सोच के घोड़े की लगाम हाथ में थामे, पल-पल बिना आहट दिव्या माथुर जी बड़ी ही सरलता और सुगमता से अपने आप को कहानी के किरदार में समावेश करते हुए ...
सोच के घोड़े की लगाम हाथ में थामे, पल-पल बिना आहट दिव्या माथुर जी बड़ी ही सरलता और सुगमता से अपने आप को कहानी के किरदार में समावेश करते हुए उसी के परिवेश में रहकर उम्र भर का चिट्ठा, काट कूटकर, सीमित तीन दिनों में पूर्ण कर पाई है। यह नारी मन के मंथन का प्रतिफल है, जो आसपास के गरजते शोर से खुद को अलग करके उस एक खामोश टीले पर खड़े होकर की गई साधना के मिसल है , जहां बाहर भीतर नहीं जा सकता, कोई बाहर की विषय वस्तु हाइल नहीं बनती। मन ही तो है जो फैलाव के अनंत विस्तार को छू जाता है। पर वक़्त...हाँ बहुत ही लम्बा अभ्यासी वक़्त लगता है उसे एक बिंदु पर ठहराने के लिए। शायद ठहराव मन की फितरत ही नहीं और वो भी नारी मन, जो अपने आसपास, अपने बाहर भीतर के परिवेश में रहते हुए जाने कितने रिश्ते बुन लेता है, कभी उधेड़ कर फिर बुनता है, पर छोर को अपने हाथ से नहीं छोड़ता।
इसी दिशा और दशा में जाने अनजाने ही सही, कहानी की नायिका खुद एक चक्रव्यूह में बंध कर रह जाती है-तन से मन से, मस्तिष्क से। उसे सब अपना-अपना सा लगता है। घर, चूल्हा-चौका, शयनकक्ष जहां वह कभी रातें जागते हुए भी गुज़ारती है, और कभी बेचैन तकिए पर सर रखकर सोच के सागर में आने वाले कल की संभावनाओं में खो जाती है। पर सोच भी तो उसकी अपनी है बिना लगाम हर दिशा में मुड़ जाती है- कभी उस की इजाज़त से तो कभी बिना इजाज़त। वह एक मसले का हल ढूंढने निकलती है और खोज का नतीजा दस और मसाइल बिना समाधान आपने सामने पाती है!
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कहानी के किरदार 'माया' ऐसी ही एक मायावी चक्रव्यूह में धँसती जा रही है, खयालों की दलदल से उभरकर अपनी कार्य क्षमता को तीन दिन की चुनौती के साथ स्वीकार कर लेती है। निश्चित ही तीन दिनों में उसकी मौत होगी। बीते अनेक सालों का एक बसा-बसाया घर संसार, ओढ़ी हुई जवाबदारियां और समेटने के लिए, समय की अवधि सिर्फ तीन दिन ! स्त्री चरित्र की महिमा भी अपार है, अगर ख़ुदा वक्त के दायरे में दुनिया रचा-बसा सकता है, बसा कर संवार सकता है, तो वह क्यों नहीं? अपनी क्षमता पर रति मात्र भी संशय नहीं उसे। नारी शक्ति कुछ करने पर आमादा हो तो क्या नहीं कर सकती?
ठान लेने की बात है और खुद को साधे हुए रखना है, क्योंकि सोच के आधार पर कार्य सम्पन्न करना है। हाँ, उसे कहां कोई कार्य बिगाड़ना है उसे उसे तो खयालों में ही नहीं, दिन में खुली आंख से देखे हुए ख्वाबों को और ज्यादा संवारना है। अपनी उम्र भर की सँजोई धरोहर को अपनों में ही बांटना है। जिंदगी के आखिरी पड़ाव में आते आते मानव मन यही तो सोचता है, शायद करता भी है। कितना कर्मठ ईमानदार और निष्ठावान है नारी की ममतामई पक्ष... अपनी तमाम पूंजी, गहने, कपड़े-लत्ते और जाने क्या कुछ अपनी औलाद में और अपने करीबी रिश्तेदारों में बांटने का गणित मन में अपनी नातों के जुड़ाव से कर लेती है। जिसको जो मिलना है मिलेगा। नहीं... नहीं... जिसको वह जो कुछ बांट कर देगी वही उनके भाग्य का हिस्सा होगा। बेटी को कौन से जेवर देने है, चोटी भाभी को कौन से कपड़े देने है.....वगैरह...वगैरह....!
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मानव मन भी अजीब है सागर की तरह गहरा! अपनी ही सोच के संसार में खुद को ख़ुदा ही मान बैठता है। पागलपन की हद इससे ज़्यादा और क्या होगी। जो कार्य जीते जी अपने आप को संयम में रखकर करना है उसकी चिंता 'कि मरने के बाद कोई यह न कहे' से अपने आप से जोड़ना शायद साधारण मानव के लिए मुमकिन न होगा। पर कहानी में किरदार की बेलगाम सोच हर दिशा की हद को छूती हुई लौट आती है, जहां वह इस धरती पर टिके सत्य को सामने पाती है। सोच के टीले, रेत की तरह भर-भराकर ढह जाते हैं।
जीते जी मरना क्या होता है उसी दृश्य का एक रोचक हिस्सा कहानी 'अंतिम तीन दिन' में मानसिक प्रभाव डालता है। कहानीकार दिव्या माथुर ने अपनी कलम की रवानी के सैलाब में पाठकों को बहा ले जाने में कामयाबी हासिल की है। एक और बात-पात्र माया के पार्थिव शरीर को बक्से में देखकर श्रद्धांजलि अर्पित करने से यह सुखद आश्चर्य भला लगा कि वह अपनी इन तीन दिनों की घमासान जंग की व्यथा से उबर कर फिर संसार में वापस आ गई। यह कहानी अपने आप में एक सूक्ष्मता लिए हुए , सकारात्मक संकेत भी देती है कि हर पल उस सच के लिए तैयार भी रहना है जो हमारे सिरहाने खड़ा है। हमारा हर कदम अपनी मंजिल की ओर ही तो बढ़ रहा है। अपने ही कंधों पर जिंदगी का सलीब लेकर ही तो चलना है, जिसके बोझ में समाहित है दिन भर की चर्या, सुबह की चाय से लेकर रात के आरामी होने के पहर तक! काम करना है, आगे बढ़ना है, थक जाना है और फिर सो जाना। नींद भी तो अनिवार्य है जिंदगी के लिए:
जिंदगी एक आह होती है
मौत जिसकी पनाह होती है
दिव्या माथुर जी की लेखनी में एक तपस्विनी का तेज है और उसी मनोबल के आधार पर वे ऐसी और स्तंभ कहानियां लिखाती रहें, जो मानव मन के मंथन की उपज हो। पढ़ते पाठक का मन निश्चित ही उस रौ बहकर यह जानने के उत्सुक जरूर रहा कि अब क्या होगा? क्या किरदार की सोच सच में तीन दिनों के भीतर ऐसा कुछ कर पाएगी? और अंत अचानक एक सुखद मोड़ पर आ कर रुक जाता है।
पर जिंदगी कहां रुकती है? अपनी आहट से जगाती है, किरदारों को चलाती है और आश्चर्यचकित रूप से उन्हीं पात्रों में प्रवेश पाकर खुद भी जी लेती है! यही तो ज़िंदगी है-कभी हंसाए, कभी पल भर में रुलाकर फिर हंसाए ....!
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देवी नागरानी
न्यू जर्सी, dnangrani@gmail।com
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