तेजपाल सिंह 'तेज' की कुछ ग़ज़लें -1- बदल गया है आजकल, व्यवहार मेरे शहर का, कि हो गया हर–आदमी, बीमार मेरे शहर का । कुछ इस कदर बर...
तेजपाल सिंह 'तेज' की कुछ ग़ज़लें
-1-
बदल गया है आजकल, व्यवहार मेरे शहर का,
कि हो गया हर–आदमी, बीमार मेरे शहर का ।
कुछ इस कदर बरसे यहाँ आतंक के बादल,
बहते लहू में धुल गया, श्रृंगार मेरे शहर का ।
आदतन छलने लगा यहाँ आदमी को आदमी,
हो गया अब आचरण, व्यभिचार मेरे शहर का ।
फिर मैकदे की सीढ़ियां चढ़ने लगे हैं लोग,
दैरो-हरम से उठ गया, एतबार मेरे शहर का ।
बज़्मे-शाही का चलन कुछ इस तरह बदला कि ’तेज’,
बेवक्त ठंडा पड़ गया, विस्तार मेरे शहर का ।
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-2-
कैसे - कैसे दुनिया के दस्तूर रहे,
जो जितने थे पास, वो उतने दूरा रहे ।
सहज सरलता, सद्गुण का प्रमाण नहीं,
जो जितने निर्मल थे, उतने क्रूर रहे ।
निष्ठुर हैं वो जो उपजाऊ धरती पर,
रेतीली मिट्टी का चौका पूर रहे ।
जितने दीप जलाए गहन अन्धेरों में,
हम उतने ही उजियारों से दूर रहे ।
‘तेज’ धूप में जितने सपन उकेरे हैं,
सपने अपने उतने क्षण-भंगूर रहे ।
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-3-
घर-घर जाकर ढूँढ रही है दीप पुराने दीवाली,
लगा रही है ख़ूब निशाने अँधियारे में दीवाली ।
छोड़ रहा है सूरज बेशक गहन धुँधलका धरती पर,
रिश्ते-नाते निभा रही है अभी पुराने दीवाली ।
दिन में दीपक जला अकेले जूझ रहे हम रातों से,
ढूँढ रही है रजनी में दिन पुन: पुराने दीवाली ।
ख़ून सनी चौखट को तो ना पौंछ सकी, वह हार गई,
लगी ढूँढने अब सहरा में, नए ठिकाने दीवाली ।
चक्की रोई, चूल्हा रोया, रोयी ‘तेज’ भूख दिल खोल,
ढूँढ न पाई बूली असमय सभी ठिकाने दीवाली ।
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-4-
अब कुछ अमन की बात होनी चाहिए,
बसकि जिन्दगी खुशहाल होनी चाहिए ।
उड़ने लगी यहाँ धूल दंगों की बहुत,
अबकि प्रीत की बरसात होनी चाहिए ।
दुश्वारियां ख़ुद-ब-ख़ुद मिट जायेंगी,
बस! हादसों की मात होनी चाहिए ।
दिन धुँधलके हो गए बेशक कि अब,
हरसू चरागाँ रात होनी चाहिए ।
टूटे हुए पत्ते ने होंगे हरे कि ‘तेज’,
रिश्तों की नव-प्रभात होनी चाहिवे ।
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-5-
मज़हबी टहनी पे गुल फूटेंगे अभी और,
देखते रहिए कि रंग फूटेंगे अभी और ।
भँवरों की अनायास ही नीयत बदल गयी,
इज़्ज़त गुलो-गुलजार की लूटेंगे अभी और ।
अभी-अभी तो आँधियां उभरी हैं फलक पर,
कि पंछियो के घोंसले टूटेंगे अभी और ।
कब तलक चिल्लाएगा, चीखेगा आदमी,
कि आदमी के हौसले टूटेंगे अभी और ।
रुख पढ़के हवाओं के बताता है हमें ‘तेज’,
सपने अमन के याद रख टूटेंगे अभी ओर ।
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-6-
कुछ मुद्दआ होता तो मैं कहता जरूर,
कोई जख़्म तर होता तो मैं कहता जरूर ।
हर बात को सहना मेरी आदत नहीं,
शिकवा-गिला होता तो मैं कहता जरूर ।
शबे-सियाह से रिश्ते पुराने हैं मिरे,
रिश्ता नया होता तो मैं कहता जरूर,
टुकड़े-टुकड़े हो गया मेरा जुनून,
कुछ मुद्दआ होता तो मैं कहता जरूर,
दिल मेरा अपनों ने ही तोड़ा है ’तेज .
कोई अजनबी होता तो मैं कहता जरूर ।
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-7-
घर नहीं, आँगन नहीं, साथी नहीं,
बरसात में मल्हार अब भाती नहीं ।
अब नज़र उनकी शारीके-जुर्म है,
ज़ख़्में-दिल को अब ये सहलाती नहीं ।
सियासती शतरंज का मोहरा है जिन्दगी,
हर सिम्त चालों से बच पाती नहीं ।
घर की दीवारों पे है अम्बर टिका,
छत पर कभी भी अब नज़र आती नहीं ।
अब टूटता लगता है मुझको घर मिरा.
सच हो न हो ये बात ज़ज़्वाती नही ।
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-8-
मद्धिम कसैली धूप है हिमपात का डर है.
पछुआ हवा के गर्भ से तूफान का डर है ।
होती है नित आकाश से दुख-दर्द की बातें,
ये खोली है सूरजभान की, इमरान का घर है ।
हो गया है शांति का अशांति से विवाह,
हर घड़ी, हर बात पर तकरार का डर है ।
अन्धी गलियों में तो है प्रवेश की छुट्टी,
पर प्रगति मैदान में प्रवेश पर कर है।
भूख के वक्षों पे है रोटी का हाथ ‘तेज’,
भूखों को आबदार के ईमान का डर है ।
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-9-
ये भी भला कोई बात हुई,
कि सारी जात, कुजात हुई ।
अभी-अभी था दिन निकला,
अभी-अभी है रात हुई ।
इधर किसी की छान जली,
उधर कहीं बरसात हुई ।
कुछ प्यार का मौसम यूँ गुजरा,
ना आँख मिली ना बात हुई ।
आधुनिकता आयात हुई,
कि मानवाता निर्यात हुई ।
ए! ‘तेज’ गिला भी क्या कीजे,
अपने घर अपनी मात हुई ।
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-10-
घर–घर में है धुआँ आजकल,
न जाने क्या हुआ आजकल ।
नैतिकता घर छोड़ चली है,
मानवता हुई हवा आजकल ।
हर पहलू है व्यर्थ दुआ का,
सफल रही बद्दुआ आजकल ।
दिल से दिल की बात निरर्थक
हर दिल है अनछुआ आजकल ।
ऐ! ‘तेज’ हरेक धारा बदली,
बदली है हर हवा आजकल ।
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-11-
हम प्यालों में घायल मन की तड़प घोलकर पीते हैं,
पर बेदिल दुनिया वालों से आँख मिलाकर पीते हैं ।
सूने पनघट की सीढ़ी पर आँखों में दिन कटते हैं,
यादों के मरघट में शब-भर दीप बुझाकर पीते हैं।
यौवन के उपवन में असमय, पतझड़ पाँव पसार गया,
बैठ धूप के साये में अब, दर्द का सागर पीते हैं ।
नई हवा में मानवता के, सभी घोंसले टूट गये,
छोड़ उड़ान प्रीत के पंछी, घात लगाकर पीते हैं ।
बदल रहा है ‘तेज’ ज़माना, समझ-बूझकर भे अब लोग,
नागफनी-पथ पर चलते हैं, खून सुखाकर पीते हैं ।
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-12-
आज मौत ने पाँव पसारे और जीवन के सिकुड़े पाँव,
दानवता सिरमौर हुई है, मानवता के उखड़े पाँव ।
सूरज की चौखट पर आकर तोड़ रही दम दोपहरी,
कलियुग का प्रशासन देखो, पेड़ खड़े पकडे छाँव ।
धरती फट जाने का मुझको, रंज नहीं, अफ़सोस नहीं,
रंज तो है कि राजनीति ने आज धर्म के पकड़े पाँव ।
मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारों को , कत्लगाह का रूप न दो,
आगे बढ़कर रोकने होंगे, अब हिंसा के बढ़ते पाँव ।
कब तक कौन करेगा पूजा मरघट के सन्नाटों में,
साफ़ ‘तेज’अब करने होंगे आह ! खून में लिथड़े पाँव ।
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(मेरे ग़ज़ल स्ंग्रह 'दृष्टिकोण' से उद्धृत)
तेजपाल सिंह 'तेज’ (जन्म 1949) की गजल, कविता, और विचार-विमर्श की लगभग दो दर्जन किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं - दृष्टिकोण, ट्रैफिक जाम है, गुजरा हूँ जिधर से, हादसो के शहर में, तूंफ़ाँ की ज़द में ( गजल संग्रह), बेताल दृष्टि, पुश्तैनी पीड़ा आदि (कविता संग्रह), रुन - झुन, खेल - खेल में, धमाचौकड़ी आदि ( बालगीत), कहाँ गई वो दिल्ली वाली ( शब्द चित्र), पांच निबन्ध संग्रह और अन्य। तेजपाल सिंह साप्ताहिक पत्र ग्रीन सत्ता का साहित्य संपादक, चर्चित पत्रिका अपेक्षा का उपसंपादक, आजीवक विजन का प्रधान संपादक तथा अधिकार दर्पण नामक त्रैमासिक का संपादक भी रहे हैं। स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त होकर आप इन दिनों स्वतंत्र लेखन के रत हैं। हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार ( 1995-96) तथा साहित्यकार सम्मान (2006-2007) से भी आप सम्मानित किए जा चुके हैं।
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