कहानी- "तारा की बलि" - दिनेश त्रिपाठी

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यह कहानी सत्य घटना पर आधारित है, हालांकि पात्र, स्थान व समय काल्पनिक है परन्तु कथावस्तु सही है। यह कहानी ऐसे समाज का आइना दिखा रही है जिसमें...

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यह कहानी सत्य घटना पर आधारित है, हालांकि पात्र, स्थान व समय काल्पनिक है परन्तु कथावस्तु सही है। यह कहानी ऐसे समाज का आइना दिखा रही है जिसमें औरत को पूज्य तो माना है लेकिन उसे सम्मानित करने की कोशिश न कर सका । माना है तो सिर्फ त्याग, बलिदान और सहनशीलता की देवी के रूप में ताकि समाज की कुरीतियों और दरिन्दगी की होली पर आसानी से झोंका जा सके। समानता के हक से बहुत दूर।

तारा मध्यम परिवार में जन्मी बालिका है ।

परिवार में माँ,बाप, दो बडे भाई है, तारा अकेली है बहनों में । तारा के जन्म पर पूरा परिवार खुश था पैदा होते ही तारा के पापा ने कहा" हमारे घर

लक्ष्मी आई। " जन्मोत्सव तो मनाया गया लेकिन सीमित , पास-पडोस, गॉव का कोई शामिल न हुआ। क्योंकि तारा लड़की थी । अगर लड़का होती तो ढोल बजते, मिठाइयॉ बॉटी जाती, नाच, गाना होता, छठी होती, बरहों होता और दावतें उड़ती। लेकिन समाज के दोगले पन ने तारा के जन्मोत्सव पर ग्रहण लगा दिया । वह तो अबोध थी पर समाज तो ग्यानवान था। आखिर,जन्म से ही लड़की को कमजोरी का एहसास दिलाने की कुप्रथा की नींव समाज ने डाल ही दी । लेकिन कुप्रथा चाहे जो हो तारा अपने माँ-बाप की लाड़ली, जिगर का टुकडा तो थी ही। तारा का सम्मान करना ही है।

तारा थोड़ी बड़ी हुई और उसकी एक किलकारी पर सारा घर झूम उठता,उसकी हँसी पर सब न्यौछावर थे । तारा अब छह महीने की गुडिया थी अब वह चीजों की ओर आकर्षित होने लगी,सभी वस्तु उसे खाद्य पदार्थ लग रहे थे प्रत्येक वस्तु वह मुँह में भरती खाने की वस्तु न होने पर पूरा जोर लगाकर तब तक रोती जब तक मुँह में कोई खाने की चीज न रखी जाती ।

यह तमाशा सभी देखते और आनन्दित होते ,तारा अब पूरे घर का खिलौना थी । वह सबका प्यार, दुलार पाती हुई बाल्यावस्था में प्रवेश किया अब वह खिलौना से घर की गुडिया थी । अब उसके हाथ पीले करने की साजिश रची जाने लगी । उसके कोमल ह्रदय पर जब उसकी उम्र खिलौनों से खेलने की , माँ के आँचल की , पिता के स्नेह की ,भाई के दुलार की जरूरत थी तब उसे जिम्मेदारी रूपी बोझ उठाने का पाठ पढाया जा रहा था । उसे अभी इन सब बातों का मतलब भी ठीक से पता नहीं था ।

आखिर उसकी शादी पक्की कर ही दी गई। शादी के रस्मों की तारीखें तय हुई और रस्में निभने लगी और हर रस्में जैसे उसके जीवन से खुशियां चुरा रही हो।

अब तारा की आज विदाई थी। पिता का घर सूना कर पति के घर को रोशन कर रही थी। प्रतिदिन की तरह तारा सुबह ४बजे स्नान कर पूजा की थाल लेकर अपने कमरे से बाहर निकली ही थी कि पास के कमरे से किसी मर्द की आवाज सुनी, खिड़की से झॉका तो उसकी विधवा सास गैर मर्द की बॉहों में झूल रही थी । ऐसा अविश्वसनीय दृश्य देख उसके होश उड़ गये,जैसे लकवागृस्त हुई हो, हाथ कॉपने लगे, पूजा थाल हाथ से गिर गई । थाली की आवाज से सास के कान खडे हो गये। खिडकी से तारा को देख होश उड़ गये, संभलते हुए बोली अरे! तारा!तुम... अन्दर आओ। लेकिन तारा कुछ न बोली । पूजा थाल उठाया और चली गई। लेकिन पूजा में मन न लगा। मन में तो द्वन्द्व छिडा था। जिस सास को देवी समझा वो चरित्रहीन निकली, अब क्या करूँ किससे कहूँ। अपने पति से उनकी माँ के बारे में कैसे बताऊँ.. क्या होगा फिर? घर में बन्टाढार मचेगा, अशान्ति होगी। लेकिन गलत बात छिपाना भी न चाहिए। ऐसे ही अधेड़बुन में मन अन्तर द्वन्द्व से जूझ रहा था।

उधऱ तारा की सास का भी यही हाल था, डर के मारे पसीना छूट रहा था , शरम , कायली के मारे पानी -पानी हो रही थी;कि अब भेद खुलेगा तो बेटे को क्या जवाब दूँगी क्या मुँह लेकर सामना करूँगी, जो बेटा देवी मानता था वो क्या सोचेगा।

उधर तारा पूजा करके चिंतित मुद्रा में घर वापस आयी। सास सामने हाथ जोडे खडी विनती करने लगी "बहू जरा सुनो "और हाथ पकड़ कर कमरे में ले गयी और बोली जरा रुको मैं अभी आयी। तारा की समझ में कुछ न आया वह थोडी देर रुकी । तभी अचानक सास की शेरनी जैसी आवाज सुना "देख अपनी पत्नी की करतूत किसके साथ मुँह काला कर रही है रंगो हाथ पकडा है। "

सामने सास और पति खडे थे ये देख किसके कपडे हैं? तारा के कन्धे को झझकोरते हुए सास बोली। तारा अब समझ चुकी थी कि अपनी गलती छिपाकर मुझ पर डाली जा रही है। तारा चिल्लाते हुए बोली रंगरेलियां तो आप मना रही थी और थोप मुझ पर रही हैं। सास ने फिर रंग बदला अरे बेटा इसे मायके भेज नहीं तो सारी इज्जत मिट्टी में मिला देगी। तारा फिर बोली "मैंने पकडा था आपको पड़ोसी सुभाष के साथ और मढ़ मुझ पर रही है आप। यह सुन पति ने तारा के गाल पर थप्पड़ जड़ दिया। यह थप्पड़ चरित्रहीनता की मुहर थी। तारा को यही दुख था कि पति ने भी उसकी बात पर विश्वास न किया,अब तारा अकेली थी,घर का हर व्यक्ति चरित्रहीन कह रहा था। पूरा दिन तारा अकेली बैठी रोती रही पर कोई आँसू पोंछने तक न आया ।

शाम का वक्त था ,सूरज निस्तेज हो रहा था,अँधेरा अपनी बाँहें फैलाये जा रहा था,तारा अपने पति के कमरे के दरवाजे पर दस्तक देते हुए बोली " दरवाजा खोलिए..मैं तारा ...आप से कुछ बात करनी है।" अन्दर से कड़कती हुई आवाज आई" कोई बात नहीं करनी मुझे ..।।चली जाओ यहाँ से" तारा ने उत्तर दिया ,तो ठीक है मैं यही बताने आई थी कि मैं कल मायके जा रही हूँ।

यह बात तारा की सास को पता चला तो उसके हृदय में तो साँप लोटने लगा। दिमाग घूमने लगा और शातिर बुद्धि चलने लगी कि मायके जायेगी तो मेरा भेद खुलेगा ,और मायके वाले तो उसी की सुनेंगे। फिर पुलिस अदालत, दहेज उत्पीड़न, प्रताड़ना का केश भी लग सकता है। यह बातें सोच कर शतरंज की बिसात पर चाल चलने लगी और अपने आशिक से मिलकर पहली चाल चली।

रात का वक्त था लगभग बारह बज चुके थे, चारों तरफ अंधकार था। तारा के कमरे के दरवाजे पर दस्तक हुई। तारा खुश हुई की उसका पति आया होगा सोचने लगी की सब क्लेश मिट जायेंगे, और मैं फिर से अपने प्राणनाथ के संग जीवनगीत गाऊँगी। और मेरा जीवन जी उठेगा। झट से दरवाजा खोला। दरवाजा खुलते ही तारा की सास और उसका आशिक दोनों एक साथ तारा पर टूट पड़े सास ने गर्दन और उसके यार ने मुँह दबा लिया। तारा को लगा सांस टूटने वाली है, अभी न लड़ी तो जीवन श्रृंगार टूट जायेगा और सब कहेंगे कायली में आत्महत्या कर ली। यह सोचकर तारा ने सास के मुँह पर जोरदार घूसा मारा तो सास झल्लाकर पीछे हट गयी, और उसके यार के हाथ पर दाँतो से चबा लिया हाथ उसका भी छूट गया। अब तारा को संभलने का मौका मिलते ही तारा ने एक डंडा उठाया और सास के सर पर दे मारा। तारा अब अपने पिता की लक्ष्मी नहीं, चंडी बन चुकी थी। तारा अकेली और वो दो फिर भी तारा लड़ती रही, और अचानक एक डंडा तारा के सर पर पीछे से उसकी सास ने मारा तो तारा धराशायी हो गयी इस बार तारा गिरी तो दोबारा न उठ सकी। सुबह हुई सूर्य की रोशनी की तरह तारा की हत्या की बात भी फैल गयी। यह बात तारा के मायके में पता चली तो जैसे घर में भूचाल आ गया। माँ तो सुनते ही बेहोश हो गयी, बाप सर पकड़ कर बैठ गए,भाई को जैसे बिजली का करंट लगा हो फिर संभले तो क्रोध से आँखें लाल हो गयी। तारा के घर पहुंचे तो वहाँ से सब भाग चुके थे। थी तो सिर्फ तारा की लास ।तारा के पिता विलाप करने लगे तारा मेरी बेटी क्या बिगाड़ा था इन दरिंदों का जो ऐसा हो गया, दहाड़ मार कर रोने लगे। भाई भी दहाड़ें मर कर रोता और बोला वो दरिंदे एक बार मिल जाएं तो छोडूंगा नहीं। पड़ोसियों की भीड़ जमा हो गयी। पुलिस भी आ गयी। तारा के पिता को समझाया, दिलासा दिया की किसी को हम छोड़ेंगे नहीं। लेकिन तारा के पिता बोले अब क्या होगा मेरी लक्ष्मी तो चली गयी कुछ भी होगा तो क्या फायदा। भाई तड़प उठा और बोला नहीं पापा इन्हें सजा तो जरूर मिलनी चाहिए, नहीं तो ऐसे दरिंदे रोज एक तारा को मारेंगे, इन्हें सीख मिलनी चाहिए कि दूसरे के जीने का हक नहीं छीनना चाहिए और अगर हम ऐसा करेंगे तो हमें कठोर दंड मिलेगा। नहीं बेटे, ये डगर बड़ी कठिन है कोर्ट के चक्कर,वकील की फीस, काम का नुकसान, किराया-भाड़ा सब लगता है बेटे मैं दूर की सोच रहा हूँ, हम तो गरीब ठहरे इतना पैसा कहा से पाएंगे चुप चाप गुजारा करने दो मेरी बेटी आँख का तारा ,लक्ष्मी अब तो इस दुनिया से चली गयी विवाद करने से क्या फायदा। इस तरह तारा समाज की कुरीतियों ,भेदभाव,लैंगिक भेदभाव,अमीरी- गरीबी की भेंट चढ़ गयी । एक लक्ष्मी का दूसरे लक्ष्मी ने दुराग्रह कर दिया। पुलिस भी कहाँ झंझट में पड़ना चाहती है मूक दर्शक की भांति खड़ी रही और चली गयी।

आज भी समाज में कई तारा है जिनका दम समाज की इस गन्दी सोच के आगे घुट रहा है। और उनकी आत्माएं भटक रही है। पता नहीं कब समाज में सच्ची समानता आयेगी और तारे चमक उठेंगे।

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रचनाकार: कहानी- "तारा की बलि" - दिनेश त्रिपाठी
कहानी- "तारा की बलि" - दिनेश त्रिपाठी
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