माह की कविताएँ - स्वतंत्रता दिवस व रक्षाबंधन की कविताएँ

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डॉ0 मृदुला शुक्ला "मृदु" "हमरे देसवा कइ मटिया गुलाल ह्वै गई" ------------------------------------------------ हमरे दे...

डॉ0 मृदुला शुक्ला "मृदु"

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"हमरे देसवा कइ मटिया गुलाल ह्वै गई"
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हमरे देसवा कइ मटिया गुलाल ह्वै गई।
गुलाल ह्वै गई लाल-लाल ह्वै गई।।

नभ कह चूमि-चूमि कइ हिमगिरि, सुजसु बखान करइ नित,
चरन पखारि रहा रत्नाकर, द्याखइ हुलसइ मृदु नित,
सूरज,चाँद आरती सजावइं, दियना बारइं मिलि नित,
संझा एहिकी रँगीली गुंजामाल ह्वै गई।
हमरे देसवा कइ-----------।।

कृष्णा, कावेरी, सुरसरिता, प्रेम कइ धारा बहावइं,
छह ऋतु आइ-आइ कइ एहिका, जगमग रूप सजावइं,
दिव्य मनोहर सुंदरता मृदु मंजुल रूप देखावइं,
काशी, हरिद्वार कइ कीरति आरति-थाल ह्वै गई।
हमरे देसवा कइ--------।।

छप्पर-छानी महं मिलि बइठे, आल्हा-ग़ज़ल सुनावइं,
खेतन अउ गलियारेन मइहाँ, प्रेम-रागिनी गावइं,
गइया-                        भँइसिन कइ हुंकारइं, शास्त्र-पुरान उचारइं,
नान्हें लरिकन कइ किलकारी तउ, त्रिताल ह्वै गई।
हमरे देसवा कइ---------।।

वीर प्रताप, भगत सिंह धरती परिहाँ प्रान लुटावइं,
झाँसी कइ रानी बनि चण्डी, झूमि कटार नचावइं,
हिन्दू, मुस्लिम,सिख,ईसाई, एहिकी शान बढ़ावइं,
गौतम, नानक कइ गुनगाथा, तउ मिसाल ह्वै गई।
हमरे देसवा कइ-----------।।

गाँधी, लाल, जवाहर, नेहरू, भारत-रतन कहावइं,
दुर्गावती अउ जीजाबाई, माटी पै बलि-बलि जावइं,
पर उपकारी शिबि, दधीचि हुइ, जग महं नाम कमावइं,
त्याग, तपस्या तै धरती तउ यह, निहाल ह्वै गई।
हमरे देसवा कइ-----------।।

राम, कृष्ण कइ धरती परिहाँ, करमकाण्ड होवइं नित,
राजा हरिश्चन्द्र, बलि जइसन, दानी जह होवइं नित,
तुलसी, पीपर, बरगद कइ जह, पूजन होवइ नित-नित,
नागनथइया, रासरचइया,कइ धमाल ह्वै गई।
हमरे देसवा कइ-----------।।

जम्मू-काशमीर कइ धरती, प्रानन तै हइ पियारी,
हिमगिरि प्रहरी जस ठाढ़ा हइ, प्यारी कन्याकुमारी,
तुलसी, मीरा अउ सूर कबीरा, देसवा पै बलिहारी,
"मृदु" बानी जग महं दिया अउ मसाल ह्वै गई।
हमरे देसवा कइ-----------।।

    कवयित्री
डॉ0 मृदुला शुक्ला "मृदु"

लखीमपुर-खीरी (उ0प्र)

कॉपीराइट-कवयित्री डॉ0 मृदुला शुक्ला "मृदु"

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नवनीता कुमारी

चलो ! फिर से देशभक्ति की चिंगारी सुलगाते हैं |
देश के गद्दारों को फिर से  सबक सिखाते हैं,
फिर से आज आजादी का कुछ  ऐसा  जश्न मनाते हैं |
देश में देश के गद्दार फिर से पनपने ना पाए, चलो!

आज फिर से  ये कसम खाते है |
दो बूँद 'कलम की स्याही ' से कुछ ऐसा आग लगाते हैं |
सोई हुई सबकी जमीर को आज फिर से जगाते हैं|
'शहीदों की शहादत ' को फिर से याद दिलाते हैं,
   आजादी का कुछ ऐसा नगमा सुनाते हैं |
चलो! देशभक्ति की चिंगारी फिर से सुलगाते हैं ||
भारत -माता को फिर से बसंती चोला से सजाते हैं |
चलो!  आज कुछ इस तरह आजादी का तिरंगा लहराते हैं |
हम अपनी आजादी इस तरह मनाते हैं ||
 
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नसर इलाहाबादी 

 
ऐ !मां सबसे पहले तुमको ही हम सलाम करते हैं ।
खुदा के बाद तेरा मर्तबा है  इस जहान  में ।
चमन का फूल हूँ  ,तेरे बिना में कुछ  भी  नहीं   हूँ ।
तेरी रक्षा करना  मेरा है धर्म ,और कर्म  भी मेरा ।
तुम्ही से हम हैं , इसका मोल जो मांगे तो दे देंगे ।
ना आये आंच तुम पर  कभी  ,चाहे जो भी हो जाये ।
तुम्हारी आन और शान पर हों लाखों जान न्योछावर ।
तिरंगा तेरे परचम का लहराता रहे हरदम ।
शहीदों ने   अपनी जान दे कर आजादी दिलाई है ।

रखेंगेआजादी कायम  ,अपनी जान दे कर भी ।
शहीदों के बलिदानों  को भुलाना है नहीं  मुमकिन ।
कुर्बानी शहीदों की  ,जाया हो नहीं सकती ।
रहेंगे चौकन्ना हरदम  दुश्मन  के  वारों से ।
शपथ लेते हैं हिन्दोस्ताँ की रक्षा मिलकर करेंगे हम ।
   इस वास्ते सैनिक की तरह तैयार हैं हरदम ।

           नसर इलाहाबादी  ।
    .  
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शिवांकित तिवारी

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शांति का प्रतीक धर्मप्रिय सत्यशील ऐसा देश है हमारा हिन्दुस्तान,
सभी मिलजुल के रहे,दिल की बात खुल के कहें, मन में तनिक भी नहीं अभिमान,

जात और पात की ना करे कोई बात कद्र करते हम सबके जज्बात की,
दुख और सुख में भी खड़े रहते साथ ना करते हम चिंता  दिन और रात की,

वीरों के बलिदान का,इस धरा महान का,करते हम सभी मिल सम्मान है,
भारत मां के लाल,हाथ में लिये मशाल,दुश्मनों की हर चाल को करते नाकाम है,

देश का किसान,जो देश की है शान,उगा अन्न देश को देता जीवनदान है,
सिंह सम दहाड़ भर, घाटियां पहाड़ चढ़,खड़ा सीना तान के जवान है,

मंदिरों में गीता ज्ञान,मस्जिदों में है कुरान,दोनों धर्मों का अलग-अलग स्थान है,
हिंदु मुस्लिमों में प्यार,सदा रहता बरकरार,सबका ईश्वर    सर्वत्र ही समान है,


मां-बाप की तालीम,थोड़ी कड़वी जैसे नीम,पर सीख उनकी आती सबको सदा काम है,
उनका सर पे जिसके हाथ,सारी खुशियां उसके पास,जग में होता उसका एकदिन बड़ा नाम है,

है मेरी ख्वाहिश आखिरी,जब भी अंतिम सांस लू,हिन्द की धरा पे ही मेरा अंत हो,
हिन्दुस्तान है महान,मेरी जान मेरी शान,इसका रुतबा कायम सर्वदा अनंत हो,
---

नदी अब बहुत  गुमान  में  है,
कि वो आजकल उफ़ान में है,

ग़रीब तो आज भी फुटपाथ पर सोते है,
अमीरजादें तो अंदर अपने  मकान में है,

जमीं  से  तो  उनका रिश्ता ही टूट गया है,
अब तो उनका सारा ध्यान आसमान में है,

रंग बदलने की फितरत अब गिरगिट ने छोड़ दी,
कहा  ये  हुनर  तो  अब  आजकल  इंसान  में है,

सभी मजहब और धर्मों वाले मिलकर जहां रहते है,
ऐसा भाईचारा तो सिर्फ और सिर्फ हिन्दुस्तान में है,

--
वक़्त  की  ठोकर  का  शिकार  हुए  हैं,
तबीयत ठीक है जिनकी अब वो बीमार हुए  हैं,

चट्टानों  से  मजबूत  हौसले थे जिनके,
वक़्त की मार से अब वो बेकार हुए  हैं,

हमारे  बीच  अब  तो  दोस्ती  जैसा  कुछ  नहीं  बचा,
कुछ एहसान फरामोश और खुदगर्ज हमारे यार हुए  हैं,

इंसान यहां दोहरे किरदार निभा रहा,
अब चोर यहां आज साहूकार हुए  हैं,

बाप को बात - बात पर अब आँख दिखा रहा है बेटा,
आधुनिकता  की  चकाचौंध  में गायब संस्कार हुए  हैं,



-©® शिवांकित तिवारी
     ( युवा कवि एवं लेखक)
      सतना, मध्यप्रदेश
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कहफ रहमानी

'हृ' - स्पर्शराग-रंजित भूषित - भव
नीत-सकल सम्यक न
समतामूलक - प्रमाण 'स्पर्श'
हस्तगत प्रेक्षा का ऊष्मीयमान।


शैथिल्य _आश्लथ, प्रगाढ़ चुम्बन
अहा!       अरी,        अहो ;
उच्छृंखल, उच्छवसित _स्वरैक्य - स्वन।


अयी, मेदिनी
प्रीतिपात  का मूल्य फिर?

"संदर्भ-वैशिष्ट"   तुम
किन्तु शीर्षक भिन्न-भिन्न,

संकेन्द्रित सुसूक्त यह 
" कर अर्पित यौवनोपहार
क्षम्य नहीं  कौमार्य"।

अट्टहास मादन वक्ष पर के
मधुमत्त कटि, विहंसित - कुसुमित नितम्ब
औ'  कच-कुन्तल
स्यात_  पृष्ठ अनेक एक ही पुस्तक के
विशिष्ट वस्ति-प्रदेश एक।


तृषा स्तर-स्तर
तीव्र-तीव्र - मदिर - मधुरिम
आवृत्त निरन्तर।

मैं अल्कावलि!
उदग्र  विकारों की  महौषधि
रक्तचाप केवल
बाह्य - आंतरिक  द्विपात - निपात।

समाविष्ट रक्त - वीचियों में
समस्त  केलि,
मैं केलिकला!
आकृतियों पर उल्लिखित 'रोष '
उद्वेग - उद्द्वेप।

भिन्न_ समस्टिकुल से
प्रगाढ़ आलिंगन, द्रवण, संघनन
निरन्तर अवतरित हृ-पृष्ठों पर।

परिपक्व विचार श्रेष्ठतम
  आदर्शों पर
पृष्ठ_दीर्घ     न लघुव्याल।

"क्लांत वह्नियों  का न कोई  अर्थ
व्यर्थ है यह  मूर्च्छा, अवसन्नता "।


                (  कहफ रहमानी)
       rahmanikahaf@gmail.com
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बलबीर राणा 'अड़िग'

ब्रह्मपुत्र का तीर

1.
वैशाख में सजता
ब्रह्मपुत्र का यह तीर
मेखला चादर में कसी बिहू नर्तकियां
थिरकती हैं ढोल की थाप पर
रंगमत हो जाती मौसमी गीत पर
प्रियतम का प्रणय निवेदन
नर्तकी का शरमाना बलखाना
ना-नुकर कर छिटक जाना
प्रियतम का कपौ फूल से
जूड़े को सजाना
बिहू बाला का मोहित होना
बह्मपुत्र की जलधारा का
लज्जित हो जाना
अमलतास के फूलों का
स्वागत में झड़ना
ढोल की थाप का सहम जाना
दोनों ओर की पहाड़ियों का
आलिंगन के लिए मचलना।

2.
सुहानी संध्या
दूर तक फैला ब्रह्मपुत्र का फैलाव
मांझी भूपेन दा के गीतों को
गुनगुनाते हुए पतवार चलता
देश से आये यायावरों को
सारंग ब्रह्मपुत्र का दिग दर्शन कराता
शहर की बिजलियों की झालर
जलधारा में टिमटिमाते दिखती
नाव आहिस्ता किनारे ओर सरकती।

3.
कहर बन जाता है सावन
डूब जाता बह्मपुत्र का रंगमत तीर
सहम जाता है जीवन
लील जाता है बांस की झोपड़ियों को
जिनमें सजती हैं बिहू बालाएं
मांझी की पतवार किनारे में भयभीत
ब्रह्मपुत्र के इस बिकराल का
जीवन ध्वस्त करना
जीवन का फिर संभल कर संवरना
तीरों को गुलजार होना
सदियों से सतत जारी।

@ बलबीर राणा 'अड़िग'

प्रकृति निधि

यही प्रकृति निधि यही बही खाते हैं
मोह, प्रेम राग/अनुराग भरे नाते हैं
चेहरे ये आते जाते राहगीरों के नहीं
ये आनन हर उर में घर कर जाते हैं।

पतंग का दीपक प्रेम, पंछी का कीट
मछली का जल, बृद्ध का अतीत
उषा उमंग का निशा गमन करना
दिवा ज्योति का तिमिर हो जाना
फेरे हैं ये फिर फिर कर फिर आते हैं
यही प्रकृति निधि ..............

सुकुमार मधुमास का निदाघ तपना
निदाघ का मेघ बन पावस में बहना
तर पावसी धरती शरद में पल्लवित
तरुणाई शीतल हेमंत में प्रफुल्लित
फिर शिशिर में बुढ़े पत्ते झड़ जाते हैं
यही प्रकृति निधि........

जैसे आसमान में निर्भीक बादल टहलते
जैसे निर्वाध विहारलीन खग मृग विचरते
बेरोकटोक आती पुरवाई बलखाती मदमाती
नन्हे अंकुर को आने में धरती हाथ बढ़ाती
सृष्टिकर्ता की ये कृतियाँ जीवन गीत गाते हैं
यही प्रकृति निधि यही बही खाते हैं।

निदाघ - ग्रीष्म,  पावस- वर्षा

सरहद से अनहद

कर्म साधना बैठै यति को
सिद्धि का उत्साह नहीं
स्वीकारा है समिधा बनना
फिर होम की परवाह नहीं
गतिमान वह समर भूमि में
न दिवा ज्ञान न निशा भान
उसके निष्काम जतन का
व्योम सिवाय गवाह नहीं ।

गिरी श्रृंगों का ठौर उसका
यायावर अज्ञातवासी है
गृहस्थी खेवनहार होकर
समाधि बैठ संन्यासी है
शमशीर थामें घात पर बैठा
राष्ट्र शांति का अजब दूत है
द्रुत प्रभंजन में पंख फैला
उड़ने का अभ्यासी हैं।

राहों में अवरोध नहीं कुछ
प्रस्तर मर्दन वह जवानी है
तारुण्य से लिखना स्वीकारा
अजेय भारत की कहानी है
उतरदायित्व जीवन अर्थ मान
गीत जनगण मन के गाता है
कारुण्य नहीं हृदय में संचित
दृग नहीं करुणा का पानी है।

जान हथेली ले चले जो
उन्हें मृत्यु का भय कैसे हो
प्राणों के इति तक प्रण प्रवीण
फिर प्रवण का संशय कैसे हो
समग्र समर्पण समर्थवान
सम्पूर्ण लक्ष्य साधने तक
सरहद से अनहद जो गूंजे
फिर मातृभूमि अपक्षय कैसे हो।

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डॉ कौशल किशोर श्रीवास्तव

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रक्षा बंधन पर विशेष कविता
           बन्धन
बन्धन तो मन के होते हैं
पूरे जीवन के होते हैं
जैसे शचि का मध्वन से था
या रघुवीर का लखन से था
कृष्णा का श्याम किशन से था
मन के सब बन्धन होते हैं
बन्धन तो मन के होते हैं
सूत्रों का बन्धन क्या होगा
मंगल का बन्धन क्या होगा
रक्षा का बन्धन क्या होगा
ये तो सब तन के होते हैं
बन्धन तो मन के होते हैं
भाई को बहन सूत्र बांधे
भाई तरुवर को बांधे
मानव हर जीवन को बांधे
ये रक्षा बन्धन होते हैं
बन्धन तो मन के होते हैं
हम तरुओं को जीवन देंगे
वे हमको ऑक्सीजन देंगे
आशीष हमें हर क्षण देंगे
बन्धन हर क्षण के होते हैं
बन्धन तो मन के होते हैं
हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई
आपस मे हो सच्चे भाई
बगुले झांके सब दंगाई
रिश्ते कंचन से होते हैं
बन्धन तो मन के होते हैं
(स्वरचित मौलिक प्रकाशित)
डॉ कौशल किशोर श्रीवास्तव
171 विशु नगर , परासिया मार्ग
छिंदवाड़ा 480001

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सुशील शर्मा


सभी को जोहार
(आदिवासी दिवस पर )

मैं तो आज भी खड़ा हूँ
पथरीले बियावान में
मेरे कंधे पर टंगा है।
मेरी पत्नी का शव
जो मर चुकी थी
तुम्हारे आलीशान अस्पताल के
सीलन भरे कोने में।
बाजू में बिलखती मेरी बेटी
और मैं निःस्तब्ध !
फिर तुमने सारी संवेदनाओं को
कुचल कर कहा जाओ यहाँ से
बिलखती बेटी का हाँथ पकड़े
उसकी मरी माँ को
काँधे पर डाल चल दिया।
बगैर किसी से कोई शिकायत किये।
विकास की अंधी दौड़ में
सिमटती हमारी आदिवासी संस्कृति
कई सौ साल में विकास के नाम पर चौड़ी सड़कें,
राष्ट्रीय उच्च मार्ग, रेलवे लाईन, खनन व्यवसाय
और हमारे हिस्से में आया है सिर्फ विस्थापन
अपनी पुस्तैनी संस्कृति के उजाड़ की पीड़ा।
मुख्यधारा की शिक्षा व्यवस्था
छीन रही है हमसे हमारा अधिकार
कर रही है हमें शहर में
दुकानों पर कप प्लेट धोने के लिए मजबूर।
आदिकाल से अस्तित्व के संकट से झूझते हम
आज भी हम अपने वास्तविक इतिहास को खोज रहें हैं।
राम रावण युद्ध में दोनों तरफ से सिर्फ मैं ही मरा।
अर्जुन को बचने के लिए
घटोत्कच्छ के रूप में।
मेरी ही बलि दी गई।
एकलव्य के रूप में सिर्फ
मेरा ही अंगूठा काटा गया।
आदिवासी अस्मिता की लड़ाई
मैं आज भी लड़ रहा हूँ।
सभी जुल्म सह कर मूक रह कर।
सभी को जोहार करके।

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अनिल कुमार

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'स्वप्न'
नींद मीठा रस जीवन का
पर मृत्यु की पहचान है
भोलेपन से ढका हुआ
कुछ पल का विश्राम है
आनन्द है उसमें सपनों का
पर अवचेतन वह तमाम है
कुछ अपूर्ण इच्छाओं का
नीद में वह परिणाम है
आता-जाता पल दो पल
कल्पित पर कुछ क्षण तो
देता जीवन को आराम है
मिथक है मन, बुद्धि का
पर स्वप्न नींद में भी देता
अमृत-रस स्वर्ग समान है

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~तालिब हुसैन'रहबर'

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बहुत देर तक
उसने तेरे जाने के बाद
उस खाली कमरे को देखा था
कहने को तो वहाँ कोई नहीं
नहीं नहीं था कोई
वो या उसमें तुम
हाँ तुम
अक्सर आईने के सामने
ख़ुदको देखा करता है
ख़ुदको देखने के लिए नहीं
बस यह देखने के लिए
तुम उसे देख कर क्या कहोगी
आज भी वह उस कमरे में देख रहा है
उस खाली पड़ी कुर्सी को
जहाँ एक नायाब मोती
जलवा बिखेरे हुए था
उस ब्लैकबोर्ड को
जो तुम्हें बेतकल्लुफी से देख रहा था
वह वहीं खड़ा था
शिकायतें करता हुआ
कुर्सियों से , मेज़ से
और हां उस पेंसिल से
जिसे तुम बेवजह वहीं भूल आयी थी
सब कुछ तो था वहाँ
खामोशी, यादें ,तनहाई
खामोशी में एक पूरी भीड़ का साया
तुम, वो और उसमें तुम....

~तालिब हुसैन'रहबर'
शिक्षा संकाय
जामिया मिल्लिया इस्लामिया
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महेन्द्र देवांगन "माटी "


चिड़िया की पुकार
(ताटंक छंद)

देख रही है बैठी चिड़िया,  कैसे अब रह पायेंगे ।
काट रहे सब पेड़ों को तो , कैसे भोजन खायेंगे ।।

नहीं रही हरियाली अब तो , केवल ठूँठ सहारा है ।
भूख प्यास में तड़प रहे हम , कोई नहीं हमारा है ।।

काट दिये सब पेड़ों को तो , कैसे नीड़ बनायेंगे ।
उजड़ गया है घर भी अपना , बच्चे कहाँ सुलायेंगे ।।

चीं चीं चीं चीं बच्चे रोते  , कैसे उसे मनायेंगे ।
गरमी हो या ठंडी साथी , कैसे उसे बचायेंगे ।।

छेड़ रहे प्रकृति को मानव , बाद बहुत पछतायेंगे ।
तड़प तड़प कर भूखे प्यासे , माटी में मिल जायेंगे ।।

रचनाकार
महेन्द्र देवांगन "माटी " (शिक्षक)
पंडरिया (कवर्धा)
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सचिन राणा हीरो


                    "" काश्मीर ""

था अंधेरा घना भयंकर , मगर अब सूरज उगने लगा है,,
मेरा अपना सा कश्मीर आज सचमुच अपना लगने लगा है,,,
कश्मीर मेरे देश का मस्तक, तब मुझे एक आंख नहीं भाता था,,,
जब लाल चौक पर मेरे देश का तिरंगा नहीं फहराया जाता था,,,
एक देश है, एक तिरंगा, एक कानून, एक बना संविधान है,,,
पथरबाजों  के सपनों पर, मोदी का अंतिम ये प्रहार हैं,,,
जो प्रण लिया मोदी ने, वह काम प्रचंड कर डाला है,,,
कश्मीर से कन्याकुमारी मेरा भारत अखंड कर डाला है,,,
आज खुशी के मौके पर राणा केवल इतना कह जाता है,,,
हर कश्मीरी अपना है इन से अपना गहरा नाता है,,,
इनकी बेटी  इनकी पगड़ी हमारे भी सिर का मान है,,,
हर धर्म, जाति से बढ़कर मेरा भारत देश महान है,,,
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"" उन्नाव मांगे न्याय""

राजा तेरे राज में यह कैसी हाहाकार है,
प्रजा को न्याय नहीं तेरी यह कैसी सरकार है,
बेटियों की इज्जतें क्यों रुसवा हो रही,
अस्मतें हैं लूट रही क्यों बेटियां है रो रही,
आंसू पोंछने वालों से ही क्यों मिली दुत्कार है,
राजा तेरे राज में यह कैसी हाहाकार है,
प्रजा को न्याय नहीं तेरी यह कैसी सरकार है,
न्याय मांगे जो यहां क्यों मिल रही उसे गोलियां,
ताने सुनती चीखती लुटा बैठी जो अपनी झोलियां,
होना था रोशन जिसे क्यों मिला उसे अंधकार है,
राजा तेरे राज में यह कैसी हाहाकार है,
प्रजा को न्याय नहीं तेरी यह कैसी सरकार है,
परिवार का बलिदान भी अब तो उसने दे दिया,
खुद भी शायद ना बचे स्वयं को ही है अर्पण किया,
आखिरी क्षण तक यही अब उस अबला की पुकार है,
राजा तेरे राज में यह कैसी हाहाकार है,
प्रजा को न्याय नहीं तेरी यह कैसी सरकार है,
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तब केवल हम होंगे

जीवन की झोली में जब केवल गम होंगे,
जब कोई नहीं होगा तब केवल हम होंगे
जब दौलत अच्छी ना लगेगी शोहरत से जी घबराएगा,
एक दूजे को देखे बिना तब चैन नहीं आ पाएगा
भीड़ भरे आंगन में भी जब तन्हा केवल हम होंगे
जब कोई नहीं होगा तब केवल हम होंगे
जब आंखों में धुंधलाहट होगी कान नहीं सुन पाएंगे
  तब एक दूजे के हाथों में हाथ हम ही दे जायेंगे
उस पावन क्षण में हम दोनों एक दूजे के रब होंगे
जब कोई नहीं होगा तब केवल हम होंगे
जब सारी बातों में केवल हम अपनी ही बात करेंगे
जब बीते सारे लम्हों को हम दोनों याद करेंगे
दम भरते भरते जीवन का जब हम बेदम होंगे
जब कोई नहीं होगा तब केवल हम होंगे
  बुढ़ापा जीवन की सच्चाई समय का यह प्रहार है
पूरे जीवन की कमाई केवल हम दोनों का प्यार है
  तब माथे के चुंबन से दूर हर शिकन होंगे
जब कोई नहीं होगा तब केवल हम होंगे
जीवन की झोली में जब केवल गम होंगे
जब कोई नहीं होगा तब केवल हम होंगे

सचिन राणा हीरो
कवि व गीतकार
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टिशा मेहता


" दर्द - एक अहसास "

कुछ अपने दर्द की भी कहानी लिखा करो ,
यूं ना ज़िन्दगी को त्याग का श्रृंगार बनाया करो ।
तस्वीर न बदलती फ्रेम बदलने से ,
खुद को उम्मीदों पर खड़ा होकर  तो देखो ।
दो पल की ये ज़िन्दगानी ,
हँसते हँसते जी कर तो देखो ।
यूं तो आँखें आशब्दिक तौर पर सबकुछ बयां कर देती,
खुद को खुद की प्रेरणा बनाकर तो देखो ।
दो घूँट ज़हर के अमृत लगे ,
अपना नज़रिया बदल कर के तो देखो ।
एक बार जरा पीछे मुड़कर तो देखो ।
ज़िन्दगी की रेस में खुद को फेस करो खुद से ,
खुद से ज़रा दो कदम आगे बढ़ा कर तो देखो ,
अगर ज़िन्दगी ने घसीट दिया बीस कदम दूर तुम्हें ।
दूसरों को अपनी प्राणधारण की मुस्कुराहट बनाने की जगह ,
खुद को अपने चेहरे की हँसी बनते तो देखो ।
दो पल जरा रूक कर माँ को पानी का एक  गिलास पिलाकर तो देखो ,
क्या फर्क पड़ेगा दो मिनिट जरा देर हो गई काम पे जाने में तो ।
जिन्दगी से शिकायतें मिटा कर तो देखो ,
बन जाएगी ज़िन्दगी एक सपना ।


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अशोक बाबू माहौर

ashok (2) (1)
घर की चौखट

चौखट घुनी हुई
निर्बल सी
टिकी दीवार से
सुस्त
आह! भरती
जैसे पोंछती पसीना
माथे का
खुद पर गुस्सा उगलती
पटकती सिर शायद पीछे
क्योंकि बेसहारा हो चुकी है?
अपनों से
आज झेल रही है
पीड़ा अनगिनत
मूक बने
कदम दर कदम
सुबह शाम।

      परिचय

अशोक बाबू माहौर

साहित्य लेखन :हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं में संलग्न।

प्रकाशित साहित्य :हिंदी साहित्य की विभिन्न पत्र पत्रिकाएं जैसे स्वर्गविभा, अनहदक्रति, साहित्यकुंज, हिंदीकुंज, साहित्यशिल्पी, पुरवाई, रचनाकार, पूर्वाभास, वेबदुनिया, अद्भुत इंडिया, वर्तमान अंकुर, जखीरा, काव्य रंगोली, साहित्य सुधा, करंट क्राइम, साहित्य धर्म आदि में रचनाएं प्रकाशित।

सम्मान :
इ- पत्रिका अनहदक्रति की ओर से विशेष मान्यता सम्मान 2014-15
नवांकुर वार्षिकोत्सव साहित्य सम्मान
नवांकुर साहित्य सम्मान
काव्य रंगोली साहित्य भूषण सम्मान
मातृत्व ममता सम्मान आदि

प्रकाशित पुस्तक :साझा पुस्तक
(1)नये पल्लव 3
(2)काव्यांकुर 6
(3)अनकहे एहसास
(4)नये पल्लव 6

अभिरुचि :साहित्य लेखन।

संपर्क :ग्राम कदमन का पुरा, तहसील अम्बाह, जिला मुरैना (मप्र) 476111
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डॉ0 जय प्रकाश  यादव


*घरेलू औरतें**
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घरेलू औरतों के काम का,
कोई  हिसाब नहीं होता।
मुफ्त की रोटियां नहीं तोड़ती,
वो दिन-रात चलती है ।
कोई अवकाश नहीं होता।
अपने सपनों को दिल में ,
कैद कर ,पूरे परिवार के,
सपनों को अपना लेती है।
घरेलू औरतें बेमिसाल होती है।
नित्यप्रति एक सा काम से ऊब नहीं जाती।
नन्हें मुन्नों के साथ,
  मन बहलाती है घरेलू औरतें।
भोर में जागती,बच्चों को तैयार करतीं ,
  टिफिन बनाती और
भेजती है स्कूल ।
सबको जगाती ,नाश्ता तैयार करती,
फिर जाते सब अपने अपने गंतव्य।
  आराम कहाँ करती है ?
  दोपहर में साफ करती,
पूरे घर को और घर के,
  लोगों के कपड़े आदि।
शाम  को सभी को तैयार करती नाश्ता और रात को खाना।
देर रात तक घिसती रहती। बर्तनों को या अपनी किस्मत को,चमकाती रहती।
तब  आती है पिया के बांहों में।
कभी खुद पिघल जाती।
कभी बरबस ही पिघलाई जाती।
जैसे बर्फ को तोड़कर गलाया जाता।
सुबह -शाम भागती रहती।
जैसे पिंजड़े में बंद पक्षी छटपटाता है।
कर लेता खुद को लहूलुहान,
और कराहता रहता।
  फिर सुबह उसी धुन में रम जाती है घरेलू औरतें।
*********************************†***©स्वरचित
     डॉ0 जय प्रकाश  यादव
     दिनाँक -28/07/2019

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मुकेश कुमार ऋषि वर्मा


दूषित राजनीति
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राजनीति के गलियारों में
सांपों ने डाला डेरा
विष-विष हो गया भारत प्यारा
झूठ, दिखावा, कोरी हेकड़ी भर-भर
फुला रहे हैं सीना
बहुत मुश्किल हुआ संविधान का जीना
भारत माँ का आँचल तक गिरवी रख आये
और विकास का गाते हैं गाना
भारत के नेताओं को शैतान ने गुरु माना
चोरी, लूट, हत्या, बलात्कार स्वयं करते
कानून को कठपुतली सा नचाते
हाथी वाले दांत सबसे छुपाते
भारत भू का करके सौदा
राष्ट्रधर्म की लगाते टोपी
संसद में बैठे मान्यता प्राप्त पापी
गिरगिट सा पल-पल रंग बदलते हैं
स्विंस बैंक काली कमाई से भरते हैं
ये तनिक नहीं काल से डरते हैं
जाति धर्म की लगा के आग
स्वार्थ की रोटियां सेंकते हैं
चोर-चोर मौसेरे भाई बनकर रहते हैं
सुभाष, भगत, बिस्मिल के कफनों की लगा के बोली
आजादी का पाठ पढ़ाते हैं
भारत के नेता झूठ, मक्कारी, बेईमानी का खाते हैं
आज दूषित हुई राजनीति
इसे स्वच्छ बनाना है
जनता को जागरुक होना है |

- मुकेश कुमार ऋषि वर्मा
ग्राम रिहावली, डाक तारौली गूजर
फतेहाबाद, आगरा, 283111

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चंचलिका


चंद हाइकु.....  

कुछ दूरियाँ
अच्छी लगती हैं
कुछ खलतीं.....

सीमा में बंदी
कुछ पल की होती
तो अच्छी है......

पूछ लो ज़रा
दिल की रज़ामंदी
क्या कहती ......

हक़ में रखो
सवाल जो उठते
दिल से दिल ....

गैर नहीं है
फिर भी अपनों से
बैर क्यों है.....

यही दुनिया
इसी को अपनाये
बाकी पराये.......

--

       " हमसफ़र "

तुझे देखा तो नहीं

तेरे एहसास को सिर्फ़

रूह से महसूस किया है

इसे कोई नाम नहीं दिया है .............

तुझे बगैर सोचे

जाने क्यों ज़िंदगी में एक

ख़लिश सी रह जाती है , मगर

तुझे किसी रिश्ते में नहीं बाँधा है .............

तेरी इबादत

बड़ी सुकून सी देती है

तू किसी फरिश्ते से कम नहीं

मुझे तेरी फ़कीरी से मोहब्बत है ............

तेरा कोई मज़हब नहीं

तू मेरा ईमान , इबादत है

सर्द रात के बेकल दर्द सा

तेरा मेरा दर्द का रिश्ता है .........


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संध्या चतुर्वेदी

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हे सदा शिव, हे अंतरयामी
हे महाकाल, हे त्रिपुरारी

हे नागेश्वर ,हे रुद्राय
हे नीलकंठ ,हे शिवाय

हे शिव शम्भू ,हे प्रतिपालक
हे दयानिधि ,हे युग विनाशक

हे गौरी पति,हे कैलाशी
हे काशीवासी, हे अविनाशी

हे पिनाकी ,हे कपाली
हे कैलाशी, हे जगतव्यापी

हे गंगाधराय ,हे जटाधराय
हे जगतपिता,हे सर्वव्यापी

हे गणपति नंदन ,हे तारक मर्दन
हे भूत पतेय, हे भस्मरङ्गी

हे उमा पति हे ,भोले भंडारी
हे अमरनाथ विनती सुनो हमारी

काल हरो प्रभु दुख हरो
रोग दोष प्रभु दूर करो

हे केदारेश्वर, हे भद्रेश्वर
हे बागम्बरधारी ,हे मुरारी।।

संध्या चतुर्वेदी
अहमदाबाद गुजरात
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खान मनजीत भावड़िया मजीद


नज़्म

मेरा इक़ामत छोटा ही सही, मुझे रहने की इस्तिजारत नहीं,
न मुझको इक़ामत इस्तहाके में है मेरा पूरी इफ़ाजत है सही।

मैं कभी भी अफसुर्दगी समझता ना कोई मेरे साथ करता है,
क्योंकि मैं उफ़्ताद नहीं हूं थोड़ा सा इफ़ाका जरूर हूं‌।

मेरा इकामत ही बहारिस्तान है उसी मैं बहबूदी,
मैं बहादुर हूं बहरामंद हूं शानदार हूं पर बिहिशती नहीं ।

परहेजगारी हूं समझता हूं परहेजगार को,
परवर मेरा खुदा करे यह परवाना खुदा को ।

परिंदे जीतनी उम्र मेरी कब उड़ जाऊं पता नहीं,
खान मनजीत का परी चेहरा यूं बिल्कुल व्याकुल नहीं ।

खान मनजीत भावड़िया मजीद
गांव भावड , गोहाना ( सोनीपत )-१३१३०२
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डॉ राजीव पाण्डेय

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(1)
पी अम मोदी कहलाया

आस्तीन के साँपों को जब, दूध पिलाया जाता था
और बहत्तर सालो तक भी , माल खिलाया जाता था
शौर्य पराक्रम सेना का ,पद दलित कराया जाता था।
जन्नत वाली घाटी में बस,जहर उगाया जाता था।
केवल आतंकी भाषा का,जहाँ पाठ पढ़ाया जाता था।
भारत की पहचान तिरंगा,उसे जलाया जाता था।

गन्दी करतूतों का खेल ,जिसको रास नहीं आया ।
वो क्रांतिवीर  भारत का, पीअम मोदी कहलाया।

सम्राट अशोक हुए भारत मे,ऐसा इतिहास पढा हमने।
पृथ्वीराज का चौड़ा सीना, और भाला खास पढ़ा हमने।
स्वामिभक्ति पर मिटने वाला, लक्ष्मण दास पढ़ा हमने।
अटल बिहारी बाजपेयी का, बस उल्लास पढा हमने।
शिखरों पर जो विजय पताका, करगिल द्रास पढा हमने।
और कालिया मर्दन के हित, फन पर रास पढ़ा हमने।

सरदार पटेल के सपनों को, जो पूरा कर दिखलाया।
वो क्रांतिवीर भारत का, पी अम मोदी कहलाया।

केशर वाली घाटी में क्यों ,नागफनी को उपजाये।
नौनिहाल  में पौधारोपण, जेहादी ही करवाये।
जिनके हित तैनात खड़े थे, उन पर पत्थर बरसाये।
उन्हीं विभाजक तत्वों को क्यों,बिरयानी को खिलवाये
राष्ट्रवाद से आँख मूंदकर,  गद्दारों को पनपाये।
जिनको कब्रों में होना था, सिंहासन क्यों पकड़ाये।

चन्द्रगुप्त चाणक्य ने फिर से आजादी को दिलवाया।
वो क्रांतिवीर भारत का ,पी अम मोदी कहलाया।

सोमवार था सावन का जब,तांडव नृत्य किया शिव ने।
सभी विपक्षी हमलों को भी,धारण कन्ठ किया शिव ने।
ज्वार देशभक्ति का उर में,अब तक मूक जिया शिव ने।
असुरों को उनके आसन पर,अब बैठाल दिया शिव ने।
काश्मीर की शपथ पूर्ण कर,तिरंगा थाम लिया शिव ने।
एक नपुंसक की भूलों को,झटके में तार दिया शिव ।

शीश मुकुट भारतमाता के,अपना झण्डा लहराया।
ऐसा क्रांतिवीर भारत का, पी अम मोदी कहलाया।


(2)

कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद जी को समर्पित

जिसने   पीड़ा युग  लिक्खी, अद्भुत वह ध्रुवतारा था।
शोषित पीड़ित अभिलाषा का,अनुपम एक सहारा था।
अन्तर्मन से उसको दिखती,एड़ी फ़टी किसान की।
इसी लिए वे लिख पाये थे,पीड़ा सकल जहान की।
पद पैसा मर्यादा का भी,उसको तनिक न लोभ था।
गहरे मन तक दुख की गठरी, उसका भारी क्षोभ था।
चाटुकारिता शब्दों  में   कब , उसके हमने पायी है।
और सियासी चौखट पर कब, उसने कलम चलायी है।
विद्रोहों की भाषा केवल, उसके जेहन भायी थी।
सत्तासीनों  की गद्दी पर, जैसे आफ़त आयी थी।
मजदूर किसानों से हमदर्दी, और रियासत दुश्मन थी।
और न केवल बस इतनी सी,उनसे ऐसी अनबन थी।
गोदान गबन परिभाषा में,देश की हालत बोल गया।
अंग्रेजी प्रभुसत्ता का तो,  सिंहासन  ही डोल गया।
पीड़ाओं का कुशल चितेरा, शब्दों का बाजीगर था।
अंधकार में दिखलाने को, जीवन भर का दिनकर था।
साहित्याकाश का ध्रुव तारा,प्रातःकाल का उजियारा।
विषम परिस्थितियों में कब,   उसका लेखन था हारा।
साहित्य जगत के दिनकर का, हम सब पर अभी उधार है।
कलम   हमारी चुका रही है  ,करके  नमन हजार है।

डॉ राजीव पाण्डेय
कवि,कथाकार,हाइकुकार, समीक्षक

वेबसिटी, गाजियाबाद(उत्तर प्रदेश)

ईमेल  kavidrrajeevpandey@gmail.com


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संजय कुमार श्रीवास्तव

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यह कविता  मेरी कालेज के समय की सच्ची घटना को  दर्शाती है
रामबख्स सिंह स्मारक महाविद्यालय
   अमघट-बेहजम लखीमपुर खीरी

                -: कविता :-
इस कॉलेज की पावन धरा को नमन करता हूं
सभी गुरुओं को "कर'जोड़  नमन करता हूं

दिखलाई है हमें सच्ची राह इस  कॉलेज ने
करु बखान कैसे  शब्द नहीं है मुझ में

एक बार नहीं बार-बार वंदन है
इस कॉलेज को तहे दिल से अभिनंदन है

तीन सालों में विश्वास सबका जीत लिया
करुं ना गलती कोई ऐसा प्रण माँ ने दिया

क्या करूं मैं भी संकल्प लिए बैठा था
था संकल्प मेरा कवि की पीड़ा बनने का

सीख लिया प्यार और प्यार की पीड़ा क्या
सीख लिया प्यार और प्यार की पीड़ा क्या

यह कविता मानव जीवन को उज्ज्वल बनाने की प्रेरणा देती है

         -- कविता --

नई दास्तां लिखता वही है
खुद पर यकीं हो औरों पर नहीं

नई दास्तां सिर्फ लिखता वही

करो आत्मविश्वास सही है यही
बदल दोगे दुनिया सही है सही

मात-पिता को करो तुम नमन
बदल देंगे तकदीर चमकते रहोगे

नयी दास्तां सिर्फ लिखाता वही
करो बात में विश्वास सही है यही

गुरुजनों का करो तुम आदर
बदल देंगे जीवन आहिस्ता आहिस्ता

नहीं दास्तां लिखता वही
खुद पर यकीं हो औरों पर नहीं

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    ----- ;  प्रेम की अनुपम मिसाल  :----

दिल में एक  तान जगी , प्रेम भावना से सजी ।
दिल में एक  तान जगी , प्रेम भावना से सजी ।।

रूप तेरा है सुनहरा , मन तेरा है छबीला ।
प्रेम तेरा है अधूरा , रूप तेरा अति सुनहरा।

चाहत है कि प्रेम की , तस्वीर बनाऊँ ।
कन्हैया जी के रास का , गीत बनाऊँ ।।

प्रेम की अद्भुत मिसाल , तूने दे डाली  ।
इसीलिए पूज रहे , तुमको बिहारी  ।।

द्वापर में आके  प्रेम का , राग बजाया  ।
कलयुग में भी उस राग का , मंत्र चलाया  ।।

मोह लिया रूप रूप को , तुमने बिहारी ।
मासूमों को भेंट किया  , प्रेम फुलवारी  ।।

मासूमों को भी दे दिया , प्यार का यह रोग।
मर रहे युवा  अब कर कर के , यह वियोग ।।

कलयुग सा प्रेम किसी , युग में  न हुआ कभी  ।
प्रेम करने वाले  लोग , प्रेम निभाते न  कभी   ।।

प्रेम निभाते न कभी ............................…

कविता

प्रेम पर आधारित कविता

प्रेम की बरसी बदरिया
प्रेम में हम भीग गए
प्रेम की अद्भुत अदा पर
प्रेम में हम मिट गए
प्रेम का यह रोग यारों
हर किसी को ना मिले
प्रेम उनको ही मिले जो
प्रेम के लिए बने
प्रेम की आवाज किंचित
दिल में मेरे बस गई
प्रेम का यह रूप धारण
दिल में मेरे आ बसी
प्रेम की अद्भुत मिसाल
आज भी बनी खड़ी
आज भी बनी खड़ी


प्रेम पर आधारित कविता

प्रेम की प्यासी आंखों को
प्रेम मिला तो भर आयी
बिछड़ गया वह सब कुछ मुझसे
जो छड़ भर में था मिला मुझे
इतना उन्माद था मुझको
प्रेम में उसके पता नहीं
भूल गया था सबकुछ अपना
भूल गया अपना पथ सपना
पडा  हमें केवल दुख सहना
मत करो विश्वास इन धीरे हुए सूर्यमुखी फूलों से
पता नहीं कब और किस वक्त बरस जाए खुद के नैनों से

                  कविता
              शिक्षा के प्रति

जीवन में अपने शिक्षा का मान समझ लेना
करना है कैसे किसका सम्मान समझ लेना
शिक्षक से ही मिलेगी शिक्षा बुरे भले की
क्या फर्क है इन दोनों के दरमियान समझ लेना
जीवन में अपने शिक्षा का मान समझ लेना
जो तथ्य मुसीबत में भी साथ निभाता हो
उस तथ्य को लेकर तुम भगवान समझ लेना
मिल जाये गर कोई बच्चा सच्चा समर्थक
तो बच्चों तुम उसे भगवान समझ लेना
जीवन में अपने शिक्षा का मान समझ लेना
करना है कैसे किसका सम्मान समझ लेना


देश के प्रति कविता

वीरों की याद फिर आई है
स्वतंत्रता दिवस की शुभ
पावन घड़ी वह आई है
वीरों की याद फिर आई है
वीरों ने जो दी कुर्बानी
आज उसे दोहराते हैं
आंख मेरी भर आती है
वीरों की याद जब आती है
यह जन्मभूमि है उन वीरों की
जिनसे मिली आजादी है
संपूर्ण विश्व में गूंज रहे
सन 47 के अभिभाषण
भारत अपनी सहनशीलता
हरदम दिखलाता आया
2019 में भारत ने पाक को
सबक सिखा डाला
आतंकी अड्डों को
एयर स्ट्राइक से उड़ा डाला
जांबाज सिपाही अभिनंदन ने
पाक में जा कोहराम मचाया
मातु भारती के आंचल में
जन्मे वीर शहीदों की
कवि संजय की लिखित लेखनी
अनुपम और  सुहानी है
वीरों की याद फिर आई है
वीरों की याद की आई है

             कविता
गरीब किसान के बेटे ने मां गंगा को संदेश दिया

गंगा मां धीरे बहो
आगे संतान आपकी है
यदि विलय आप कर लोगी
तो अस्तित्व खत्म हो जाएगा
इतनी ऊंची पदवी पर बैठी
मां का गौरव घट जाएगा
मां का गौरव घट जाएगा
बच्चे की सुन करुण व्यथा
मां का हृदय पिघल गया
मां ने अपना पथ बदल दिया
माँ ने अपना पथ बदल लिया


यह घटना वास्तविकता को दर्शाती है

--
   कवि        ---:     संजय कुमार श्रीवास्तव
   पिता       ---:     पुत्तू लाल श्रीवास्तव
   माता       ---:     किरन श्रीवास्तव
   ग्राम        ---:     मंगरौली पो0 भटपुरवा कलां
जिला       ---:    लखीमपुर  खीरी
   राज्य       ---:     उo प्रo

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नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक 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तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया 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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: माह की कविताएँ - स्वतंत्रता दिवस व रक्षाबंधन की कविताएँ
माह की कविताएँ - स्वतंत्रता दिवस व रक्षाबंधन की कविताएँ
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