एक छोटा-सा कस्बा। लेकिन पूरे जिले में अव्वल। क्योंकि यहाँ न केवल पुरूष, अपितु आधी से ज्यादा महिलाएँ भी किसी न किसी सरकारी नौकरी में हैं। क...
एक छोटा-सा कस्बा। लेकिन पूरे जिले में अव्वल। क्योंकि यहाँ न केवल पुरूष, अपितु आधी से ज्यादा महिलाएँ भी किसी न किसी सरकारी नौकरी में हैं। किसी घर में तो सारे के सारे ही और वो भी शिक्षा-विभाग में शिक्षक के पद पर। जो अन्य विभागों से उत्तम और सुविधापूर्ण माना जाता है। क्योंकि अध्यापक को 'राष्ट्र-निर्माता' कहलाने के साथ ही ईश्वर और माँ के बाद तीसरे रिश्ते गुरू होने का गौरव हासिल है। साथ ही अध्यापक सामान्य होकर भी विशेष माना जाता है। लेकिन आजकल थोड़ी तस्वीर अलग नजर आने लगी है। कारण अध्यापक बनने के लिए साम-दाम-दण्ड-भेद की नीतियाँ अपनायी जाने लगी हैं। ऐसे अध्यापक तस्वीर पर लगी माला के सिवाय और कुछ नहीं है।
लक्ष्मीकांत सेवानिवृत प्रधानाध्यापक रहे हैं और उनकी पत्नी भी अध्यापिका। कहते हैं चूहे के बच्चे बिल ही खोदते हैं। इसी बात को आधार देते हुए इनका बेटा मधुकर इन्जीनियर की पढ़ाई बीच में ही छोड़कर अध्यापक बन गया।
कुछ ही दिन हुए हैं। लक्ष्मीकांत की लाडली बेटी कुसुम सीधी भर्ती में प्रथम श्रेणी व्याख्याता हिन्दी के पद पर चयनित हुई हैं। कहीं उसके बारे में यह सुनने को मिला कि- वह हिन्दी बड़ी मुश्किल से बोलती है। ज्यादातर उसे अंग्रेजी बोलना ही पसंद है। कभी-कभी हिन्दी की पंक्तियों में विदेशी शब्दों की माला बना देती है।
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लक्ष्मीकांत के पैतृक घर, खेत और कुआँ सब कुछ है। इसीलिए वो इस उम्र में भी इन कार्यों में हाथ बँटाते हैं। लेकिन उनके बेटे-बेटियों के लिए यह काम टेढ़ी खीर हैं।
लक्ष्मीकांत सेवानिवृत हैं। पूरे चालीस वर्ष सेवा दी और मेवा पाया। फिर पाँच-सात पेटी पेन्शन में मिले और अब आधा वेतन। इतना सबकुछ होने के बाद भी कुछ न कुछ करते रहते हैं। आजकल तो इनकी तस्वीर ही बदल गयी हैं। कोई देखे तो यह कभी नहीं कह पायेगा कि- यह कभी प्रधानाध्यापक रह थे। कारण कार्य-शैली और वेशभूषा से पूरी तरह किसान लगते हैं। लोग उनकी श्वेत से श्याम रंग में बदली कमीज और पायजामें पर कई छेद देखते हैं। तो हँसे बगैर नहीं रह पाते हैं और अवसर मिलने पर यह कहते नहीं चुकते कि- कौन पुराने प्रधानाध्यापकजी? पहले थे, अब नहीं हैं। एक मजदूर हैं। तो कोई कहता- सेवाकाल में इनको ज्यादा कमाने का अवसर नहीं मिला। इसकी कसर अब निकाल रहे हैं।
“बेटे मधु, कहीं तेरे स्कूल वाले गाँव में कोई लड़का मिल जाये। तो खबर करना।"
यह शब्द सुनकर मधुकर गंभीरता से बोला- “क्यों बाबुजी? वह तो शायद मिलना बहुत ही मुश्किल है।”
“इसमें क्या सोचना है और वहाँ जनजाति के लड़के मिल जायेंगे। पहले उनके स्कूल में ही लोभ-लालच दिखाना और बाद में उनके माँ-बाप को। एक बार यहाँ आ गया, तो फिर वापस जाने का नाम नहीं लेगा।"
“ऐसा काम मैं कैसे…………"
“बहुत ही आसान है। कुछ नहीं करना है। मैंने तो ऐसे कई लड़को को रखा है। तुझे याद है कि नहीं। पर वहाँ मैं आऊँ, तो लोग क्या सोचेंगे"
मधुकर अपने पिताजी का मुख देखता हुआ खड़ा था। मानो कोई नाटक चल रहा हो और बाबुजी कोई संवाद बोल रहे हो। वह देर तक सुनता रहा और बिना जवाब की प्रतीक्षा किये वह बोलते रहे।
“ रोटी-कपड़े के अलावा और क्या चाहिए? साल भर के हजार-ग्यारह सौ देने पड़े। तो कोई चिन्ता करने की बात नहीं। फिर भी जुगाड़ नहीं हो, तो मुझे कहना।"
इस लम्बे वक्तव्य को समाप्त करने के बाद लक्ष्मीकांत ने राहत की श्वाँस ली और बेटे मधुकर ने इस कान से सुनकर उस कान से निकाल दी।
सप्ताह भर मधुकर बेचैन-सा रहा। लेकिन वह खाली हाथ ही लौटा। एकदिन जब स्कूल से आया, तो उसने देखा कि- घर के एक कोने में एक लड़का बैठा है। उसे देखकर वह स्तब्ध हो गया। उसके बाद उसको घूर कर देखने लगा।
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साँवला रंग, सुडौल बदन। काले-काले छोटे बाल, जिनमें कंघी करने की आदत झलक रही थी। ऊपर एक मोटा कुर्ता और नीचे एक खाली पेन्ट। जो शायद स्कूल की ही है।
उस पर नजर पड़ते ही मधुकर ठिठक गया। मन ही मन कह उठा- “बाबजी, इसे किसी न किसी स्कूल से ही उठा लाये हैं।"
आगे कुछ नहीं कह सका और उसकी आँखों में एक पुरानी तस्वीर उभर आयी।
जब विद्यालय शरू हुए। उस वक्त उसने अन्य अध्यापकों से साथ मिलकर गरीब बच्चों को पढ़ाने की पहल की तथा उनके लिए पाट्य-पुस्तकें, बैग, ड्रेस आदि चीजें बाँटी थी। वो भी अपनी तनख्वाह में से। उस वक्त उसे असीम खुशी हुई थी।
“और आज यह सबकुछ………"
इतना ही कह पाया कि- उसकी याद एक नयी तस्वीर को उभार लायी। जब उसी विद्यालय में एक भील बालक को पढ़ाई छोड़कर चरागाह में बकरियों के साथ देखा। तो उसके पिताजी के बातचीत करके उसे पुनः स्कूल में प्रवेश दिलवाया था। उस बच्चे की पढ़ाई का जिम्मा भी खुद उसने ही लिया। वही बालक सैकण्डरी परीक्षा में टॉप रहा था।
तब खुशी के मारे मधुकर ने उस भील बालक को अपनी बाँहों में भरके गले से लगा लिया था।
महीना भर बीत गया था कि- एकदिन अपने दिल को मजबूत उसने उस लड़के को पूछ ही लिया था-
“चिराग! तू यहाँ आने से पहले क्या काम करता था?”
“कुछ नहीं साहब।" और वह अपने काम में लीन रहा।
“नहीं, मुझे बताना होगा। देखो, यदि तुम झूठ बोलोगे। तो तुम्हें मेरी कसम होगी।"
पहले बार उसने यहाँ किसी की आँखों में अपनापन दिखाई दिया। तो उसने मुस्कुराते हुए कहा-
“जी, मैं पहले स्कूल जाता था।"
“कौनसी कक्षा में पढ़ता था तू?”
“मैं आठवीं में। लेकिन……"
उस लड़के के द्वारा आगे कुछ न कह पाने पर मधुकर ने उसके पीठ पर हाथ रखते कहा-
“क्यों, चिराग? मुझे नहीं बताओगे। फिर क्या हुआ था? जो तुम……"
आगे उसके पास भी कहने को कुछ नहीं था।
वह लड़का मधुकर के इस व्यवहार से गद्गद् हो उठा और अनचाहे ही अपनी आँखों में आँसू भरके उसके सीने से चिपक गया और थोड़ी देर के बाद कहने लगा-
“जी, मेरी माँ मर गयी थी। क्योंकि पिताजी के पास इलाज के पैसे नहीं थे।"
“तो उसका इलाज नहीं करवाया था?”
“पिताजी ने जमीन गिरवी रखकर जमींदार साहब से रूपये लिये। तब तक माँ की बीमारी बहुत बढ़ चुकी थी और वह……"
थोड़ी देर चुप रहने के बाद वह आगे बताने लगा- “एकदिन आपके बाबुजी हमारे गाँव आये। तो मेरे पिताजी ने मुझे स्कूल से छुड़ाकर यहाँ भेज दिया।"
“बहुत बुरा हुआ है तुम्हारे साथ।" यह कहकर मधुकर अपने आप को नहीं रोक सका और पिताजी को मन ही कोसने लगा।
“जी, मैं चला। अभी भैंसों को चारा डालना है। नहीं तो बाबुजी डाटने लगेंगे।"
यह कहकर वह अपने कार्य में जी-जान लगाकर जुट गया।
तभी लक्ष्मीकांत आ धमके और चिराग डर के मारे काँप गया। उन्होंने चिराग की तरफ मधुकर की दृष्टि देखकर दाल में कुछ काला पाया था।
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लेखक-परिचय
रतन लाल जाट S/O रामेश्वर लाल जाट
जन्म दिनांक- 10-07-1989
गाँव- लाखों का खेड़ा, पोस्ट- भट्टों का बामनिया
तहसील- कपासन, जिला- चित्तौड़गढ़ (राज.)
पदनाम- व्याख्याता (हिंदी)
कार्यालय- रा. उ. मा. वि. डिण्डोली
प्रकाशन- मंडाण, शिविरा और रचनाकार आदि में
शिक्षा- बी. ए., बी. एड. और एम. ए. (हिंदी) के साथ नेट-स्लेट (हिंदी)
ईमेल- ratanlaljathindi3@gmail.in
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