कविता- 'मार्था मेरिडोस' की कविता पढ़ते हुये देवेन्द्र कुमार पाठक...
कविता-
'मार्था मेरिडोस' की कविता पढ़ते हुये
देवेन्द्र कुमार पाठक
बधाई!सम्मान्या मार्था मेरिडोस,
'नोबल पुरस्कार' से आप हुईं सम्मानित,
उस कविता पर,
जो आपने सिरजी
धीरे-धीरे हर दिन मरनेवालों पर,........
"आप धीरे-धीरे मरने लगते हैं-
अगर आप नहीं करते यात्रा,
नहीं पढ़ते कोई किताब,
सुनते नहीं जीवन की ध्वनियाँ,
करते नहीं किसी की तारीफ़...."
मेरे देश में अक्सर ,
बस ट्रेन,ऑटोरिक्शा,ट्रैक्टर-ट्राली,ट्रक
या निजी वाहन से यात्रा,
अपाहिज कर देती है या अधमरा,
कभी कभी जीवन से अलविदा.....
और तीर्थ,रथयात्राओं की भीड़-भभ्भड़,
कोई दबे-कुचले, कोई जाये मर या अपनों से बिछड़....
किताबें पढ़ने को खरीदना पेट काटना है,
और सस्ती किताबें,जो धर्म का मर्म बतलातीं,
स्वर्ग-नर्क का फर्क बतातीं,लाखों खरीदी-पढ़ी जातीं,
हमें जाति-जमात,कौम-मजहब,छूत-छात सिखातीं......
उनको पढ़ना यानी उल्टे पाँव भूत के पीछे चलना,
दलदल में धँसना......
जीवन की ध्वनियाँ सुनें कैसे?
कानों से लेकर सोच-संस्कारों,व्यवहारों में
ठूँस-ठाँस दिये गए हैं
अतीत और इतिहास के आख्यान,
महात्म्य, मिथक कथा-पुराण
देव-दानव,अवतार-चमत्कार,
नर्क-स्वर्ग,पाप-पुण्य,
चौरासी लाख योनियों में जन्मने का भय
निरर्थक जीवन के असह्य बोझ से मोक्ष-उद्धार.......
कुछ सुनते तो गुनते-धुनते,कुछ सार्थक चुनते... !
अपने-अपने भगवानों के गुण गाते हैं हम सुबह-शाम,
कुछ फुरसतिये भजते आठों याम.....
प्रशंसाओं से भरी ऋचाएँ......
करतीअंखमुन्द होड़ प्रशंसायें,
भौचक देखे दुनिया सारी,
बेपर्दा सच्चाइयाँ हमारी......
और कई -कितने कारण हैं आपकी कविता में
धीरे- धीरे मरने के ......
मसलन,स्वाभिमान को खुद मारना,
मदद न करना अपनी या औरों की,
आदतोंकी गुलामी,रोज़मर्रा, एक ही ढर्रा,
दैनिक व्यवहार,रंग न बदलना,
अनजान-अजनबियों से न बतियाना,डरना;
कितने-कई अहम कारण गिनाती कविता-
धीरे-धीरे मरते जाने के,
विलगा पाये नहीं जिन्हें हमअपने वजूद से......
जी रहे लम्बी उम्र बेगैरत
मर सकते हैं हम सुन्दर मृत्यु सत्वर और कुछ कारगर
कितना कम है संस्कृति,सोच-संस्कार का भार,
दुनिया के ज्यादातर सुखी लोगों के कन्धों पर,
आसान है जिनको उतार-फेंकना,
तेज क़दमों से तरक्की की राह पर दौड़ना.......
सदियों-युगों के पुरानेपन,सनातन गर्व या मुगालते के मारे,
हमारी महान सभ्यता और समृद्ध संस्कृति के दावे हमारे
चिंतायें सदियों की,भटकाव-भ्रमों के भुतैले रास्ते,
रोज़ के व्यवहार,आदतें.......
पसन्दीदा रंग-रिश्ते बदलना,
अनिश्चित के लिये निश्चित को छोड़ना......
हमारे लिए नामुमकिन है;
मर-खप गये को भी हम छोड़ नहीं सकते,
हमारे सोच-समझ,संवेदन पर है प्रभार
हजारों-हजार सदियों,पुरखों का हम पर उधार,
,प्रकृति के सबल-निर्बल के द्वन्द्व, कितने कई बार,
कितने प्रलय,सिरजन-विध्वंस लगातार,चीख-चीत्कार,
हमारा अक्षय कोष हैं- कितनी साधनायें -तपस्याएं,
कितने पदचिह्न और कितनी यात्रायें,
जिनसे बने रास्ते, दैनिक व्यवहार,आदतें हमारी
प्रेम,घृणा,ऊंच-नीच, बैर-ईर्ष्या,लालच,गद्दारी,
मार-काट,मैत्री-शत्रुता के रिश्ते
बनाने-निभाने की होशियारी,...
धीरे- धीरे मरने का मर्म,बेहतर जानते हैं हम
बाध्यता है हमारी लोकतन्त्र के ढहते घर में रहने की,
बावजूद बदसूरती के उसे खूबसूरत कहने की......
खूब सारे बहुरंगे सपनों की गुलामी,
हमने ही चुनी और ओढ़ी है ये वफ़ादारी,
पानी में पाँव भी डाले बिना
बड़ी रोहू-चिनगा मछली पर ठोंकते दावेदारी,
सत्ताधीशों से कर मतलब और मौके की यारी;
हम कब्ज़ा लेते हैं नाव-नदी और पानी,रेत,जंगल, हरे झाड़,
हथिया लेते हैं कीमती अयस्क से भरे कीमती पहाड़,
वनवासियों के झोपड़े,खेत-फसलें,पेड़-पशु देते हैं उजाड़;
निगाहें हम पर जैसी कल थी
अब भी भूखे भेड़ियों सी लगीं.......
हम खेद नहीं जताते अपनी भूलों पर
हम सुखी मान बैठे हैं स्वयं को इसी धीरे-धीरे मरण में
और सुरक्षित उसी आदमखोर अभयारण्य में....
ऐसे ही सुदीर्घ जीवन जीने की
जातीय परम्परा है हम कछुआ-धर्मियों की.......
सुना आपने, जो कहा फिलवक्त मसीहाओं ने,
"अभी अभी जो उभरे हैं पृथ्वी के नक़्शे पर,
कल ही खोली थी आँख जिन्होंने
हमारी खोज में भटक जाने पर........
वे ही बजा रहे हैं ढोल अपने जीवन दर्शन के.......
सूँघों हाथ हमारे और अंगुलियाँ को,
महक रही हैं अब भी घी की महक से जो,
खाया -पीया था बाप- दादाओं ने.....
जीवन को समग्रता में जी लेना.......
उसकी व्यापकता को खो देना................"
स्वीकार नहीं पाएंगे,
हम धीरे-धीरे हर दिन मरते जायेंगे,
लम्बी आयु जीने का आनन्द पाएंगे.
क्योंकि है ही नहीं कोई भी कारण जीने का वैसे
आप गिनाते हैं,जो-जितने,जैसे.....
********************************************* देवेन्द्र कुमार पाठक,
साईंपुरम् कॉलोनी,रोशननगर;
साइंस कॉलेज डाकघर-कटनी,
जिला-कटनी,483501(म.प्र.)आत्मपरिचय-देवेन्द्र कुमार पाठक
म.प्र. के कटनी जिले के गांव भुड़सा में 27 अगस्त 1956 को एक किसान परिवार में जन्म.शिक्षा-M.A.B.T.C. हिंदी शिक्षक पद से 2017 में सेवानिवृत्त. नाट्य लेखन को छोड़ कमोबेश सभी विधाओं में लिखा ......'महरूम' तखल्लुस से गज़लें भी कहते हैं....................
. 2 उपन्यास, ( विधर्मी,अदना सा आदमी ) 4 कहानी संग्रह,( मुहिम, मरी खाल : आखिरी ताल,धरम धरे को दण्ड,चनसुरिया का सुख ) 1-1 व्यंग्य,ग़ज़ल और गीत-नवगीत संग्रह,( दिल का मामला है, दुनिया नहीं अँधेरी होगी, ओढ़ने को आस्मां है ) एक संग्रह 'केंद्र में नवगीत' का संपादन. ...... ' वागर्थ', 'नया ज्ञानोदय', 'अक्षरपर्व', ' 'अन्यथा', ,'वीणा', 'कथन', 'नवनीत', 'अवकाश' ', 'शिखर वार्ता', 'हंस', 'भास्कर' आदि पत्र-पत्रिकाओं में रचनायें प्रकाशित.आकाशवाणी,दूरदर्शन से प्रसारित. 'दुष्यंतकुमार पुरस्कार','पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी पुरस्कार' आदि कई पुरस्कारों से सम्मानित....... कमोबेश समूचा लेखन गांव-कस्बे के मजूर-किसानों के जीवन की विसंगतियों,संघर्षों और सामाजिक,आर्थिक समस्याओं पर केंद्रित......
सम्पर्क-1315,साईंपुरम् कॉलोनी,रोशननगर,साइंस कॉलेज डाकघर,कटनी,कटनी,483501,म.प्र. ईमेल-devendrakpathak.dp@gmail.com
बहुत सुंदर अनुवाद।
जवाब देंहटाएंसार्थक चिंतन देती अनुपम कृति।
क्या मार्था मेरिडोस को नोबेल पुरस्कार मिल चूका है?
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