तेजपाल सिंह ‘तेज’ की कुछ ग़ज़लें -1- ज़मीन से उठूँ तो मैं अम्बर देखूँ, तारों की धूप-छाँव का मंजर देखूँ । फिर वही रंगीन फूलों की महक, फिर...
तेजपाल सिंह ‘तेज’ की कुछ ग़ज़लें
-1-
ज़मीन से उठूँ तो मैं अम्बर देखूँ,
तारों की धूप-छाँव का मंजर देखूँ ।
फिर वही रंगीन फूलों की महक,
फिर वही निगा-ओ-नश्तर देखूँ ।
फिर वही गुस्ताख़ सपनों की धनक,
फिर सूखी हुई आँखों में समन्दर देखूँ ।
फिर वही खूने-जिगर की रंगो-बू,
फिर तिलस्मी यार का ख़ंजर देखूँ ।
बुतपरस्ती की मुझी फुरसत नहीं,
फुरसत मिले तो ‘तेज’ के तेवर देखूँ ।
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-2-
उम्र-भर तोड़े हैं यां पत्थर हमने.
जीते हैं सरे-राह सिकंदर हमने ।
गंगो-जमन की तल्खियां कुछ भी नहीं,
निगले हैं कई तल्ख़ समन्दर हमने ।
दिल पर हुआ तो वार तो भारी पड़ा,
झेले हैं यों देह पर खंजर हमने ।
फ़सले-बहराँ पर वो काबिज हो गए,
सींचे थे अपने खून से बंजर हमने ।
होगी कल मकबूल इमारत अपनी,
चूमा है इसी शौक में अम्बर हमने ।
मिथ्या नहीं कि कल ज़मीं उलटी होगी,
बोये हैं कई ज्वालामुखी अन्दर हमने ।
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-3- मूक बने हैं शहर क्यों पापा कुछ तो बोलो,
धुंधलाई हर सहर क्यों पापा कुछ तो बोलो ।
आज चाँदनी बैठ मुंडेरे उगल रही है खारापन,
समय गया है ठहर क्यों पापा कुछ तो बोलो ।
कल शहर में हंगामा था मारो-मारो,
चऊँ ओर था कहर क्यों पापा कुछ तो बोलो ।
किस कारण से किसने किसका खून किया था,
आज बन्द है शहर क्यों पापा कुछ तो बोलो ।
क्या? ‘तेज’ समूची सामाजिक शिक्षा गूँगी है,
है हिंसा का ज़हर क्यों पापा कुछ तो बोलो ।
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-4-
मज़हबी नफ़रत की सब दीवार अब तुड़वाइये,
कि आदमी तो आदमी से व्यर्थ मत लड़वाइये ।
सौन चिरिया के अभी भी पंख बाकी हैं अभी,
सैयाद के इख़लाक को बिन बात मत भड़काइये ।
बहुत उजली है जहाँ में साख अपनी दोस्तो,
आज तुम चेहरे पे इसके गर्द मत चढ़वाइये ।
आज भी ऊंचा है बेशक शीश अपने देश का,
माथे पे इसके दंभ की कील मत गढ़वाइये ।
आज तक न हो सका हल ‘तेज’ रोटी का सवाल,
धर्म की घुट्टी पिलाकर भूख मत भड़काइये।
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-5-
हमने अपनी पगड़ी आप उछाली है,
दुविधाओं के वन में खाट बिछा ली है ।
तेरा-मेरा इसका-उसका ख़ूब किया,
एक-दूजे पर कीचड़ ख़ूब उछाली है ।
अपने हाथों तोड़ी घर की दीवारें,
नाहक सिर पर टूटी छान उठाली है ।
अब अम्बर पर फूल खिलेंगे सरसों के,
धरती पर पतझड़ ने बात उछाली है ।
खेतों में अब काँटे ख़ुशबू बाँटेंगे,
‘तेज ’धूप ने गुल की गन्ध चुरा ली है ।
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-6-
बचपन से ही हम बेमानी शोर-शराबा देख रहे हैं,
आँख मिचौनी का चौतरफ़ा खेल-तमाशा देख रहे हैं ।
साँझ-सवेरे गलियारों में, हिरती-फिरती, लुटती-पिटती,
निर्मल सीता, दुर्बल द्रोपदी, अल्हड़ राधा देख रहे हैं ।
ढोंगी राजा, ढोंगी प्रजा, ढोंगी योगी, ढोंगी श्रद्धा,
ढोंगी जग में बेमतलब का खून-खराबा देख रहे हैं ।
प्यासी धूप , उदासी रैना, सोती सहर, जागती संध्या,
हकला बचपन, बहरा यौवन, मूक बुढ़ापा देख रहे हैं ।
एक घर उजले, एक घर धुंधले, दीवाली के दीप सजे,
एक छान पर सौन चिरैया, एक पे फ़ाका देख रहे हैं ।
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-7-
मयकदों में आजकल उलटा हिसाब है,
तल्ख दिल है साकिया मीठी शराब है ।
ढूंढता फिरता है क्या अम्बर की छाँव में,
ज़िन्दगी है प्रश्न तो मृत्यु जवाब है ।
एक-दूसरे की बात को करते है तार-तार,
आज की महफ़िल का हर बन्दा नवाब है ।
अब क्या कोई देगा सब्रोकरार,
यूँ भी तो अब ढलने लगा मेरा शबाब है ।
होंठ तक खुलते नहीं है आजकल कि ‘तेज’,
सिर पर मेरे कुछ वक्त का ऐसा दबाव है ।
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-8-
आँखों-आखों तल्ख़ समन्दर ठहरे हैं
उथले-उथले नीलगगर से गहरे हैं ।
नीचे – नीचे काट रही है हरियाली,
ऊपर – ऊपर ख़ुस्क हवा के पहरे हैं ।
जंगल –जंगल ख़ुस्बू का आलम,
बस्ती – बस्ती उतरे उतरे चेहरे हैं ।
धरती –धरती डाली – डाली फूल रही,
परबत – परबत ऊँचे गूँगे-बहरे हैं ।
रातों – रातों जगते – जगते सोते हैं’
धड़कन –धड़कन ‘तेज’ अजल के सेहरे हैं।
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-9- सावन की क्या ढली जवानी,
मेघ हुए धौले बिन पानी ।
लगे सिकुड़ने यमुना के तट,
हवा हुआ वर्षा का पानी ।
अमुआ की डाली अलसायी,
कोयल भूल गई निज बानी ।
मुर्ली की धुन थकी कि राधा,
आँखों में भर लायी पानी ।
झूले थके मल्हारें सहमीं,
जीवन ठहरा, रुकी जवानी ।
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-10-
ये शोर कैसा आ रहा आबादियों से,
अनजान-सी सुनसान बेकल घाटियो से ।
क्या किसी का मृत्यु ने घेरा किया है,
या भिड़ गई स्वतंत्रता बलिदानियों से ।
या कहीं नेताओं की आवाज गूंजी,
या फिर कहीं टकराव है नाकामियों से ।
याकि है दम तोड़ती-सी भूख का संत्रास,
या कहां संगीत उभरा वादियों से ।
या कराह रही करुणामये माँ-भारती,
जलकर परस्पर द्वेष की चिंगारियों से ।
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तेजपाल सिंह तेज’ (जन्म 1949) की गजल, कविता, और विचार-विमर्श की लगभग दो दर्जन किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं - दृष्टिकोण, ट्रैफिक जाम है, गुजरा हूँ जिधर से, हादसो के शहर में, तूंफ़ाँ की ज़द में ( गजल संग्रह), बेताल दृष्टि, पुश्तैनी पीड़ा आदि (कविता संग्रह), रुन - झुन, खेल - खेल में, धमाचौकड़ी आदि ( बालगीत), कहाँ गई वो दिल्ली वाली ( शब्द चित्र), पांच निबन्ध संग्रह और अन्य। तेजपाल सिंह साप्ताहिक पत्र ग्रीन सत्ता का साहित्य संपादक, चर्चित पत्रिका अपेक्षा का उपसंपादक, आजीवक विजन का प्रधान संपादक तथा अधिकार दर्पण नामक त्रैमासिक का संपादक भी रहे हैं। स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त होकर आप इन दिनों स्वतंत्र लेखन के रत हैं। हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार ( 1995-96) तथा साहित्यकार सम्मान (2006-2007) से भी आप सम्मानित किए जा चुके हैं।
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