नहीं है
अबके बारिश भी ठहरी ठहरी गुमसुम सी दिखाई देती है
कभी गुजरो उसके रास्ते से तो , फ़ख्त इतना पूछते आना
वो महफ़िल में होकर भी , क्यूँ तन्हा सी दिखाई देती है
हँसती हुई आँखें, क्यूँ भीगी भीगी सी दिखाई देती है
वो आँखें खोले भी तो कैसे खोले
उनमें तस्वीर हमारी ही दिखाई देती है
------
कभी कभी बेवजह भी मुस्कुराया करो
दरवाजे तो खुले हैं , दस्तक़ तो दिया करो
बस्ती की राहें ,सूनी सूनी सी हो गई हैं
मिलने न सही ,वैसे ही राह से गुजर जाया करो
ये दिन ,ये रातें , कैसे कटी , किसी से पूछ तो लिया करो
मेरे लिए तो फुरसत नहीं, मेरे किस्से ही किसी से सुन लिया करो
चाँद , दरिया,समंदर , गुलाब ओ किताबों से कैसी अदावत
मुझसे न सही , कभी इन्हीं से बातें किया तो करो
माना की ख़िज्र का मौसम है ,बहारें खुद ब खुद चली आएंगी
नशेमन नशीली आँखों को तो खोल भी लिया करो
ब्रजेश त्रिवेदी
0000000000000
सचिन राणा हीरो
ए-चांद ना इतना इतराओ हम फिर से प्रयास करेंगे,
तुझपे तिरंगा फहराने की फिर से अरदास करेंगे,,
बिना लड़े रणभूमि में कोई युद्ध नहीं जीता जाता,,
युद्ध जीतकर भी केवल नहीं कोई विजित हो पाता,,
चक्रव्यूह में घिर कर भी अभिमन्यु सा एहसास करेंगे,,
ए-चांद ना इतना इतराओ हम फिर से प्रयास करेंगे,,
बेशक अपना चंद्रयान चांद नहीं छू पाया है,,
लेकिन भारत के मन पर ISRO छाया है,,
"राणा" चांद को पाने का फिर से विश्वास धरेंगे,,
ए-चांद ना इतना इतराओ हम फिर से प्रयास करेंगे,,
सचिन राणा हीरो
हरियाणवी युवा कवि रत्न
000000000000000000
द्रोणकुमार सार्वा
मेरे शिक्षक का साथ
****************
अबूझ लकीर ही थे वे
कुछ बिंदु सरीखे लगते थे
काले पट्टी में श्वेत चाक
बनकर कुछ चित्र उभरते थे
उंगली को मिला सहारा तब
पीठ में अपनेपन का थाप
कुछ लकीर जुड़ वर्ण बने
पाकर मेरे शिक्षक का साथ...
गूँगा था तब तलक स्वयँ
मन कोरा जब तक ज्ञान बिना
मां की लोरी तो मन्त्र ही थे
जिनसे शब्दों का अहसास मिला
कुछ भाव मेरे भीतर जागे
पर साहस शिक्षा से आई
परी कहानी ,चन्दा मामा
मुनिया की दुनिया से शुरू पढ़ाई
मंच दिलाकर और निखारा
ताली का वो पहली हाथ
तुतलाते हुए लफ़्ज़ शब्द बने
पाकर मेरे शिक्षक का साथ...
कभी सख्त हो दिए डांट
कभी सीख की सरल बात
अनगिनत लम्हों का दौर याद
सृजनदूत वे शिल्पकार
सीधे-सादे जीवनधारा
पर मन मे थे उच्च विचार
ध्वनि घण्टी पर बंधे नियम
समय बोध कर्तव्य पाठ
अतीत हुआ सुखद वर्तमान
पाकर मेरे शिक्षक का साथ....
द्रोणकुमार सार्वा
मोखा
बालोद(छत्तीसगढ़)
000000000000000000
दिन जी सारस्वत "आज़ाद"
भूतल से उठकर,
नभ पर सलिल सा,
वो छाया है,
सुरभोग सुधा,
अविचल अम्बुज से,
वो टकराया है
बर्बर है गगनमंडल,
ये दुःसाध्य नहीं,
अखिलेश्वर अभ्यन्तर बैठा,
धवल हिम के शिखरों से,
तनिक न डर,
सारथी का पार्थ बन
द्रुत प्रहार कर!
-दिन जी सारस्वत "आज़ाद"
0000000000000000000
डाँ. सतोष आडे
*_Return टिकट "तो कन्फर्म है_*"
_इसलिये मन भरकर जीयें_
_मन में भरकर ना जीयें।_
_छोड़िए शिकायत_
_शुक्रिया अदा कीजिये_
_जितना है पास_
_पहले उसका मजा लीजिये_
_चाहे जिधर से गुज़रिये_
_मीठी सी हलचल मचा दीजिये_
_उम्र का हर एक दौर मज़ेदार है_
_अपनी उम्र का मज़ा लीजिये_
_क्योंकि_
_Return Ticket_
_तो कन्फर्म है_
0000000000000
अनिल कुमार
'वक्त और यादें'
उस गुजरे वक्त को याद करके
आज भी मैं मुस्कुरा देता हूँ
कभी-कभी यादों से गुजरकर
थोड़ा खुशी मना लेता हूँ
जानता हूँ कि बिता वक्त
कभी लौटकर वापस नहीं आता
समय कभी खुद को नहीं दोहराता
पर फिर भी यादों के साये में
थोड़ा खुद को ले जाता हूँ
वक्त की काली छाया में भी
मैं खुद को जिन्दा,
कुछ जीवित पाता हूँ
लेकिन जानता हूँ
गुजरा वक्त लौटकर
कभी न वापस आयेगा
बीते वक्त की खुशियाँ
आने वाला वक्त
कभी नहीं दोहरायेगा
पर फिर भी मैं बीते वक्त की
उन यादों को जिन्दा करता हूँ
गुजरे वक्त की उन यादों को
सपनों में ही सही
पर कुछ पल जी लिया करता हूँ
क्योंकि वह भी मेरा कल था
और कल भी मेरा होगा
बस वर्तमान से जुड़े हूए दोनों
मेरे जीवन की कहानी को
कल के बलबूते ही
वर्तमान से गुजरते हूए
कल की स्वप्निल गोदी में रखेगा।
--
'रुपया-पैसा'
दुनिया में चल रहा तमाशा
हर कोई रुपये-पैसे को चाहता
रुपये-पैसे के लिए दे रहा अपनों को झाँसा
इसके लिए रिश्ते नातों को भूल भी जाता
क्योंकि धन-दौलत ने सबको है पाँसा
चल रहा दुनिया में यही तमाशा
पाने को इसको पागल हो जाता
इसके लिए झूठ की डफली बजाता
पाप से भी अब नहीं कतराता
दौलत के लिए खून बहाता
अपनों को ही वह छल जाता
दौलत के लिए जमीर बेच है आता
यही तो है धन-दौलत का तमाशा
पिता से बेटा अलग है हो जाता
दोस्त को दोस्त है धोखा दे जाता
पैसे के लिए तो ईमान बेच है आता
पर धनवान है बनना चाहता
कैसा है दौलत का यह तमाशा
बन गया जो सबकी अभिलाषा
अब यह सिर चढ़कर बोल रहा
दौलत से दुनिया को तोल रहा
रिश्तों में भी जहर हैं घोल रहा
क्योंकि रुपया-पैसा तमाशा खेल रहा
दुनियावालों के मुँह बस यही बोल रहा।
अनिल कुमार, वरिष्ठ अध्यापक'हिन्दी'
ग्राम व पोस्ट देई, तहसील नैनवाँ, जिला बून्दी, राजस्थान
ई मेल chocaletrock@gmail.com
000000000000000000
चंचलिका.
" द्वंद्व युद्ध "
विश्वास - अविश्वास के द्वंद्व युद्ध में
द्वैत - अद्वैत के अखंड आभास में
किसका पलड़ा भारी है ....
नैतिक - अनैतिक के पतन राह में
सम - विषम के विचार विमर्ष में
कौन किसका आभारी है....
सोच - समझ के असीम दायरे में
रुचि - शुचि के नित्य आलोक में
दिव्य आलोक प्रभारी है.....
ज्ञान - अज्ञान की जिज्ञासा में
पार - अपार की क्षमता में
विराट विश्व बलिहारी है.......
----
00000000000000
अन्नपूर्णा जवाहर देवांगन
मां के जन्मदिन पर
तुझे मैं शुभकामनाएं
कैसे दूं
तूने ही तो मेरे
होंठों में शब्दों
को पिरोया है
तेरे ही आंचल
के छांव में
पाया है मैंने
खुशियों का संसार
मां
तुझे कैसे दुआएं दूं
तेरी दुआओं का
प्रतिफल हूं मैं
तेरी हस्ती से ही
मेरा वजूद है
तेरे आशीष से ही
आबाद मेरा जीवन है
फिर भला मैं
कैसे तुम्हे बधाई दूं
तुम्हारे इस जन्मदिन पर
मां
बस ईश्वर से
प्रार्थना है
जब भी जनम मिले
तेरी ही कोख मिले
जब भी आऊं
इस दुनिया में
तेरी ही गोद मिले
तेरे कदमों में
मेरी जन्नत सजे
तेरा अक्स
बनकर फिरूं
तेरी छाया बन
कर चलूं
तेरे ममता के
आंचल में
निखरू मैं सवरूं मैं
अन्नपूर्णा जवाहर देवांगन , महासमुंद ( छ.ग.)
0000000000000
मुकेश कुमार ऋषि वर्मा
बाल कविता - चिड़िया
----------------------------
फुदक-फुदक कर नाचती चिड़िया,
दाना चुंगकर उड़ जाती चिड़िया |
हरी-भरी सुंदर बगिया में,
मीठे-मीठे गीत सुनाती चिड़िया |
अपने मिश्रीघुले बोलों से
बच्चों का मन चहकाती चिड़िया |
नित मिल-जुल कर आती,
आपस में नहीं झगड़ती चिड़िया |
प्रेमभाव से रहना सिखलाती,
बहुत बड़ी सीख देती नन्हीं चिड़िया |
तरह-तरह के रुप-रंग वाली,
लाल, हरी, काली, नीली, पीली चिड़िया |
फुदक-फुदक कर नाचती चिड़िया,
दाना चुंगकर उड़ जाती चिड़िया ||
--
भादों का महीना
---------------------
बरसते भादों का महीना है
प्रिये तुमको भीगके जाना है
बोलती कोयल कुहू-कुहू
हमने तुम्हें ही अपना माना है
शीतल समीर चलती, मोर नाचते
कल-कल कहती नदी बहती
हमारे हृदय का कहना है
बरसते भादों का महीना है
ताल-तलैया, पोखर लेतीं हिलोरे
मन तुम्हारा, मन हमारा डोले
तुमको लज्जा के साये में चमकना है
बरसते भादों का महीना है
खेतों की हरियाली सा यौवन तुम्हारा
बड़ा हसीं, बड़ा प्यारा चेहरा तुम्हारा
खाते हैं कसम साथ जीना-मरना है
बरसते भादों का महीना है
- मुकेश कुमार ऋषि वर्मा
ग्राम रिहावली, डाक तारौली,
फतेहाबाद, आगरा, 283111
0000000000000
तालिब हुसैन ‘रहबर’
*पिता का होना*
सुबह उठा तो
सब कुछ खामोश था
मैं और घर
घर नहीं मकान
उनके जाने के बाद
रेत गारे की दीवारें थीं ये बस
जिसे घर कहता
था ही कहाँ कुछ यहाँ ऐसा
आज जब घर की सफाई की
तो
कुछ बी पी और डायबिटीज़ की कुछ गोलियां
पड़ी मिली
आज इन्हें देख कर
गुस्सा नहीं आया
बल्कि रो पड़ा दिल
और बहुत कुछ था
जो “काश” के स्वर में बोझिल हो गया
दिल कर रहा था
उनकी उंगली पकड़ कर
देख लूँ फिर से पूरी दुनिया
अपनी छोटी –छोटी ज़रूरतों के लिए लड़ूँ
रात को देर से आने पर
उनकी फिक्र वाली आँखों को निहारूँ
धीरे-धीरे एक के बाद एक
जुड़ती चली गयी यादों की कभी न
टूटने वाली कड़ियाँ
और लगा जैसे कि
फिर उसी बचपन के गलियारे में
लौट आया था मैं
बाउजी अम्मा और मेरा बचपन
सब एक मधुर राग कि तरह सुनाई दे रहा था
तभी बाहर से आवाज़ के साथ
आई चिट्ठी ने चौंका दिया
ख़त में उनके नाम के साथ
लिखा देखा “स्वर्गीय” तो
कांप उठे थे हाथ
सहम गया था दिल
और जाना
कितना कुछ था जीवन में “पिता” का होना ............
˜ तालिब हुसैन ‘रहबर’
शिक्षा संकाय , जा0 मि0 इ0, नयी दिल्ली -110025
000000000000
वन्दना मौर्या "बिट्टू"
၊၊၊၊၊၊၊၊
1
၊၊၊၊၊၊၊၊
नदियों के बिना सागर,
होते है अधूरे,
अपनों के बिना सपने,
नहीं होते पूरे,
तुम साथ देते तो,
हमने भी ये ठाना था,
मिलकर मिटा देते हम,
जीवन के अंधेरे,
टूटे तो है ही हम,
पर खड़े होने का दम भी,
आपको देखकर
कर जाते पूरे I
सूखी सी दरिया में
तुमने ही भरा जीवन,
हर गीत तेरे
न होगे अब अधूरे
၊၊၊၊၊၊၊၊၊၊၊၊
2
၊၊၊၊၊၊၊၊၊၊၊၊
दो जोड़ी आँखें
ढूढती रहती रात भर
सोने का ठिकाना...
गिनती तारे
घूमती बादलों में
बुनती ताना बाना
ओझल यादें,
भावी जीवन,
ढूंढ़े मोती , कंकड़
पत्थर,
सब जाना पहचाना
तोड़ चला, कुछ जोड़ चला
कोई सपना,
मुख मोड़ चला,
नीदें भी न है अपनी,
मत कहो कि अब
सो जाना,
दो आँखें ...
၊၊၊၊၊၊၊၊
- वन्दना मौर्या "बिट्टू"
बेदूपारा, लम्भुआ
सुल्तानपुर,
उत्तर प्रदेश
00000000000
जय कुमार ठाकुर
प्रेरणा शक्ति
ये तो मात्र प्रेरणा है ,
जो हमे हिम्मत देती है ।
चूर -चूर होते हैं ,हम टूट कर ,
एक नया अहसास देती हैं।
हर कर भी न भूलने देती लक्ष्य को ,
उसी क्षण महापुरुषों का उदाहरण देती हैं ।
हां यही तो वह प्रेरणा शक्ति है ।
जो हमें लक्ष्य को भूलने नहीं देती है ।
बिना सहारे के टूटता है जब तन , मन ,
उठती है भीतर से आवाज़ जागृत का देती है ।
कहती है पाकर देख मंजिल को ,
एक नया उत्साह देती है ।
मंजिल तेरी वो सेज है ,
जो तेरी हर -हर को भुला देती है ।
मिली हो कई बार असफलता तो ,
एक ही सफलता सारी थकान मिटा देती है ।
प्रेरणा तो वह शक्ति है ,
जो हमें हर में भी विजय की लालसा देती है ।
प्रेरित कर हमें जगाकर ,
फिर से हिम्मत देती है ।
न निष्क्रिय होने देती है हमें ,
हर पल नया अहसास देती है ।
बना देती है व्यक्ति को वो वीर ,
जो उसे सफल बना देती है ।
कवि - जय कुमार ठाकुर ,
सुपुत्र श्री पन्ना लाल ठाकुर गांव करगाणु
डाक घर बिहणी उप तहसील छतरी जिला मंडी हिमाचल प्रदेश
0000000000
बेहतरीन रचना
जवाब देंहटाएं