5 सितंबर शिक्षक दिवस पर विशेष आलेख हताशा और निराशा भरे जीवन में उम्मीद का दीप जला रहे शिक्षक ० ‘भय बिनु होय न प्रीत गोसाईं’ जैसा अस्त्र भी अ...
5 सितंबर शिक्षक दिवस पर विशेष आलेख
हताशा और निराशा भरे जीवन में उम्मीद का दीप जला रहे शिक्षक
० ‘भय बिनु होय न प्रीत गोसाईं’ जैसा अस्त्र भी अब नहीं रहा
‘हीरे को दे तराश तो कीमत बढ़ जाती है,
जो विद्याधन हो पास तो जिंदगी सँवर जाती है,
यदि फल-फुल रखो प्रभु के आगे तो, प्रसाद बन जाता है,
अगर शिष्य झुके गुरु के आगे, तो इंसान बन जाता है।’
भारतवर्ष की वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में अध्यापक की कल्पना चिंतन करने के बजाए चिंतित रहने वाले एक मनुष्य के रूप में कई जा सकती है। एक तरफ तो वह शैक्षिक प्रशासन के ‘भययुक्त वातावरण’ में जीता है तो दूसरी तरफ स्कूल में बच्चों के लिए ‘भयमुक्त माहौल’ बनाने का कठिन काम भी करता है। हमारे देश के विभिन्न राज्यों में शिक्षकों को तमाम अवसरों पर अधिकारियों की फटकार, ललकार और सत्ता परिवर्तन के साथ योजनाओं में बदलाव की मार भी खेलनी पड़ती है। शिक्षा के क्षेत्र में होने वाले प्रयोगों की लंबी सूची बताती है कि हमारे अध्यापक शिक्षाविदों की बनाई भूल-भुलैया में लंबे समय से अपने धैर्य की परीक्षा देते आ रहे हैं। वे बच्चों को अपने सामने परीक्षा से भयमुक्त और पढ़ाई की जिम्मेदारी से मुक्त होते हुए देख रहे हैं। उन्हें बच्चों को पढ़ना है, सीखना है और प्रतियोगिता में आगे बढ़ने प्रोत्साहित भी करना है। विडंबना है कि उसे यह सब काम अब बिना किसी दंड और दबाव के कारण है। भय बिनु होए न प्रीत गोसाईं का अचूक अस्त्र अब उसके हाथ से छीन लिया गया है। इस तरह का परिवर्तन अटपटा से प्रतीत होता है। जिन्होंने अपने छात्र जीवन में बच्चों की पिटाई को एक स्वीकार्य विचार के रूप में देखा और जिया था, अब ठीक विपरीत व्यवहार की उम्मीद उससे की जा रही है। ऐसे में शिक्षक खुद को दो-राहे पर खड़ा पा रहे हैं। आखिर करें तो करें क्या?
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शिक्षक वह विशेष व्यक्तित्व होता है जो शिक्षार्थी को अपने जैसा अथवा अपने से भी बेहतर बना देने की कला का पारखी होता है। साधारण से छात्र को अत्यंत प्रतिभाशाली छात्र के रूप में गढ़ देने की अद्भूत शक्ति शिक्षक में ही होती है। यह कहने में कोई संकोच नहीं कि शिक्षक ज्ञान का समुद्र होता है। उसमें कला-कुशलताएं उद्दाम लहरों की भांति उफनती-उमड़ती रहती हैं। यही शिक्षक अपने शिक्षार्थी के जीवन में कुशलताओं और सफलताओं की बाढ़ ला देता है। शिक्षक की वाणी भर नहीं बोलती, उसका आचरण उससे भी अधिक मुखर होकर बोलता है। वाणी की पहुंच कानों तक सीमित होती है, परंतु आचरण प्राणों तक अपनी पहुंच बनाता है। एक श्रेष्ठ शिक्षक विचारों का सम्प्रेषण भर नहीं करता वरन अनुभव प्रदान कर उसमें प्राणों का संचार करता है। सदविचार को सद्व्यवहार में परिवर्तित कर नयी सृष्टि और नूतन सृजन करने वाला भी एक शिक्षक ही होता है। चाणक्य एक कुशल आचार्य एवं शिक्षक थे, उन्होंने चंद्रगुप्त को उनके व्यक्तित्व का बोध कराया। उनके अनगढ़ व्यक्तित्व को गढ़ने का काम भी किया। इसी तरह आईसीएस की नौकरी को तिलांजलि देने वाले श्री अरविंद सहीं मायने में एक महान शिक्षक थे, जो अपने विद्यार्थियों में प्राण फूंका करते थे। शिक्षक का प्रभावकारी पक्ष उसके आचरण का आकर्षण होता है। इसलिए कहा जाता है।
गुरू की ऊर्जा सूर्य सी, अंबर सा विस्तार
गुरू की गरिमा से बड़ा, नही कहीं आकर
गुरू का सद सानिध्य ही, जग में है उपहार
प्रस्तर को क्षण-क्षण गढ़े मूरत हो तैयार।।
एक गुरू ही है जो अपने शिष्य को संपूर्ण से जानता है। बाकी लोग जानते हैं, आधे-अधूरे मन से, बड़े ही सतही तौर से। माँ अपने बच्चे को जानती है, लेकिन पूरा नहीं जान पाती-जैसे उसके बच्चा जब युवा हो जाता है और उसका भिन्न व्यक्तित्व प्रकट होता है तो मां को लगता है कि हमने जिस बच्चे को परवरिश दी थी, क्या वह यही है? पति-पत्नी का संबंध बड़ा प्रगाढ़ होता है। वे एक-दूसरे को जानते हैं, लेकिन अनेक अवसरों पर अनोखे रूप में एक-दूसरे के समक्ष आते हैं कि लगने लगता है कि एक-दूसरे से अपरिचित हैं। एक मात्र गुरू-शिष्य का संबंध ही ऐसा है, जिसमें गुरू शिष्य को पूरी तरह से जनता है, उसे शरीर के रूप में नहीं, व्यक्तित्व के रूप में पहचानता है। केवल सतह को नहीं जानता बल्कि गहराई तक पकड़ रखता है, उसके मन को जानता है, संस्कारों को भली प्रकार पहचानता है। इतना ही नहीं कहा तो यहां तक जाता है कि एक गुरू अपने शिष्य को जन्म-जन्मान्तरों तक पहचानता है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा भी है-‘बंदउँ गुरु पद कंज, कृपा सिंधु नररूप हरि।’ अर्थात गुरू रूप में, नर रूप में नारायण हमारे बीच विचरण करते हैं। एक शिक्षक ही समाज की वह मुख्य कड़ी है जो एक शिक्षार्थी में उचित आदर्शों की स्थापना करता है, सहीं मार्ग दिखाता है। शिक्षक के त्याग को सर- माथे पर रखते हुए किसी ने कहा है..
’गुमनामी के अंधेरे में था, पहचान बना दिया
दुनिया के गम से मुझे, अनजान बना दिया
उनकी ऐसी कृपा हुई, मुझे अच्छा इंसान बना दिया।।’
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शिक्षक होने के नाते आज मुझे लगता है कि अब शिक्षा का स्तर ज्यादा सामाजिक हो चुका है, जो शिक्षा जीवन से नहीं जुड़ती वह लुगदी से अधिक कुछ नहीं। आज हम अपने छात्रों को जो सपने दिखा रहे हैं अथवा उनके मन में भविष्य के प्रति एक उम्मीद भर रहे हैं, उन्हें लेकर खुद भी कई बार शंका और चिंता मन में पैदा होती है। आज जो हताशा, असफलता और निराशा से ओत-प्रोत बेकारी का वातावरण देश में बना हुआ है, रोजगार के हालात बद-से-बदतर हो चुके हैं और नौजवानों के बीच विदेश जाने की होड़ मची हुई है, उस बीच एक शिक्षक की जिम्मेदारी और ज्यादा बढ़ जाती है। इसके साथ ही आज-कल का सिनेमा, मीडिया, जिस प्रकार के विचार विद्यार्थियों में रोपित कर रहा है उनके जंजाल से भी शिक्षकों को ही निपटना है। वास्तव में देखा जाए तो आज शिक्षा का बाजारीकरण हो चुका है। इसमें ऐसे लोगों का प्रवेश हो चुका है, जिनके लिए नैतिकता और शिक्षा कोई मायने नहीं रखती। शिक्षा का बाजारीकरण होने से गुरू-शिष्य के बीच गरिमा, आदर और विश्वास का जो रिश्ता पहले हुआ करता था वह आज दाँव पर है ।सदियों से चली आ रही गुरु . शिष्य की आत्मीय परंपरा का नैतिक पतन शिक्षा के व्यवसायीकरण के कारण ही हुआ है। सारी विपरीत परिस्थितियों में हमें शिक्षक दिवस के बहाने ही सहीं, शिक्षकों का सम्मान करते हुए उनकी कृतज्ञता का संकल्प लेना ही चाहिए। अंत में...
‘गुरू अनंत तक जानिए, गुरू की ओर न छोर,
गुरू प्रकाश का पुंज है, निशा बाद का भोर।।’
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डा. सूर्यकांत मिश्रा
न्यू खंडेलवाल कालोनी
प्रिंसेस प्लेटिनम, हाऊस नंबर.5
वार्ड क्रमांक-19, राजनांदगांव (छग)
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