देवेन्द्र कुमार पाठक 'महरूम' नई किताब , नई पत्रिका मेरी आठ किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. इनमें चार तो पुनर्प्रकाशित हैं,इनके प्रक...
देवेन्द्र कुमार पाठक 'महरूम'
नई किताब , नई पत्रिका
मेरी आठ किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. इनमें चार तो पुनर्प्रकाशित हैं,इनके प्रकाशन का व्ययभार मैंने वहन किया है. इनमें से चार का प्रकाशन 1983 से 1990 के बीच हो चुका था इलाहाबाद से,तब जब यह प्रयाग राज भी था और इलाहाबाद तो था ही. अब इलाहाबाद नहीं है. मेरी इलाहाबाद से प्रकाशित वे चार किताबों के संस्करण भी शायद ही किसी के पास हों. पहली किताब उपन्यास 'विधर्मी', इसे मध्यप्रदेश साहित्य परिषद ने '1986 में 'दुष्यन्त कुमार पुरस्कार' से सम्मानित किया था. इसी वर्ष मेरी दूसरी किताब 'अदना सा आदमी' भी 'प्रतिमान-प्रारूप प्रकाशन' से भाई राजेंद्र मेहरोत्रा ने ही छापी. यह एक औपन्यासिक कथा-रपट या आंचलिक उपन्यास है. (पहली किताब के प्रकाशन की संघर्ष कथा आगे लिखूंगा. ..... )
इस दूसरी किताब 'अदना सा आदमी' को लेकर 'सारिका' (फरवरी-द्वितीय अंक,1987 ) में जो वार्षिक सर्वेक्षण प्रकाशित हुआ,उसमें श्री रमाकांत श्रीवास्तव ने एक टिप्पणी की थी,जिसका आशय यह था, '..... दलित संघर्ष पर इसी साल प्रकाशित रमेशचंद्र शाह के भारी भरकम उपन्यास ' किस्सा गुलाम' की तुलना में यह छोटा सा उपन्यास अपने कथानक में अधिक चुस्त-दुरुस्त है..........' रमेशचन्द्र शाह के इस उपन्यास 'किस्सा गुलाम' पर दूरदर्शनकेंद्र भोपाल ने धारावाहिक भी प्रसारित किया.
'मेरा अदना सा आदमी' एक दलित पियारे डोम के स्वाभिमान,संघर्ष की कथा है,इसमें दो दलित जातियों के आपसी छूत-छात, पानी को लेकर तनातनी और पिछड़ी जाति के ही एक शोषक से टकराव की कहानी है. तब हिंदी में दलित कहानियों के प्रकाशन का शुरूआती दौर था. स्वानुभूति की कसौटी पर जांचने-परखने की होड़ में जब प्रेमचन्द पर ही सवाल खड़े किये जाते रहे हैं,तब मेरे जैसा आलसी,गंवइया और उस पर सवर्ण लेखक किस बूते अपनी पहचान बनाता. अपने सीमित साधनों से कुछ कोशिशें कीं भी पर लेखक बिरादरी नें भी लँगड़ीमार लोगों की कमी नहीं. कुछ हितुये समर्पित सेवा और ड्योढ़ी पर हाजिरी के बदले कुछ परसाद देते भी हैं. औंधे मुंह दंडवत् पांवपूजा,सत्संग में पीने-खाने जैसे कुछेक कुत्सित कर्मकांड न कर पाने के कारण कहीं ज्यादा देर तक टिके नहीं,न ज्यादा दूर तक पछिया ही पाये. रचना के बूते ही कहीं भी छपे...........
उन दिनों एक प्रसारण-संस्थान के बड़े ओहदेदार और समकालीन कविता के उभरते युवा कवि को इस उपन्यास की एक प्रति 'सप्रेम भेंट' कर आया था,इस विनम्र निवेदन के साथ कि वे इस पर कुछ लिखेंगे. कालान्तर में वे बड़े लेखक कहलाये और गद्य में भी खूब जमे. वे नामी-गिरामी हुये और कई कामयाब पड़ावों और मुकामों को पार कर छा गए, खूब भा भी गये. तब आगे कभी उन्होंने मेरी वह किताब खोली भी न हो या वहीँ कचरे के डिब्बे में डाल दी हो. उस किताब पर कभी कोई बात भी नहीं की उन्होंने. सम्वाद सेतु थे पर हमसे ही पुल पर न हुआ. यात्राओं में भी रुचि नहीं रही. मठ-मंदिरों,तीर्थ-आश्रमों,मठाधीश-पण्डों,झण्डों-हथकंडों से दूर अपने गाँव-कस्बे के लोगों की ज़िन्दगी के कई-कितने सच,सपने,संघर्ष,पीड़ा और शोषण,उत्पीड़न,अन्याय के पन्ने चेहरों पर लिखे हैं;उनकी ही कहाँ पढ़-लढ़ कर,ठीक-ठाक लिख सका........
लिख भी लिया, तो तब तक सदी ही बदल गई और गाँव,मजूर,खेतिहर,खेती से जुडा गैर जुगाड़ू लेखन किनारे लग गया. समकालीनता के ठीये पर क़ब्जागीरी और हो-हल्ला,बाजीगरी ही शिखरस्थ हो गई.
बहुत रंगीनऔर चमकीली रौशनी की चकाचौंध से चौंधियाई आँखों को कितना कुछ स्याह है, जो नहीं दीखता. रचनाओं में भी वह सब लाने का दुस्साहस कोई रामशरण जोशी करे भी तो प्रपंच हो जाता है. ..........
बाद में एक व्यंग्य संग्रह 'कुत्ताघसीटी'और एक कहानी संग्रह 'मुहिम' भी राजेंद्र मेहरोत्रा जी ने गाजियाबाद से 1989 में छापा था. तब इन किताबों पर मुझे प्रकाशन का व्यय भार वहन नहीं करना पड़ा था. कुछ आय ही हुयी थी.......
हाँ, ' दुनिया नहीं अँधेरी होगी' का विमोचन एक कार्यक्रम में ठंसकर करा लिया और कान पकड़ लिया आगे के लिया. समीक्षा के लिये किताबें भेजी,तो 'प्राप्ति स्वीकार' या ' किताबें मिली' में पड़ी रहीं. दो-चार समीक्षाएं हुईं भी इन क़िताबों की. इन्हें लिखवाना और छपवाना भी पड़ा खुद को.........
तो अपने लिखे-छपे का कभी कहीं विमोचन-लोकार्पण नहीं हुआ,न चर्चा. चाय-नाश्ते और फोटो-वोटो खिंचाने के खर्च से लेकर समाचार पत्र में इस 'अदना सा आदमी' पर खास गोष्ठी होने की खबर के छपाने का सारा जिम्मा उठाने के बाद मुझे साहित्य संसार के इस सत्य का बोध हुआ कि आज के हिंदी के नए, वह भी गंवई लेखक की औकात शहर में लतीफे सुनानेवाले कवि से भी गयी गुजरी है. उस पर तुर्रा ये कि हम प्रेमचंद,निराला,नागार्जुन,दुष्यन्त,रेनु के खूंटे के बैल थे,कविता हो या कहानी,बहस हो या समीक्षा ;हर कहीं अपनी गंवई सम्वेदना का हुड़क- हुंकार करते हम हीच-हार,आख़िरकार हाशिये पर आने की सद्गति पा ही गये......
उन्ही दिनों जब विश्वनाथप्रतापसिंह जी ने प्रधानमन्त्री के रूप में मण्डल के निर्णय पर अमल किया, तब महाकोशल ग्राम्यांचल के पचासों गांवों में जचकी के वक्त बच्चे का नाड़ा काटने का दाई का परम्परागत जातीय जजमानी काम करनेवाली जाति- समाज की स्त्रियों को लेकर जो विरोध अन्य जाति-समाज के लोगों से संघर्ष हुए, तो मेरी कई कहानियां इस विषय पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं. इनके संग्रह के प्रकाशन के हुलक- हुलास के मारे मैंने गोरखपुर के एक प्रकाशक को 15 हजार रूपये देकर जो धोखा खाया, तो अपने लेखक होने के गुमान गर्व के थोथे सच को भी खूब चीह्न-पहचान लिया. मन कुछ तो खिन्न हुआ पर अपन भी पुराने जुआरी जो ठहरे. सह झेल गए और स्थानीय परिचित प्रकाशक से किताब छपवाकर ही माने.
दलित संघर्ष पर केंद्रित कहानियों की इस किताब ' मरी खाल : आखिरी ताल' पर अच्छी-खासी गरमा- गरम समीक्षा गोष्ठी अपने ही आवास पर आयोजित कर खुश हो लिए. इसका खर्च हमारे सहपाठी हास्यकवि भाई शरद जायसवाल और पुस्तक प्रेमी,कवि भाई राजेन्द्रसिंह ठाकुर ने झेला. सम्मान्य पत्रकार, साहित्य अध्येता,संगीत,शेरो-शायरी,घुमन्तू,पर्यावरण प्रेमी, जल, जंगलऔर ज़मीन के संरक्षण और छोटे खेतिहरों के श्रम और भूमि अधिकार के लिए अहिंसक संघर्ष करनेवाले प्रसिद्ध गाँधीवादी विचारक और आंदोलन कर्मी वी राजगोपालन की 'एकता-परिषद्' से वर्षों जुड़े रहे नन्दलालसिंह भैया और भाभी श्रीमती सुसंस्कृति परिहार की भागीदारी और कई प्रगतिशील-जनवादी लेखक मित्रों की मौजूदगी में यह चर्चा हुई थी.....
कुछ बरस बाद 7 नवगीतकारों का एक संग्रह 'केंद्र में नवगीत' सम्पादित करने का दायित्वभार उठाना पड़ा. कविता के ठौर-ठीयों पर जो गैरकविताई की जबरिया कब्जागीरी चलायी जा रही है, उसके समान्तर एक बड़ी लकीर खींचने का प्रयास कई सालों से कटनी में रहकर नवगीतकार श्यामनारायण मिश्र कर रहे थे. नवगीत की शुरूआती युवा पीढ़ी के प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण हस्ताक्षर राम सेंगर,सुरेन्द्र पाठक और मिश्र जी को शम्भुनाथसिंह जी ने अपने नवगीत संकलनों में प्रमुखता से शरीक किया था.....
2006 में. भाई श्यामनारायण मिश्र का आकस्मिक निधन हो गया. उनके जाने से नवगीत के महत्व को रेखांकित करने की उनकी कोशिश और ख्वाहिश को पूरा करने का आधा-अधूरा सा प्रयास आनन्द तिवारी आदि कुछ युवमित्रों ने मिल जुलकर पूरा करना चाहा और सम्पादन का जिम्मा मैंने सर-माथे लिया. .......
मुझमें बरसों पहले का नाकामयाब सम्पादक फिर से कुलबुलाने लगा था. शहर और अंग्रेजी को लेकर मेरी सोच-समझ बचपन से ही प्रतिस्पर्द्धात्मक रही है. अंग्रेजी की पढाई को लेकर उत्साह तो मुझमें कभी रहा ही नहीं. .........
अपने गांव के विद्यालय और ग्राम पंचायत के पुस्तकालय की जिन किताबों का अध्ययन मैंने छठीं कक्षा से ही शुरू कर दिया था, उनमें अंग्रेजी शासन के अन्याय,शोषण,लूट-फूट और अत्याचार की जानकारी ज्यादा होती. प्रेमचंद तो कुछ अरसा बाद समूचे तौर पर से पढ़ने को मिले. शुरुआत तो 'चंदामामा',' नंदन','पराग' जैसी बाल पत्रिकाओं और 'पञ्चतन्त्र','हितोपदेश','सिंहासनबत्तीसी',' बेतालपचीसी' आदि की कहानियों और 'प्रेमसागर','सुखसागर','सत्यनारायण व्रत कथा', हरतालिका व्रत कथा','आल्हा ऊदल की बावनगढ़ विजय गाथाओं', और पं. नथाराम शर्मा की लिखी सांगीत नौटँकियों को पढ़ने और रामचरितमानस की चौपाइयों- दोहों,सूरदास,मीरा,कबीर,रहीम,वृन्द,रैदास,गिरधर,मोहन-मोहिनी के भजन और दीदी मां,चमेला,रामकली बुआ, और नानी के लोकगीतों, कोलों की कीर्तन मण्डलियों के सामूहिक कीर्तनों,मंदिरों और घरों में दिनरात चलनेवाले अखण्ड मानस पाठों तथा हर शनिवार विद्यालय की बालसभाओं के अंत में घंटों तक चलनेवाली अंत्याक्षरी प्रतियोगिताओं से हुआ.
देवकीनन्दन खत्रीकी 'चन्द्रकान्ता',कुशवाहकांत की 'लाल रेखा','रक्त मन्दिर','दानवदेश',जैसी अय्यारी-तिलस्मी किताबों से चलकर मेरी किशोर वय पठनीयता में जासूसी दुनिया के इब्ने सफी,ओमप्रकाश शर्मा,गुलशन नन्दा,प्रेम बाजपेयी,कृश्न चन्दर,कर्नल विनोद,कैप्टन हमीद,झकझकीबाज राजेश, तारा के पति, जयंत के मित्र, ठग जगत,जगन,गोपाली,चक्रम आदि के आदर्श राजेश कर्नल रंजीत से होते हुए मैं प्रेमचंद,शरत्,रवीन्द्रनाथ,यशपाल,जैनेन्द्र, भगवतीचरण वर्मा,रांगेय राघव,वृन्दावनलाल वर्मा,आचार्य चतुरसेन,अज्ञेय,नागार्जुन,रेणु,निराला,पंत,महादेवी,प्रसाद,दिनकर आदि को पढ़ते हुए मैं हायर सेकण्डरी में जब पहुंचा,तब रुसी और अंग्रेजी के अनुवाद पढ़े......
1968 से 1974 तक विद्यार्थी था तब भी और 1976 के बाद शिक्षक और 1983 से लेखक बनने के बाद तक और कमोबेश आज भी मैं शहर में आकर गांव के हीनताबोध और पिछड़ेपन को मिटाने के हरसम्भव शायद नाकाम प्रयास करता रहा.........
हिंदी शिक्षक ,हिंदी लेखक,रंगकर्मी,पत्रकार,लोक कला चिन्तन,सम्पादन,समीक्षा,बहस,कवितापाठ आदि तमाम बौद्धिक विषय-क्षेत्रों में घुसपैठ कर मेरा गंवई,अड़ियलपन बेहतर साबित होने से कभी भी चूकना नहीं चाहता था. यहाँ भी वही हुआ....................... ,,,...
'उद्भावना' दिल्ली से किताब 'केंद्र में नवगीत' छपी 2008 में. साथ ही मेरी कविता की किताब 'दुनिया नहीं अँधेरी होगी' भी. दिवंगत श्यामनारायण मिश्र जी की स्मृति को समर्पित इस नवगीत संग्रह का विमोचन- लोकार्पण उनकी बेटी की मौजूदगी में सम्पन्न हो गया. महिला महाविद्यालय के एक हाल में 20-25 लोग. साथ ही मेरी गीत-नवगीत की किताब का विमोचन भी मेरे खर्चे पर हो गया. 'दुनिया नहीं अँधेरी होगी' ! छोटी महानदी और झिरीगिरी नदी के कूल-कछार के बेर-बबूल सा मैं देहाती मानुष सम्पादक ,कवि के रूप में अब और असर-पसर गया. कुछेक शहरों में जाकर मंचों से कवितापाठ भी हुआ. भाई अनिल खम्परिया, नन्दलाल भैया का मार्गदर्शन मिला और आगे आकाशवाणी से कहानी-कविताओं का प्रसारण होने लगा. स्थानीय गोष्ठियों में भागीदारी. 'पाठक मंच' के लिए समीक्षाएं लिखते-लिखते अब समीक्षक भी बन गए. गोपालराय जी की 'समीक्षा' में कई किताबों की समीक्षाएं लिखीं. तीन-चार मित्रों ने मेरी किताबों पर लिखने की कृपा अवश्य की.........
उपन्यास,कहानी,व्यंग्य,लेख/निबन्ध,समीक्षा,सम्पादन,कविता पाठ,मंच सञ्चालन! मैं सब कुछ करना चाहता,कर रहा था;सब कुछ होना-बनना चाहता था लेकिन कुछ भी नहीं बन सका. हर तौर अपने समूचे गंवारपन के साथ,मैं जो गंवई-भुच्च था,वही रह गया. मैं शहरी प्रबुद्धों की जमात में बैठने लायक बना रहा था खुद को लेकिन मेरे भीतर के बाह्मन ने कुछ ऐसा दुस्साहस नहीं किया, जो उन दिनों जरूरी समझा जाता था. जात-पाँत,ऊंच-नीच,छुआछूत,खान-पानऔर सांप्रदायिक संकीर्णता से मैं भले ही विलग था पर दारू-मांस पीने-खाने को लेकर तब तो क्या आज भी मैं अड़ियल हूँ. .........
ऐसे ही कब बीसवीं सदी बीत गयी. जब चेते जगे तो अहसास हुआ कि गलत राह पर आ गए . पर अब लौटना तो सम्भव था नहीं,स्थगित हो सकते थे. रोक सकते हैं अपने आप को...... हाँ, यहाँ एक अध्याय छूट गया है फिर से लौटता हूँ...............
तब जब लेखक बने दसेक बरस हुए थे. लगभग डेढ़ दशक पहले कटनी के कुछ लेखक मित्रों ने एक फ़िल्म ' क्षितिज' का निर्माण किया था. इस फ़िल्म के लिए एक नायिका की तलाश में हमने इस सच को बड़ी शिद्दत से जाना और समझा कि फ़िल्म देखने की दीवानगी का मारा हमारा सामाजिक संस्कार कितना कमजोर या कहूँ डरपोक है. कोई भी लड़की इतने बड़े शहर में हमें जब नहीँ मिली, तब हमने एक अधेड़ा को किसी तरह इस शर्त पर राजी किया था कि वह नायक की पीठ से पीठ सटाकर बाग में बैठेगी. पूरी फ़िल्म में एक यही रोमांटिक सीन था. ' हमकदम तुम न बनो तनहा चलने दो मुझे.......
' यह मेरा लिखा एक गीत था. इसे राकेश पाठक ने आवाज़ दी थी मैंने इस फ़िल्म में दो गीत लिखे थे. सभी सहयोगी कवि,कथाकार,पत्रकार ,छात्र या शिक्षक बिरादरी के थे. घर-परिवार से गैर जिम्मेदार किस्म के जुनूनी और परम्परागत बेटे,पति या पिता के साँचे में अनफिट.........
स्मृतिशेष भाई जयप्रकाश वसु,रमेश जैन,ओम रायजादा जैसे प्रतिभा शाली लेखक-पत्रकार मित्रों की की ज़िन्दगी एक अलग उपन्यास का कथानक है. भाई ओम रायजादा की शायरी राष्ट्रीय स्तर पर आज भी पहचानी जाती है... फ़िल्म तो जैसे-तैसे बनी पर प्रदर्शित नहीं हो सकी..... अब एक शौक और चर्राया मुझे. 'अलाव' नामक लोकमंच बनाकर मैंने 'आंच' पत्रिका भी निकाली. 6 अंक निकालकर हिम्मत जवाब दे गयी. ...............
पिछली सदी के आखिरी दशक तक मैं एक अंखमुन्द होड़-दौड़ में भाग रहा था. मेरी कहानियां,लेख,गीत,ग़ज़ल पत्र-पत्रिकाओं में खूब छपते. लेकिन बड़ी, नामी-गिरामी पत्रिकाओं से ज्यादातर रचनायें सखेद वापस आ जातीं. यद्यपि छिटपुट रचनायें 'हंस','कथन','नवनीत',' गंगा', 'अक्षरपर्व',' 'आजकल' आदि में छपने का सुख मिलता भी था. 'कानी कुतिया माँड़ मं राजी'. ...........
हाँ,दिल्ली प्रेस की किसी भी पत्रिका में मैंने कभी कोई रचना नहीं भेजी. इसकी भी आपबीती है................
'विधर्मी' उपन्यास शुरुआत में 'सरिता' में मैंने धारावाहिक प्रकाशनार्थ भेजा था 1981 में,जिसे उनहोंने पहले तो पसन्द कर स्वीकृत किया. लेकिन कुछ महीनों के बाद अस्वीकृति पत्र भेज कर 15 दिन में वापस मंगवा लेने का डाक-व्यय भेजने को और न मंगवाने पर पांडुलिपि नष्ट करने को लिखा था......
मैं परेशान हो गया. रजिस्टर्ड पार्सल से वापसी के लिए भेजे रूपये कब दिल्ली पहुँचते, कब पाण्डुलिपि वापस मुझे मिलती. यह सरासर बदमाशी और रचना हड़पने की बदनीयती मुझे जान पड़ी. तब मैंने ' पहल' के सम्पादक और कहानीकार ज्ञानरंजन की मदद ली. उनके प्रयास से मुझे पाण्डुलिपि वापस मिली. मैंने फिर कई फेर-बदल कर उपन्यास लिखा और ज्ञानदा की सलाह से इलाहाबाद भेजा. 1983 की गर्मियों में मुझे उपन्यास तब मिला,जब एकमात्र छोटी बहन गायत्री का विवाह सम्पन्न कर बारात की विदा हो रही थी.
शहर के रेलवे-स्टेशन पर स्थित पार्सल आफिस से मेरे इस पहले उपन्यास 'विधर्मी' की बिल्टी छुड़ाने के लिये इलाहाबाद के कथाकार और साहित्य अनुरागी प्रकाशक राजेन्द्र मेहरोत्रा ने रशीद भेजी थी. 'प्रतिमान प्रकाशन' के नाम से उनका प्रकाशन-संस्थान था. 'प्रारूप' नामक अनियतकालिक पत्रिका भी निकालते थे. उनके भेजे दो अंकों में ही मैंने मुक्तिबोध की लम्बी कविता 'अँधेरे में' और प्रेमचन्द का अधूरा उपन्यास 'मंगलसूत्र' पढ़ा,जिसे बाद में उनके कथाकार पुत्र अमृतराय ने पूरा कर प्रकाशित करवाया. इसी पत्रिका में कथाकार विभूतिनारायण राय के उपन्यास 'घर' की तीन समीक्षायें भी प्रकाशित हुयी थीं.
'प्रतिमान-प्रकाशन' से ही काशीनाथसिंह जैसे कई लब्धप्रतिष्ठ लेखकों की क़िताबों का प्रकाशन राजेंद्र मेहरोत्रा ने किया. तब मैं नहीं जानता था कि वे हिंदी के बहुत बड़े और पठनीय कथाकार हृदयेश के भतीजे हैं, जो मेरे अतिप्रिय कथाकारों में से एक हैं.
2000 में पिता की मृत्यु के बाद गांव का नेह- मोह औपचारिक रह गया था. एकमात्र दीदी मां को लेकर ही चिंता और लगाव था. एक पांव शहर में, एक गांव में. कैसे कब तक चल- निभ पाता. न मैं गांव को जी पा रहा था,न शहरी ही बन पा रहा था. अधकचरा हो गया मैं. आधा-अधूरा लेखक. हर विधा पर लिखा,एक नाट्य पर ही नहीं लिखा था क्योंकि उसे करने का ख्वाहिशमंद था.
गाँव के मित्रों की रामायण मण्डली थी,जिसमें हर मंगल-शनिवार को सूर,कबीर,मीरा,तुलसी के भजन गाता. उसी मित्र मण्डली के साथ नौटन्की खेलने लगे. कई साल खूब अभिनय किया. पर 1985 में स्थान्तरण होने से शहर आना पड़ा.
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