दोहा रू निसिचर हीन करउँ महि भुज उठाइ पन कीन्ह। सकल मुनिन्ह के आश्रमन्हि जाइ जाइ सुख दीन्ह।। श्रीरामचरितमानस अरण्यकाण्ड दोहा-९ श्रीरामजी ...
दोहा रू निसिचर हीन करउँ महि भुज उठाइ पन कीन्ह।
सकल मुनिन्ह के आश्रमन्हि जाइ जाइ सुख दीन्ह।।
श्रीरामचरितमानस अरण्यकाण्ड दोहा-९
श्रीरामजी ने भुजा उठाकर प्रण किया कि मैं पृथ्वी को राक्षस रहित कर दूँगा। फिर समस्त मुनियों के आश्रम जा-जाकर उनको सुख दिया। अतरू श्रीराम किन-किन ऋषियों के आश्रम में गये। उनमें से प्रमुख ऋषियों का यहाँ संक्षिप्त में महिमा चरित्र है। वन में ब्राह्मणों एवं मुनियों के हड्डियों के ढेर को देखकर श्रीराम ने पृथ्वी को निशाचर हीन करने की प्रतिज्ञा की थी।
श्रीराम अत्रि ऋषि के आश्रम से दण्डकारण्य वन की ओर चल पड़े। वन में उनका सामना विराध राक्षस से हुआ। विराध ने दोनों भाईयों का परिचय पूछा तथा अपना परिचय इस प्रकार दिया-
पुत्ररू किल जवस्याहं माता मम शतहृदा।
विराध इति मामाहुरू पृथिव्यां सर्वराक्षसारू।।
वा.रा. अरण्यकाण्ड-३-५
मैं जव नामक राक्षस का पुत्र हूँ, मेरी माता का नाम शतहृदा है। भूमण्डल के समस्त राक्षस मुझे विराध के नाम से पुकारते हैं। मैंने तपस्या द्वारा ब्रह्माजी को प्रसन्न करके यह वरदान प्राप्त किया है कि किसी भी शस्त्र से मेरा वध न हो तथा कोई भी मेरे शरीर को छिन्न-भिन्न नहीं कर सकेगा। तुम इस युवती सीताजी को छोड़कर यहाँ से भाग जाओ। मैं तुम दोनों के प्राण नहीं लूँगा। श्रीराम ने उस पर सात बाण छोड़े तब विराध के घायल हो जाने पर स्वयं शूल होकर श्रीराम तथा लक्ष्मण पर टूट पड़ा। लक्ष्मणजी ने उस राक्षस की बांयी और श्रीराम ने दाहिनी बाँह बड़े वेग से तोड़ डाली। अनेक बाणों और तलवारों से घायल विराध क्षत-विक्षत होने पर भी नहीं मरा। श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा कि इसे हम शस्त्र से पराजित नहीं कर सकते हैं। अतरू इसे गढ्डा खोदकर गाड़ देते हैं। श्रीराम ने अपने पैर से विराध का गला दबाकर लक्ष्मण को गढ्डा खोदने को कहा। विराध ने यह देखकर कहा कि हे श्रीराम मैं आपको, लक्ष्मणजी तथा सीताजी को मोहवश पहचान न सका। मैं शाप के कारण राक्षस योनि (शरीर) में आया हूँ। मैं तुम्बरू नामक गन्धर्व हूँ। कुबेर ने मुझे राक्षस होने का शाप दिया था। मैं रम्भा नामक, अप्सरा में आसक्त था। इसलिये एक दिन ठीक समय पर उनकी सेवा में उपस्थित न हो सका। जब मैंने उन्हें प्रसन्न करने का प्रयास किया। तब उन्होंने कहा कि गन्धर्व! जब श्रीराम युद्ध में तुम्हारा वध करेंगे, तब तुम अपने पहले स्वरूप को प्राप्त कर पुनरू स्वर्गलोक आ जाओगे। श्रीराम द्वारा उसे गढ्डे में गाड़ देने पर स्वर्ग जाने के पूर्व विराध ने उनसे कहा कि तात यहाँ से डेढ़ योजन की दूरी पर महामुनि शरभंग निवास करते हैं। उनके पास आप शीघ्र चले जाइये, वे आपके कल्याण की बात बतायेंगे।
महर्षि शरभंग
विराध को श्रीराम ने परमधाम भेज दिया तथा-
पुनि आए जहँ मुनि सरभंगा। सुंदर अनुज जानकी संगा।।
श्रीराम च.मा. अरण्य ७-३
फिर वे सुन्दर छोटे भाई लक्ष्मणजी और सीताजी के साथ वहाँ आये जहाँ शरभंगजी थे। शरभंग मुनि के आश्रम के समीप जाने पर श्रीराम ने एक बड़ा अद्भुत दृश्य देखा। आकाश में एक श्रेष्ठ रथ पर इन्द्रदेव को देखा। उनके पीछे और भी बहुत से देवता थे। इन्द्र के दीप्तिमान आभूषण चमक रहे थे तथा उन्होंने निर्मल वस्त्र धारण कर रखे थे। रथ में ही दो सुन्दरियाँ चँवर और व्यजन लेकर इन्द्र के मस्तक पर हवा कर रही थी। उस समय बहुत से गन्धर्व, देवता, सिद्ध और महर्षिगण उत्तम वचनों द्वारा अन्तरिक्ष में देवराज इन्द्र की स्तुति कर रहे थे और इन्द्र शरभंग मुनि के साथ वार्तालाप कर रहे थे। श्रीराम ने यह सब देखकर लक्ष्मण से उस दिव्य रथ तथा घोड़ों के बारे में बताया। श्रीराम ने लक्ष्मण से यह कहा कि जब तक मैं स्पष्ट रूप से यह ज्ञात न कर लूँ कि रथ पर बैठे हुए ये तेजस्वी कौन हैं? तब तक तुम सीता के साथ एक मुहूर्त तक यहीं रुके रहो। इतना कहकर श्रीराम शरभंग मुनि के आश्रम पर गये। श्रीराम को आते देख इन्द्र ने शरभंग मुनि से विदा ले देवताओं से इस प्रकार कहा- श्रीरामचन्द्रजी यहाँ आ रहे हैं। वे जब तक मुझसे कोई बात न करें, उसके पहले ही तुम लोग मुझे यहाँ से दूसरे स्थान ले चलो, इस समय श्रीराम से मेरी भेंट नहीं होना चाहिये क्योंकि-
जितवन्तं कृतार्थं हि तदाहमचिरादिमम्।
कर्म ह्यनेन कर्तव्यं महदन्यैरू सुदुष्करम् ।।
वा.रा.अरण्य सर्ग ५-२३
इन्हें (श्रीराम को) वह महान कर्म करना है, जिसका सम्पादन करना दूसरों के लिये अत्यन्त ही कठिन है। जब ये रावण पर विजय पाकर अपना कर्तव्य पूर्ण करके कृतार्थ हो जायेंगे। तब मैं शीघ्र ही आकर इनका दर्शन करुँगा। इतना कहकर इन्द्र ने शरभंग मुनि का सत्कार किया और उनसे पूछकर अनुमति लेकर वह घोड़े जुते हुए रथ के द्वारा स्वर्गलोक को चले गये।
इन्द्र के चले जाने के बाद श्रीराम अपनी पत्नी सीता और भाई के साथ शरभंग मुनि के पास गये। उस समय मुनि अग्रि के समीप बैठकर अग्रिहौत्र कर रहे थे। श्रीराम ने शरभंग मुनि से इन्द्र के आने का कारण पूछा। तब शरभंग मुनि ने श्रीराम से बात कर निवेदन करते हुए कहा-श्रीराम ये वर देने वाले इन्द्र मुझे ब्रह्मलोक ले जाना चाहते थे। मैंने अपनी उग्र तपस्या से उस लोक पर विजय प्राप्त कर ली है। जिनकी इन्द्रियाँ वश में नहीं होती है, उन पुरुषों के लिये वह अत्यन्त दुर्लभ है। जब मैंने देखा कि आप इस आश्रम के निकट आ गये हैं तब मैंने निश्चय कर लिया कि आप जैसे प्रिय अतिथि का दर्शन किये बिना मैं ब्रह्मलोक नहीं जाऊँगा। हे नरश्रेष्ठ! आप धर्मपरायण महात्मा पुरुष से मिलकर ही मैं स्वर्गलोक तथा उससे ऊपर के ब्रह्मलोक को जाऊँगा। शरभंग मुनि की यह बात सुनने के उपरान्त श्रीराम ने कहा- महामुनि में ही आपको उन सब लोकों की प्राप्ति कराऊँगा। इस समय तो मैं इस वन में आपके बताये हुए स्थान पर निवास करना चाहता हूँ। यह सुनकर शरभंग मुनि ने कहा-
सुतीक्ष्णमभिगच्छ त्वं शुचौ देशे तपस्विन्।
रमणीये वनोद्देशे सते वासं विद्यास्यति।।
वा.रा. अरण्यकाण्ड सर्ग ५-३६
हे राम! आप इस रमणीय वनप्रदेश के उस पवित्र स्थान में तपस्वी सुतीक्ष्ण मुनि के पास चले जाइये। वे आपके निवास स्थान की व्यवस्था करेंगे। इतना कहने के बाद शरभंग मुनि ने श्रीराम से कहा कि दो घड़ी यहीं ठहरिये और जब तक पुरानी कैंचुली का त्याग करने वाले सर्प की भाँति मैं अपने इस जराजीर्ण अंगों का त्याग न कर दूँ। तब तक मेरी ही ओर देखिये। इतना कहने के बाद महातेजस्वी शरभंगमुनि ने विधिवत अग्रि की स्थापना करके उसे प्रज्वलित किया और मंत्रोच्चारण पूर्वक घी की आहुति देकर वे स्वयं भी अग्रि में प्रविष्ट कर गये। वे अग्रिहौत्री पुरुषों, मुनियों और देवताओं के भी लोकों को लाँधकर ब्रह्मलोक पहुँच गये। वहाँ ब्रह्माजी ने उन ब्रह्मर्षि को देखकर प्रसन्नतापूर्वक कहा- महामुने तुम्हारा शुभ स्वागत् है।
मुनि सुतीक्ष्णजी
मुनि अगस्ति कर सिष्य सुजाना। नाम सुतीछन रति भगवाना।।
मन क्रम बचन राम पद सेवक। सपनेहूँ आन भरोस न देवक।।
श्रीरामचरितमानस अरण्यकाण्ड १०-१
मुनि अगस्त्यजी के एक सुतीक्ष्ण नाम के ज्ञानी शिष्य थे, उनकी भगवान् में प्रीति थी। वे मन वचन और कर्म से श्रीरामजी के चरणों के सेवक थे। उन्हें स्वप्र में भी किसी दूसरे देवता का भरोसा (विश्वास) नहीं था। शरभंग मुनि के ब्रह्मलोक जाने के बाद उनके आश्रम में श्रीराम के पास बहुत से मुनियों-ऋषियों के समुदाय आये। ये ऋषियों-मुनियों के समुदाय इस प्रकार थे-
वैखानसा वालखिल्यारू सम्प्रक्षाला मरीचिपारू।
अश्मकुट्टाश्च बहवरू पत्राहाराश्च तापसारू।।
दन्तोलूखलिनश्चौव तथैवोन्मज्जकारू परे।
गात्रशय्या अशाय्याश्च तथैवानवकाशिकारू।।
मुनयरू सलिलहारा वायुभक्षास्तथापरे।
आकाशनिलयाश्चौव तथा स्थण्डिलशायिनरू।।
तथौर्ध्ववासिनो दान्तास्थाऽऽर्द्रपटवाससरू।
सजपाश्च तपोनिष्ठास्तथा पञ्चतपोन्वितारू।।
वा.रा. अरण्यकाण्ड सर्ग ६-२ से ५
उनमें वैखानस अर्थात् ऋषियों का एक समुदाय जो कि ब्रह्माजी के नख से उत्पन्न हुआ है। वालाखिल्य- ब्रह्माजी के बाल-रोम से प्रकट हुए महर्षियों का समूह, सम्प्रक्षाल- जो भोजन के बाद अपने बर्तन धो-पोछकर रख देते हैं, मरीचिप - सूर्य अथवा चन्द्रमा की किरणों का पान करने वाले, अश्म कुट्ट- कच्चे अन्न को पत्थर से कूटकर खाने वाले, पत्राहार-पत्रों (पत्तों) का आहार करने वाले, दन्तोलूखली - दाँतों से ही ऊखल का काम लेने वाले, उन्मज्जक- कण्ठ तक जल में डूबकर तपस्या करने वाले, गात्रशय्य- शरीर से ही शय्या का काम लेने वाले अर्थात् बिना बिछौने के भुजा पर सिर रखकर सोने वाले, अशय्य-शय्या बिछौने के साधनों के बिना, अनवनकाशिक-निरन्तर सत्क र्म में लगे रहने के कारण कभी अवकाश न पाने वाले, सलिलाहार- मात्र जल पीकर रहनेवाले, वायुभक्ष- हवा पीकर जीवन निर्वाह करने वाले, आकाश निलय - खुले मैदान में रहने वाले, स्थण्डिलशायी - वेदी पर सोने वाले, उर्ध्ववासी- पर्वत शिखर आदि ऊँचे स्थानों पर निवास करने वाले, उर्ध्वदान्त- मन और इन्द्रियों को वश में रखनेवाले, आर्द्रपटवासा- सदा भीगे कपड़े पहनने वाले, सजप- निरन्तर जप करने वाले, तपोनिष्ठ -तपस्या अथवा परमात्यात्व के विचारों में स्थित रहने वाले, पञ्चाग्रिसेवी- गर्मी की ऋतु में ऊपर से सूर्य का और चारों तरफ से अग्रि का ताप सहन करने वाले, ये सभी श्रेणियों के तपस्वी मुनि थे।
इन समस्त तपस्वी ऋषियों ने पम्पासरोवर, तुंगभद्रा के किनारे, मन्दाकिनी के किनारे एवं चित्रकूट पर्वत के पास राक्षसों द्वारा मारे गये अगणित ऋषियों- तपस्वियों के शव एवं कंकाल दिखाये। श्रीराम ने इन सबको देखने व ऋषियों के कष्ट सुनने के बाद उन्हें राक्षसों का वध करने तथा वर देकर सुतीक्ष्ण ऋषि के पास चल दिये।
श्रीराम, लक्ष्मण, सीताजी एवं ब्राह्मणों, ऋषियों के साथ सुतीक्ष्ण मुनि के आश्रम में गये। वहाँ उन्होंने उन्हें ध्यानमग्र बैठे देखा। श्रीराम ने अपना परिचय देकर कहा कि मैं यहाँ आपके दर्शन करने के लिये आया हूँ। सुतीक्ष्ण मुनि ने श्रीराम से कहा कि मैं आपकी ही प्रतीक्षा में था। इसलिये अब तक इस पृथ्वी पर अपने शरीर को त्यागकर मैं यहाँ से देवलोक में नहीं गया। श्रीराम ने शरभंग मुनि से पूछा कि आप यह बताये कि मैं इस वन में कहाँ निवास करूँ? अपने ठहरने के लिये कहाँ कुटिया बनाऊँ। यह सुनकर मुनि ने कहा कि आप यहीं सुखपूर्वक निवास कीजिये। क्योंकि यहाँ ऋषियों के समुदाय सदा आते-जाते रहते हैं तथा फल-फूल भी सर्वदा सुलभ है। एक रात्रि रूककर श्रीराम ने मुनि की परिक्रमा कर उनसे आज्ञा लेकर श्रेष्ठ ऋषियों सहित चल दिये।
माण्डकर्णि मुनि
शरभंग ऋषि के आश्रम से श्रीराम लक्ष्मण और सीता ने यात्रा करते समय संध्या में एक सुंदर लम्बाई एवं चौड़ाई में एक योजन फैले हुए तालाब को देखा। तालाब में लाल और श्वेत खिले कमलों का सौन्दर्य अद्भुत था। स्वच्छ जल से भरे हुए उस रमणीय सरोवर में गाने-बजाने का शब्द सुनायी देता था, किन्तु कहीं कोई दिखायी नहीं दे रहा था। यह देखकर-सुनकर श्रीराम और लक्ष्मण ने कौतुहलवश अपने साथ आये श्धर्मभृत्य नामक मुनि से पूछा कि यह अद्भुत संगीत की ध्वनि सरोवर के पास कहाँ से आ रही है। धर्मभृत मुनि ने सरोवर के प्रभाव का वर्णन करते हुए बताया कि इस सरोवर का नाम श्पञ्चाप्सर्य है। यह अगाध एवं निर्मल जल से परिपूर्ण है। माण्डकर्णि मुनि ने इस जलाशय में रहकर केवल वायु का आहार करते हुए दस सहस्त्र वर्षों तक कठोर तपस्या की थी। उनके तप को अग्रि आदि देवता देखकर आपस में बोले कि ये हममें से किसी के स्थान को लेना चाहते हैं। उनकी तपस्या को देखकर मुनि उनकी तपस्या में विघ्र डालने के लिये सम्पूर्ण देवताओं ने पाँच प्रधान अप्सराओं को नियुक्त किया, जिनकी अंग कांति विद्युत के समान चंचल थी।
माण्डकर्णि मुनि को उन पांच अप्सराओं ने देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिये काम के अधीन कर दिया-
ताश्चौवाप्सरसरू पञ्च मुने पत्नीत्वमागतरू।
तटाके निर्मितं तासां तसि्ेमन्नन्तर्हितं गृहम्।।
वा. रा. अरण्यकाण्ड सर्ग -११-१७
माण्डकर्णि मुनि की पत्नियाँ बनी हुई वे ही पांच अप्सराएँ यहाँ रहती हैं। उनके रहने के लिये इस सरोवर के भीतर घर बना हुआ है जो जल के अन्दर छिपा हुआ है। तपस्या के प्रभाव से युवावस्था प्राप्त हुए मुनि की ये पांचों अप्सराएँ उनकी सेवा करती हैं। क्रीड़ा- विहार में संलग्न हुई इन अप्सराओं के वाद्यों की यह ध्वनि सुनायी देती है जो आभूषणों की झनकार के साथ मिली हुई है। साथ ही साथ उनके मधुर कंठों से गीत के मनोहर शब्द सुनाई देते है। श्रीराम ने धर्मभृत मुनि के इस कथन को यह तो बड़े आश्चर्य की बात है कहकर स्वीकार किया।
महर्षि अगस्त्य चरित्र की महिमा
तदनन्तर श्रीराम बारी-बारी से उन सभी तपस्वी मुनियों के आश्रमों में गये। कहीं दस महीने, कहीं वर्ष भर, कहीं चार माह, कहीं पांच या छरू महीने, कहीं उससे अधिक, कहीं आठ माह तो कहीं बारह महीने निवास किया। इस तरह श्रीराम के वन में १० वर्ष बीत गये। श्रीराम सीताजी के साथ फिर सुतीक्ष्ण मुनि के आश्रम में लौट आये। एक दिन सुतीक्ष्ण मुनि के पास बैठकर श्रीराम ने विनीतभाव से कहा-
अस्मिन्नरण्ये भगवन्नगस्त्यो मुनिसत्तमरू।।
वसतीति मया नित्यं कथारू कथयतां श्रुतम्।
न तु जानामि तं देशं वन वनस्यास्य महत्तया।।
वा.रा. अरण्यकाण्ड सर्ग ।।-३०-३१
भगवन्! मैंने प्रतिदिन वार्तालाप करने वाले लोगों के मुँह से सुना है कि इस वन में कहीं मुनिश्रेष्ठ अगस्त्यजी निवास करते हैं, किन्तु इस वन की विशालता के कारण मैं उस स्थान को नहीं जानता हूँ। यह सुनकर सुतीक्ष्ण मुनि ने श्रीराम से कहा। अगस्त्य ऋषि का आश्रम यहाँ से चार योजन दक्षिण में है। वहाँ आपको अगस्त्य के भाई का सुन्दर आश्रम मिलेगा। आप एक रात्रि उस आश्रम में ठहरकर प्रातरू काल वन प्रदेश के किनारे दक्षिण दिशा में जाने पर एक योजन आगे अगस्त्य ऋषि का अनेकानेक वृक्षों से सुशोभित रमणीय भाग में, अगस्त्य आश्रम मिल जाएगा।
सुतीक्ष्ण मुनि को श्रीराम ने लक्ष्मण सहित प्रणाम् किया। तदनन्तर श्रीराम अगस्त्यजी के आश्रम की यात्रा पर चल दिये। सुतीक्ष्णजी के बताये हुए मार्ग पर जाने से उन्हें अगस्त्य मुनि के भाई का आश्रम दिखायी दिया। वन के मध्य में आश्रम की अग्रि का धुआँ उठता दिखायी दिया। जिसका अग्रभाग काले मेघों के ऊपरी भाग सा प्रतीत हो रहा था। श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा कि मैंने सुतीक्ष्णजी का कथन जैसा सुना था उसके अनुसार यह निश्चय ही अगस्त्यजी के भाई का आश्रम होगा।
श्रीराम ने लक्ष्मणजी से कहा- इन्हीं अगस्त्यजी ने समस्त लोकों के हित की कामना से मृत्यु स्वरूप वातापि और इल्वल नामक राक्षसों का वेगपूर्वक दमन करके दक्षिण दिशा में ऋषियों के शरण होने योग्य बनाया है। दुष्ट वातापि और इल्वल ये दोनों भाई यहाँ रहते थे तथा ब्राह्मणों-ऋषियों की हत्या करते थे। निर्दयी इल्वल राक्षस ब्राहमण का रूप धारण करके संस्कृत बोलता हुआ जाता और श्राद्ध के लिये ब्राह्मणों को निमंत्रण दे आता था। वातापि का संस्कार करके श्राद्धकल्पोक्त विधि से शाक-फल का रूप धारण करने वाले इस राक्षस का श्राद्धकल्पोक्त रीति के अनुसार ब्राह्मणों को खिला देता था। वे ब्राह्मण जब भोजन कर लेते तब इल्वल उच्च स्वर से बोलता-वतापे! निकलो। भाई की बात सुनकर वातापि भेड़ के समान में-में करता हुआ उन ब्राह्मणों का पेट फाड़कर निकट आता। इस तरह इन दोनों राक्षसों ने मिलकर प्रतिदिन सहस्त्रों ब्राहमण ऋषियों का विनाश कर दिया।
उस समय देवताओं की प्रार्थना पर महर्षि अगस्त्य ने श्राद्ध में शाक फल रूपधारी असुर को जान बुझकर भक्षण कर लिया। श्राद्ध सम्पन्न हो जाने पर इल्वल ने वातापि को सम्बोधित कर कहा निकलो। यह सुनकर अगस्त्य ऋषि ने हँसते हुए कहा-
कुतो निष्क्रमितुं शक्तिर्मया जीर्णस्य रक्षसरू।
भ्रातुस्तु मेषरुपस्य गतस्य यम सादनम्।।
वा.रा. अरण्यकाण्ड सर्ग-।।-६४
जिस जीव शाक रूपधारी तेरे भाई राक्षस को मैंने खाकर पचा लिया, वह तो यमलोक जा पहुँचा है। अब उसमें निकलने की शक्ति नहीं है। यह सुनकर इल्वल ने अगस्त्य महर्षि को मार डालने को तैयार हो धावा किया त्योंहि ऋषि अगस्त्य ने अपनी अग्रितुल्य दृष्टि से उस राक्षस को दग्ध कर डाला तथा इस प्रकार उसकी भी मृत्यु हो गई। श्रीराम ने लक्ष्मणजी से पुनरू कहा कि यह महर्षि अगस्त्य के भाई का आश्रम है जो सरोवर और वन से सुशोभित हो रहा है। संध्या के समय श्रीराम ने अगस्त्य ऋषि के भाई के आश्रम में प्रवेश किया और उनके चरणों में मस्तक झुकाया।
इन महर्षियों के जीवन चरित्र के प्रसंगों से हमें यह प्रेरणा प्राप्त होती है कि जीवन में अच्छे कर्म और तपस्या से ही ईश्वर की प्राप्ति होती है। श्रीराम का जन्म का उद्देश्य वशिष्ठजी जानते थे। अतरू उन्होंने कहा-
संत्यसंघ पालक श्रुति सेतु। राम जनमु जग मंगल हेतु।।
गुर पितु मातु बचन अनुसारी। खल दलु दलन देव हितकारी।।
श्रीरामचरित मानस अयोध्याकाण्ड- २५४-२
श्रीराम सत्य प्रतिझ हैं और वेद की मर्यादा के रक्षक हैं। श्रीरामजी का अवतार ही जगत् के कल्याण (मंगल) के लिये हुआ है। वे गुरु पिता और माता के वचनों के अनुसार चलने वाले हैं। दुष्टों के दल का नाश करने वाले और देवताओं के हित करने वाले हैं। अतरू ऐसे श्रीराम के आदर्श चरित्र के ही कारण वाल्मीकिजी ने कहा है-
यावद् स्थास्यन्ति गिरयरू सरितश्च महीतले।।
तावद् रामायणकथा लोकेषु प्रचरिष्यति।
वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड २-३६-३७
इस पृथ्वी पर जब तक नदियों और पर्वतों की सत्ता रहेगी, तब तक इस संसार में रामायणकथा का प्रचार होता रहेगा।
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डॉ. नरेन्द्रकुमार मेहता
श्मानसश्री्य, मानस शिरोमणि, विद्यावाचस्पति एवं विद्यासागर
सीनि. एमआईजी-१०३, व्यास नगर,
ऋषिनगर विस्तार, उज्जैन (म.प्र.)
पिनकोड- ४५६ ०१०
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