पुस्तक समीक्षा : पुस्तक का नाम : राजनीति के सामाजिक सरोकार लेखक : तेजपाल सिंह ‘तेज’ प्रकाशक : बुक रीवर्स प्रेस, लखनऊ (उ. प्र.) पृष्ठ : 165...
पुस्तक समीक्षा :
पुस्तक का नाम : राजनीति के सामाजिक सरोकार
लेखक : तेजपाल सिंह ‘तेज’
प्रकाशक : बुक रीवर्स प्रेस, लखनऊ (उ. प्र.)
पृष्ठ : 165 मूल्य : 170/- : प्रकाशन वर्ष : 2019
समीक्षक का परिचय :
समीक्षक ईश कुमार गंगानिया एक वरिष्ठ कवि, कहानीकार, उपन्यासकार व ख्यात समीक्षक-आलोचक तथा
भारतीय समाज में मौजूद विभिन्न प्रकार की कुरीतियों, विषमताओं और साम्प्रदायिकता के खिलाफ वैचारिक जंग के चलते कम से कम पन्द्रह पुस्तकों का लेखक हैं, जिनमें तीन कविता संग्रह, एक कहानी संग्रह, दो मूलनिवासी अस्मिता संघर्ष पर आधारित, एक अन्ना आंदोलन 2012 और शेष आठ पुस्तकें साहित्यिक आलोचना और समसामयिक मुद्दों पर निबंधों का संकलन हैं। गंगानिया जी ने आठ वर्षों से अधिक हिन्दी आलोचना की त्रैमासिक हिन्दी पत्रिका ‘अपेक्षा’ में सह-संपादक के रूप में कार्य किया और एक बाई-लिंग्वल मासिक पत्रिका ‘आजीवक विज़न’ का स्वतंत्र संपादन किया। उपन्यास ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ लेखक की नवीनतम कृति है।
एक ईमानदार वैचारिक प्रतिबद्धता की मिसाल
समीक्षक : ईश कुमार गंगानिया
दो दर्जनों से भी ज्यादा पुस्तकों लेखक तेजपाल सिंह ‘तेज’ की सद्य प्रकाशित पुस्तक ‘राजनीति के सामाजिक सरोकार’ मेरे सामने है। मैं इसे पढ़ते हुए एक अजीब-सी कशमकश से गुजर रहा हूं। एक ग़ज़लकार का ग़ज़लों की मनमोहक खूबसूरत महकती दुनिया से विमुख हो जाना, राजनीति के बीहड़ में भटकना और राजनीतिक बाहूबलियों से टक्कर लेना मेरी बेचैनी को बढ़ाता है। इस बेचैनी का अर्थ समझने के लिए मुझे जाने माने शायर बशीर बद्र की याद आती है। याद आती है उनके शेर/नज्म... ‘कुछ तो मजबूरियां रही होंगी, यूं कोई बेवफा नहीं होता।’ यहां मामला सिर्फ ग़ज़ल से बेवफाई तक ही नहीं सिमटा है। इसका व्यवस्था से बगावत का मामला बन जाना और एक शायर के होंसले के ज़ज्बे को केन्द्र में लाकर खड़ा कर देना निस्संदेह विचारणीय बिंदु हो जाता है। यद्यपि इसी ग़ज़ल/नज्म के एक और शेर में बशीर बद्र ‘दिल की बात’ और ‘हौंसले’ के दरमियां के दूरियां की बात करते हैं। इन दूरियों को तय करने की बात के प्रति वे आश्वसत नहीं हैं। कहने की जरूरत नहीं कि ‘आज ‘ये दूरियां’ डर के साये में जीने की हकीक़त का ‘आईना’ भी है। लेकिन ‘तेज’ साहब की पुस्तक के निबंध बशीर बद्र के इस शेर ‘जी बहुत चाहता है सच बोलें, क्या करें हौसला नहीं होता’, के सच पर अपने बोलने के दृड़ संकल्प और उनके हौंसले की मुहर लगाते हैं। उनके हौंसले की यह उड़ान काबिल-ए-गौर है और काबिल-ए-तारीफ भी।
‘तेज’ अपने निबंधों में मौजूदा राजनीति के गिरते स्तर और देश की जानीमानी शख्सीयतों की शान में गुस्ताखी के खिलाफ बराबर आवाज उठाते हैं। मोदी जी को बुद्ध के बरअक्श खड़ा कर देना और फिर नवें अवतार के रूप में प्रोजक्ट कर देने को वे मानसिक दीवालियेपन के लक्षण के रूप में देखते हैं। प्रश्न उठता है कि ऐसा करने से क्या मोदी जी बुद्ध बन जाएंगे या विष्णु के अवतार भी हो जाएंगे? ऐसा नहीं है। हकीकत यह है कि वे न बुद्ध हो जाते हैं और न ही नवें अवतार ही हो सकते हैं। लेकिन ऐसे कृत्यों के नुकसान भयंकर होते हैं। किसी भी व्यक्ति को देवताओं की श्रेणी में ले जाने की प्रवृत्ति ने देश को छत्तीस करोड़ देवताओं से लाद दिया है। यह इंसान और इंसानियत के मन-मस्तिष्क पर ऐसा लबादा है जिसने इंसान की प्रगति को बाधित किया है। इंसान को एक अजीब प्रकार की भूलभूलैया में भटकने को छोड़ दिया है। मौजूदा राजनीति में इसका प्रयोग लोकतंत्र के माथे पर एक कलंक है। हनुमान को जातियों के स्तरीकरण की कीच में घसीटना हमारे जनप्रतिनिधियों की संकीर्णता को दर्शाता है। यह दर्शाता है कि उनके पास देश व समाज के लिए न कोई विज़न है और न ही कुछ कर गुजरने की कोई इच्छा शक्ति। यह जनता को गुमराह करने की साजिश के साथ-साथ उसे उसके नागरिक अधिकारों से वंचित करने की रणनीति है। जाहिर है यह जनता की किसी भी व्यक्ति के प्रति गुलामी का प्रतीक है। ऐसे ओछे कारनामें किसी भी सभ्य समाज व देश लिए कभी भी हितकर नहीं हो सकते। मि. ‘तेज’ इसी गुलामी से मुक्ति की बात करते हैं। नागरिक अधिकारों की वकालत करते हैं। यह उनकी लोकतांत्रिक अधिकारों के प्रति दूरदर्शिता का द्योतक है। इनके पक्ष में आवाज उठाना स्वागत योग्य कदम है।
सरदार पटेल, जवाहर लाल नेहरु, डा. अम्बेडकर, सरदार भक्त सिंह, नेताजी सुभाष को सलैक्टिव अंदाज में वर्तमान राजनीति में घसीटना, एक-दूसरे के सामने खड़ा करना और इनके बारे में उल्टी-सीधी बयानबाजी व ओछी राजनीति करना है। इन देश के महानायकों के व्यक्तित्व व इनके योगदान का अपमान है। ऐसे कृत्य जनता के दिमाग में जहर घोलने का काम करते हैं, आपसी टकराव का माहौल पैदा करते हैं जो सामाजिक सौहार्द, आपसी भाईचारे और अमनचैन को चुनौती है। पूरे चुनाव के दौरान दंगा-फसाद और खेमेबंदी इस बात के प्रमाण हैं कि राजनीति की कीच किस प्रकार हमारे समाज के तानेबाने को लील रही है। ‘तेज’ के निबंधों में इस बिगड़ते तानेबाने के विरुद्ध जंग बराबर नजर आती है। यह साहस की बात है और स्वस्थ लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिए शुभ संकेत है।
आजकल देश में नागरिकों का जैसे अकाल जैसा कुछ पड़ गया है। जिन्हें देश के जिम्मेदार नागरिक होना चाहिए था, वे एक गैर-जिम्मेदार भीड़ में तब्दील हो गए हैं। वे या तो किसी व्यक्ति के भक्त हो गए हैं या किसी राजनीतिक पार्टी के या किसी जाति व धर्म के गुलाम। यह गंभीर चिंता की बात है। इसके कर्इ कारण हो सकते हैं मसलन कुछ राजनीतिक दलों ने नागरिकों से उनकी नागरिकता छीनने के लिए पैसे को राजनीति के मैदान-ए-जंग में उतार दिया है। इसके चलते व्यक्ति बिकाऊ माल बनकर रह गया है। जो बिक गया है, उसके लिए क्या नागरिकता, क्या अधिकार, क्या लोकतंत्र? दूसरे, जातियों और धर्म को सियासी मोहरों की तरह इस्तेमाल करना, जातीय व धार्मिक दंगों के लिए सांप्रदायिक दंगों की जमींन तैयार करना और मॉब-लिंचिग जैसे खून-खराबे को प्रत्यक्ष या परोक्ष संरक्षण देना मौजूदा राजनीति के ऐसे कारनामें हैं जिन्होंने नागरिकों को दंगाइयों की भी भीड़ में बदल दिया है। ऐसे में ‘तेज’ का जिम्मेदार नागरिक बने रहना और नागरिकता के अस्तित्व की सलामती के लिए आग के दरिया में डूब के जाना यकीनन बड़े जोखिम का काम है। ‘तेज’ के मौजूदा पुस्तक में संकलित निबंध ऐसे जोखिमों की गवाही बड़ी शिद्दत से देते नजर आते हैं।
निबंधकार की समसामयिक घटनाक्रम पर सूक्ष्म दृष्टि होना एक जिम्मेदार नागरिक होने का लक्षण है। वे जनता के व्यापक हितों के प्रति एक सजग प्रहरी की तरह हर मोर्चे पर बदस्तूर मौजूद नजर आते हैं। उन्हें कुंभ के मेले में 4000 करोड़ जनता की गाढ़ी कमाई की बरबादी नजर आती है। सड़कों शहरों, रेलवे स्टेशनों आदि के नाम बदलने को वे सस्ती लोकप्रियता और नासमझी की श्रेणी में मानते हैं। जनता को गुमराह करने वाले कदम से ज्यादा कुछ नहीं मानते। उज्ज्वला योजना के मामले में उन्हें गरीब और निरीह जनता के साथ धोखा नजर आता है। इसको उज्ज्वला योजना के तहत कनैक्शन देने के पीछे लोन (कर्ज) के होने को वे एक साजिश की तरह देखते हैं। दलितों को खिचड़ी खिलाना व सफाई कर्मियों के पैर धोने को वे एक बेहद निचले स्तर की राजनीति के रूप में देखते हैं और इसके विरुद्ध जमकर अपनी कलम चलाते हैं। इन साजिशों के पीछे की धिनौनी करतूत को वे जगजाहिर कर जनता को आगाह ही नहीं करते बल्कि सचेत करते नजर आते हैं।
ऐसा लगता है कि ‘तेज’ दलित शोषित व अन्य कमजोर वर्ग के संवैधानिक प्रावधानों के प्रति भी काफी सचेत हैं। वे विश्वविद्यालयों के विभागवार रोस्टर पर भी अपनी पैनी नजर रखते हैं और मूल्यांकन करने का प्रयास करते हैं कि सरकार के ऐसे कारनामों से कहीं इन कमजोर वर्गों के हितों के साथ तो कोई नाइंसाफी तो नहीं हो रही। वे संवैधानिक प्रावधानों के चलते यह भी जांच-पडताल करना नहीं भूलते कि इन प्रावधानों के चलते दलित और आदिवासियों की जिन्दगी में कितना परिवर्तन अपेक्षित है और परिवर्तन कितना हो रहा है। इन प्रावधानों का पूरा-पूरा लाभ इन वर्गों को दिलाने के लिए वे परिस्थितियों का पोस्टमार्टम भी बड़ी शिद्दत से करते हैं और पाते हैं कि स्थिति संतोषजनक नहीं है।
मि. तेज को सरकार के क्रियाकलापों में जातिवाद की बू आती है। उन्हें लगता है कि जब सरकार ही जातिवादी बैसाखी की मोहताज है तो आम जनता से जातिवाद से मुक्ति की बात कैसे कही जा सकती है। वे जातिवाद के लिए शूद्रों यानी बहुजनों को आगाह करते हैं कि उन्हें खोखले सवर्णवाद के छलावे को समझने की जरूरत है। इससे मुक्त होकर ही वे दलितों के करीब आ सकते हैं, जातिवाद और सामाजिक असमानता की जंग लड़ सकते हैं। इन दोनों का वैचारिक गठबंधन समाज से जातिवाद की जड़ों को खोखला करेगा और जातिवाद की राजनीति को हतोत्साहित करेगा। लेकिन वे यह भी मानते हैं कि यह लड़ाई अभी और लड़े जाने की जरूरत है। यदि का
इन दोनों में एकता होगी, आपसी तालमेल व सौहार्द होगा तो न कोई सरकार इनका किसी प्रकार का दोहन कर सकेगी और न ही कोई दबंग जाति का सिरफिरा व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह इककीसवीं सदी में किन्ही भट्टा मजदूरों तक को मानव मल खिलाने का दुस्साहस कर सकेगा। तेज साहब का मानता है कि ऐसे अमानवीय कुकृत्य बिना किसी सरकारी व राजनीतिक संरक्षण के संभव नहीं। इसी सरकारी, राजनीतिक और जातीय नैक्सस और संरक्षण के खिलाफ ‘तेज’ अपने निबंधों में बराबर आवाज उठाते हैं। उनका यह ज़ज़्बा उनकी पुस्तक को पठनीय बनाता है।
मि. तेज के निबंधों को पढ़ते हुए एक हैरतअंगेज तथ्य सामने आता है। वह है - भारतीय जेलों में 72 प्रतिशत कैदी दलित, आदिवासी और मुसलमान हैं। जब उनके इस शोधपरक जानकारी को उनके द्वारा प्रदत्त दूसरी जानकारी अपराधिक छवि वाले नेताओं के साथ जोड़कर देखें तो साफ होता है कि न्याय व्यवस्था ठीक नहीं है। इसमें किसी न किसी रूप में जातीय दबंगई और पैसा न्याय को प्रभावित करता है। इसके चलते पैसे वाले और दबंग जाति वाले जघन्य अपराध के बावजूद भी जेलों से बाहर होते हैं और दलित, आदिवासी और मुसलमान जेलों के अंदर। यह कैसा लोकतंत्र है, कैसा न्याय है? इस ‘कैसे’ का पोस्टमार्टम मि. तेज के निबंधों में देखने को मिलता है। यह उनकी प्रत्येक पक्ष पर बारीक नजर रखने का परिणाम है। यह उनकी पुस्तक ‘राजनीति के सामाजिक सरोकार’ को पठनीय ही नहीं, एक संग्रहणीय दस्तावेज़ भी बनाता है।
मि. तेज के चिंतन की एक खास बात यह है कि वे कभी भी एकपक्षीय होकर विचार नहीं करते। ऐसा नहीं है कि सिर्फ राजनीति पर ही प्रहार करते हैं, उन्हें जहां कहीं भी कुछ गड़बड़ व आपत्तिजनक लगता है, उसपर वे अपनी बेबाक राय रखते हैं, बिना किसी परिणाम की परवाह किए बगैर। उन्होंने अपनी ईमानदार वैचारिक प्रतिबद्धता के चलते सिर्फ राजनीति व दबंग जातियों पर ही प्रहार नहीं किया है बल्कि उसी तेवर के साथ दलितों और अम्बेडकरवादियों की भी जमकर खबर ली है। उन्होंने अपने निबंध ‘अम्बेडकरवादियों के झुण्ड के झुण्ड पैदा हो रहे हैं किंतु...’ में अम्बेडकरवादियों के प्रति अपनी चिंता का इजहार किया है। वे अम्बेडकरवादियों से क्या-क्या अपेक्षा करते हैं, इसके आधार के रूप में मि. तेज ने ‘डा. अम्बेडकर की पत्रकारिता’ को अपनी वैचारिक जंग का आधार बनाया है। यह उनकी अपने लेखन के प्रति प्रतिबद्धता को दर्शाता है, लक्ष्य के प्रति समर्पण को दर्शाता है।
यहाँ यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि मीडिया की समाज में काफी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। मीडिया को लोकतांत्रिक व्यवस्था का चौथा स्तंभ भी कहा जाता है, क्योंकि इसकी जिम्मेदारी देश और लोगों की समस्याओं को सामने लाने के साथ-साथ सरकार के कामकाज पर नजर रखना भी है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में मीडिया की कार्यप्रणाली और रुख पर सवाल उठने शुरू हो गए हैं। सवाल यह है कि क्या मीडिया बदल रहा है? क्या मीडिया के नैतिक पक्ष पर ऐसे सवाल जायज हैं? कहना अतिशयोक्ति न होगा कि आजकल का मीडिया केवल और केवल सरकार का होकर रह गया है या यूँ कहें कि पूरी तरह से सरकार के दबाव में आकर केवल पैसा कमाने के लिए काम कर रहा है और जनता को सरकार के खिलाफ सवाल ना करने के लिए डरा रहा है। योँ तो इसकी जिम्मेदारी देश और लोगों की समस्याओं को सामने लाने के साथ-साथ सरकार के कामकाज पर नजर रखना है। लेकिन पिछले कुछ सालों में मीडिया की कार्यप्रणाली जनता के प्रति उत्तरदायी न होकर एक गोदी मीडिया की भूमिका निभा रही है या यूँ कहें पूरे तौर पर व्यावसायिक हो गई है। लगता है कि यही कारण है कि तेजपाल सिंह ‘तेज’ जैसे लेखक अपनी लेखनी अथवा सोशल मीडिया के जरिए सरकार और जनता के सवालों को जगजाहिर करने के उपक्रम में अग्रणीय पंक्ति में नजर आने लगे हैं।
अंत में निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि भले ही तेजपाल सिंह ‘तेज’ ने अपने लिए कांटों भरा रास्ता चुना हो लेकिन उनकी पुस्तक ‘राजनीति के सामाजिक सरोकार’ राजनीति और सामाजिक अव्यवस्था से आहत पाठकों के लिए राहत का सबब हो होगी...व्यवस्था से उपजी पीड़ा के लिए बाम का काम करेगी और मौजूदा सामाजिक और राजनीतिक सरोकारों को समझने का एक अच्छा मुकाम होगी। चलते-चलते मि. तेज को सामाजिक व राजनीतिक अराजकता के विरुद्ध वैचारिक जंग के लिए साधुवाद।
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