अनिल कुमार ई मेल chocaletrock@gmail.com 'बदलते लोग' अजनबी हो गई दुनिया अनजान हो गये लोग रिश्तों के बंधन में भी बे-जुबान हो...
अनिल कुमार
ई मेल chocaletrock@gmail.com
'बदलते लोग'
अजनबी हो गई दुनिया
अनजान हो गये लोग
रिश्तों के बंधन में भी
बे-जुबान हो गये लोग
भूल गये जमीन अपनी
क्योंकि बहुत खास हो गये लोग
खैर यह तो अच्छा हुआ
आदमी, आदमी रहा
स्वर्ग उसका ख्वाब ही रहा
वरना बे-जमीर हो गये लोग
अपनी ही रूह से दूर हो गये लोग
बदले वक्त और दौर में
खामोशी से, बिना किसी शोर में
आदमी भी बदला
किसी नाटक कलाकार की तरह
छोड़कर अपना ईमान
और बदलता ही रहा
होकर बे-ईमान
अब जाने कितना बदलेगा ?
हे ! नादान आदमी
क्या खो देगा ?
अपनी सारी साद़गी
भूलकर अपना ही वजूद
कहाँ खोज पायेगा ?
आदमी के आदमी होने का सबूत
क्योंकि लज्जा, प्रेम, भाईचारा
बन गये अब मानवता के रोग
इसीलिए बेगैरत हो गये लोग.........
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अनुपमा मिश्रा
भावनाशून्य मन में घूमती परछाइयाँ
बिस्तर पर पड़ी सिलवटों में छिपी उदासियाँ,
उघड़े हुए बदन को ढकती हुई आत्मा।
ठिठुरते ह्रदय
स्नेह से रीते पड़े ठंडे मन में,
जहाँ प्रेम की अग्नि
समूल बर्फ बन चुकी हैं।
बड़ी और झूठी शुष्क मुस्कुराहट के साथ
मिथ्या आलिंगन
जिसका अंत
तकिये और बिछौने के इर्द-गिर्द ही कहीं
सिमट जाता है,
उस प्रेम का विस्तार
बस वहीं तक रहता है सीमित
और रात के अंधेरों के उल्लू
अपनी बड़ी- बड़ी आँखों से
रात्रि की कालिमा को घूरते हैं
और पाते हैं अपने चारों तरफ
झूठा प्रेम,
वासना में लिप्त चादरें
भोग विलास की कुरूपता,
जो रात्रि की कालिख में घुल कर
भद्दी दीवारों की सुराखों से झाँकते हैं
दिन होने पर वह उल्लू हो जाता है दृष्टिहीन
और देख नहीं पाता वह
दिन का उजलापन,
देवस्थान की पवित्रता,
फूलों की अनोखी सुगंध,
तितलियों के आकर्षक रंग,
बिरले पक्षियों के सुनहरे पंख,
बड़े पेड़ों की हरीतिमा
तो कहीं सुखद छाँव
और
नन्हे बच्चों के दूध के दाँत।
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आज के समय में
एक चेहरा होना
अपवाद सा है।
सुना है मैंने कि पहले
हुआ करते थे
सभी के पास
एक- एक ही चेहरे,
पर अब वक्त की तेज़ रफ़्तार,
और इंसान की चतुराई,
लिप्सा, कुंठा, बनावट
इन सभी की प्रचुरता के चलते
अब सभी के पास हो गए हैं,
दो या दो से अधिक चेहरे।
चेहरे जिन पर क्रोध,
वासना, कामना का लेप
परत दर परत चढ़ा हुआ है,
जो छिपा रहता है,
पाक, साफ, निर्दोष
और निश्छल,
चेहरे के ठीक पीछे।
वक्त पड़ने पर,
या ज़रा चूक जाने पर,
या सहसा ही
अनुकूल परिस्थितियों की
सुगबुगाहट को भाँपकर,
उभरकर सामने आ ही जाता है,
एक खूंखार, डरावना चेहरा,
जिसकी पहचान करना
लगभग नामुमकिन सा होता है।
क्यूँकि हर एक चेहरा ही,
दिखना चाहता है,
मासूम, दयावान और
परोपकार के लावण्य में डुबोया हुआ।
मैंने देखा है
कई बार
लोगों को
मुखौटे बदलते हुए।
दिन में अलग,
रात में अलग
चेहरे पहनते हुए।
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खोल दो मुट्ठी
अब तितली को उड़ जाने दो,
भूल न जाएँ उड़ना
पंख परिंदों के खुल जाने दो।
मत स्नेह बंधन में घेरो मुझको
आँखें मीचे उग जाने दो।
उकेरने दो संभावनाएं नई
और गढ़ने दो कल्पनाएं कई ।
मत रोको बाँधों में नदी
उफनती सरिता को बह जाने दो।
सुलझने दो उलझनों की कड़ी,
खोल दो किवाड़ अब,
रात्रि बेला को न रोको
अब तो रवि को आने दो।
किरणें भर- भर कर
रख दी हैं जमाकर,
हथेलियों के पोर जगमगाने दो।
तोड़ दो सोने की सलाखें,
मन के पंछी को उड़ जाने दो।
दे दो नई छत,
नई उम्मीद, नई आशा
और नये सपने,
आँखों पर पड़े पर्दे उठ जाने दो।
घुमड़ रहा जो घन
काली घटाओं में अकुलाता,
आखिर बरस उसे जाने दो।
मन के कपाट को खोलकर
झाँको हृदय के तिमिर में,
एक दिया रख दो
वहाँ भी उजाला हो जाने दो।
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आनंद प्रवीण
मैं जब कभी खुद को देखता हूँ
दो राहे पर खड़ा देखता हूँ।
एक तरफ सावित्री का साथ
बिट्टू का प्यार और मुनिया दुलार देखता हूँ
एक तरफ उनके पहनने- ओढ़ने और
अच्छे से रह पाने की जुगत में
मीलों दूर मज़बूरी सिर पर ढोये
खुद को लाचार देखता हूँ।
मैं इस हालात से डरा सा रहता हूँ।
मैं जब कभी खुद को देखता हूँ
दो राहे पर खड़ा देखता हूँ।
ये कैसा सफर है मेरा
जिसमें एक कदम भी चला ही नहीं।
दर्द और नफ़रत तो हमेशा से साथी रहा
प्यार ज़िन्दगी में कभी मिला ही नहीं।
मैं इस घुटन को दिल ही दिल में दबा लेता हूँ।
मैं जब कभी खुद को देखता हूँ
दो राहे पर खड़ा देखता हूँ।
ये पैसों की दुनिया
बड़ी बेरहम दुनिया है।
मानवता, प्रेम, रिश्ते- नाते
सबसे ऊपर यहाँ पैसा है।
मैं हमेशा खुद को पैसों के लिए अपनों से दूर पाता हूँ।
मैं जब कभी खुद को देखता हूँ
दो राहे पर खड़ा देखता हूँ।
आनंद प्रवीण, पटना।
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तीन गीत
१
दुनिया पूजती नारी को
इसलिए कि नारी माँ है।
माँ होना ही पूजनीय है
फिर पूर्णता और क्या है?
प्रेम हो जिसमें, दर्द हो जिसमें, जिसमें मानवता
माँ का हृदय ही सबसे बड़ा है, माँ ही देवता
पर मैं अभागिन छोड़ चली हूँ
अपनी ही दुहिता।
इंसां क्या हर जीव में देखो
मातृत्व भाव प्रबल है
दुर्बलता इंसानों में है
बाकी जीव सबल है।
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२
संघर्ष पथ पर मैं
चली जा रही हूँ
न जाने किस मुक़ाम कि ओर
बढ़ी जा रही हूँ।
जख़्मी न करदे कोई
ये भर हमेशा मन में है
नोंच ले न कोई
ये डर अंग- अंग में है।
हिंसक की भीड़ में
चली जा रही हूँ
न जाने किस मुक़ाम कि ओर
बढ़ी जा रही हूँ।
लपलपाती जीभ है
सभी दिशाओं में मेरे
न जाने किस दिशा से
कोई डंक मार दे मुझे।
लहूलुहान न कर दे कोई
भय मुझे सता रहा
हर तरफ़ से मौत का साया
जैसे क़रीब आ रहा।
मौत तो फिर भी मुक्ति है
डर है अपंगता का ही
वो जीना भी क्या जीना है
जिसमें पूर्णता नहीं।
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३
लांघ चली मर्यादा को मैं, हो गई बावरी
घर छूटा, आंगन छूटा, छूटी हर गली।
जंगल- जंगल खुद को तलाशा
शायद मिल जाऊँ मैं कहीं।
नारी हूँ, नारीत्व है
पर कुछ मुझसे छूट रहा
ख़्वाब मेरे बचपन का साथी
मुझसे दूर हुआ।
संग हवा के मैं उड़ जाऊँ
कि पा लूँ जल्द उसे
प्यास मेरी बढ़ती ही जाए
वो मिले फिर ये बुझे।
लांघ चली मर्यादा को मैं, हो गई बावरी
घर छूटा, आंगन छूटा, छूटी हर गली।
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आनंद प्रवीण, युवा रंगकर्मी, पटना।
टीप - नारी मुक्ति पर लिखित "तलाश" नाटक के लिए ये तीन गीत लिखे गए थे। पटना के दर्शकों ने तीनों गीतों को बहुत प्यार दिया। "तलाश" नाटक की सफलता का आधार इन्हीं गीतों ने तैयार किया था।
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डॉ सुशील शर्मा
श्री राधा वंदना
(राधा कृपा कटाक्ष स्त्रोत का काव्य रूपांतरण )
मुनि गण वन्दित शोक निकन्दित।
मुख मंदित मुस्कान प्रलंबित।
भानु नंदनी कृष्ण संगनी।
प्रभु मन बसती राजनंदनी।
चरणों में माँ पड़ा हूँ तेरे
भक्ति का अनुगामी हूँ।
कृपा कटाक्ष करो हे माता
मैं मूरख खल कामी हूँ || 1 ||
वृक्ष वल्लरी मध्य विराजीं।
मंदित मुख मुस्कान से साजीं।
सुंदर पग कर कमल तुम्हारे।
सुख ,यश ,धर्म ,दान के धारे।
चरणों में माँ पड़ा हूँ तेरे
भक्ति का अनुगामी हूँ।
कृपा कटाक्ष करो हे माता
मैं मूरख खल कामी हूँ || 2 ||
श्री नंदन को बस में करके
बाँकी भृकुटि में रस भरके
सहज कटाक्ष की बर्षा करतीं।
हे जगजननी दुःख को हरतीं।
चरणों में माँ पड़ा हूँ तेरे
भक्ति का अनुगामी हूँ।
कृपा कटाक्ष करो हे माता
मैं मूरख खल कामी हूँ || 3 ||
चम्पा पुष्प दामनी दमके।
दीप्तमान आभा सी चमके।
शरदपूर्णिमा सी तुम उज्जवल।
शिशु समान तुम नेहल कोमल।
चरणों में माँ पड़ा हूँ तेरे
भक्ति का अनुगामी हूँ।
कृपा कटाक्ष करो हे माता
मैं मूरख खल कामी हूँ ||4||
चिर यौवन आनंद मगन तुम।
प्रियतम की अनुराग अगन तुम।
प्रेम विलास कृष्ण आराधन।
रास प्रिय तुम अति मन भावन।
चरणों में माँ पड़ा हूँ तेरे
भक्ति का अनुगामी हूँ।
कृपा कटाक्ष करो हे माता
मैं मूरख खल कामी हूँ ||5||
शृंगारों के भाव से भूषित।
धीरज रुपी हार विभूषित।
स्वर्ण कलश से अंगों वाली।
मधुर पयोधर धर मतवाली।
चरणों में माँ पड़ा हूँ तेरे
भक्ति का अनुगामी हूँ।
कृपा कटाक्ष करो हे माता
मैं मूरख खल कामी हूँ || 6 ||
कमलनाल बाहें अति सुन्दर।
नीले चंचल नेत्र समंदर।
सबके मन को हरने वाले।
मुग्ध आप पर कान्हा काले।
चरणों में माँ पड़ा हूँ तेरे
भक्ति का अनुगामी हूँ।
कृपा कटाक्ष करो हे माता
मैं मूरख खल कामी हूँ ||7 ||
स्वर्णमाल से कंठ सुशोभित।
मंगलसूत्र कंठ में शोभित।
रत्नों से आभूषित भेष।
दिव्य पुष्प संग सजे हैं केश।
चरणों में माँ पड़ा हूँ तेरे
भक्ति का अनुगामी हूँ।
कृपा कटाक्ष करो हे माता
मैं मूरख खल कामी हूँ ||8 ||
पुष्पमाल शोभित सुंदर कटि।
मणिमय किंकण रत्नजटित नटि।
स्वर्णफूल झंकार प्रलम्ब।
स्वर्ण मेखलाकार नितम्ब।
चरणों में माँ पड़ा हूँ तेरे
भक्ति का अनुगामी हूँ।
कृपा कटाक्ष करो हे माता
मैं मूरख खल कामी हूँ ||9||
नूपुर चरण वेद उच्चारित।
मन्त्र सभी तुम पर आधारित।
स्वर्णलता से अंग लहरते।
नीलकांत तुम संग विचरते।
चरणों में माँ पड़ा हूँ तेरे।
भक्ति का अनुगामी हूँ।
कृपा कटाक्ष करो हे माता।
मैं मूरख खल कामी हूँ ||10 ||
पारवती लक्ष्मी से वन्दित।
शारद इन्द्राणी से पूजित।
चरण कमल नख ध्यान जो धारित।
अष्टसिद्धि है उसको पारित।
चरणों में माँ पड़ा हूँ तेरे।
भक्ति का अनुगामी हूँ।
कृपा कटाक्ष करो हे माता।
मैं मूरख खल कामी हूँ ||11 ||
सब यज्ञों की आप स्वामिनी।
स्वधा ,क्रिया सब देव दामनी।
तीनों वेद आपको गाते।
तीनों देव आपको ध्याते।
चरणों में माँ पड़ा हूँ तेरे।
भक्ति का अनुगामी हूँ।
कृपा कटाक्ष करो हे माता।
मैं मूरख खल कामी हूँ ||12 ||
यह स्तुति माँ आप हितार्थ।
दया दृष्टि से माँ करो कृतार्थ।
नाश करो संचित कर्मों को।
प्रेरित हो मन सत्कर्मों को।
चरणों में माँ पड़ा हूँ तेरे।
भक्ति का अनुगामी हूँ।
कृपा कटाक्ष करो हे माता।
मैं मूरख खल कामी हूँ ||13 ||
शुक्ल पक्ष की अष्टमी ,बन राधा का भक्त।
पाठ करे जो नर सदा ,राधा पग अनुरक्त।
अष्ट सिद्धि उसके मिले ,कृष्ण बने अनुकूल।
राधा कृपा कटाक्ष से ,मिटते जीवन शूल।
माँ राधा के चरण में ,है अनुरक्त सुशील।
अभयदान माता करो ,दिव्य लेखनी शील।
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महेन्द्र देवांगन "माटी"
किशन कन्हैया
(गीत -- सार छंद)
किशन कन्हैया रास रचैया , सबको नाच नचाये ।
बंशी की धुन सुनकर राधा , दौड़ी दौड़ी आये ।।
बैठ डाल पर मोहन भैया, मुरली मधुर सुनाये ।
इधर उधर सब ढूँढे उसको , डाली पर छुप जाये ।।
मधुर मधुर मुरली की तानें , सबके मन को भाये ।
बंशी की धुन सुनकर राधा, दौड़ी दौड़ी आये ।।
छोटा सा है किशन कन्हैया , नखरे बहुत लगाये ।
उछल कूद करता हैं दिनभर , सबको बहुत सताये ।।
हरकत देख यशोदा मैया , बहुते डाँट लगाये ।
बंशी की धुन सुनकर राधा , दौड़ी दौड़ी आये ।।
चुपके चुपके घर पर आते , माखन मिश्री खाये ।
गोप ग्वाल सब पीछे रहते , लीला बहुत रचाये ।।
लीला धारी कृष्ण मुरारी , कोई समझ न पाये ।
बंशी की धुन सुनकर राधा , दौड़ी दौड़ी आये ।।
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पंडरिया (कबीरधाम)
छत्तीसगढ़
mahendradewanganmati@gmail.com
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ब्रजेश त्रिवेदी
मैं ये कैसे बताऊँ ,कि मैं क्या चाहता हूँ
नहीं है कोई आला ओ अलग मेरी ख़ाहिश
मगर जो भी है , वो हर तरफ़ चाहता हूँ
जो आँख रोती है,उसको , हँसाना चाहता हूँ
जो राह देखते देखते , मां खामोश हो गई है
उसको उसके लफते जिगर से मिलाना चाहता हूँ
नहीं है ,मुझको कोई और हसरत
बस वतन के वास्ते ही रहना चाहता हूँ
न कलियाँ , न गुलशन , न चमन चाहता हूँ
बस अपने वतन की ,मिट्टी की खुशबू चाहता हूँ
यूँ तो आसमां में भी घर बना लूँ
मगर मैं अपने दोस्तों के दरम्यां ही रहना चाहता हूँ
बहुत कुछ है इस जहाँ में
कहीं रोशनी है, तो कहीं खूबसूरत नज़ारे
कहीं दौलत के ख़ज़ाने ,तो कहीं शोख अदाओं के किनारे
मगर ये सब कहाँ और कब मैं चाहता हूँ
मैं तो अपने घर के कच्चे आँगन की जमीं चाहता हूँ
जहाँ चूल्हे पर बनी मां के हाथो की रोटियाँ चाहता हूँ
रहूँ मैं कहीं भी ,किसी हाल में भी , बस
अपने मादरे वतन कि हवा और जमीं चाहता हूँ
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लिखा उसने जो भी , बस सब कुछ तुम्हीं को लिखा है
गुलाब , क़िताब , एतबार , इकरार सब तुम्हीं को लिखा है
अश्क भी लिखा है , मुस्कान भी लिखा , ख़त को पढ़ना सलीके से
उसने जो भी लिखा है , बस खुद को नहीं , तुम्हीं को लिखा है
वो सजदा भी करती तो किसको करती , वो भी तुम्हीं को लिखा है
अज़ान में झुकते , मुस्कुराते , वो क्या कहती ,सो तुम्हीं को लिखा है
अदा उसकी इतनी क़ातिल कभी भी नहीं थी
क़सूर उसका क्या है ? उसने तो बस अक्स तुम्हीं को लिखा है
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शिव कुमार
वर्षा ऋतु
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तन में फुवार जब पड़ने लगे,
मन में सिहरन सी उठने लगे,
हरियाली की जब हो दृष्टि,
तेरे आगमन की हो पुष्टि।
वृक्षों पर झुले पड़ने लगे,
पेंग बढा़ नभ छूने लगे,
आकाश मे मेघ की हो प्रविष्टि,
तेरे आगमन की हो पुष्टि।
मेंहदी हाथों मे लगने लगे,
सावन की गीतें गुंजने लगे,
साजन के आने की हो दृष्टि,
तेरे आगमन की हो पुष्टि।
खेत और खलियान हरित हुए,
मेघों के स्वर जब स्वरित हुए,
जब इन्द्र घनुष की हो श्रृष्टि,
तेरे आगमन की हो पुष्टि।
बाढो़ं से जब सब ग्रसित हुए,
चहुं ओर पलायन करने लगे,
ओलों की जब हो वृष्टि,
तेरे आगमन की हो पुष्टि।
ये खून खराबा छोड दे तू,
मानवता से नाता जोड दे तू,
ऋतुओं में श्रेष्ठ कहलायेगी,
मेरे वादे की हो पुष्टि।
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मुकेश कुमार ऋषि वर्मा
मेरी कविता
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राजनेताओं की चाटुकारिता नहीं
मेरी कविता
प्रेमिका का चाँद-तारों वाला श्रृंगार नहीं
मेरी कविता
धर्म-जाति, मजहब का भेद नहीं
मेरी कविता
स्वार्थ की चार दीवारी वाली कैद नहीं
मेरी कविता
हास्य के नाम पर फूहड़ता नहीं
मेरी कविता
मंचीय लिफाफों की मोहताज नहीं
मेरी कविता
कोई सुर, ताल, लय गीत नहीं
मेरी कविता
दिख जाते जहाँ कहीं बेबस बहते आँसू
वहीं बन जाती मेरी कविता
बेरोजगारी, भ्रष्टाचार से जन-जन लाचार
सड़ा-गला सिस्टम बेकार
नित-नित होते बलात्कार
शासन के अत्याचार
मानवता की होती हार
मंहगाई की पड़ती मार
मेरी कविता है तलवार |
- मुकेश कुमार ऋषि वर्मा
ग्राम रिहावली, डाक तारौली,
फतेहाबाद, आगरा, 283111
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मधुकर बिलगे(बिलगेसाहब)
क्या जवाब दूँगा अपनी आँखों को मैं
क्यों उन्हें रुला कर चली गई तुम
क्या जवाब दूँगा अपने दिल को मैं
क्यों उसे तोडकर चली गई तुम
क्या जवाब दूँगा अपनी ख़्वाहिशों को मैं
क्यों उनका क़त्ल करके चली गई तुम
क्या जवाब दूँगा अपने अरमानों को मैं
क्यों उन्हें ख़फ़ा करके चली गई तुम
क्या जवाब दूँगा अपनी साँसों को मैं
क्यों उन्हें कुचल के चली गई तुम
क्या जवाब दूँगा अपने आप को मैं
क्यों मुझे छोड़कर चली गई तुम
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शानदार प्रस्तुति
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