कवि-कुल गुरु की उपाधि संस्कृत के महान कवि और नाटककार कालिदास को मिली। पर आधुनिक भारतीय साहित्य में यह उपाधि रवीन्द्रनाथ टैगोर को ही मिली। स्...
कवि-कुल गुरु की उपाधि संस्कृत के महान कवि और नाटककार कालिदास को मिली। पर आधुनिक भारतीय साहित्य में यह उपाधि रवीन्द्रनाथ टैगोर को ही मिली। स्वयं महात्मा गांधी उन्हें गुरुदेव कह कर संबोधित किया करते थे। रवीन्द्रनाथ टैगोर का जन्म एक बहुत बड़े जमींदार परिवार में सन् 1861 में हुआ था। उनके दादा प्रिंस द्वारकानाथ टैगोर भारत में नवजागरण के अग्रदूत राजा राम मोहन राय के साथ साझे में व्यापार भी करते थे। अपने व्यापार संबंधी कार्यों के सिलसिले में अक्सर उन्हें यूरोप की यात्रा करनी पड़ती थी। जब वे इंग्लैंड जाते तो सीधे महारानी विक्टोरिया से मुलाकात करते। ऐसी थी इनकी धाक।
पर रवीन्द्रनाथ टैगोर के पिता देवेन्द्रनाथ टैगोर आध्यात्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। वे वेदों, उपनिषदों एवं अन्य शास्त्रों के बड़े ज्ञाता थे। इसलिए उन्हें महर्षि की उपाधि दी गई थी। वे सांसारिक भोग-विलास से दूर रहते थे। जीवन के सत्य की तलास में वे अक्सर लंबी-लंबी यात्राएं करते। कई बार वे अपने सबसे छोटे पुत्र रवीन्द्रनाथ को दूर-दूर की यात्राओं पर ले जाते थे। इन्हीं यात्राओं के दौरान बालक रवीन्द्रनाथ ने प्रकृति के विराट सौंदर्य को महसूस किया और मानव-जीवन के अलग-अलग रंग-ढंग, उसके स्वरूप और सकी विचित्रताओं-विडंबनाओं को भी समझने की कोशिश की। इन्हीं यात्राओं के दौरान उनमें प्रकृति की विराटता और मानव-जीवन को को समझने की सूक्ष्म अंतर्दृष्टि विकसित हुई।
रवीन्द्रनाथ का विशाल परिवार कलकत्ता के जोड़ासांको के महल में रहता था। यहां हमेशा साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियां चलती रहती थीं। रवीन्द्रनाथ के बड़े भाई द्विजेंद्रनाथ नाटककार थे। वे पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने अंग्रेजों को मात देने के लिए स्वदेशी शिपिंग कंपनी की शुरुआत की और इस व्यवसाय में काफी धन बर्बाद किया।
रवीन्द्रनाथ टैगोर के परिवार का हर सदस्य, यहां तक कि उनकी भाभियां और बहनें भी किसी न किसी रूप में साहित्यिक गतिविधियों से जुड़ी थीं। उनके घर में कैसा साहित्यिक माहौल था, इसे सिर्फ इस बात से समझा जा सकता है कि केवल घर के लोगों के लिए एक हस्तलिखित पत्रिका निकाली जाती थी। ऐसे माहौल में यह स्वाभाविक था कि रवीन्द्रनाथ साहित्य-रचना की ओर प्रवृत्त होते। रवीन्द्रनाथ ने बहुत कम उम्र से ही साहित्य-रचना शुरू कर दी। अपनी पहली कविता उन्होंने 16 वर्ष की उम्र में भानु सिंह के छद्म नाम से प्रकाशित करवाई। इसके बाद उस समय की प्रमुख बंगला पत्रिकाओं में उनकी रचनाएं लगातार प्रकाशित होने लगीं। आलोचकों की दृष्टि शीघ्र ही उनकी रचनाओं पर पड़ी और उन्होंने यह स्वीकार किया कि बंगला साहित्याकाश में एक नये नक्षत्र का उदय हो चुका है।
युवावस्था तक पहुंचते-पहुंचते रवीन्द्रनाथ ने हजारों गीतों और कविताओं का सृजन कर दिया था। उनके गीतों और कविताओं में नयी चेतना हिलोरें ले रही थीं। रवीन्द्रनाथ ने बंगला गीतों और कविताओं को नया रूप विधान दिया तो नयी अंतर्वस्तु भी दी। उनका साहित्य मध्ययुगीन बेड़ियों और वर्जनाओं को तोड़ने वाला और आधुनिक चेतना से ओतप्रोत था। बंगला साहित्य में नवजागरण लाने का श्रेय रवीन्द्रनाथ को ही है। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने सिर्फ गीतों और कविताओं की ही रचना नहीं की, इन्होंने कहानियों और उपन्यासों का सृजन भी किया। इसके साथ ही नाटकों की रचना की और उनमें अभिनय भी किया। संगीत-रचना के क्षेत्र में उन्होंने उल्लेखनीय और मौलिक कार्य किया। रवीन्द्रनाथ टैगोर अपने समय के बहुत बड़े संगीतकार थे। आज रवीन्द्र संगीत के नाम से उनका संगीत पूरी दुनिया में चर्चित है। हर बंगाली घर में तो यह संगीत गूंजता ही है।
रवीन्द्रनाथ की सबसे मर्मस्पर्शी कहानी ‘काबुलीवाला’ है, जिस पर फिल्म भी बन चुकी है। इनके प्रमुख उपन्यासों में ‘गोरा’, ‘नौका डूबी’, ‘घरे-बाइरे’ आदि हैं। ‘घरे-बाइरे’ उपन्यास पर फिल्म भी बन चुकी है। वृद्धावस्था के दौरान रवीन्द्रनाथ ने पेंटिंग की शुरुआत की। कला के इस क्षेत्र में भी उन्होंने सर्वथा मौलिक प्रयोग किए। इनकी पेंटिग्स को समीक्षकों ने अद्भुत और अलौकिक माना। सन् 1913 में इनकी काव्य कृति ‘गीतांजलि’ को जब नोबेल पुरस्कार मिला तो संपूर्ण भारत आत्म-गौरव की भावना से भर उठा। भारतीय साहित्य को विश्व में एक नयी पहचान मिली। ‘गीतांजलि’ के गीतों में कवि की आध्यात्मिक चेतना उस उच्च स्तर पर है, जहां वह इस असीम ब्रह्मांड का सृजन और नियमन करने वाली भावातीत शक्तियों से एकाकार हो जाता है।
कुल मिलाकर ‘गीतांजलि’ ने विश्व में भारत को इस रूप में पहचान दिलाई कि भले ही देश गुलाम है, पर उसकी आत्मा स्वतंत्र है और जिस देश में आध्यात्मिक चेतना की ऐसी लहरें उठ रही हों, उसे गुलाम बनाये रख पाना संभव नहीं होगा। रवीन्द्रनाथ की रचनाओं ने हिंदी के साथ-साथ तमाम भारतीय भाषाओं के साहित्य को प्रभावित किया। हिंदी के क्रांतिकारी कवि निराला रवीन्द्रनाथ के बहुत बड़े प्रशंसक थे। रवीन्द्रनाथ टैगोर की समस्त रचनाओं का अनुवाद दुनिया की सभी प्रमुख भाषाओं में हो चुका है। कई विश्वविद्यालयों में रवीन्द्र साहित्य अध्ययन पीठ स्थापित हैं।
रवीन्द्रनाथ टैगोर सिर्फ एक साहित्यकार ही नहीं, बल्कि मौलिक शिक्षाशास्त्री भी थे। शिक्षा के क्षेत्र में उनका अमूल्य योगदान ‘शांति निकेतन’ के रूप में हमारे सामने है। इस शिक्षण-संस्थान से एक से बढ़ कर एक विभूतियां निकल चुकी हैं, जिन्होंने अपने-अपने क्षेत्र में उल्लेखनीय काम किया है। रवीन्द्रनाथ टैगोर भारत की स्वतंत्रता के प्रबल समर्थक थे, पर उनका गांधीजी के चरखे से विरोध था। वे एक आधुनिक, औद्योगिक और सबल राष्ट्र के पक्षधर थे। अंग्रेज शासकों ने रवीन्द्रनाथ को 1915 में ‘नाइटहुड’ का खिताब दिया था। जिन्हें यह खिताब मिलता था, उनके नाम के आगे ‘सर’ लगाया जाता था। पर 1919 में जलियांवाला बाग नरसंहार के बाद उन्होंने ‘नाइटहुड’ की पदवी का त्याग कर दिया। उनके लिए सबसे पहले देश और मानवता थी। सच पूछा जाए तो रवीन्द्रनाथ राष्ट्रीय सीमाओं से भी ऊपर उठ चुके थे। वे विश्व मानवता की अवधारणा में विश्वास करते थे। सन् 1930 में सोवियत यूनियन की यात्रा के बाद समाजवादी व्यवस्था से वे प्रभावित हुए। रूसी संस्कृति और सोवियत शिक्षा पद्धति ने उन पर गहरा प्रभाव छोड़ा। वहां वे स्कूलों के बच्चों से भी मिले। साम्यवाद को उन्होंने एक आदर्श व्यवस्था के रूप में स्वीकार किया। उनका निधन सन् 1941 में 7 अगस्त को हुआ। पर साहित्य और कला की जो थाती वे छोड़ कर गए, उसने उन्हें अमरत्व प्रदान कर दिया।
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आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन अश्रुपूरित श्रद्धांजलि - सुषमा स्वराज जी - ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर लेख
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