पीछे वाली गली के रास्ते से पंकज ने घर में प्रवेश किया, अपराधी की तरह सबसे मुंह छुपाकर वह सीधे अपने कमरे में घुस जाना चाहता था, लेकिन दादी की...
पीछे वाली गली के रास्ते से पंकज ने घर में प्रवेश किया, अपराधी की तरह सबसे मुंह छुपाकर वह सीधे अपने कमरे में घुस जाना चाहता था, लेकिन दादी की नज़रों से बच न सका. "पंकज ...सामने से न आकर पीछे से क्यों आ रहे हो? जल्दी आ गए ...तबीयत ठीक है न.....टिफिन खाया? " पंकज ने सर हिलाकर सूचना दी कि उसने टिफिन नहीं खाया है.
"आज फिर टिफिन नहीं खाया... इडली सांभर तुम्हारी पसंद पर ही तो रखे थे... और इस समय लंच खाने की भी भूख नहीं होगी तुम्हें ….. आखिर हुआ क्या है.....कुछ बताओगे या यूं ही गुमसुम बने रहोगे..........”
“कहा न कुछ नहीं..... नहीं भूख है मुझे..... दादी आप भी... बस पूछती ही चली जाती हैं..”
“कैसे न पूछूं …..तेरी माँ ज़िंदा होती तो वही पूछती तुझसे.... या तेरा बाप रात दिन पैसा कमाने की चिंता में न डूबा होता तो वही पूछता तुझसे.......और वो तेरी सौतेली माँ, कुछ इस तरह पूछती है कि तू उसे बताता नहीं... कल टिफिन में …. .........” दादी की बात पूरी होने से पहले पंकज अपने कमरे में जा चुका था.
दादी सोचने लगी, आज चौथा दिन है, पंकज का टिफिन जैसा जाता है, वैसा ही वापस आ जाता है. पंकज अब कोई बच्चा नहीं है. छठी कक्षा में पढ़ता है, तेरहवां साल लग गया है. वही जिसे टीन-age कहते हैं. इस उम्र में कितनी भूख लगती है. चार दिन पहले तक तो खाना परोसने में तनिक देर होती तो घर सर पर उठा लेता था.
एक दिन तो हद ही हो गई बोला,
''दादी अब आप बूढ़ी हो गई हो. रसोई तक जाने में कितना समय लगाती हो."
पिछले चार दिनों में ऐसा क्या घटित हो गया. घर में किसी से कहा-सुनी या डांट-फटकार भी तो नहीं हुई. डांट-फटकार के लिए भी तो समय चाहिए, इस घर में किसी के पास समय कहाँ है. आज रात को पुनीत और कविता से उन्हें बात करनी ही होगी.
पंकज कमरे में गया, दरवाजा अन्दर से बंद किया और धम्म से बिस्तर पर जा गिरा, और फूट-फूटकर रोने लगा. गंभीर, पलटू, मीका और देबू की धमकियां और डराने वाले चेहरे याद करके उसकी कंपकंपी छूटने लगी. उनकी धमकी का आज चौथा और आखिरी दिन था. शाम के चार बजने वाले थे, बस कुछ घंटे और फिर ............
जब भी उसका परीक्षाफल निकलता वह पहले आकर माँ की तस्वीर को दिखाता फिर पापा से साइन करवाता.
पापा उसकी पीठ ठोंकते और कहते,
''और अच्छा करने की कोशिश करो. संतुष्ट होकर बैठ जाओगे तो कभी भी नंबर-वन नहीं बन सकोगे. देखो मुझे कितनी मेहनत करता हूँ."
पंकज मुंह- मुंह में बुदबुदाता "आपके मेहनत करने से मेरे नंबर कैसे अच्छे आ जायेंगे. शिक्षा देते हैं.....”
पंकज का तकिया पसीने से तर हो गया था. पसीना था कि आंसू, वह समझ नहीं पाया. बहुत गीला गीला लगा तो करवट बदल लिया. सामने पापा और माँ की गले में बाँहें डाले हंसती हुई तस्वीर थी. नई माँ नहीं, उसकी अपनी माँ की. उसके कमरे की दीवार पर टंगी इस तस्वीर को पापा के कहने के बाद भी दादी ने नहीं उतारने दिया. उसके अकेलेपन की साथी यह तस्वीर हरदम उससे बातें करती है….
पापा से कभी मैथ्स और फिजिक्स की प्रोब्लम पूछने जाओ तो एक और शिक्षा,.........” ग्रुप स्टडी का नाम सुना है, चार दोस्त एक साथ बैठकर पढ़ो तो सारे सवाल चुटकी में हल हो जाते हैं, पर नहीं, तुम्हें तो मेरा दिमाग खाने में मजा आता है. जहां चाह वहां राह ..... कक्षा में अव्वल नहीं आये तो सैर-सपाटे, मौज-मस्ती सब बंद, समझे......
हमेशा समझे....समझे.... करते हैं, एक दिन उन्हीं को समझना पड़ेगा कि बड़े होते लड़के से कैसे बात करनी है”.
अपनी इस दलील से वह आश्वस्त हो जाता, जैसे उसने बदला ले लिया हो.
चार दोस्त ..... हाँ चार दोस्त तो उसने बना लिए, परन्तु आज से पहले उसे नहीं पता था कि वे चारों इतने कुटिल और स्वार्थी निकलेंगे. उसने तो सोचा था कि वे मैथ्स और फिजिक्स की प्रोब्लम सोल्व करने में मदद करेंगें. बस और कुछ नहीं ....लेकिन .......
पंकज को वह दिन याद आया जब पहली बार उसने पापा से कुछ रुपयों की फरमाइश की थी. उसने कहा था...पापा मुझे दोस्ती बढाने के लिए कुछ लड़कों को "कैफे कॉफी डे" ले जाना है, कुछ रुपये चाहिए. बड़ी बेपरवाही से पांच सौ का नोट थमाते हुए पापा अपने काम में लीन हो गए थे. शाम को घर आने पर उन्होंने उससे रुपयों का भी हिसाब नहीं लिया. उसके बाद जब भी गंभीर, पलटू, मीका और देबू मैथ्स समझने में उसकी मदद करते, वह पापा से पैसे मांगता और पार्टी होती. पापा खुश थे, रुपयों की उन्हें कोई कमी न थी और पंकज कक्षा में अव्वल आ रहा था.
गंभीर, पलटू, मीका और देबू उसके अभिन्न अंग बन चुके थे. कक्षा के सभी साथी उन्हें एक साथ देखते तो पांडव कहकर चिढाते, पर उन्हें बुरा न लगता, बल्कि उनकी दोस्ती और भी गहरी होती गई. अब वे कक्षा के बाद कभी खेल के मैदान में तो कभी सूनसान सड़कों पर मटरगश्ती करते. उसके चारों दोस्त उसकी तारीफों के पुल बांधे रहते. वे पाँचों अक्सर "कैफे कॉफी डे" , "दोसा किंग" , या "डोमिनोस" में दिखाई पड़ने लगे.
कितने सुहावने दिन थे. चारों ओर सावन ही सावन था, न ग्रीष्म की तपिश और ना ही शरद की कंपकंपाहट. मौसम कब किसी का सगा हुआ है. बीतना उसका धर्म है, वह बीतने लगा.
उन्हीं दिनों घर में एक किलकारी गूंजी. दादी अप्रत्याशित रूप से व्यस्त हो गईं. नई माँ तो पहले से ही आलसी थी अब कमरे से भी निकलना बंद कर दिया. अब माँ-पापा के कमरे में जाने की उसे इजाजत नहीं थी. शाख से टूटे फूल की तरह वह घर-बाहर डोलता रहता, उसे सहेजने - सजाने वाला कोई न था, माली नए फूलों की क्यारियाँ रोपने, खाद-पानी की व्यवस्था करने में व्यस्त था.
दादी उस कमरे में बहुत ज्यादा जाने लगी, और जो समय उसे दिया करती थी, उसमें माँ की सेवा में लगी रहती. पापा भी बहुत खुश थे. उन्होंने उसकी 'पॉकेट मनी' बढ़ा दी. उसकी पढाई की तरफ से जैसे सभी निश्चिन्त हो गए थे. अब उससे कोई नहीं पूछता था कि कक्षा में क्या चल रहा है. पंकज रातों रात बड़ा, बहुत बड़ा ठहरा दिया गया था.
"इतने बड़े हो गए हो.... इतना सा काम नहीं कर सकते...... इतने बड़े हो, समझदारी से कोई वास्ता है कि नहीं....., बात-बात पर जिद करते हो, अब तो बचपना छोडो.....," लगभग हर दिन ऐसा ही एकाध वाक्य उसका सीना छलनी करता. तब उसने एक आसान रास्ता निकाल लिया, चुप रहने का..... न इजहार, न इकरार, और ना ही इंकार......
पंकज के आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे. उसकी हिचकियाँ बंध गई. वह बड़बड़ाने लगा ,"माँ घर में मुझसे कोई बात नहीं करता......माँ गंभीर पल्टू हमेशा मुझे अपना छोटा भाई कहते थे, और मीका मेरे जूते के फीते भी बाँध दिया करता था, कितने झूठे निकले सब. कक्षा में रश्मि से दोस्ती बढाने का प्लान भी उन्हीं लोगों का था. कहते थे हम लोगों के ग्रुप में एक लड़की रहेगी तो हमारी इज्जत बढ़ जायेगी. हर जेंटलमैन के साथ एक लड़की रहती है. और वह रश्मि गंभीर, पल्टू को दादा बुलाती लेकिन मेरा नाम लेती और कहती तू तो मेरा हीरो है. माँ उसकी मीठी बोली में मेरा नाम सचमुच कमल सा कोमल हो जाता था. मै उससे प्यार करने लगा था माँ...........
पेट में हल्का सा दर्द हो रहा है,मीठा-मीठा.... शायद भूख से हो रहा हो, उसे भूख कहाँ बर्दाश्त है..... पर आज मन ही नहीं है खाने का, डर लग रहा है, शाम होने में कुछ ही घंटे शेष हैं.
आजकल अक्सर उसके पेट में हल्का-हल्का दर्द होता है.................. छठी क्लास में आने का, दर्द से क्या रिश्ता है, उसे कभी समझ नहीं आया. पापा कहते हैं तुम लड़के हो, बड़े हो रहे हो, इन छोटे मोटे दर्दों से परेशान होगे तो बड़े-बड़े कामों में कैसे मन लगा पाओगे....
दादी जानती है कि उससे भूख बर्दाश्त नहीं होती, खिजलाती भी हैं, कि मेरे दस हाथ-पैर तो नहीं हैं कि इधर भी करूँ और उधर भी..... दस मिनिट बाद खाना दूंगी तो मर तो न जाएगा. लेकिन फिर सब काम छोड़ कर खाना परोसने लगतीं,... ....पर आज वो भी बुलाने नहीं आ रही हैं. नई माँ की संतान रो जो रही है, उसे चुप कराने में लगी होंगी.
पापा को उसने कई बार कहते सुना है कि चाहे कोई काम हो या न हो, पर माँ मेरी बिटिया को रोने न दीजिएगा. मेरे घर लक्ष्मी आई है, इतने बरसों बाद .. ......और कविता बहुत कमजोर है. उसका पूरा ध्यान नहीं रख पायेगी. पापा को आजकल उसकी ज़रा सी भी चिंता नहीं है. कहते हैं पंकज अब बड़ा हो गया है अपना ध्यान रख सकता है. क्या मैं इतना बड़ा हो गया हूँ माँ,.....फिर मुझे समझ में क्यों नहीं आ रहा है कि मैं अपने दोस्तों को क्या जवाब दूं , मेरे पास इतने पैसे भी नहीं हैं जितने उन्होंने मांगे हैं, पापा से नहीं मांग सकता, पांच हजार... एक हजार तो कितनी ही बार वे दे चुके हैं. पूछेंगे, इतने पैसे किस लिए, कह भी तो नहीं सकता कि गलती हो गई है , भरपाई करनी है, पूछेंगे कैसी गलती ...और किसको भरपाई.... उन बेदर्द दोस्तों ने कहा है कि उनका नाम लिया तो गोली मार देंगे....गोली तो वे पैसे न देने पर भी मारेंगे....क्या करूं...दादी ...नहीं नहीं ... दादी को विशवास ही न होगा... कितना प्यार करती हैं मुझसे .... उनका दिल टूट जाएगा.... ओह माँ .... मैं वहां गया ही क्यों......पार्टी के बाद मैं तो घर आ रहा था... रश्मि ने रोक लिया..........
पंकज को शनिवार की घटना याद आने लगी. रश्मि ने अपने जन्मदिन की पार्टी में अपने घर पर बुलाया था. केक कटा, बैलून फूटे, कोल्ड ड्रिंक्स, चिप्स, दोसा, चाइनीज. ढेर सारा लजीज खाना खाने व् तरह-तरह के कोल्ड ड्रिंक पीने के बाद सभी दोस्त जाने लगे तो पंकज भी जाने को तत्पर हुआ तो गंभीर,पल्टू, मीका देबू ने उसे रोक लिया और बोले कि इतनी भी जल्दी क्या है. चलो एक मजेदार गेम खेलेंगे उसके बाद जाना. गेम क्या है पूछने पर उन्होंने कहा नक़ल-नक़ल...... हम चारों अपने-अपने पापा की नक़ल उतारेंगे, जो सबसे अच्छी नक़ल उतारेगा उसे बर्थडे गर्ल "किस" करेगी..... ठीक है. वे चारों मुस्कुरा रहे थे, जैसे उससे कोई राज की बात छिपा रहे हों. रश्मि उसे ‘किस’ करेगी, यह सोचकर उसे पसीना छूटने लगा था, लेकिन उसका दिल बल्लियों उछल रहा था. वह मान गया.
अक्कड़ बक्कड़ करने पर सबसे पहले देबू की बारी आई. देबू के पापा थोड़ा हकलाते और हर वाक्य में आई मीन आईमीन करते हैं. देबू ने जबरदस्त एक्टिंग की. सभी खूब जोर से ठहाके लगा-कर हँसे.
पंकज ने सोचा कि उसे देबू से ज्यादा अच्छी एक्टिंग करनी पड़ेगी, नहीं तो......... देबू के बाद पल्टू का नंबर आया. पल्टू ने रश्मि के पापा का चश्मा चढ़ाया और पास ही रखा ब्रीफकेस उठाकर ऑफिस से आने की एक्टिंग करते हुए, पहले ऑफिस वालों को गालियाँ बकी, फिर माथे का पसीना पोंछा, फिर पानी लाने के लिए पत्नी को लगभग चिल्लाने या डांटने की टोन में , "डार्लिंग......" कहा तो सभी की हँसी छूट गई. गंभीर जो अपने मोबाइल से वीडियो बना रहा था बोला, यार तेरे पापा डार्लिंग भी डांट कर बोलते हैं. तू तो रोज पिट कर आता ही है. पल्टू झेंप गया और सभी को खूब मजा आया.
गंभीर की बारी आई तो वह बोला पहले पंकज एक्टिंग करे क्योंकि वह फोटो खींच रहा है. पंकज को कुछ ऐसा करना था जो सबसे बढ़कर हो, उसने रश्मि को प्यार भरी नज़रों से देखा. रश्मि फूलों वाली, खूब घेरदार पिंक ड्रेस में परी लग रही थी. रश्मि ने उसे आँख मारी. पंकज की सारी उदासी, घर जाने की व्यग्रता, डांट का डर और झिझक-हिचक कपूर की तरह काफूर हो गए. रेस में भागने वाले घोड़े की तरह फुर्ती और जोश से भर गया वह. इस समय निराशा, हताशा और भयभीत होने के बावजूद उसके चेहरे पर मुस्कान खिल गई ….....
खुशी के अवसरों पर उसने पापा को ड्रिंक करते और थोड़ा बहकते देखा था. ऐसे अवसरों पर जब पापा
बेफिक्री से गजल गुनगुनाते तो हॉल में जमा सभी लोग खासकर मम्मी की सहेलियां खूब वाह..वाह करती. पंकज ने टेबुल पर रखी कोक की बोतल उठाई और झूम-झूम कर शराबी की एक्टिंग करने लगा. वह गुनगुना भी रहा था........... .'' तेरे इश्क पे, तेरे जिस्म पे, तेरी जान पे बस हक़ है मेरा................
नाटकीय बहकना कब वास्तविकता में बदल गया उसे पता ही न चला. रश्मि की चीख से उसे होश आया. रश्मि बड़ी बेचैनी से अपने आप को पंकज की सख्त गिरफ्त से निकालने की कोशिश में चीखी थी. होश आते ही पंकज शर्म से लाल हो गया और माफी माँगने लगा.
गंभीर ने वीडियो रिकार्डिंग कर ली थी. शनिवार की रात खेल-खेल में घटी इस घटना ने सोमवार को
स्कूल पहुंचते ही पंकज पर वज्राघात किया. आज वृहस्पति वार है. पिछले चार दिनों से गंभीर, पलटू, मीका और देबू की हँसी और धमकी उसके दिमाग पर हथौड़े से चोट कर रही है. उसे न भूख लग रही है न प्यास. नींद भी नहीं आती.
उनका कहा आखिरी वाक्य किसी बड़े से हॉल में चारों ओर से गूंजती प्रतिध्वनि की तरह उसके दिमाग पर चोट कर रहा था. "देख पंक आज शाम सात बजे तक यदि तूने पांच हजार का इंतजाम नहीं किया तो कल फेसबुक पर सारी तस्वीरें डाली जायेंगी और तेरे पापा को ई- मेल भेजेंगे. फैसला तेरे हाथ में है.”
यदि सचमुच पापा को पता चल गया तो .... आगे पंकज कुछ न सोच सका ..... उसके हाथ पैर कांपने लगे. गला सूखने लगा. अब और कोई रास्ता न बचा था. वह बिस्तर से धीरे से उठा, सामने अलमारी थी और उसके पल्ले पर आदमकद शीशा लगा था. उसने देखा उसके बाल बिखरे थे,आंसुओं से पूरा चेहरा गीला था, आँखें सूज गई थीं, और भय से रंग काला पड़ गया था. सामने रखी टेबुल पर कुछ फल और एक चाकू रखा था. उसने चाकू उठाया और पागलों की तरह अपनी दोनों कलाइयां काटने लगा. वह रो रहा था और कहता जा रहा था, "माँ मुझे जीने का कोई हक़ नहीं है. पापा की बदनामी मैं कैसे कर सकता हूँ.....फिर दर्द से कराहने .... फिर चिल्लाने लगा....... वह कब बेहोश हो गया उसे पता न चला.
जब आँख खुली तो पापा की गोद में सर था. दोनों हाथों में पट्टियां बंधी थी. दादी जूस का गिलास थामे अपनी नम आँखों से उसे ही निहार रहीं थीं. पंकज रोने लगा और पापा की गोद में मुंह छिपाकर बोला,'' पापा मुझे बचा लो...........पापा मुझे बचा लो........"
पापा ने प्यार से उसके सर पर हाथ फेरा और कहा,'' हमें सब पता है."
पंकज ने आधी खुली और आधी बंद पनीली आँखों से पापा को देखा, उनकी आंखें भी नम लगी उसे. पंकज की आशा के विपरीत न उन्होंने उसे कोई शिक्षा दी, ना ही डांट लगाई. पैंट-शर्ट की जगह पापा पाजामे कुरते में थे. शायद रात भर उसी के सिरहाने बैठे रहे.पापा के काम पर जाने का समय हो चुका था, लेकिन वे उसके एकदम करीब बैठे सर पर हाथ फेर रहे थे. उसके आंसू पोंछते हुए पापा ने उसके माथे को चूमा और लगभग फुसफुसाते हुए कानों में कहा, '' तू भी मुझे माफ़ कर दे बेटा..... मैं खुद को सफल कहता हूँ, पर तेरा मनोविज्ञान तो पढ़ ही न सका........ अब ऐसा कभी न होगा.''
पंकज के आंसूओं को जैसे विराम लग गया. वह अवाक था. पापा कह रहे थे,'' यही तुम्हारे चारों दोस्त हैं न....... देखो ये तुमसे माफी माँगने आये है.'' पंकज ने देखा गंभीर, पलटू, मीका और देबू पायताने खड़े थे. थोड़ा भयभीत, थोड़ा पछताने वाली मुद्रा में.
पापा ने इशारे से उनको पंकज के पास बुलाया और बात करने का आग्रह किया. चारों पंकज के पास आये, उसके जख्मी हाथों को अपने हाथों में लिया और फफक कर रो पड़े. वे चारों गिडगिडा रहे थे, "अंकल हमने मजाक किया था. हमने एक पिक्चर देखी थी..... उसमें हीरो इसी तरह अपने दोस्त को धमकाता है........ पंक ने सच समझ लिया. अंकल हमें माफ़ कर दीजिये..... अंकल हमारे पापा को मत बताइयेगा.......अंकल हम अब कभी भी ऐसा मजाक नहीं करेंगे. प्लीज अंकल....प्लीज पंक.......तू हमारा सबसे अच्छा दोस्त है. कह दे कि तूने हमें माफ़ कर दिया....."
पापा ने उसके दोस्तों को घर जाने को कहा फिर उसका माथा चूमते हुए बोले, '' जीवन इतना सस्ता नहीं होता बेटा..... अनगिनत उतार चढाव आते रहते हैं …..... अभी तो तुम्हें बड़ी- बड़ी चुनौतियों का सामना करना है... मुझसे वादा करो कि भविष्य में तुम इस तरह नहीं हारोगे......” पंकज ने सर हिला कर हाँ कहा, तब पापा बोले, “ तुम ठीक हो जाओ फिर हम खेलेंगे तुम्हारे साथ नक़ल-नक़ल का खेल ....हैं न माँ...."
दादी रो रही थी कि हंस रही थी, वह समझ न पाया.
खिड़की पर नजर गई तो आसमान साफ़ था, बादलों का नामों निशाँ न था और हल्की सुनहरी धूप से कमरा आलोकित था.पंकज ने एक दीर्घ सांस छोडी और उसकी आँखें मुंदने लगी. कहीं दूर चिड़िया चहक रही थी.
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सुधा गोयल " नवीन"
कदमा , जमशेदपुर - 831005
इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से मास्टर्स (हिंदी )
'और बादल छंट गए " एवं "चूड़ी वाले हाथ" कहानी संग्रह प्रकाशित
आकाशवाणी से नियमित प्रसारण एवं कई पुरस्कारों से सम्मानित ...
झारखंड की चर्चित, एवं जमशेदपुर एंथम की लेखिका ..
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