मैंने जहाँ तक पढ़ा है भारत में शुरूआत से ही लोक कल्याणकारी राज्य की ही अवधारणा हैं तभी तो हमारे धर्मशास्त्रों में कहा गया है- प्रजा सुखे सुखं...
मैंने जहाँ तक पढ़ा है भारत में शुरूआत से ही लोक कल्याणकारी राज्य की ही अवधारणा हैं तभी तो हमारे धर्मशास्त्रों में कहा गया है-
प्रजा सुखे सुखं राज्ञम् प्रजानां च हिते हितम्
नात्म प्रितम् हितम् राज्ञः प्रजानां तुं प्रियम् हितम्।
व्रजा का हित राजा का हित है और राजा का हित प्रजा का हित हैं। अतः राजा को चाहिये कि वह प्रजा का पुत्रवत पालन करे और प्रजा को चाहिये कि वह राजा को पितृ तुल्य माने।
’’लोक कल्याण राज्य’’ की भारतीय अवधारणा से भारतीय सन्दर्भ भरे पड़े हैं। वेद, गीता, रामायण भारत की भारतीयता के न केवल प्रतीक है वरन ये भारत की धरोधर हैं। इनके सन्दर्भों को न नकारा जा सकता हैं और न ही झुठलाया जा सकता हैं।
राज्य संस्था की उत्पत्ति संबंधी सर्वाधिक प्राचीन निर्देश अथर्ववेद में मिलता है जिसके अनुसार राज्य संस्था क्रमिक विकास का परिणाम हैं। विकासशील सिद्धांत के अनुसार राज्य सहसा उत्पन्न नहीं हुआ अपितु शनैः-शनैः विकसित होता हुआ कालांतर में अपनी पूर्णता को प्राप्त करता है। मूलतः इसकी उत्पत्ति का अंकुर मनुष्यों के किसी भूभाग पर सह-निवास से प्रस्फुटित होता हैं। धीरे-धीरे उनके पारस्परिक संबंध जटिल और बहुलतायुक्त होते जाते हैं क्योंकि उनकी जनसंख्या, कार्यक्षेत्र और आवश्यकताओं में भी अभिवृद्धि के साथ जटिलता आती है। यह जटिलता हितों की विविधता और संघर्ष को जन्म देती हैं। संघर्षों के समाधान हेतु जो संस्था कार्य करती है वही उस समय की राज्य-संस्था होती हैं। समाज और मानवीय संबंधों के विकास के साथ-साथ राज्य संस्था का विकास होता हैं।
अथर्ववेद के अष्टम कांड के दशम सूक्त में राज्य संस्था के उद्भव और विकास का प्रथम विस्तृत वर्णन मिलता हैं। इस सूक्त में सृष्टि के भिन्न क्षेत्रों में किस प्रकार ’विराट’ अथवा राजयविहीन, असंबद्धता तथा असंश्लिष्टता की अवस्था से ’उत्क्रांति’ या विकास, संबद्धता और संश्लिष्टता की स्थिति आती है, इसका वर्णन किया गया है। सूक्त के प्रथम तेरह मंत्रों में राज्य के विकास का वर्णन किया गया है और बताया गया है कि राज्य किन-किन मुख्य अवस्थाओं से गुजर कर पूर्ण विकास की अवस्था तक पहुंचता हैं।
अथर्ववेद के ये सूक्त प्राचीन भारतीय राजनीतिक दर्शन की दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि यह प्राचीनतम प्राप्य संदर्भ है जिसमें राज्य संस्था की उत्पत्ति और विकास पर विचार करने का प्रयास मिलता हैं। इसके अनुसार शासन की व्यवस्था का विकास क्रमशः गार्हपत्य (गृहपति), आहवनीय (ग्रामीण), दक्षिणाग्नि (राजा या चतुर अग्रणी), सभा (श्रेष्ठ जनों का निर्णयकारी संगठन), समिति (सम्यक विचार हेतु संगठन) और आमंत्रण (जनसभा अथवा राजाओं का संगठन) इत्यादि के रूप में हुआ। आधुनिक काल में भी मानव-समाज व राज्य के प्रादुर्भाव और विकास का प्रायः यही क्रम माना जाता है अर्थात सबसे पहले परिवार संगठित हुए, फिर ग्राम बने, फिर जन और जनपद अर्थात राष्ट्रों का विकास हुआ जिनमें उचित शासन व परामर्श हेतु सभा-समिति जैसी संस्थाओं का आविर्भाव हुआ। यद्यपि आहवनीय, दक्षिणाग्नि और आमंत्रण का अर्थ विस्तृत रूप से स्पष्ट नहीं है परंतु सभा और समिति का उल्लेख वैदिक साहित्य में अनेक स्थानों पर मिलता हैं।
प्राचीन भारतीय राजनीतिक इतिहास के अधिकांश व्याख्याकार राज्य की उत्पत्ति के विकासवादी सिद्धांत को स्वीकार करते हैं। श्री अरविंद के अनुसार भी प्राचीन भारतीय राज्य की उत्पत्ति जनजातीय अथवा कबीलाई व्यवस्था से प्रारंभ हुई जिसने धीरे-धीरे प्रादेशिक स्वरूप प्राप्त किया तो एक स्थिर ग्रामीण समुदाय का उदय हुआ और उसके प्रतिनिधि तथा अध्यक्ष के रूप में राजा की उत्पत्ति हुई।
ए.एस. अल्तेकर का मत है कि ’’आर्य जातियों में पितृ प्रधान सम्मिलित कुटुंब पद्धति के ही बीज से धीरे-धीरे राज्य विकास अधिक युक्तियुक्त प्रतीत होता हैं।’’ वेदों में इस प्रकार के प्रमाण उपलब्ध हैं जिनसे प्रतीत होता है कि गृहपति (कुटुंब के मुखिया) के अधिकार और पद प्रायः राजा के समान थे। जब कुटुंब का विस्तार हुआ और उसने एक गांव में रहने वाले अनेक कुटुंबों अथवा कुलों के संघ का स्वरूप धारण कर लिया तो गृहपति के अधिकार-क्षेत्र की व्यापकता में कुछ कमी आई और वे ग्राम के सबसे बड़े कुल के सबसे बड़े वृद्ध अथवा ग्रामणी को हस्तांतरित हो गए जो अन्य ग्रामवृद्धों की सलाह से ग्राम की व्यवस्था करने लगा।
वैदिक काल के अंतिम चरण अर्थात प्राक-मौर्य अवस्था में राज्य निर्माण की यह प्रक्रिया तीव्र होकर लगभग पूर्णता की स्थिति में पहुंच गई जबकि बड़े-बड़े प्रादेशिक राज्यों की स्थापना हुई, जो सैनिक दृष्टि से भली-भांति सज्जित थे। स्थायी सेना का गठन हुआ, कर-व्यवस्था सुदृढ़ हुई, कृषि के नए उपकरणों के कारण अतिरिक्त उत्पादन बढ़ा, कारीगर और व्यापारी के रूप में नए करदाता भी सामने आए, वर्णों के सुस्पष्ट कर्तव्य निर्धारित हो गए, विधि एवं न्याय प्रणाली का जन्म हुआ, लोकप्रिय संस्थाओं जैसे सभा और समिति का विलय हो गया, गणतांत्रिक परंपरा दुर्बल हुई और राजतांत्रिक व्यवस्था प्रबल होने लगी।
महाभारत के शांतिपर्व के अध्याय-67, कौटिल्य के अर्थशास्त्र और जैन व बौद्ध साहित्य में प्राप्त वर्णनों से यह स्पष्टतः ज्ञात होता है कि राजा व राज्य संस्था की उत्पत्ति समझौते के माध्यम से होती हैं। समझौतों की शर्तों में स्पष्टतः राजा और प्रजा के कर्तव्य सुनिश्चित किए गए हैं। जिनके अनुसार राजा प्रजा का पालन व उनकी रक्षा करेगा जिसके बदले में प्रजा उसे अपनी फसल अर्जित, संपत्ति व धर्म के कुछ भाग प्रदान करेगी और उसकी आज्ञाओं का पालन करेगी। यह भी स्पष्ट है कि राजा श्रेष्ठतम उपलब्ध व्यक्ति रहा होगा। चाहे वह ब्रह्मा द्वारा निदेशित ’मनु’ हो अथवा जनसमुदाय द्वारा चुना गया ’महाक्षत्रिय’ इस पर दैवीय उत्पत्ति के सिद्धांत जैसा होने का संदेह भी बहुत उचित और तर्क संगत प्रतीत नहीं होता क्योंकि समझौते की शर्तों के निर्धारण में ब्रह्मा अथवा अन्य देवी-देवता की कोइ्र भूमिका उल्लिखित नहीं हैं। समझौता एकतरफा व अनुलंघनीय भी प्रतीत नहीं होता क्योंकि मनु प्रजा द्वारा आश्वासन के बदले सुनिश्चित कर्तव्य पूरा करने को तैयार होते हैं वह राजा जो अपना कर्तव्य पूर्ण करने में असमर्थ रहता हैं। का विरोध करने के प्रजा के अधिकार को स्वीकार किया गया हैं।
भारतीय सभ्यता के इतिहास में प्रथम वृहद् एवं संगठित अखिल भारतीय राजनीतिक अस्तित्व मौर्ययुगीन राज्य (320 ई. पू.- 185 ई. पू.) कहा जा सकता हैं। बौद्ध धर्म व सम्राट अशोक की इसमें केंद्रीय भूमिका रही। मौर्ययुगीन साम्राज्यवादी व्यवस्था भारतीय राजनीतिक इतिहास की एक नवीन विशिष्टता थी। इसे चंद्रगुप्त मौर्य ने स्थापित किया जो अशोक से लगभग आधी शताब्दी पूर्व सत्तासीन हुए। यद्यपि मौयों से पहले नंद वंश ने भी छोटे राजतंत्रों और गणतंत्रों को आत्मसात कर एक विशाल राज्य की स्थापना की थी तथापि वह मौर्य युगीन राज्य जितना विशाल और विविधतायुक्त नहीं था। नंद साम्राज्य का केंद्र बिंदु मगध था और उसमें गंगा घाटी और उसके आसपास के जनसमुदाय ही सम्मिलित थे जो सांस्कृतिक धरातल पर आर्य सभ्यता का ही अंग थे, जबकि मौर्ययुगीन राज्य का क्षेत्र आर्य भारत से विशाल तो था ही, विविध सांस्कृतिक और राजनीतिक तत्वों व जटिलताओं से युक्त भी था। मौर्य काल में भारत वर्ष का अधिकांश एक सुदृढ़ राजनीतिक सूत्र में बंध गया था।
कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में राजा के कर्तव्यों का आभास कराते हुए लिखा हैं कि राजा का प्रथम कर्तव्य प्रजा को प्रसन्न रखना है और जो राजा ऐसा कर पाता है, उसे न तप करने की आवश्यकता है और न यज्ञ करने की। प्रजा को प्रसन्न रखने के लिए आवश्यक है कि राजा चोरों, बेईमान व्यापारियों, डकैतों, हत्यारों, भ्रष्ट कर्मचारियों, असामाजिक तत्वों, तथा अग्नि, जल, बीमारी, दुर्भिक्ष, चूहे, व्याघ्र, सांप और राक्षसों से प्रजा की रक्षा करें, दुष्टों का दमन करे, अपराधियों को दंड दे, बाह्य आक्रमणों से बचाव करे, राज्य की सीमाओं का विस्तार करे, सेना का संगठन करे, अस्त्र-शस्त्रों का समुचित भंडार रखे, धर्म की स्थापना व रक्षा करे, प्रजा से स्वधर्म का पालन कराए, अनाथ और असहाय प्रजाजनों का भरण पोषण करे, निर्बलों की सहायता करे, कृषि के विकास के लिए बांधों का निर्माण करे, सड़कों एवं मार्गों का निर्माण करे, शिक्षा व कला का विकास करे, राज्य में शांति और व्यवस्था बनाए रखे, कानूनों का पालन करवाए, न्यायालयों की स्थापना करे व न्याय प्रदान करे, लोकहित में ऊपर लिखित कर्तव्यों के संपादन के लिए कर संग्रह करें व उन करों को जन-कल्याण पर ही व्यय करे, प्रजा की आर्थिक समृद्धि हेतु कृषि, उद्योग तथा व्यापार को प्रोत्साहन दे, तथा निरंतर क्रियाशील रहते हुए प्रजा के योग-क्षेम की व्यवस्था करे।
मौर्य काल में प्रथम बार राजा विधि व न्याय का स्रोत बनकर उभरा। कौटिल्य के अनुसार ’शास्त्र’ व ’न्याय’ अथवा विवेक में संघर्ष की स्थिति में विवेक को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
इस प्रकार भारत में राज्य की अवधारणा की प्रकृति लोक कल्याणकारी हैं।
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डॉ. हंसा व्यास
प्राध्यापक, इतिहास
शा. नर्मदा महाविद्यालय
होशंगाबाद
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