शादी की कहानी कोई नई थोड़ी है। ना ही कोई नया रास्ता है। चाहे-अनचाहे सभी इस रास्ते से गुजरते हैं। कुछ चाहकर और कुछ न चाहकर भी।....कुछ कम उम्र ...
शादी की कहानी कोई नई थोड़ी है। ना ही कोई नया रास्ता है। चाहे-अनचाहे सभी इस रास्ते से गुजरते हैं। कुछ चाहकर और कुछ न चाहकर भी।....कुछ कम उम्र में तो कुछ चढ़ी उम्र में।...किंतु कमाल का सच ये है कि इस रास्ते में आई बाधाओं के किस्से चुटकलों के जरिए तो सुनने/पढ़ने को खूब मिलते हैं किंतु इस चुटकलों के सच को कोई भी पति अथवा पत्नी व्यक्तिश: स्वीकार नहीं करता। क्यों...? लोक-लज्जा का डर, पुरूष को पुरुषत्व का डर, पत्नी को स्त्रीत्व का डर... डर दोनों के दिमाग में ही बना रहता है... इसलिए पति व पत्नी दोनों आपस में तो तमाम जिन्दगी झगड़ते रहते हैं किंतु इस सच को सार्वजनिक करने से हमेशा कतराते हैं। किंतु यह भावना कष्टकारी है। व्यापक तौर पर देखा जाए कि हमारे समाज में किसी भी सच को कोई भी उजागर करना का मन नहीं बना पाता।
आधुनिक भारत में चाहे राजनीतिक दल वोटों के लिए, चाहे मन्दिरों के पुजारी सेविकाओं की चाहत में, चाहे तथाकथिक समाज सेवी संस्थाएं ... या फिर कोई भी भीड़ जुटाने के लिए महिला सशक्तिकरण का नारा लगाते है तो मुझे ये महिला सशक्तिकरण का नाटक मुझे तो बड़ा ही बचकाना लगता है...मुझे तो महिला के मुकाबले कोई और सशक्त नहीं लगता....महिला अपनी पर उतर आए तो क्या नहीं कर सकती ?...बेटा-बेटी के अलावा पति की क्या मज़ाल कि उसके सामने कोई भी बोल पाए? यह बात अलग है कि ग्रामीण भारत की महिलाओं और पढ़ी-लिखी शहरी महिलाओं के पुरुष को बौना बनाए रखने के तरीके अलग-अलग होते हैं। हाँ। कुछ अपवाद होना तो स्वाभाविक है...न सभी पुरुष एक से होते हैं और न सभी महिलाएं ही।
एक समय था कि जब शादी के मामले में लड़के और लड़की की इसके अलावा कोई भूमिका नहीं होती थी कि वो दोनों आँख और नाक ही नहीं अपितु साँस बन्द करके माँ-बाप अथवा दूसरे सगे-संबन्धियों की इच्छा के अनुसार शादी के लिए तैयार हो जाएं। इसके पीछे समाज का अशिक्षित होना भी माना जा सकता है। किंतु जैसे-जैसे समाज में शिक्षा का व्यापक प्रचार और प्रसार हुआ तो नूतन समाज के विचार पुरातन विचारों से टकराने लगे, अब शादी के मामले में लड़के और लड़की की इच्छाएं भी पुरातन संस्कृति के आड़े आने लगी हैं। फलत: पिछले कुछ दशकों से यह देखने को मिल रहा है कि शादी के परम्परागत पहलुओं के इतर शादी से पहले लड़के और लड़की को देखने का प्रचलन जोरों पर है। पहले यह उपक्रम केवल शहरों-नगरों तक ही सीमित था किंतु आजकल तो यह उपक्रम दूरस्थ गाँवों तक पहुँच गया है। झुग्गी – झोपड़ियाँ तक भी इस प्रथा की ज़द में आ गई हैं। इसमें कोई बुराई भी नहीं है।
यहाँ एक सवाल का उठना बड़ा ही जायज लगता है कि शादी के उद्देश्य से लड़के और लड़की की पंद्रह-बीस मिनट की मुलाकात में लड़का लड़की और लड़की लड़के के विषय में क्या और कितना जान पाते होंगे, कहना कठिन है। सिवाय इसके कि एक दूसरा, एक दूसरे की चमड़ी भर को ही देख-भर ले। दोनों एक दूसरे की नकली हंसी को किसी न किसी हिचकिचाहट के साथ दबे मन से स्वीकार कर लें। इस सबका कोई साक्षी तो होता नहीं है। अगर हो भी तो उनका इस प्रक्रिया में कुछ भी कहने का कोई अधिकार यदि होता है तो वह केवल लड़के और लड़की को केवल शादी के लिए तैयार करना होता है। इसके अलावा और कुछ नहीं। कहना अतिशयोक्ति न होगा कि दो अनजान चेहरों के बीच पहली बैठक में बात शुरु करने में कुछ न कुछ तो हिचकिचाहट होती ही है। अमूनन देखा गया है कि शादी के बन्धन में बन्धने जा रहे जोड़े को दूसरी मुलाकात का मौका प्राय: दिया ही नहीं जाता।
धार्मिक बाधाएं इस सबके सामने खड़ी कर दी जाती हैं। हमको इस धार्मिक उपक्रम ने इस हद तक कमजोर और कायल बना दिया है कि हम सारा समय लड़के और लड़की की कुंडलियाँ मिलाने में गवां देते हैं। फिर ये कैसे मान लिया जाए कि शादी की पुरातन रीति आज की रीति से भिन्न है? हाँ! इतना अंतर अवश्य है कि पहले समय में लड़के और लड़की का मिलान करने में दोनों ही पक्षों के माता-पिता की सीधी जवाबदारी होती थी और आजकल इस जवाबदारी का एक बड़ा हिस्सा लड़के और लड़की पर डाल दिया जाता है, नूतन संस्कृति और शिक्षा के प्रादुर्भाव के चलते माँ-बाप की ये मजबूरी भी है। वह इसलिए कि आजकल के पढ़े-लिखे बच्चों के माता-पिता इसलिए असहाय हैं कि वो बच्चों की स्वीकृति के बिना ‘हाँ’ या ‘ना’ कहने की स्थिति में नहीं होते। दूसरे, बच्चों की शिक्षा का स्तर और कामयाबी के चलते माँ-बाप की मर्जी के कोई मायने नहीं रह गए हैं। और हों भी क्यों, लड़का और लड़की को कामयाब होने के बाद भी अपनी इच्छानुसार जीने की स्वतंत्रता तो होनी ही चाहिए कि नहीं?
व्यापक दृष्टि से देखा जाए तो यह कतई सच है कि प्रथम दृष्टि में, आजकल लड़के और लड़की को शादी से पूर्व मिलने का मौका तो अवश्य दिया जाता है किंतु उसके बाद उन्हें फोन पर भी बातचीत करने का मौका न दिए जाने तक की कवायद होती है। यह बात अलग है कि आज के संचार के विविध माध्यमों और नई-नई तकनीकी संचार युक्तियों के युग में लड़का–लड़की चोरी-छिपे फोन, वाट्सऐप, इंटरनेट या फिर फेसबुक के जरिए बराबर बात करते रहते हैं।...किसी को कानों-कान खबर नहीं होती। किंतु फोन, वाट्सऐप, इंटरनेट या फिर फेसबुक के जरिए बात करने का वो अर्थ तो नहीं हो सकता जो साक्षात बात करने में होता है। क्योंकि फोन, वाट्सऐप, इंटरनेट या फिर फेसबुक के जरिए बात करने में बाडी-लेंगुएज़ का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता जबकि इसके उलट साक्षात मुलाकात में बाडी-लेंगुएज़ बहुत कुछ खुलासा कर जाती है। किंतु हम बच्चों को शादी से पूर्व एक से ज्यादा बार मिलने का मौका ही नहीं देते। और न ही बच्चों के माता-पिता ही दोबारा ऐसा कोई मौका लेने का प्रयास करते हैं। बस! घड़ी-भर का मिलना पूरे जीवन का बन्धन बना दिया जाता है। यह कहाँ तक उचित है?
सच तो ये है कि शादी जीवन का एक अकेला ऐसा सौदा है जो एक-दो दिन की मुलाकात में ही तय मान लिया जाता है जबकि एक टी.वी. या फ्रिज जैसी दैनिक उपयोग की चीजें खरीदने की कवायद में महीनों तक लग जाते हैं.... कौन सी कम्पनी का लें? इसकी क्या और कितने दिनों की गारंटी है?... इसका लुक औरों के मुकाबले कैसा है?... न जाने क्या-क्या... कितने ही मित्रों से इसकी जानकारी हासिल की जाती हैं...इतना ही नहीं, सब्जी तक दस दुकानों की खाक छानने के बाद भाव-मोल करने के बाद ही खरीदी जाती हैं।...किंतु लड़का-लड़की के बीच जीवन-भर का रिश्ता बनाने में जान-पहचान के बजाय बच्चों की शिक्षा के स्तर और उनकी आमदनी के विषय में ही ज्यादा सोचा जाता है।...और कुछ नहीं।
लगता है कि यही प्रक्रिया आजकल के रिश्तों में टूटन का खास कारण है।... बच्चों की कमाई भी इसका एक कारण हैं, एक दूसरा एक दूसरे की कमाई पर हक जताने की जिद में हमेशा उलझे रहता हैं। ...लड़का और लड़की के घर वाले भी इस कवायद में कम भूमिका नहीं निभाते... लड़का और लड़के के घर वाले लड़की की कमाई को हर-हाल हथियाने की कोशिश में लग रहते हैं, और लड़की अपनी कमाई को लड़के के नाम क्यूँ करदे, इसी उलझन में फंसी रहती है।... पड़े भी क्यूँ न? जो लड़की अपने माँ-बाप के घर को छोड़कर लड़के के साथ उसके घर में रहने के लिए बाध्य होती है तो क्या वह अपनी कमाई से ससुराल वालों को पालने के लिए भी बाध्य है? यदि ऐसा होता है तो लड़की के लिए शादी के क्या माने रह जाते है?
हाँ! मान-सम्मान अता करने की बात अलग है। इस जद्दो-जहद के चलते लड़का और लड़की के बीच मतभेद हो न हो, घर वाले दोनों के बीच में दीवार खड़ा करने में अहम भूमिका निभाते हैं। केवल माँ-बाप ही लड़का और लड़की के बीच की दीवार नहीं बनते, अपितु अनेक बार लड़का और लड़की भी अपने बीच दीवार खड़ा करने में पीछे नहीं रहते। इसी कश-म-कश के चलते, यह देखा गया है कि शादी हो जाने के बाद पति-पत्नि एक दूसरे को निभाने, या यूँ कहूँ कि पति-पत्नि के सामने इस रिश्ते को ढोने के अलावा कोई और रास्ता शेष नहीं रह जाता।
जहाँ तक कुंडलियों के मिलान का सवाल है, यह एक ढौंग प्राय: है, इसे अन्धविश्वास की सज्ञ भी दी जा सकती है जो सदियों से होता आ रहा है और पता नहीं भविष्य इस परिपाटी को कब तक ढोने को बाध्य होगा। यहाँ यह सवाल उठता है कि क्या ये कुंडली-मिलान रिश्तों के अमरत्व की कोई गारंटी देता है। क्या कुंडली-मिलान वाले जोड़ों के बीच कभी कोई दरार नहीं पड़ती? क्या उनका जीवन-भर मधुर साथ बना रहता है? क्या उनके जीवन में कोई प्राकृतिक बाधा नहीं आती? जैसी कि कुंडली मिलाते समय आशा की जाती है।... व्यापक रूप से ये भ्रामक मानसिकता है, ऐसा करने से किसी दम्पति को आशानुरूप शांति शायद कभी ही मिलती हो। यह उपक्रम अपने को स्वयं धोखा देने के बराबार है। मुझे लगता है कि इसके इतर यह अच्छा होगा कि लड़के और लड़की की जन्मकंडली के बदले उनकी चिकित्सीय कुंडलीयों का मिलान किया जाना चाहिए। मैं जानता हूँ कि मेरे इस प्रस्ताव को एक मानसिक रोगी की विचारधारा समझ नकार ही दिया जाएगा किंतु मेरी इस बात के महत्व को खुशवंत सिंह की पुस्तक ‘दिल्ली’ में उद्धृत महात्मा शेख सादी के इस बयान से जाना जा सकता है – ‘यदि औरत बिस्तर से बेमजा उठेगी तो बिना किसी वजह के ही मर्द से बार-बार झग़ड़ेगी|’ किंतु ये एक ऐसा सत्य है जिसे कोई भी पुरुष अथवा औरत मानने वाली नहीं है.... किंतु ऐसा होता है। इस कारण के बाद आता है.... लत का सवाल.... श्रंगारिक संसाधनों की उपलब्धता....गहनों की अधिकाधिक रमक....आदि.-आदि। पुरुषों के मामले में दहेज का लालच....और न जाने क्या-क्या। क्या लड़के और लड़्के के माता-पिता द्वारा इस ओर कुंडलियाँ मिलाते समय ध्यान दिया जाता है? अमूनन नहीं..। पुरातन स्मय में कम से कम देहातों में कोई पिता लडक़ी के रिश्ते के लिए कोई लड़्का तलाश करने कहीं जाता था तो सुनने में आता था कि लड्क़ी की दादा/दादी अपने बेटे ये नसिहत घर से बिदा करते थे कि देख, ‘लड़का बेशक गरीब घर का ही हो किंतु ‘पट्ठा’ और बस पट्ठा हो.....कभी किसी लल्लू के साथ बांध दे बेटी को....सारी उम्र दुख झेलने के लिए। रोटी-रोजी का जुगाड़ तो बच्चे मेहनत – मजदूरी करके सब निकल ही लेते हैं.... समझा कि नहीं ...अब जा और मेरी बातों को ध्यान में रखना।’ अब यह सुधी पाठकों पर निर्भर है कि दादी के इस कथन का कैसे और किस संदर्भ में निकालते हैं। और यदि ऐसा नहीं हो पाता यानी कि पति और पत्नी दोनों की शारीरिक आवश्यकत की पूर्ति चाहे किसी भी कारण से नहीं हो पाती तो अक्सर ऐसा कारण उत्पन्न हो जानता है कि इन तमाम कारणों के चलते रिश्तों में खटास आ जाने के कारण या तो विछोह हो जाता है, या फिर जीवन-भर दम्पति को एक दूसरे को हारे-मन ढोते रहने को बाध्य होना पड़ता है। पति-पत्नी की एक-दूसरे से कमर भिड़ी रहती है.... और इसी कश-म-कश में जीवन तमाम हो जाता है। हाँ! ये बात अलग है कि समाज का एक बड़ा वर्ग, खासकर इस व्यवस्था से पीड़ित पति/पत्नी सरेआम इस बात को स्वीकार करने से कतराता हैं....कि उनके सामने समाज में सिर उठाकर जीने का सवाल हमेशा बना रहता है। चेहरे पर चेहरा लगाए रहते हैं.... कोई और पहल करे.... तो वो भी करे...... यह मौका कभी आता ही नहीं... क्योंकि जन-सामान्य उस मुखौटे को उतारने का साहस उस भीरुता के कार्ण कर ही नहीं पाते, जो भिरुता उन्हें विरासत में मिली है। इसी इंतजार में अपने मन की बात को मन में दबाए रहते हैं।.... चिड़चिड़ापन उनके सिर पर सवार हो जाता है किंतु इस सव अवस्था से उबरने के लिए कुछ भी कर नहीं पाते। हाँ! शहरी पढ़े-लिखे लड़के और लड़कियों की हालत ग्रामीन इलाके के लड़के और लड़कियों की हालत शहरी लड़के और लड़कियों की हालत से जुदा है। उसका मूल कारण शिक्षा के उतार – चढ़ाव का है। मौटे तौर पर गाँव अभी भी भारत की पुरातन संस्क्ति और सभ्यता को ढोने से नहीं बच पाए है और शहरी आबादी पश्चिमी संस्कृति की गुलाम होती जा रही है.....उनके लिए भारतीय सामाजिक, आर्थिक , धार्मिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक मूल्यों कोई अंर्थ नहीं रह गया है। आज का युवा पीढ़ी अपने जीवन को दायरों में बन्धकर नहीं, खुले आसमान में जीना चाहती है जहाँ किसी प्रकार की परम्परातग्त बाध्यता न हो।
नवभारत टाइम्स – 06.02.2015 में छपे एक सर्वे के जरिए यह तथ्य सामने आया है कि ज्यादातर दम्पत्तियों के बीच शादी वाला प्यार शादी होने के पहले दो सालों में ही फुर्र हो जाता है.... कुछ का तीन सालों बाद...... और जिनका बचा रहता है... उनके सामने किसी न किसी प्रकार की सामाजिक मजबूरी ही होती है। ये पहले कभी होता होगा कि पति-पत्नी बुढ़ापे में एक दूसरे के मददगार बने रहते थे... आज समय इतना बदल गया है कि बुढ़ापा आने से पहले ही सारा खेल बिगड़ जाता है...... पहला बच्चा पैदा होने के साथ ही पत्नी का प्रेम पति के प्रति इतना कम हो जाता है कि पति उसके लिए उधार की चीज बन जाता है....... ऐसा उधार कि जिसे वो उतार तो नहीं सकती... बस! ढोने भर के लिए बाध्य होती है....पति की हालत भी कमोवेश यही होती है। यहाँ भी लोक-लाज ही ऐसे रिश्तों को निभाने के लिए आड़े आती है। इस विछोह के पीछे एक और जो कारण होता है... वो है – लगभग 80/90 प्रतिशत पति अपनी पत्नी को ही अपनी जायज या नाजायज सम्पत्ति का मालिक बनाने का काम करते है।...कारण चाहे जो भी हों। और जब जैसे ही पत्नी को इस सच का पता चल जाता है, वैसे ही वो पति पर धीरे-धीरे सवार होती चली जाती है और पति की उपेक्षा करना शुरू कर देती है। उसे अक्ल जब आती है, तब उसकी अपनी औलाद खासकर बेटा/बेटे अपना असली रूप दिखाने की हालत में आ जाते हैं।... यानी बेटों के सिर पर एक और चोटी उग आती है.... माने उनकी शादी हो जाती है। .अब घर में बहू का दखल भी शामिल हो जाता है।... बेटियाँ तो अपने घर यानी ससुराल चले जाने के बाद भी अपने माँ-बाप के प्रति किसी न किसी प्रकार अपने अपनत्व का निर्वाह करती ही रहती हैं। बेटों के बारे में क्या कहा जाए..... आप सब इस यथार्थ से परिचित ही होंगे....... फिर भी पता नहीं... प्रत्येक दम्पत्ति के मन में बेटा पैदा करने की जिज्ञासा ज्यादा ही बनी रहती है...... पता नहीं. क्यों?
एक और सार्वभौम सत्य है कि 70 से 80 प्रतिशत औरतों के पति पत्नी के जीवित रहते ही मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। फलत: पत्नियों को ऐसा पीड़ा भरा असहाय जीवन जीना पड़ता है जिसकी कल्पना करना भी दूभर होता है। एक उपेक्षित जीवन जीना....और वहशी आँखों की किरकिरी बने रहना... विधवाओं की नियति हो जाती है। कुछ लोग कह सकते हैं कि विधवा की देखभाल के लिए क्या उसके बच्चे नहीं होते। इस सवाल का उत्तर वो जीवित विधुर और विधवा अपने गिरेबान में झाँककर खोजें कि मृत्यु के बाद उनके स्वयं के बच्चे उनका कितना ध्यान रखते हैं।
दान-दहेज की बात के इतर इस ओर कभी किसी का ध्यान शायद ही गया हो। लगता तो ये है कि इसके कारणों को खोजने का प्रयत्न भी शायद नहीं किया गया जो अत्यंत ही शोचनीय विषय है। मुझे तो लगता है कि समाज में ये जो प्रथा है कि लड़का उम्र के लिहाज से लड़की से प्रत्येक हालत में कम से कम पाँच वर्ष बड़ा होना ही चाहिए, इस प्रकार की सारी विपदाओं के लिए जिम्मेदार है। शायद आप भी इस मत से सहमत होंगे कि उम्र के इस अंतर को मिटाने की खासी आवश्यकता है। लड़का-लड़की की उम्र यदि बराबर भी है तो इसमें हानि क्या है? या फिर शादी के एवज पारस्परिक रिश्तों को क्यूँ न स्वीकृति प्रदान की जानी चाहिए.... विछोह तो आगे....पीछे होना तय है ही.....भला धुट-घुटकर जीवन यापन करने की बाध्यता शादी ही क्यों हो?
इस सबसे इतर, नवभारत टाइम्स दिनांक 23.05.2015 के माध्यम से अनीता मिश्रा कहती हैं कि शादी सिर्फ आर्थिक और शारीरिक जरूरतों को पूरा करने भारत का माध्यम नहीं है। लड़कियों को ऐसे जीवन साथी की तलाश रहती है जो उन्हें समझे। उनकी भावनात्मक जरूरतें भी उनके साथी के महत्त्वपूर्ण हों। वो फिल्म ‘पीकू’ में एक संवाद का हवाला देती हैं.... शादी बिना मकसद के नहीं होनी चाहिए। फिल्म की नायिका का पिता भी पारम्परिक पिताओं से हटकर है। वह कहता है, ‘ मेरी बेटी इकनामिकली, इमोशनली और सेक्सुअली इंडिपेंडेंट है, उसे शादी करने की क्या जरूरत?’ मैं समझता हूँ कि यह तर्क अपने आप में इमोशनल जरूर है। फिर भी यह आम-जन का ध्यान तो आकर्षित करता ही है।
अनीता जी आगे लिखती है कि यहाँ एक सवाल यह भी है कि विवाह संस्था को नकारने का कदम स्त्रियां ही क्यों उठाना चाहती है। शायद इसके लिए हमारा पितृसत्तात्मक समाज दोषी है। वर्तमान ढांचे में विवाह के बाद स्त्री की हैसियत एक शोषित और उपयोग की वस्तु की हो जाती है। आत्मनिर्भर स्त्री के भी सारे निर्णय उसका पति या पेशेंट के परिवार वाले ही करते हैं। शादी होने के बाद (कुछ अपवादों को छोड़कर) उसका पति मालिक और निरंकुश शासक की तरह ही व्यवहार करता है। ऐसे में स्त्री के लिए दफ्तर की जिन्दगी और घरेलू जिन्दगी में तालमेल बिठाना मुश्किल हो जाता है। कहा जा सकता है कि ज्यादातर स्त्रियों को दफ्तर में काम करने के बाद भी घर में एक पारम्परिक स्त्री की तरह खुद को साबित करना होता है। किसी भी स्त्री को जब सफलता मिलती है तो यह भी जोड़ दिया जाता है कि उसने करियर के साथ सारे पारिवारिक दायित्व कितनी खूबी से निभाए। जबकि पुरुषों की सफलता में सिर्फ उनकी उपलब्धियां गिनी जाती है। कामकाजी लड़कियों के लिए शादी के बाद इतनी सारी चीजों के बीच तालमेल बिठाना मुश्किल हो जाता है। नतीजतन विवाहेतर संबंधों में खटास आ जाती है.... यहाँ तक की तलाक की स्थिति भी उत्पन्न हो जाती है। ऐसी मिसालें देखकर आज कई लड़कियां शादी नहीं करने का निर्णय ले रही हैं। वे अपनी आजादी को पूरी तरह जीना चाहती हैं और अपने व्यक्तित्व और संपति की मालिक खुद होना चाहती हैं।
यहाँ यह सवाल उठना भी लाजिमी है कि शादी समाज की एक जरूरी व्यवस्था रही है किंतु आजादी चाहने वाली लड़कियां शादी को एक बन्धन की तरह देखती हैं। फिर मानव समाज की दृष्टि से एक सामाजिक व्यवस्था के तौर पर विवाह का विकल्प क्या है? क्या यह बेहतर नहीं होगा कि बदलते परिवेश में स्त्री शादी का विकल्प खुद खोजे? जाहिर तौर पर अब तक पुरुषों की आर्थिक स्वनिर्भरता और सक्षमता ने केवल उन्हें ही निर्णय लेने का अधिकार दे रखा था। अब अगर महिलाएं भी इसी हैसियत में पहुँचने के बाद अपनी जिन्दगी की दिशा तय करने वाला फैसला खुद लेने लगी हैं तो इसमें गलत क्या है? फिर क्यों न आत्मनिर्भर, जागरूक और सक्षम महिला को शादी करने, न करने का फैसला खुद लेने दिया जाए?
उपर्युक्त के आलोक में महिलाओं और पुरुषों के बीच बराबरी के प्रश्न का हल एक लम्बी प्रक्रिया से होकर गुजरेगा। आनन-फानन में कुछ भी नहीं होने वाला है। किंतु इस प्रकार की बहसों का जन्म लेना सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया को गति तो प्रदान करता ही है।
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तेजपाल सिंह 'तेज’ (जन्म 1949) की गजल, कविता, और विचार-विमर्श की लगभग दो दर्जन किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं - दृष्टिकोण, ट्रैफिक जाम है, गुजरा हूँ जिधर से, हादसो के शहर में, तूंफ़ाँ की ज़द में ( गजल संग्रह), बेताल दृष्टि, पुश्तैनी पीड़ा आदि (कविता संग्रह), रुन - झुन, खेल - खेल में, धमाचौकड़ी आदि ( बालगीत), कहाँ गई वो दिल्ली वाली ( शब्द चित्र), पांच निबन्ध संग्रह और अन्य। तेजपाल सिंह साप्ताहिक पत्र ग्रीन सत्ता का साहित्य संपादक, चर्चित पत्रिका अपेक्षा का उपसंपादक, आजीवक विजन का प्रधान संपादक तथा अधिकार दर्पण नामक त्रैमासिक का संपादक भी रहे हैं। स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त होकर आप इन दिनों स्वतंत्र लेखन के रत हैं। हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार ( 1995-96) तथा साहित्यकार सम्मान (2006-2007) से भी आप सम्मानित किए जा चुके हैं।
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