आदमी कितना भी तुर्ररम खां क्यों न हो,औरत के बिना पूर्ण पुरुष हो ही नहीं सकता वरना प्रकृति जन्य स्त्री, पुरुष न होते ! थर्ड जेंडर की बात तो ज...
आदमी कितना भी तुर्ररम खां क्यों न हो,औरत के बिना पूर्ण पुरुष हो ही नहीं सकता वरना प्रकृति जन्य स्त्री, पुरुष न होते ! थर्ड जेंडर की बात तो जेनेटिक डिसआर्डर में आती है; फिर भी वो ना इधर के ना उधर के,लेकिन आज वो पढ़ लिख समझकर अपने मानव अधिकारों के लिए,जागरुक हो संघर्षरत हैं !आज उन्हें वोट के अधिकार से लेकर, विधायिका व सरकारी नौकरियों में भी स्थान मिलना शुरु हो चुका है ! जीने व सजने संवरने की ललक किसमें नहीं होती ? हां तो मैं बात कर रहा था कि पुरुष कितना भी तुर्ररम खां क्यों न हो औरत बिन आधा-अधूरा ही है ! इसीलिए तो औरत को अर्द्धांगिनी व पुरुष को अर्द्धनारीश्वर कहा गया है ! वैसे यह दोनों मिथक कम,परन्तु समाज की सापेक्षता में व्यवहारिकता के कुछ ज्यादा नजदीक है !
एक के बिछुडने के बाद, दूसरे के एकाकी पन को कौन उनके अलावा समझ सकता है ? आपसी गुटर गूं का जीवनानंद तो जोड़े में ही संभव है ! अकेलेपन में कहां ?
कभी इस पीड़ा को स्व-अनुभूत कर कोई देखे,परखे तो शायद जोड़े का जीवन मूल्य समझ सके ! यूं तो एक के बिछुड़ने पर दूसरे की उम्र प्राय: कष्टानुभूति के लिए और लम्बी होती चली जाती है ! उस मर्मांतक पीड़ा का मर्म तो बस वो ही जाने ! फिर, ऐसे समय में तो,
जोड़े की महती आवश्यकता जान पड़ती दिखाई देती है ! औरत अपने मन का दुखड़ा किसके सामने रोये और कहे ? आदमी हो या औरत मान मर्यादा के मरुथल में जान बूझकर मृगया-सा भटकता रहता है ! यहीं से पीड़ा का आदि -अनादि का अनंत सफर शुरू हो जाता है ! किसी के पांव में,तो किसी के दिल में छाले उभरने लगते हैं ! इस थोथे मान-मर्यादा के मकडज़ाल को विरले ही समझ, काट पाते हैं ! यूं तो जीवन जीने का नैसर्गिक व संवैधानिक हक तो सभी को है,फिर मन में घुटन लेकर आखिर क्यों और किसके लिए जिया जाय ? कामना और वासना से मुक्त तो संन्यासी साध्वी तक भी नहीं,फिर आदमी या औरत की कौन बिसात ! थोथे मान मर्यादाओं के नाम पर छुपम-छुपाई का अमर्यादित अपराधिक कृत्य कंहा तक जायज है ? इसी समाज के मनोविज्ञान को समझना जरुरी है तो इन मिथकों के मिथ्या मूल पर,प्रहार करना आज की बुनियादी जरूरत भी है ! औरत के हक में आदमी को,तो आदमी के हक में औरत को,आज नहीं तो कल आवाज उठानी ही होगी ! क्योंकि, दोनों एक दूसरे के सम्यक पूरक ही तो हैं ! कमल का ऐसा ही कुछ मानना था !
वैसे,बुद्ध ने ठीक ही कहा है,कि प्रिय का वियोग और अप्रिय का संयोग दोनों ही दुखदाई है! इस दु:ख विमुक्ति का सम्यक उपाय आपसी अंडरस्टैंडिंग पर ही निर्भर करता है ! कुशल जीवन यापन के लिए आपसी अंडरस्टैंडिंग का होना बहुत जरूरी है ! ज़हां नहीं वहां कोर्ट कचहरी डायवर्स,तलाक! तलाक !! तलाक !!!
उम्र चाहे कोई भी हो, अकेलेपन की खाई को भरने के लिए जीवनसाथी का होना निहायत जरुरी है ! शिक्षित,कामयाब और समझदार औलाद मां हो अथवा बाप के खालीपन को भरने के लिए आगे आ रहे हैं ! जो समय की मांग भी है ! वृद्धावस्था में वृध्दाश्रमों से मुक्ति तो मिल ही सकती है और एक पहिया रथ में दूसरा पहिया लगने से जीवन का रथ दौड़ पड़ता है !
जीवनसाथी द्वारा अधेड़ आयु में छोड़कर ,चल बसना कितना दुखद होता होगा ? ये सब बिछुडने व महसूसने पर ही संभव है ! वरना असंवेदनशील मानुष खिल्लियां उड़ाने में कंहा की कोर कसर छोड़ता हैं !
अनेकों अंतर्विरोधों के वाबजूद जब कमल ने शेष जीवन के लिए पुन: अपने लाइफ पार्टनर को चुनना चाहा तो,कुछ के चुनचुने काटने लगे तो कुछ भुनभुनाने लगे, कुछ मुकदर्शक बन गूंगे बने रहे,मानों गूंगा गुड़ खा लिया हो ! बहनोई ने तो पूरा घर परिवार ही विरोध के लिए अपने साथ समेट लिया था ! मगर कमल के निर्णय के आगे सब बौने ही साबित हुए ! आखिर,कमल ने शरद के आगे शादी का प्रस्ताव रख ही दिया ! शरद के उपर भी तो किसी का हाथ नहीं था,सिर्फ दो छोटे-छोटे बच्चों के !आखिर उसको भी तो अपने ऊपर किसी का हाथ चाहिए था ! उसने भी सोच समझकर हामी भर दी,और एक दिन,दोनों ने एक दूसरे का हाथ थाम लिया !
ये कमल की ही नहीं उन सबकी बानगी है जो इस आग के दरिया को पार करना चाहते है ! संयुक्त परिवार टूटकर, एकल परिवार पर आ टिके हैं ऊपर से कंकरीट के जंगल में उभरती फ्लेट कल्चर ने सबको एक कोने में समेट लिया है ! आए दिन अपराधियों का ग्रास बन रहे एकल स्त्री-पुरुष की दुर्दशा से एक पल को ही सही दिल दहल उठता है ! औलादें अपनी औलादों की परवरिश करें या निखट वृद्धों की !
काश ! कमल की सरकारी पेंशन ना होती तो जीवन पराश्रित हो नर्क ही बनकर रह जाता ! अखबार की कतरनें रोज पढ़-पढ़कर ही तो कमल अपना पक्का मन बना सका,और सोचता काश! पेंशन ना होती तो दवा दारु के लिए बच्चों के आगे भीख-सी मांगनी पड़ती ! ऐसी विकट परिस्थितियों में, जीवन वय के ढलान पर,इस माया मोह के अथाह समंदर को तो कमल को लांघना ही था ! आज के यांत्रिक युग में किसको किसके पास बैठने उठने की फुर्सत है ! सबके हाथ मोबाइल ने बांध दिए हैं ! पारिवारिक रिश्तों से निकल आभासी दुनिया के रिश्तों में सब बिजली के तार से उलझे पड़े हैं !
आपसी दूरियां ज़हां दरार पैदा करती है तो सवालों के चक्रव्युह में मानस मन को भी घेरे रहती है ! इससे निजात पाने के लिए आपसी मिलन व संवाद बहुत जरूरी है ! मां-बाप बच्चों का जीवन बनाते संवारते हैं;तो क्या मां बाप के उजड़े चमन में बच्चे माली बन, बहार नहीं ला सकते ? कमल के मन में यहि सवाल रह - रह कर उभरते रहते ! जहां कहीं अकेलेपन से जूझ रहे ऐसे मां बाप हो तो उनके बच्चों व घर,परिवार रिश्तेदारों को अपनी मानसिकता मे बदलाव लाना क्या जरूरी नहीं होगा ? कमल यही सोचता रहता! यही समय का तकाजा है वरना अकेलेपन की घुटन से मां बाप का साया भी सिर से जल्द उठ जायेगा ! बातों-बातों में दद्दा ठीक कहा करते थे !
भईया...sss
जो रहेगा, सो राज करेगा ,और एक दिन कमल ने कठोर निर्णय ले,उस अधेड़ उम्र में शरद का हाथ भावी जीवन के लिए थाम ही लिया! शरद आज कमल की लाइफ पार्टनर है, उसकी गाईड है तो बच्चों की वार्डन और कमल के बुढा़पे की तीमारदार भी! तभी उसके मुंह से सहसा फूट पडा, लव यू माई नर्सिंग लाइफ पार्टनर एंड चाइल्डस !
डा.कुसुम वियोगी
सदस्य, हिंदी अकादमी दिल्ली
संपर्क 1/4334-ए " प्रज्ञा " आचार्य भावे मार्ग, रामनगर विस्तार, लोनी रोड़,शाहदरा दिल्ली 110032
ई-मेल kusumviyogi@gmail.com
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