तेजपाल सिंह 'तेज' की कुछ ग़ज़लें -एक- जनतंत्र की आँधी में क्या खूब उड़ी मिट्टी, विश्वास के फूलों पर बन कोढ़ जमी मिट्टी। गए दौर में...
तेजपाल सिंह 'तेज' की कुछ ग़ज़लें
-एक-
जनतंत्र की आँधी में क्या खूब उड़ी मिट्टी,
विश्वास के फूलों पर बन कोढ़ जमी मिट्टी।
गए दौर में पर्वत-सी काटे न कटी लेकिन,
नए दौर के दरिया में नाबाद बही मिट्टी।
क्या बात है कि आखिर मुँह मोड़ चले वो भी,
जिनकी खुशी को हमने ताउम्र चखी मिट्टी।
चुभती है कंटकों सी, फटती है अणुबमों सी,
इस तौर सियासत के सांचों में ढली मिट्टी ।
दीपों में, बर्तनों में, गमलों में ढले कैसे,
सत्ता का नशा पीकर गुस्ताख बनी मिट्टी ।
-दो-
बदलते दौर में वो दिन वो रात कहाँ,
अब आदमी में आदमी सी बात कहाँ।
कोई कैसे दे आशीष छोटी बहन को,
खून में लथपथ हैं, खाली हाथ कहाँ।
सब के सब अब ज़हर यां पीने लगे,
अब नानको-गौतम कहाँ सुकरात कहाँ।
मर रहा है आजकल इंसान का पानी,
सावन के घर अब फागुनी बरसात कहाँ।
अब जिन्दगानी हाशिए पर आ गई,
अब जिन्दगी में जिन्दगी सी बात कहाँ।
लगा टूटने अब 'तेज' रिश्तों का भरम,
कि नए दौर संध्या कहाँ, प्रभात कहाँ।
-तीन-
हादसों में आसरा पाऊँ कहाँ,
प्रेम की परछाइयाँ पाऊँ कहाँ।
मौत मुँह खोले खड़ी है चारसू,
जिन्दगानी का पता पाऊं कहाँ।
हो गया हर सिम्त अब शहरीकरण,
शहर अपने गाँव सा पाऊँ कहाँ।
ओस में लिपटे चमन की ताज़गी,
बानबाँ कुछ तो बता पाऊँ कहाँ।
हैं बुलबुलों के पंख वन्दनवार में,
शहर में अब तितलियाँ पाऊँ कहाँ।
चूडियाँ शबभर खनक के रह गईं,
हौंसले अब या-खुदा पाऊँ कहाँ।
जो असल चेहरे को नुमायाँ करदे,
`तेज' ऐसा आईना पाऊँ कहाँ।
-चार-
शूल पत्थर आग बन पानी न बन,
वक़्त की आवाज सुन ज्ञानी न बन ।
अब फ़कत तारीकियां ही शेष हैं,
रहम खा इंसान पर दानी न बन ।
ज़िन्दगी माना कोई हासिल नहीं,
पर इसे अगवा न कर नाज़ी न बन ।
कि धर्म के मालिक बहुत हैं चारसू,
तू कर्म का अध्याय बन ग़ाज़ी न बन।
कब तक चलेगी ज़ीस्त नंगे पाँव
मौत को सिजदा न कर फ़ानी न बन।
-पाँच-
कैसा पागल हूँ, मुर्दों को जुबां देता हूँ’
राख के ढेर को जलने की दुआ देता हूँ।
जाहिर है, अब ना आएगा, आने वाला,
फिर भी उसे मुड़-मुड़ के सदा देता हूँ।
अब धूप की शिद्दत से परेशाँ न हो,
मैं बरसात को शबो-रोज सदा देता हूँ।
वो हैं कि जो शोलों को हवा देते हैं,
और मैं हूँ कि मुद्दों को हवा देता हूँ।
उनसे कैसे कहूँ ‘तेज’ मैं घर की बातें,
जिनको कि मैं जीने का गुमाँ देता हूँ।
-छ: -
सियासतें बदलीं मगर दफ्तर नहीं बदले,
हुक्मरानी कोट के अस्तर नही बदले ।
ज़ख्मों से निकले खून का रंग तो बदल गया,
पर सियासी यार के खंजर नहीं बदले ।
भुखमरी के वोट ने बदले हैं तख़्तो-ताज,
पर भुखमारी के मील के पत्थर नहीं बदले ।
ज़ेरे-बहस है मुद्दआ , रोटी का आज भी,
अभी तलक तो भूख के बिस्तर नहीं बदले ।
इस बदलते दौर में, बदले सभी आखिर,
साहिब नहीं बदले यहाँ अनुचर नहीं बदले ।
आज भी जारी है उनका रूठन, रोना, हँसना,
कि बादशाहत के कभी तेवर नहीं बदले ।
ख़ण्डरों को तोड़कर घर तो बना लिए,
पर खण्डहरों की नींव के पत्थर नहीं बदले ।
-सात-
छीनकर मुँह से निवाला आपने,
शर्म को घर से निकाला आपने ।
चंद चुपड़ी रोटियों के वास्ते,
स्वयं को ही बेच डला आपने।
शहर अपना जगमगाने के लिए,
गाँव सारा फूँक डाला आपने ।
चाँद-तारों की तलब में बारहा,
अर्स पर पत्थत उछाला आपने ।
देखने को अपनी सौ-सौ सूरतें,
आईना तक तोड़ डाला आपने।
-आठ-
मिट्टी के माधो लगते हैं मेरे शहर के लोग,
अब साये से भी डरते हैं मेरे शहर के लोग ।
सत्ता के गलिहारों में हैं भ्रष्टाचारी पनप रहे,
नाहक जनवादी बनते है मेरे शहर के लोग ।
‘सत्यमेव जयते’ का अब कोई भी अर्थे नहीं,
झूठ के पैरों पर चलते है मेरे शहर के लोग ।
अत्याचार के आगे जैसे टेक दिए घुटने सबने,
लुट-पिटकर भी चुप बैठे हैं मेरे शहर के लोग ।
कसने लगा शिकंजा फिर ए तेज! सियासतदानों का,
फिर सहमे-सहमे लगते हैं मेरे शहर के लोग ।
- नौ-
उठिये कि अब जमीन पर अम्बर तलाशिए,
बस्तियों के बीच में कुछ घर तलाशिए ।
सोना मिरा वाज़िब नहीं, है जागना गुनाह,
आँखों में ख़्वाबगाह के पत्थर तलाशिए ।
रोशनी में डूबकर रह गए महलो-मकां,
अब रोशनी के वास्ते छप्पर तलाशिए ।
सलामत है यां कांटों में ही गुलशन कि अब,
कांटों की सरज़मीन पर बिस्तर तलाशिए ।
तोड़ने हैं दासता के आईने कि ‘तेज’,
अब घर के आस-पास कुछ पत्थर तलाशिए ।
-दस-
अब नई दुनिया बसाना चाहिए,
मृत्यु को जीवन बनाना चाहिए ।
मज़हबी हलकों में बसने की ललक,
मर गई , कहीं दूर जाना चाहिए ।
भगते-भगते थक गया मेरा जुनूँ,
अब दो घड़ी को ठहर जाना चाहिए ।
कौन हिन्दू है, मुसलमाँ कौन यारो,
यह व्यर्थ का अंतर मिटाना चाहिए ।
बुद्ध की, नानक की, चिस्ती की जमीं पे,
फिर शांति का दीपक जलाना चाहिए ।
(मेरे ग़ज़ल स्ंग्रह 'दृष्टिकोण' से उद्धत)
तेजपाल सिंह तेज’ (जन्म 1949) की गजल, कविता, और विचार-विमर्श की लगभग दो दर्जन किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं - दृष्टिकोण, ट्रैफिक जाम है, गुजरा हूँ जिधर से, हादसों के शहर में, तूंफ़ाँ की ज़द में ( गजल संग्रह), बेताल दृष्टि, पुश्तैनी पीड़ा आदि (कविता संग्रह), रुन - झुन, खेल - खेल में, धमाचौकड़ी आदि ( बालगीत), कहाँ गई वो दिल्ली वाली ( शब्द चित्र), पांच निबन्ध संग्रह और अन्य। तेजपाल सिंह साप्ताहिक पत्र ग्रीन सत्ता का साहित्य संपादक, चर्चित पत्रिका अपेक्षा का उपसंपादक, आजीवक विजन का प्रधान संपादक तथा अधिकार दर्पण नामक त्रैमासिक का संपादक भी रहे हैं। स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त होकर आप इन दिनों स्वतंत्र लेखन के रत हैं। हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार ( 1995-96) तथा साहित्यकार सम्मान (2006-2007) से भी आप सम्मानित किए जा चुके हैं।
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