मृग शृंग नाम के एक सिद्ध पुरुष थे। उनकी पत्नी का नाम सुवृता था। उनके यहाँ एक पुत्र ने जन्म लिया। वह बालक हमेशा अपना शरीर खुजलाता रहता था। मृ...
मृग शृंग नाम के एक सिद्ध पुरुष थे। उनकी पत्नी का नाम सुवृता था। उनके यहाँ एक पुत्र ने जन्म लिया। वह बालक हमेशा अपना शरीर खुजलाता रहता था। मृग शृंग ने उसका नाम मृकण्डु रख दिया। वह बालक बड़ा तेजस्वी, विद्वान और गुणवान निकला, अपने पिता के पास उन्होंने समस्त वेदों का सांगो-पांग अध्ययन किया। मृग शृंग जी ने उनका विवाह मरुद्वती नामक एक सुन्दर तथा सुशीला कन्या से कर दिया। विवाहोपरान्त कई वर्षों तक उनके यहाँ कोई सन्तान उत्पन्न नहीं हुई। उन्होंने अपनी पत्नी सहित भगवान शिव की कठोर तपस्या की। आशुतोष भगवान शिव उनकी तपस्या से प्रसन्न हो गये और उन्होंने मृकण्डु से वर माँगने को कहा। पति-पत्नी ने एक पुत्र सन्तान के लिए वर माँगा। उनकी प्रार्थना सुन कर शिवजी बोले कि तुम्हें गुण रहित दीर्घायु पुत्र चाहिये या केवल सोलह वर्ष की आयु वाला गुणवान बालक चाहिए। मृकण्डु ने ज्ञानी गुणवान तथा सुशील पुत्र के लिए अभिलाषा व्यक्त की। शंकर जी तथास्तु कह कर अन्तर्धान हो गये। समय व्यतीत होने पर उनके यहाँ एक पुत्र उत्पन्न हुआ। उस पुत्र का नाम मार्कण्डेय रखा गया। यही पुत्र मार्कण्डेय ऋषि के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
मार्कण्डेय की आयु पन्द्रह वर्ष पूर्ण हुई। माता-पिता की उदासी का कारण पूछा तो पिता जी ने उनकी सोलह वर्ष की आयु वाली बात बतलाई। मार्कण्डेयजी ने उन्हें धैर्य धारण करने को कहा उन्होंने कहा कि आप किसी भी प्रकार से दु:खी न हो, चिन्ता न करें। वे घर से बाहर चले गये और एक शिव मन्दिर में जाकर तपस्या करने लगे। उन्होंने अनवरत महामृत्युञ्जय मंत्र का पाठ करते हुए दीप जलाकर शिव जी का पूजन किया। मार्कण्डेय जी को महामृत्युञ्जय मंत्र का प्रणेता कहा गया है। पुत्र वियोग में संतप्त माता-पिता घर पर पूजा अर्चना करते वे अखण्ड दीप जलाकर किसी भी प्रकार से अपने पुत्र की दीर्घायु के लिए प्रार्थना करते। माता-पिता अपने पुत्र के जीवन में आये अंधकार को दूर कर प्रकाश लाने के लिए प्रयत्नशील थे।
जब मार्कण्डेय ऋषि की आयु सोलह वर्ष पूर्ण हुई तो यमदूत उनके प्राणों का हरण करने के लिए आये। उन्हें आता देखकर मार्कण्डेय शिवलिंग पर लिपट गये। दूतों ने जब उन्हें इस अवस्था में देखा तो वे यमराज के पास गये और उन्हें वस्तु स्थिति से अवगत किया। यमराज स्वयं मन्दिर में आये। उन्होंने दीपक के प्रकाश में बालक को शिवभक्ति में लीन देखा। यमराज ने दूर से मार्कण्डेयजी के गले में उनके प्राण हरण करने के लिए फन्दा फेंका। संयोग से वह फंदा शिव-लिंग पर गिरा। यमराज के इस कृत्य से शिव जी स्वयं रौद्र रूप धारण कर प्रकट हुए। उन्होंने यमराज पर पाद-प्रहार किया। शिव जी ने यमराज से कहा कि मेरा यह भक्त हमेशा अजर अमर रहेगा। यमराज ने शिवजी का यह कथन स्वीकार किया। हमारे शास्त्रों में आठ चिंरजीवी माने गये हैं, वे आठ चिरंजीवी है-
अश्वत्थामा बर्लिव्यासो हनुमानश्च विभीषण:।
कृप: परशुरामश्च सप्तैते चिरजीविन:।।
सप्तैतान स्मरेन्नित्यं मार्कण्डेयमथाष्टकम्।
जीवेद्वर्षशतं सोऽपि सर्वव्याधि विवर्जित:।।
(पद्मपुराण)
अर्थात अश्वत्थामा, राजा बलि, वेदव्यास, हनुमान जी, विभीषण, कृपाचार्य, परशुराम तथा मार्कण्डेय ये आठ व्यक्ति चिरंजीवी हैं। यदि प्रतिदिन इनका स्मरण किया जाए तो भक्त को दीर्घायु प्राप्त होती है। माता-पिता घर पर पुत्र की आयु के लिए चिंतित थे। वे घर में दीपक की लौ में शिव जी की आराधना कर रहे थे। जैसे ही उन्हें यह समाचार विदित हुआ वे दौड़ते हुए मन्दिर में आये और उन्होंने मार्कण्डेय जी को गले से लगा लिया। आँखों से अश्रुधारा प्रवाहित होने लगी और कण्ठावरोध हो गया।
यह कहानी हमें इस बात का सन्देश देती है कि भक्त द्वारा निर्मल मन से की गई प्रार्थना अनहोनी को भी टाल सकती है। अखण्ड दीपक के मद्धिम प्रकाश में की गई प्रार्थना से मार्कण्डेय ऋषि की आयु में वृद्धि हुई। उन्हें अष्ट चिरंजीवियों में स्थान प्राप्त हुआ। भारत की प्रत्येेक माता अपनी संतान को सर्वदा सुखी चिंरजीवी देखना चाहती है। जन्म दिवस पर वह अपनी सन्तान से दान पुण्य करवाती है। देव दर्शन कर दीप प्रज्वलित करती है। नूतन वस्त्र धारण करवा कर उसके मस्तक पर कुमकुम अक्षत लगाती है। शुद्ध घी के दीपक से उसकी आरती करती है। मिठाई खिलाती है। बालक घर के वरिष्ठ सदस्यों के चरण स्पर्श कर आशीर्वाद ग्रहण करता है।
आधुनिक समय में केक लाकर उस पर मोमबत्तियाँ जलाई जाती है। फिर बालक मोमबत्तियों को बुझाता है। यह एक विचित्र परम्परा पनप रही है। हम प्रकाश से अंधकार की ओर जा रहे हैं। हम मोमबत्तियों को जलाकर एक ओर रख दें। बुझाएँ नहीं। मेरा आग्रह है कि इस परिवर्तित परिदृश्य को हम कुछ सुधार कर स्वीकार करें। जन्म दिन पर केक काटें। क्रीम को बालक के मुँह पर लगाएँ, मोमबत्तियाँ जलाइये पर बुझाइये नहीं। उन्हें उठाकर अन्य स्थान पर रख दें। एक घी का दीपक जलाकर घर के भगवान के सामने रख दें। इससे नकारात्मक ऊर्जा का पलायन होगा और सकारात्मकता का संचार होगा। बालक का भविष्य उत्तरोत्तर सफलता की ओर अग्रसर होगा।
यदि सन्तानें विदेशों में भी हो तो माता-पिता उनके जन्म दिन पर दीपक जलाएँ और परमपिता परमेश्वर से उनकी स्वस्थ दीर्घायु की कामना करें। हमें अपनी संस्कृति क ो विस्मृत नहीं करना चाहिए। अन्यथा आने वाली पीढ़ी हमें कभी माफ नहीं करेगी। दीपक अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाता है। अज्ञान से ज्ञानमार्ग की ओर अग्रसर करता है। इसीलिए कहा गया है-
तमसो मा ज्योतिर्गमय (बृहदारण्यक उपनिषद)
दीपक की ज्योति ही पथिक का मार्गदर्शन करती है। सायंकाल के समय आरती हम सभी करते हैं।
हम कहते हैं :-
शुभं करोति कल्याणं आरोग्यं धन सम्पदा।
आत्मबुद्धि: प्रकाशाय दीपोज्योर्तिनमोस्तुते।।
कतिपय घरों में कुछ परिवर्तन के साथ कहते हैं-
शुभं करोति कल्याणं आरोग्यं धन सम्पदा।
शुत्रुबुद्धि: विनाशाय दीपोज्योर्तिनमस्तु ते।।
हमारी सनातन संस्कृति में हमें इस बात के संस्कार दिए हैं कि हमारा कोई शत्रु नहीं है। परन्तु हम यह कह सकते हैं कि लोभ, मोह, मत्सर काम, क्रोध आदि भी मानव के शत्रु हैं। इसलिए हम दीपक से इन्हें दूर करने की प्रार्थना करते हैं। यदि आपस में मतभेद हैं भी तो हम उसके मन को निर्मल करने की प्रार्थना ईश वंदना में करें, इससे हमारे संस्कार दृढ़ होकर पल्लवित होंगे।
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डॉ. शारदा मेहता
सीनि. एमआईजी-१०३, व्यास नगर,
ऋषिनगर विस्तार, उज्जैन (म.प्र.)
Email : drnarendrakmehta@gmail.com
पिनकोड- ४५६ ०१०
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