शेरनी का दूध मुगलों के मातहत कल्याण के नवाब का साला और बसई के दुर्ग का हाकिम नवाब खां मराठवाड़ा की पहाड़ी में दुश्मनों से बचता फिर रहा था।...
शेरनी का दूध
मुगलों के मातहत कल्याण के नवाब का साला और बसई के दुर्ग का हाकिम नवाब खां मराठवाड़ा की पहाड़ी में दुश्मनों से बचता फिर रहा था। मराठा सेना उसका पीछा कर रही थी।
तालाब का किनारा देख उस रात वहीं डेरा डालने का निश्चय किया। उसकी फौज के मंगोल सिपहसालार पास के जंगल से तीतर पकड़ लाये। तीतरों के भुने मांस का लुत्फ लेते छावनी में तफरीह कर रहे थे।
सत्रहवीं सदी की मुगल छावनी, छावनी कम बाजार अधिक होती थी। तरह-तरह के मालो-गुलाल और रंगीन चश्मे बहर, नूरे-नजर अलग-अलग क्षेत्रों की वस्तुएं और औरतें वहां सजती थीं। महिलाओं का नाच और खनक उसी युग की सामंती परंपरा का अभिन्न अंग थी। वैभव विलास के उस युग में अमीरो-उमराव शाही ठाठ में पूरा दिन, ताल तलैया और बाग-बगीचों के बीच बिताना पसंद करते, खुले हुस्न की मंडियों में शामे फना करने का शौक फरमाते थे। यहां तक कि जंग के मैदान में भी यारों की महफिलें जवान जरूर होती थी। हिंदी के रसिक कवियों की पौ-बहार का वो युग था जब भावों की सुंदरता शब्दों की मांसलता के आगे नतमस्तक थी।
नवाब खां बड़े बेमन से कल्याण की रंगीनियों को छोड़ लाल मिट्टी के इस रूखे गढ़ में पत्थरों के बीच फौजी जिंदगी को कोस रहा था। उसे फतहपुर से यहां भेजा गया था। अगर बादशाह की फौज का साथ मिल गया होता तो उसे ही इस तरह यहां होना था?
सीकरी की गलियां और खानकाही उसके बिना भी उतनी ही शान से रोनकदर हो रहे होंगे!!
मराठों ने उसका खजाना लूट लिया था। और वे उसका पीछा कर रहे थे। कल्याण के किले पर आधी रात को मराठा सैनिकों के हमले ने उसे भागने पर मजबूर कर दिया था। कहां तो बेगमों, रखैलों, तवायफों और ख़्वासिनों के भरे पूरे हरम की शोखियां!! और कहां यह रूखी बेलौस जमीन!!
हड़बड़ी में अपनी प्यारी नौशाद बेगम और दिलरुबा जान को भी किले में छोड़ भाग आया था। नौशाद बेगम तो फिर भी उम्रदार हो चली थी, पर दिलरुबा?
उसके हुस्न की मस्तियां और दिलफेंक कहकहे!
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पता नहीं मराठों में किसके हाथ लगेगी? नवाब खान इस खयाल से भी सिहर उठता था। वह सपनों में भी दिलरुबा को किसी गैर की बाहों में नहीं देख सकता था। आंखें बंद कर उसने बेहूदा ख्याल को दिमाग से निकाल बाहर किया। हिंदुओं के बारे में उसने सुना था कि वे जंग में लूटी गई औरतों का पूरा ख्याल रखते हैं बाइज्जत उन्हें लौटा देते हैं। शायद मराठे भी वैसा ही करें!
लेकिन अगले ही पल उसे ख्याल आया कि कहीं मराठे बदला लेने पर उतारू हो गये तो क्या होगा? जब हम उनकी औरतों को नहीं बख्शते तो उनसे कैसी उम्मीद!!
हकीकत अपनी जगह थी। घटना घट चुकी थी। किला और औरतें - दोनों हाथ से जा चुके थे। उस पर मुगलिया रूआब वह मिट्टी में मिला चुका था। अब अपने ही नमक हलालों से नजरें मिलाकर बात नहीं कर पा रहा था।
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मंगोलो के कहकहे और रक्कासा के रक्स की आवाज़ें उसे चिढ़ाने लगीं। तालाब के पास कमर मटकाती हुस्नपरी के जमाल ने न जाने क्या क्यों उसे बेआबरू कर दिया था।
" बंद करो" वह भीतर से ही चलाया
सब कुछ एकदम शांत हो गया। सिपाही हड़बड़ी में भागे। उनकी यह दिल्लगी नवाब को बुरी लग गई थी। "माफी हुजूर" कहकर एक-एक कर सब जाने लगे तो अंत में वह रक्कासा भी करीब से गुजरी।
दरअसल वह लड़की नहीं बल्कि "लौंडा" थी। मंगोलो अफ़गानों में औरतों से ज्यादा 'लौंडे- लौंडिया' का चलन था। उसके मर्दाना जिस्म में औरतों के से नखरे जिस पर सिपाही मरे जा रहे थे, नवाब खां को कचोट गई थी।
" यही काम रह गया? काफिरों ने तुम सबको लौंडी बनाकर रख दिया है।" वह गुस्से में बड़बड़ाया। सिपाही जाते-जाते उस लौंडी की चुनरी उठा ले गए जो हड़बड़ी में गिर पड़ी थी।
पास के गांव को लूट कर मुग़ल फौज अपने घोड़ों के लिए चारा लाई थी। खेतों में जहां, जो कुछ भी मिला, उसे उखाड़ लाए थे। कुछ तो छतों की भूसी ही उठा लाए। शाम को मग़रिब की नमाज़ के बाद, अंधेरा होने के कुछ पहले नवाब खां ने वहीं तालाब किनारे अस्थाई 'दरबार' लगाया। इसमें आगे की चर्चा होनी थी।
बदरंग खां काफिर औरतों को उठा लाया था। इन्हें आपस में बांटने के लिए नजीब और मुनीब की टुकड़ियां तलवारों पर आ गई थी। फैसला अमीर को करना था।
" यह जंग में लूट का माल है। हमारा हक है। अमीर को अपना हिस्सा लेकर बाकी हिस्सा शरीयत के हिसाब से हमें लौटा देना चाहिए।" नजीर अहमद गुस्से से लाल पीला हो रहा था। वह एक हिंदुस्तानी मुसलमान था और अपने हक पर मुगल हाकिम मुनीब का डाका बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था। जबकि मुनीब को यकीन था कि मुगल होने के नाते नवाब खां उसी का पक्ष लेगा, इसलिए आश्वस्त भी था।
" यह क्या नाफरमानी है? अब लूट के माल का फैसला एक नामालूम क़ौम का मामूली हज्जाम करेगा? और वह भी शरीयत का वास्ता देकर? " मुनीब ने गुस्से में नजीर के खानदानी पेशे और हिंदू उद्भव की ओर इशारा किया। उसे बुरा यह लगा कि जिसकी पुश्तें अभी हाल तक भी काफिरियत से सरोबार थी वह आकर शरीयत की बात करे।
नवाब खां को इसमें बात बढ़ने की आशंका नजर आई। उसने फौरन मुनीब को टोककर कहा -"जिस माल का कोई रहगुजर ना हो, कानूनन वह सुल्तान या बादशाह का माले-गनीमत कही जाएगी। बादशाह की नुमाइंदगी के नाते यह औरतें अब मेरी हुई। इसलिए दोनों पीछे हटो।"
फिर औरतों के जिस्म पर शोखी की एक नजर मारते हुए नवाब खां चल दिया। मुनीब तो खुश हो गया क्योंकि इन्हें लूट लाने में उसका कोई हाथ नहीं था और यह माल नजीर की बहादुरी का सिला था। लेकिन नजीर निराश हो गया। उसे बस एक ही तसल्ली थी कि कम से कम मुनीब को कुछ नहीं मिला।
औरतें चुपचाप अपनी किस्मत के फैसले को निर्विकार भाव से विद्रूप के साथ देख रही थी। उनकी किस्मत में केवल नोचा जाना था।
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नजीर अहमद शिकायत करने अकेले में नवाब खां के पास गया।
" उसने मेरे खानदान पर उंगली उठाई। क्या इस्लाम में शरीयत को इस तरह बरता जाता है?"
" तुम भी चुप करो। मैंने उसे समझा दिया। बात को बढ़ाओ मत।" नवाब खां गरज कर बोला।
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" खानदान का गुमान करता है। कहता है कि वह नस्ले चंगेजी है। और मैं क्या हूं?"
" मैंने कहा ना अब चुप करो। बात खत्म।"
लेकिन नजीर अहमद कहां थमने वाला था! भले ही मुगलों, अफ़ग़ानों, तुर्कों, ईरानियों, मंगोलो, शेखों-सैय्यदों और बड़े-बड़े खानों के बीच वह अकेला हिंदवी मुसलमान था जो 500 के मनसबदारी का हकदार था। भले उसकी आवाज कोई सुनने वाला नहीं था। पर उसे गरज थी।
" कोई नस्ले चंगेजी है, कोई नस्ले तैमूरी है तो कोई अफगानी है तो मैं कौन? नस्ले-हिंदुस्तानी?" अपने ही सवाल का खुद ही जवाब देने के साथ उसका गुस्सा भी छलक पड़ा।
" अब चुप करो।" नवाब खां जोर से चिल्लाया।
नज़ीर का स्वर भी थोड़ा मंद पड़ गया था। बोला- "माफी मेरे हुजूर। आप भी नस्ले चंगेजी हैं। आप भी पूरा ईमान बरतते हैं। मैं भी पक्का नमाजी हूं। हमेशा पांचों वक्त की नमाज पढ़ता हूं। तिलावत करता हूं।कलमा पढ़ता हूं। बाप की तरफ से हज्जाम और मां की तरफ से रजपूती हूं। निकाह तो उनका भी मौलवी ने ही पढ़वाया था। फिर यह फर्क क्यों? आप भी तो बाप की तरफ से मुगल और मां--"
" खामोश, बदजुबान!!" नवाब खां ने उसका गिरेबान पकड़ लिया- " मेरी मां तक पहुंच गया। तू है क्या? बुजदिल क़ौम?"
लोगों ने आकर बमुश्किल छुड़ाया। नवाब खां को शराब चढ़ गई थी। लेकिन फौरन दूसरा प्याला गटक डाला।
पर शराब नहीं, वह तो खून का घूंट था।
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नवाब खां की मां!
उसे तो शक्ल भी ठीक से याद नहीं, नाम तो रहा दूर। किस मूल की थी? लोग बताते हैं कि हिंदुओं के किसी नीचकुल की कन्या थी। किसी जंग में माले-गनीमत के तौर पर बांटी गई थी। उसके बाप की लौंडी बनकर हरम में लाई गई!!
दूसरा प्याला भी कम पड़ गया।
यह कमबख्त ख्याल था कि जाने का नाम ही नहीं लेता था। लूट में लाई एक खूबसूरत लड़की सजी-धजी उसके कक्ष में धकेल दी गई। चिरागों की रोशनी में उसके अंग वस्त्र झिलमिला रहे थे। चेहरे पर अंधेरा था, या शायद उसका रंग ही कुछ हल्का था। नैन नक्श गजब के थे।
बेखयाली में नवाब खां ने उसे जकड़ कर अपनी ओर खींच लिया। वह घबरा उठी। उम्र की कमसिन थी और ऐसे मौकों के लिए उसे कुछ खास तजुर्बा भी नहीं था।
" हाय दैया!" उसकी आवाज में, और घुटती सांसो में बेचारगी थी।
नवाब खां के ख्याल घूमने लगे। उसकी मां भी ऐसी ही कोई कम उम्र खवासिन रही होगी। जिसे हरम में लाकर उसके घरबार, परिवार, धर्म, पहचान और यहां तक कि उसके असली नाम तक से महरूम कर दिया गया होगा। ऐसी ही किसी बहकी हुई शाम उसके अब्बा की खुदगर्जी का शिकार हुई होगी। बेऔलाद शख्स को नहीं मालूम था कि उस रात की उसकी जुम्बिशें असर लाएंगी। चार माह बाद जब पता चला पेट से है तो उससे जल्दबाजी में निकाह पढ़वा लिया गया। ताकि अपनी एकमात्र औलाद को कानूनी तौर पर अपना कह सके। और नवाब खां के इस दुनिया में आने के बाद उस नामालूम औरत का क्या हश्र हुआ यह हरम की दीवारें भी नहीं जानती। उसके पहले और उसके बाद भी न जाने ऐसी कितनी ही औरतें आई और गई।
लेकिन यह धब्बा सदा के लिए नवाब खां के नाम के आगे लग गया। जो उसे लिए खानदानीे लोगों के बीच नज़र झुकाने का वायस बन जाता था।
नशे की झौंक में नवाब खां अपने भीतर छिपी नफरत के झटके में जोर से चिल्लाया। कमसिन लड़की उसकी इस अजीब हरकत पर ज़ोर से चिल्ला उठी। दोनों के एकसाथ चिल्लाने की आवाज एक साथ शिविर के बाहर पहरा दे रही अफ़ग़ानों ने सुनी।
अफगान ने साथी को देखकर आंख मारी।
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मुगलों का काफिला अपने पीछे गर्दो-गुबार छोड़कर अगली सुबह वहां से ओझल हो चुका था। चार दिन पीछे चल रही मराठा फौज भी पीछा करती हुई इसी स्थान पर ठहर गई। तलाब के नजदीक पड़ाव डाला गया।
अगले दिन शिवाजी महाराज की टुकड़ी ठीक उसी जगह छावनी का मुआयना करने आ पहुंची। नाच-रंग की लावणी मस्ती में मराठों को मगन देख शिवाजी महाराज की त्योरियां चढ़ गई। फौरन दरबार लगाने का हुक्म हुआ।
पास के गांव से सरदेशमुखी वसूल कर लाया गया। भेंट देने का रस्म निभाई गई। इसी समय सजी-धजी पर्दे वाली डोलियां कनातों के पास आकर रुकी। उनमें से कई नाजनीन उतरीं। इत्र की महक से पूरी छावनी महक उठी। भाऊराव तांबे ने अपनी कनखी को सूंघकर देखा।
जैसे ही उन औरतों ने पर्दा उठाया तो सबके चेहरे चमक उठे। लूट का माल लूटने को सब बेताब थे। सरदारों की भी यह जानने की बेसब्री थी कि उनके हाथ कौन सी वस्तु आएगी।
" यह कौन है?" शिवाजी महाराज ने उन्हें देखकर पूछा।
" नवाब खां की बेगमें और खवासिनें हैं। कल्याण के किले पर हमारी चढ़ाई के दौरान हाथ आई। नवाब खां इन्हेंं छोड़कर किले से भाग गया।"
इस बात पर शिविर में अद्भुत ठहाके लगे। बैरी की औरतों को हर कोई नजरभर देख लेना चाह रहा था। कोई तो बस टूट पड़ने को उद्यत थे।
" पर इन्हें यहां क्यों लाए?" शिवाजी महाराज ने कड़कती आवाज में पूछा।
" ये आपके योग्य हैं। शाही खानदान से ताल्लुक रखती हैं। इन्हें आप रख लीजिए। और बाकी औरतें पद और मर्यादा के हिसाब से सरदारों को बांट दीजिए।" भोगले बोल उठा। शिवाजी महाराज तब अपने सैनिक जीवन की शुरुआत कर रहे थे। राजपाट के तरीकों से अनभिज्ञ थे। भोगले ने इस बात को समझते हुए कहना शुरू किया था।
इस बात पर वहां खुसफुसाहट मच गई थी।
" चुप करो सब लोग!" इस कड़कती आवाज पर शिविर में खामोशी छा गई। फिर भोगले की ओर देखकर शिवाजी बोले - "यह किसकी भाषा सिखा रहे हो?"
" अपराध क्षमा महाराज! लेकिन मुगलों की यही रीत है। वह हमारी बहू बेटियां--"
" क्या तुम मुग़ल हो?"
" नहीं?" भोगले बात को समझ कर चुप हो गए।
तब तक दूसरा सरदार बोल उठा- "लेकिन मुगल किसी पर रहम नहीं करते। हम मुगल नहीं। लेकिन हमारी लड़ाई मुगलों से है। वह हमारी औरतों को नहीं बख्शते। तो हम-"
" तुम्हारी लड़ाई मुगल औरतों से है?" शिवाजी को कम उम्र और तजर्बाहीन होने की दुहाई देने वालों को भी सांप सूंघ गया।
ये उम्र!और ये तेवर!!
वो सरदार भी चुप हो गया। काफी देर से खामोश मोरोपंत ने हाथ जोड़कर सब की तरफ से माफी मांगी - " मैंने तो पहले ही मना किया था। यह लोग माने नहीं।"
" दादासाहेब! इन्हें सम्मान के साथ वापस मुगल खेमे में पहुंचा दीजिए। और कहिएगा असली मर्द अपनी औरतों को छोड़कर इस तरह भागते नहीं।" शिवाजी महाराज ने पूरे निश्चयपूर्वक यह बात कही थी।
पर्दानशी नौशाद बेगम शिवाजी के पास आयी।
" एक गुस्ताखी करना चाहती हूं। इजाजत है?"
शिवाजी की आंखें अनोखे तेज से चमक उठी," मां! अगर मेरी मां भी आप जैसी सुंदर होती तो मैं भी आपके जैसा सुंदर पैदा होता."
नौशाद बेगम ने घुटनों के बल बैठकर शिवाजी के हाथों को चूम लिया। और पेशानियों से लगाकर बोली -
" जिस मां ने आपको जन्म दिया होगा, वो धन्य है। मेरी तरफ से उनको तस्लीम कहिएगा।"
मराठों की नज़रों में तैरती हुई एक पल पहले की वहशत एक ही पल में काफूर हो गयी।
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डाल पर बैठे तोता ने मैना से पूछा," सुन मेरी प्यारी! चार दिन पहले इसी डाल के नीचे एक दरबार लगा था। और आज भी एक दरबार लगा। बता तूने क्या देखा?"
मैना बोली" सब कुछ वही था। सिर्फ एक फर्क था। वह संस्कारों का फर्क है, परवरिश का अंतर है। जिसने शेरनी का दूध पिया हो, वह गीदड़ों की तरह मांस नोचने की बात नहीं करता।"
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मिहिर
#काफ़िरों_के_देश_में
कहानी संग्रह से
नोट - उक्त कहानी में दिए गए ऐतिहासिक विवरण की प्रामाणिकता का लेखक कोई दावा नहीं करता।
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