किसुन महतो अपने को चाहे साधारण और सामान्य, गरीब समझते हो; किन्तु कवि मंडली में उनका असाधारण मान और प्रतिष्ठा है। उनकी रचनाओं में एक व्यथा और...
किसुन महतो अपने को चाहे साधारण और सामान्य, गरीब समझते हो; किन्तु कवि मंडली में उनका असाधारण मान और प्रतिष्ठा है। उनकी रचनाओं में एक व्यथा और करूणा झलकता है। हास्ययुक्त कविताओं से सबको लोट-पोट कर देते। उनकी कवितायें आँखों के सामने एक सजीव दृश्य, एक चलचित्र प्रवाहित करती। कविता कहते समय उनके चेहरे पर एक ओज और तेज आ जाता। मुखमण्डल दीपक की भांति दमकने लगता। वे जो कहते पूरे अंतःकरण और ईमानदारी से, समाज की कुरीतियाँ, बुराइयाँ अधिकारियों की कलुषिता को इतनी चातुरी से प्रकट करने की लोग दंग रह जाते। साहित्य की परिभाषा भी यही है-‘समाज की वास्तविकता या परिवेश को अंतःकरण से तुक अथवा अतुकबंदी के साथ निश्चित क्रम में प्रकट करना ही कविता है।’ एक शब्द में-‘देश-समाज की यथार्थ अभिव्यक्ति ही साहित्य है। कविता उसका एक अंश है।
किसुन जब मंच पर खड़े होते तो जयकारियाँ और प्रशंसा के शब्दों की बौछार होती रहती। यह आदर और सम्मान पाकर वे तन जाते, पल भर के लिए अपनी दूरावस्था को भूल जाते। पत्नी की कटू किन्तु कठोर बातें विस्मृत हो जाती। ये भी याद न रहा कि कल फांका पड़ा था, और आज चम्पा राशन के इंतज़ार में बैठी होगी। वह मूंछें खड़ी किये अपने कवित्व के उद्गार से सबको विभोर कर रहे हैं। इस क्षेत्र के सांसद महोदय आये हुये हैं। वे इनके कविता की गहनता और भाषा-शैली की प्रबुद्धता से बहुत प्रभावित हुए। उन्हें ज़रा भी अंदेशा न था कि इन गरीब बस्तियों में ऐसे रत्न होंगे। वे उनकी कई कविताएँ सुने और उनमें से कुछ कृतियों को अपने नाम से निकलवाना चाहते थे। इसके लिए अच्छी क़ीमत भी दे रहे थे। महतो एक बार ना करके हाँ नहीं कहे। वहाँ से चल दिये। हर जगह की भांति यहाँ भी वही दुकानदारी प्रथा कायम हो रही थी, जिसमें इनका दम घुटता था। कुछ लोग समझाते हुए दूर तक आये-”हजऱ् क्या है साहब ! आपके पास ईश्वर का दिया एक गुण है। इससे अपने रोज़ी-रोटी में बरकत कीजिए। लोकतंत्र के यही राजा है, भाग्य मानिये आपके ऊपर दृष्टि हो गयी वरना आप ख़ुब जानते हैं कि आइ0ए0एस0, आई0पी0एस0 और पूरा एक विद्वान मंडली आगे-पीछे घूमता है। सम्पर्क बढ़ाने से ही बात बनेगी। जिन कविताओं को आज कोई नहीं जानता वो कल व्यक्ति-व्यक्ति के जुवान पर होगा। क्या आप नहीं चाहते कि आपकी कवितायें, आपके अनमोल शब्द विश्व विख्यात हो।“ महतो एक तीखी दृष्टि से देख कर मन में कहे-तुम जिसे विद्वान कहते हो असल में वे ग़ुलाम हैं‚ धन के, ख्याति के, इन बड़े लोगों के, सत्ता और पूँजीपतियों के, ये अपने विवेक, अपनी आत्मा तक को बेच दिये है, जो देश के एक बड़े तपके के व्यथा और पीड़ा को, देखकर भी नज़रअंदाज किये हैं, बल्कि उनकी पीड़ का कारण है। जो अपने ओहदे, आत्मसम्मान और गरिमा को नहीं बचा पा रहे है, उन्हें मैं इंसान नहीं, जानवर भी नहीं जड़ कहूँगा। इनके कर्म विद्वता की परिभाषा के सर्वथा प्रतिकूल है। जहाँ शिक्षा का इतना व्यवसायीकरण हो वहाँ विद्वान नहीं, हृदयहीन मनुष्य, धन के पुतले, मशीनें, स्वार्थ, विलास, लालसा, निष्ठुरता और आतंक ही विकसित होगा। जुबान से इतना ही कहे कि-”प्रसिद्धि और धन की इच्छा इतनी बलबली नहीं हुई है कि अपने ईमान का मूल्य काग़ज़ के चंद टुकड़ों से कर दूँ। यह मेरा कर्म है, व्यवसाय नहीं। कर्म बिकता नहीं पूजा जाता है।“
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मुंशी मुह लटकाये चलते बने। इन आक्षेपों को अच्छी तरह समझ रहे थे। किसुन के पास इस तरह के प्रस्ताव कई बार आ चुका था और हर बार धन्यवाद के साथ इंकार करते आये थे। प्रतिभा का यह अनादर देखकर उन्हें आश्चर्य होता और दुःख भी। जहाँ उनकी अच्छी-अच्छी रचनायें लौट आती थी, वही सारहीन, बेतुकी और उदेश्यहीन कवितायें छप रही थी। इसका कारण कुछ तो जाति भावना, संबंध अथवा मुँहदेखी, और वही पुराने या कुछ लोगों, प्रसिद्ध कवियों को ढोना या उनका दबदबा था। समय की आँधी ने उसपर रेत और पतों से उसकी चमक ढक लिया था पर अर्थहीन प्रभाव बाकी था। प्रतिभा को प्रोत्साहित करने की अपेक्षा उसे ख़रीदना कहा का न्याय है। इंसानियत तो तब जीवित मानी जाती जब सहयोग से प्रतिभाशाली व्यक्ति को आगे बढ़ने में प्रेरित करते। किन्तु हर क्षेत्र की तरह यहाँ भी व्यवसायीकरण अपना आसन जमा बैठा है।
सहसा उसे याद आया चम्पा राशन की प्रतीक्षा में बैठी होगी। उसके विचारधारा रूक गया। मानों सूर्य की रोशनी में चलने वाला एकाएक अंधेरी गुफा में आ गया हो। सम्पूर्ण मनोशक्ति गृहस्थी की चिंता में समाहित हो गया। आज भी वहीं बक-झक सुनने को मिलेगा। क्यों न लालाजी के यहाँ चलूँ, शायद ट्यूशन का पैसा मिल जाए। पर याद आया महीना लगने में दो दिन शेष है। वे उन कर्मनिष्ठ व्यक्तियों में थे, जो बिना परिश्रम का खाना अपनी शान के खि़लाफ़ समझते हैं। पहले परिश्रम और बाद में रोटी वाले सिद्धान्त को चरितार्थ करने वाले व्यक्तियों में सुमार रखते हैं। हालाँकि इस नियम को दृढता से कभी पालन न कर सके थे। अपने कई दोस्तों से उधार लिये है जिसे अबतक लौटाने की नौबत न आयी। कई दुकानदारों को देना अभी बाकी है। महीनों तक दुकानदार इनके दर्शन ही नहीं पाते। पता न जनाव किस रास्ते से और कब निकल जाते। दोस्तों से भी भागते थे। किन्तु इधर कुछ दिनों से सामान्य रूप से मिलते हैं गोया उनका ऋणी न हो। मित्रों में सभी को इनकी दशा और चरित्र का भान था। इसीलिए वे कुछ कहते नहीं अथवा इनकी तेजोमय कवित्व और असाधारण लेखनी प्रतिभा से प्रभावित थे। प्रभाव प्रतिभा का अनुचर है। हाँ, उनके मिलने पर दो-चार कविता और शेर सूना देते। इस अनुपम साहित्य का स्वाद पाकर भला कौन तुच्छ लक्ष्मी को भूल न जाए। अथवा इनके त्यागमय, अभावग्रस्त, सच्ची राष्ट्र सेवा और तपस्या के आगे उनकी सांसारिक लालसायें, इच्छा, और भावनाएं अपने को तुच्छ और छोटा समझने लगती। यहाँ उन्हें एक परम् सुख, और दुनिया की चिंताओं से मुक्ति मिल जाती, तब वे खुशी-खुशी विदा हो जाते। किसुन के विचार में एक परिर्वतन आ रहा था। वे सोचते मैं क्यों मुँह चुराते फिरू, केवल इसलिए की मैंने इनके कुछ पैसे अथवा कुछ वस्तुएँ ली है और अभाव के कारण देने में असमर्थ हूँ। इतने जन मिलकर क्या एक आदमी का पेट नहीं भर सकते। मुझे किसी से छुपने की आवश्यकता नहीं, मैं बैठा नहीं, देश, राष्ट्र और समाज के लिए अथक परिश्रम कर रहा हूँ। सुबह से लेकर आधी रात तक दुनिया से मुँह मोड़े बैठे रहता हूँ। पत्नी से बात किये, हँसे कई-कई दिन हो जाते हैं। ये लोग मेरा पेट भरकर, मुझे चंद रूपये उधार देकर मुझपर उपकार नहीं कर रहे है बल्कि अपना दायित्व पूरा कर रहे है। कर्त्तव्य अनमोल होता है। इस विचार से उसके अंदर एक साहस भर गया। जो कटु वचनों को रोकने वाले, दुश्चिंताओं से बचाने वाला और तेजोमय था। एक रात और पानी पीकर काट लूँगा। इस देश में हजारों लाखों लोग रोज ही बिना अन्न के सोते हैं। कल मेरी एक कृति के हजार रूपये मिलने वाले है, परसों ट्यूशन की राशि भी मिल जाएगी। चम्पा क्यों डांटेगी, वह मेरे सुख-दुःख की साथिन है। निस्वार्थ सेवा का अभावग्रस्त मेवा से गहरा संबंध है। यह सोच साहस से भरे चल दिया। अंधेरा अपना आधिपत्य जमा रहा था। सड़क की बत्तियाँ उनपर असफल विजय पाने का प्रयास कर रही थी। किसुन उन दुकानों के सामने ऐसे सीना तान के निकला मानों उनका लेनदार न हो। शाम का समय था दुकानों पर भीड़ लगी थी। सभी अपने ग्राहकों में उलझे थे। किसी को दम मारने की भी फुर्सत न थी। किसुन पर किसी ने ध्यान ही न दिया। उस गली से सफलतापूर्वक निकलकर उसे विजय गर्व सा अनुभव हुआ। उसने अपनी दुर्बलता और संकीर्णता को परास्त किया था। पर यह मनोवेग ज्यादे देर तक न रह सका, ज्यों-ज्यों घर नजदीक आता वह भारी भरकम साहस जो कुछ देर पहले उसके अंदर संचित हुई थी वह धीरे-धीरे लुप्त हो रहा था। जाड़े में लिहाफ आनन्दायक था, पर गर्मी के आने पर बोझ लगने लगा। उसके विचार सुखे पत्तों की तरह भड़के थे और समय की शीतलहर से बुझ से गये थे। अन्दर केवल थोड़ी सी आग बच गयी थी, जो हवा के झोंकों के साथ लाल होकर बुझ जाती। यहाँ तक की नुक्कड़ तक आते-आते उसके क़दम अनायास ही रूक गये। उसे ख़ूद भूखा सोने का गम न था। किन्तु चम्पा का भूखों रहना उसे असह्य था, उसका मन कचोट कर रह जाता। इस अभावपूर्ण जीवन में मैंने उसे दिया ही क्या है ? साड़ी में कई थेगली लग गयी है, बनाव-श्रृंगार का शौक पहले भी न था, अब तो अभाव की मज़बूरी है। दो वक्त की रोटी भी नहीं दे सकता। मुझे शादी करने का कोई अधिकार न था। शादी सम्पन्न लोगों को ही करना चाहिए, मेरे जैसे फाकेमस्तों को इस तरह का रोग पालना शोभा नहीं देता। चम्पा इतनी विनम्र, दयालु और पतिव्रत न होती तो अबतक आत्मदाह कर लिया होता या वैरागी हो गया होता। अगर रूठती भी है तो मुझे और मेरे स्वास्थ्य को लेकर। खाली हाथ घर कैसे जाऊं। मुझे एक बार लालजी के यहाँ चला जाना चाहिए था। कोई ख़ैरात तो मांगता नहीं, मेहनत से पढ़ाता हूँ, फिर दो ही दिन तो शेष रह गया है। प्रेस वाले पैसे एक दिन पहले भेज देता तो उसका क्या बिगड़ जाता।
सहसा किसी ने पुकारा-”अरे भई कवि महोदय, इतनी रात गये नुक्कड़ पर क्यों खड़े हो ? कोई नई कविता का सृजन तो नहीं कर रहे हो ?“
किसुन पीछे मुड़कर देखा, महाशय दीनदयाल, जो पेशे से वकील और कभी उनके लंगोटिया यार रह चुके थे। ज़नाब को शायरी का पुराना शौक़ है। वकालत ख़ूब चलता है किन्तु उधर से समय मिलते ही लेखन कार्य में लग जाते हैं। कवि समाज में ज्यादे परिचय है नहीं इसलिए मुवक्क्लिों को ही शेर सुना के अपने को तृप्त कर लेते हैं। न लय, न तुक, न साहित्य की गहराई फिर भी चाहते हैं लोग इनके शेरों का लोहा माने। और नहीं तो अपनी तारीफ़ ख़ुद कर लिया करते हैं। इधर कुछ दिनों से कविता का चस्का लगा हुआ है। किसुन इनके भी लेनदार थे। महतो घड़बड़ाकर गम्भीर और दुःखी भाव से-”नहीं भाई साहब गृहस्थी की समस्याओं में उलझा हूँ। लगता है आज भी पानी का ही सहारा है।“
”आपको कितनी बार कहा है लेखनी के साथ कुछ काम भी करिये, जिससे दो पैसे हाथ में रहे। मेरा एक मुवक्किल है, मुंशीगीरी का काम करोगे।“
”मैं खेती और पढ़ाने के सिवा कुछ नहीं कर पाऊंगा। मैं अपने-आप को बदल नहीं सकता।“
”क्या इन दोनों के अलावा सब में आत्मा कलुषित ही करना पड़ता है ? इसका मतलब आप मुझे भी चोर कह रहे है।“
”साफगोई करने की....................।“
वकील साहब ने बात काटकर ख़ुद पूरा किया-”आपकी आदत है और आप अपने आदत से बाज न आओगे। यही न या और कुछ।“
”अच्छा छोड़ों इन बातों को जाने दो। ये लो मेरे पास इस वक्त दो सौ रूपया है।“
किसुन वकील महोदय पर ऐसे दृष्टि डाले जो कुछ कह रहा था।
वकील समझकर-”मत देना भई, मैं मांगने न आऊंगा और न उपकार ही समझूंगा। मानवता के नाते तो ले सकते हो।“
किसुन भारी मन से पैसा ले लिया। चातुरी की जीत में एक प्रकार की आंतरिक ख़ुशी होती है, वह न थी। लज्जा और क्षोभ मिश्रित आदर था।
”किसुन भाई साहब कल एक बड़ा ही गूढ़ और ज़ोरदार शेर लिखा है, इजाजत हो तो सुनाऊं।“
”बिल्कुल शौक़ से“
इस गरीब को दुत्कार न देना
चौखट पर आऊंगा भूला न देना
जमाना चाहे लाख सितम करे
तुम अपने दिल से निकाल न देना।।
”वाह वकील साहब वाह ! वकालत छोड़ के आप भी मेरे साथ आ जाइये।“
” परिवार का मोह रोक न लेता तो जरूर आ जाता। अब एक आपकी भी हो जाए, फिर आप सामान लेकर घर जाइये।“
”एक छोटी सी कविता है।“
”स्वागत है।“
परवाने को क्या रोकेगा शमां
जो ख़ुद जलने को आतुर है
उसे क्या रोकेगा जहाँ
हम वो परवाने है जो शमां को बुझने से बचाएँगे
अपनी जान देकर उसके लौ को लजाएँगे।
हम दरख्त आंधियों में हिल न पाएँगे
लाख मुसीबत आए पर्वतों के ओट न जाएँगे
इसके बाद दोनों विदा हो गये। वकील साहब टहलने निकले थे, घर को चले, कवि महोदय राशन की दुकान की तरफ़।
रात के दस बज रहा है। शहरों की गलियों में सन्नाटा होने लगा है। किसुन मद्धिम दीये के आगे बैठे पन्नों को काले कर रहा है। चम्पा पास की एक टूटी चारपाई पर गुदड़ी बिछाये सो रही है। उसके मुख पर किसी प्रकार का असंतोष और वेदना नहीं है, जो बहुधा अभाव में हुआ करता है। किसुन के मुखमण्डल पर ओज और तेज है। इस कृत्य के अलावा और किसी भी कर्म को करने से समय का नष्ट होना प्रतीत होता। जितनी देर लेखनी करता, अपने को प्रसन्न और तृप्त पाता, जीवित होना मालूम होता। इस समय देश की वर्तमान कैफियत और भविष्य के प्राकृतिक प्रकोप, पर्यावरण असंतुलन और प्रदूषण जैसी समस्याओं पर गूढ़ लेख तैयार कर रहे थे। इधर कुछ दिन से लेख और कहानियाँ भी लिखने लगे थे।
चम्पा हड़बड़ा कर उठी-”कितनी रात चली गयी जी ! आप अभी तक सोये नहीं।“ फिर एक नज़र रसोई की तरफ़ देखकर बोली-”अरे, अभी तक खाये क्यों नहीं ? मालूम तो हो गया कि आपके बनाये नियमों से संसार का परिचालन हो रहा है। दुनियां और उसके दस्तूर को आपने बदल दिया है। अब अनंत तक पृथ्वी रसातल को नहीं जाएगी। देखना, आपके सुप्रयास से सुबह तक धरती स्वर्ग हो जाएगी। अहिंसा, प्रेम, सदाचार और नैतिकता तथा भाईचारा की ऐसी धारा बहेगी की आदमी तो क्या शेर भी मांस छोड़ घास खाने लगेगा। उठिये अब खाना खा लीजिए। नहीं, ठंडा हो गया होगा कहिए तो गर्म कर दूँ।“
किसुन को नित्य ही ऐसे आक्षेपों से सामना होता रहता, किन्तु उन्मत्त भैंसे की भांति ये आक्षेप उसके निर्णय को और अडिग कर देते। कलम रोककर बोले-”नहीं रहने दो, तुम सो जाओ। जब मुझे लगेगा की खाने भर परिश्रम कर लिया तो खा लूँगा। मज़दूर हूँ, जितना कमाऊंगा उतना ही खाने का हक़ है।“
”जब पता हो गया कि रात भर आँखें फोड़ने से कुछ बदलने वाला नहीं है तो जान देने से क्या फ़ायदा ?“
”इन पतंगों को देखो, कौन-सा सुख इन्हे दीये की तरफ़ खींचता और प्राण देने को प्रेरित करता है। यह कौन जान सकता है, सिवाये इनके। पंख अलग हो गया, शरीर जल गया किन्तु हार नहीं मानते। कर्त्तव्य करना कोई इनसे सीखे।“
वेदनायुक्त क्रोध के साथ-”चुप भी रहिये, भला भी कहो तो उलूल-जूलूल बकने लगते हो। आप वो क्यों नहीं लिखते जो जनता पसन्द करती है, जो संपादक की नज़र में सही है।“
”तुम्हारे कहने का मतलब शराबी मरीज को डॉक्टर मदिरा दे, ताकि वो ख़ुश रहे और तारीफ़ करे, दवा कड़वा ज़रूर होता है मगर वह रोगी को ठीक करता है। तुम जिस साहित्य की बात कर रही हो वो साहित्य नहीं व्यवसाय है। साहित्य साधना और तपस्या है, जिससे अंतःसुख की प्राप्ति होती है और व्यवसाय भौतिक और लौकिक जिससे सांसारिक सुख मिलता है। अंतःकरण के सुख को जानने वालों के लिए भौतिक और इन्द्रिय सुख तुच्छ और नीच है। सम्पादकों को नशीली और भ्रमित चीज़ें चाहिए जो जनता को आदी और मदहोश बनाये, उनकी आय बढाये। वे उन्हें पानी देने की जगह मद्यपान कराकर भ्रमित और बेहोश कर अपना व्यवसाय कायम रख दोहन करना चाहते हैं। मैं यह हरगिज़ नहीं कर सकता। चाहे आज मेरी कृतियाँ भले लौट रही है किन्तु वह दिन दूर नहीं जब जनता शराब को ठुकराकर पानी के लिए तरसेगी, ढूँढती फिरेगी।“
”अच्छा जी‚ ठीक है; किन्तु जब अच्छे क़ीमत मिल रहे है, तो लेखों और कविताओं को बेंच क्यों नहीं देते ? ये मान क्यों नहीं लेते की दुनिया में लक्ष्मी का आधिपत्य है। रईसों और मंत्रियों की जीवनियाँ और उपन्यास निकल रही हैं। उनमें एक शब्द भी उनका अपना नहीं होता। लाखों में सौदा होता है। एक बार लक्ष्मी आ जाए फिर सरस्वती की कृपा अपने-आप बरसेगी। उनके क्या, वे पैसे वाले हैं आप न देंगे किसी और से ख़रीद लेंगे।“
”यही तो मुझसे नहीं हो सकता चम्पा। मैं अपने शरीर का एक-एक अंग बेच सकता हूँ। किन्तु अपनी साधना और तपस्या से एकत्रित तेज को नहीं बेच सकता। क्या यह भी विक्रय की वस्तु है। तुम नहीं जानती इस काम में मुझे अपार सुख, अनन्त आनन्द, तृप्ति और संतोष मिलता है। यह लगता है कि संसार में बेकार नहीं हूँ। अपने कर्त्तव्यों का निर्वाह कर रहा हूँ।“
चम्पा कुछ बोली नहीं, खिड़की से बाहर झांक के देखी आधी रात जा चुकी थी। चैत का महीना था मौसम में ठंडापन आने लगा था। वह साड़ी से मुँह ढांपकर सो गयी।
बनारस में बड़ा जनसभा होने वाला है। जिसमें देश के प्रख्यात् मंत्रिगण और लेखक, कवि, विद्वान सभी सादर आमंत्रित है। किसुन को केवल निमंत्रण ही नहीं मिला बल्कि मंच संचालन का महत्वपूर्ण काम भी सौंपा गया है। नैवैद्य मिलते ही पत्नी को दिखाकर बोले-”देखो, मंच संचालन का कार्य सौंपा गया है। तुम नहीं जानती मंच संचालन करना कितना कठिन काम है। सबके बस की बात नहीं, बड़े मनोयोग और सूझ-बुझ की ज़रूरत होती है। तुम कहती हो उनके पास विद्वान है, तो फिर इस गरीब को क्यों याद किया गया। तुम्हें पता भी है, पूरे देश के मंत्री और विद्वान मंडली का समुह होगा, विदेशी विद्वान भी होंगे। पूरे देश की नज़र इस मंच पर होगी। ज़रा बाहर निकल के देखो कितने बड़े-बड़े बैनर और पोस्टर लगे है।“ और फिर अभिमान से तनकर कुछ लिखने बैठ गये। चम्पा जानती थी, दुनिया बहुत जल्द इनकी कृतियों की कद्र करेगी। किन्तु स्वास्थ्य का ख़्याल भी आवश्यक था। बोली-”दो दिन से कही निकले नहीं, ज़रा घूम-टहल लीजिए, जीवन की हर गतिविधि स्वास्थ्य पर ही निर्भर है। क्षण भर घूम लेने से मन भी बहल जाएगा।“
”ये सब उन अन्यायियों के लिए है, जो बैठे-बैठे हराम का खाते हैं; जिनकी बड़ी-बड़ी तोंदे निकल आयी है। किसी किसान, मज़दूर को कभी स्वास्थ्य लाभ के लिए टहलते देखी हो। स्वास्थ्य उनका बिगड़ता है, जो बेईमानी का खाते हैं, जो दूसरों का ख़ून चुसते हैं, अन्याय करते हैं, जो आवश्यकता से अधिक धन संग्रह करते हैं।“
चम्पा कुछ न बोली, अपने कामों में लग गयी। एकाएक कुछ याद करके बोली-”कोई ढंग का कपड़ा तो है नहीं जूता भी कब के फट गया है। क्या चप्पल और वहीं पुराना धोती-कुरता पहन के जाओगे ? वहां एक से एक सूट-बूट पहने बाबू आएंगे। तुम्हें इस दशा में देख भला वे क्या कहेंगे।“
किसुन वस्त्र को महज़ तन ढकने का साधन मानते थे। ऐसी दृष्टि से देखा जो कह रही थी तुम अभी तक बुद्धू की बुद्धू ही रही। तुम औरतों को कभी अक्ल न आएगा। और गार्विक धाक् से बोला-”स्वामी जी शिकागो में खड़ाऊ और गेरूआ धारण कर गये थे। मैं अपनी वास्तविकता किसी से क्यों छुपाऊं ? क्या ग़रीब होना पाप है ! इसी देश में लाखों लोग चिथड़ों में भूखे सोते हैं। ठाठ से रहना और अनावश्यक फैसन पर ख़र्च करना क्या उनपर अन्याय करना नहीं है ? कम से कम मैं इस अन्याय में किसी का साथ नहीं दे सकता। भूखों के सामने खाने की अपेक्षा ख़ुद भूखा रहना अधिक संतोष की वस्तु है।“
चम्पा कुछ न बोली उनकी पुरानी मिर्जयी और धोती को तह करके तख़्ते पर रख दी। और उस तपस्वी को देखने लगी, जो अभावग्रस्त जीवन की अमूल्य विभूतियों को समेटे आनन्द सागर में डुबकी लगा रहा था।
पूरे वाराणसी को दुल्हन की तरह सजाया गया है। बिजली बत्तियों के इन्द्रधनुषी रंगों से शहर की शोभा अद्भुत हो गयी है। सर्किट हाउस में स्थित बड़े मंच की शोभा देखते बनती है। विभिन्न प्रकार के फूलों के बीच कुमकुमों की बत्तियाँ और कपड़ों की सजावट, जगह-जगह पानी के फव्वारे और गंगाजल और इत्रों के छिड़काव से चारों तरफ़ ख़ुशबू फैल रही थी। अहाते में भीड़ इक्ट्ठा होने लगा था। मंत्रियों, कवियों और विद्वानों का तांता लगा था। सूट-बूट, टाई पहने, जूते चमकदार पालिश किये हुए या अधिकतर नये जो इसी अवसर के लिए मोल लिये गये थे। सेंट से सराबोर, बाल संवारे चले आ रहे थे, गोया फैशन की प्रतियोगिता में भाग लेने जा रहे थे। ऐसे में एक व्यक्ति गाढ़े के तह किये कुर्ता और धोती तथा पैरों में चमड़े का पुराना चप्पल पहने आता देख, दरबान को सुबहा हुआ। रोक-”अंदर कहाँ चले जा रहे है ? किससे काम है ?“
उन्हें अपमान जान पड़ा।”और किसी से तो यह बात नहीं पूछे।“
नवैध है तो दिखाइये, या मोबाइल का मैसेज जो संस्था द्वारा भेजा गया है।“
”मेरे पास मोबाइल नहीं है। इस देश में जहाँ इतने लोग भोजन को मोहताज़ है, वहा मोबाइल रखना उनके साथ ज्यादती करना है। आप सबसे नवैध क्यों नहीं देखते ?“
सहसा एक महाशय आकर बोले-”अरे महतो जी ! बड़े भाग्य की आपके दर्शन हुए। चलिए मंच आपका इंतज़ार कर रहा है।“
दरबान शर्मिन्दा होकर अलग हो गया। किसुन दरबान को ऐसे देखे जैसे कोई भिखारी को देखता है और अभिमान से तने अंदर चले गये। ये महाशय राष्ट्र कि एक बड़े विचारक, कवि, लेखक और राष्ट्रभाषा विभाग के अध्यक्ष थे। जब वो उनका इतना आदर करते हैं तो अभिमान क्यों न हो। देवेन्द्र पाण्डे बोले-”पूरा देश आपके कविता और विचारों का लोहा मानता है साहब, मैंने आपकी दो-चार कवितायें पढ़ी है। जी चाहता है स्कूलों में लागू करा दूँ, पर प्रशासन के आगे मज़बूर हूँ।“ इसके बाद उन्हें ले जाकर इंगलिश कवियों से परिचित कराये- ”ये है मिस्टर किसुन महतो, इनकी तारीफ़ करना औंधे मुँह गिरना है। बस यही समझ लीजिए की रत्न है, रत्न।“
उस मंडली के प्रत्येक सदस्य ने उनके सांवले सामान्य कद, साधारण भेष-भूषा और पहनावे को ओछी दृष्टि से देखते हुए कहे-”अच्छा यही मिस्टर महतो है !“ फिर उनमें से एक महाशय बोले-”आपकी कविताओं में किट्स, मिल्टन आदि कवियों की छवि मिलती है। लगता है आपने उनके ऊपर गहरा अध्ययन किया है।“
किसुन उनकी भावनाओं को समझ कर बोले-”जी नहीं, मैंने किसी अंग्रेज कवि या लेखक का गहन तो क्या छिछला अध्ययन भी नहीं किया है। हमारा ख़ूद का साहित्य इतना परिपूर्ण और विस्तृत है कि हमें किसी और साहित्य जगत् में झांकने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी। साहित्य अंतःकरण से प्रेरित मन का सच्चा उद्गाह है। यह अपने जलवायु में जितना अच्छा फलेगा-फूलेगा, उतना दूसरे जलवायु में नहीं। यहाँ की मिट्टी और पानी वहाँ के पौधे को रास न आयेगा। हाँ, ज़बरदस्ती कर कांटेदार वृझ और झाडि़याँ अवश्य उगा सकते हैं। लोग उसे तमाशा बनाकर देख सकते हैं, घरों में लगाने को हतोत्साहित ही रहेंगे। क्योंकि फलदार वृक्ष छोड़कर कांटेदार झाडि़याँ लगाना कौन पसन्द करेगा। कुछ सनकी ऐसे भी मिल जाएंगे, किन्तु लोग उन्हें विक्षिप्त ही समझेंगे। महतो ने बिल्कुल निष्पक्षता, बेहिचक यह बात कही थी। किन्तु अंग्रेज कवियों को बुरा मालूम हुआ। तत्काल कोई उचित जवाब के अभाव में, उपेक्षित दृष्टि से देखते हुए एक-एक कर वहाँ से चलते बने।
उसी समय एक महाशय आकर मेहता का हाथ पकड़कर मिलाने लगे। मेहता को आश्चर्य हुआ, पहचानने में असफल रहे, महाशय ने इन्हें इस तरह देखते देख ख़ुद परिचय दिया, मैं मुकुन्द राय हम दोनों हाई स्कूल तक साथ-साथ पढ़े हैं। आजकल गलती से हिन्दी के प्रोफेसर हूँ। कितने दिनों से आपसे मिलना चाह रहा था। आज ईश्वर ने मेरी मनोकामनाएँ पूर्ण की। सच मानों भाई साहब, आप मेरी जगह होते तो बच्चों का भविष्य और देश की प्रगति कुछ और होती। राष्ट्र की एक बड़ी विडम्बना रही है कि योग्य व्यक्ति सही पद पर आसीन नहीं है। जिसे जहाँ होना चाहिए वह वहाँ नहीं है। यह छोटी बात नहीं है, देश के विकाश में सबसे बड़ा बाधक तत्व है। केवल डिग्री के बल पर मैंने यह पद पा लिया। आप ज्ञान से परिपूर्ण होकर भी, सारी क्षमताएं रहने के बावजूद आर्थिक तंगी के कारण डिग्री न ले सके और आज उसी की सज़ा पा रहे है। जबतक ऐसी व्यवस्था रहेगी, यह देश और देश का भविष्य क्योंकर सुधरेगा ! न्याय और नैतिकता कैसे अपना आसन जमा पाएगी। देखना, यहाँ पचासों मंत्री और सांसद आएंगे अधिकतम मैट्रिक पास साक्षर और कुछ मेरी तरह ख़रीदी हुई डिग्रियों के विद्वान। सब आत्मस्वार्थ और प्रसिद्धि के पुतले, कोई जनता का सच्चा सेवक नहीं। कवि सम्मेलन महज़ एक दिखावा है, इसके आड़ में चुनाव प्रचार का बहाना है। शरीर में सुगर की भाँति हर जगह राजनीति घुसड़ रहा है, कोई क्षेत्र, संस्था, संस्थापक अथवा कार्यकलाप इससे अछूता नहीं रहा। सच मानिये, मुझे मंच से बड़ा डर लगता है। ख़ुद लिखने से रहा, दो-चार विद्वानों से कुछ लिखवा लाया हूँ किन्तु मैं संतुष्ट नहीं हूँ। हो सके तो आप ही कुछ लिख दे, बड़ी मेहरबानी होगी। सुना मंच संचालन आप ही करेंगे। मुझे सुबह तक बुलाइयेगा, जब अधिकतम लोग चले जाए या सो जाए। मुझे विश्वास है, फोटो खिंचवाकर अधिकतम लोग चले जाएँगे। चलिए आपको बाकी लोगों से परिचय करा दूँ।“ वो उनका हाथ पकड़े एक मेज़ के पास ले गये जिसके चारों तरफ़ कुर्सियों पर कई कवि और कवयित्रियाँ बैठी राजनीति पर चर्चा कर रहे थें। प्रोफेसर साहब जाकर बोले-”सज्जनों ये है प्रख्यात् कवि किसुन महतो। आप लोग इन्हें ख़ूब जानते होंगे।“
सबने उन्हें ऊपर से नीचे तक ऐसे देखा मानों, दूसरे जलवायु के जीव हो। और बोले-”अच्छा यही किसुन महतो है।“
इसके बाद कई और विद्वानों, कवियों, लेखकों और मंत्रियों तथा सांसदों से मुलाकात हुई सबने यही कहा-”अच्छा यही किसुन है।“
किसुन के लिए यह अपमान असह्य होता जा रहा था। इन कथनों में छुपे रहस्यों से वह अनभिज्ञ न थे।
करीब आठ बजे मंच शुरू हुआ। मंच संचालन का भार पन्डित जितन दास को सौंपा गया, जिनकी गिनती देश के प्रकाण्ड विद्वान और कवियों में होती थी। किसुन को उनके दीनता का दण्ड मिल गया। शुरू में कई मंत्री और सांसद आये, वे कविता तो क्या करते, ख़ुद मियां मिट्ठू बने और वोट भिक्षादान की मांग की। फिर दो-चार कवियों को मौका मिला, जो यहाँ आये मणमान्य और मेहमानों के तारीफ़ के सिवा कुछ न था। पाँचवें नम्बर पर किसुन को मौका मिला। उसने इस मौके के लिए बड़े ही मनोयोग से कविता की रचना पहले ही कर लिया था किन्तु इस माहौल को देखकर उसमें कुछ लाइनें और जोड़ दिये। उन्होंने जब अपनी निष्पक्ष, वास्तविक और तत्कालीन परिवेश पर कविता कहना शुरू किया तो कवियों, मंत्रियों, सांसदों, अफसरों और विद्वानों की गर्दनें झुकती चली गयी; वही श्रोतागण, सामान्य जनता मज़े लेकर सुन रही थी, आनंद और जागृति से झूम रही थी। क्षोभ और लज्जा से युक्त होते हुए भी आगे की पंक्ति से वाह! वाह! की ध्वनि गूँज जाया करती थी। कभी-कभी तालियाँ भी बज जाया करती। कविता रोककर किसुन बोले-”मुझे तालियाँ और शाबासी नहीं चाहिए। मैं कोई मदारी दिखाने वाला नहीं हूँ। उत्साह और जोश मेरे अंदर से निकलती और बल भरती है। इस वक्त मैं आप लोगों का मनोरंजन नहीं कर रहा हूँ। एक देश की दूरावस्था, नेताओं और अफसरों की लूट, उनकी मनमानी, समाजसेवकों का व्यवसायीकरण, सत्ताधारियों का स्वार्थ सिद्धि, कृषकों का आत्मदाह और जनता की दारूण दशा का सजीव चित्रण कर रहा हूँ। आप लोग दुःख व्यक्त करने की बजाये, सच्चरित्र, कर्त्तव्य और निष्ठापूर्वक सेवा का प्रण लेने की जगह आप लोग आनन्द से झूम और तालियाँ बजा रहे है। क्या यही वह विद्वान मंडली है जिस पर देश गर्व करता है। आते समय रास्ते में कुछ मजदूरों के जिद् पर मैंने यही कविता उन्हें सुनाया था सब वृहल, अश्रुसिंचित नेत्रों से इमानदारीपूर्वक अपने कर्त्तव्यों का निर्वाह हेतु तथा मानव और जीवों की सेवा और सहयोग के लिए संकल्प लिए। आज विद्वानों और देश के उच्च गौरव के पदों को सुशोभित करने वाले लोगों के प्रति मेरे मन में कई शंकायें पैदा कर दी है। मेरी कवितायें, मेरा समय व्यक्तिगत या सामूहिक आनन्द औैर मनोरंजन की तुच्छ वस्तु नहीं है, न समय सदुपयोग का साधन ही; जन-संकल्पित और राष्ट्रहित के लिए टीस, व्यथा और ढृढ़ संकल्पों, वास्तविक संवेगों का प्रवाह है। आपने पश्चिम की चकाचौंध और सूट-वुट के गर्व में अपनी आत्मा खो दी है, जीवट और संजीदगी की जगह वीरान, बेजान और धनोन्माद से युक्त स्वार्थपूर्ण मनुष्यों का झुंड देख रहा हूँ। मैंने कुछ ज्यादा बोला हो तो अख्खड़, अल्हड़ कवि समझ के क्षमा कर देना। शायद मैं इस मंच के योग्य नहीं हूँ। वह मंच से उतरा और उसी रात को घर को चल दिया।
पत्नी को आश्चर्य हुआ, दरवाजा खोलते ही पूछा- ”आधी रात को लौट आये, सुबह तक आने को कहे थे। सुना, बड़े-बड़े मंत्री, सांसद और ख्याति प्राप्त लोग आये थे। बड़ा आव-भगत हुआ होगा।“
”हाँ, बहुत“
”इतनी जल्दी क्यों आ गये, कुछ सिफारिश किये की नहीं ?“
”एक कवि होने के नाते मेरा जितना काम था कर दिया, आगे उनकी मर्जी।“
”अच्छा, चलो अब सो जाओ, सुबह के लिए राशन नहीं, कुछ सोचा है ?“
कुछ बोला नहीं उसके मन ने सोचा तुम्हारे जैसे सम्मान के लिए ग्रसितों का यही दण्ड है। तुम्हारा काम है लिखना, मान-सम्मान, प्रतिष्ठा के पीछे भागना नहीं। वह दीया लेकर वहीं टूटे टाट पर बैठ गये और कुछ लिखने लगे।
।।समाप्त।।
सम्पर्क सूत्र –:
विधा—कहानी
लेखक—धर्मेन्द्र कुमार
ग्राम—भवानीपुर (बढ़ैयाबाग) ‚ पोस्ट—बाजार समिति तकिया
थाना—सासाराम‚ जिला—रोहतास‚ राज्य—बिहार‚ भारत
पिन कोड— 82 11 15
bZesy&dharmendra.sasaram@gmail.com
शिक्षा—स्नातकोत्तर (दर्शन शास्त्र) ‚ नेट‚ बी०एड०‚ लाइब्रेरी साइन्स‚ कई साल पत्रकारिता का अनुभव‚ कई कहानियाँ और कवितायें पत्र—पत्रिकायों में प्रकाशित हो चुका है। प्रकाशित कहानी संग्रह—‘शराबी की बीबी’ (बिहार सरकार के अंशानुदान से)।
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