कहानी- पेंशन बुढ़िया के पास बहुत पैसे हैं। फिर भी हमसे माँगती है। खाना बनाते हुए बहू कहा- हमें क्या कमाकर दिये हैं? जो अब हम तुम्हारे पे...
कहानी- पेंशन
बुढ़िया के पास बहुत पैसे हैं। फिर भी हमसे माँगती है। खाना बनाते हुए बहू कहा- हमें क्या कमाकर दिये हैं? जो अब हम तुम्हारे पेट में ठूँसें। इस तरह की कई बातें किसी न किसी बहाने वह अपनी छोटी-सी लड़की के बहाने सास को बार-बार सुनाया करती है।
दस वर्ष से भी अधिक हो गये हैं धापू को विधवा हुए। उसके वृद्ध पति की लम्बी बीमारी के बाद मृत्यु हो गयी थी। तब वह खूब रोयी थी। उस वक्त आने-जाने वाले लोगों ने सांत्वना देते हुए कहा- तुम्हें किसी बात की कमी है। भगवान ने दो बेटे दिये हैं। दोनों तुम्हारी बहुत अच्छे से सेवा करेंगे। यह सुनकर उसने अपने मन को थोड़ा बहुत समझाया था। लेकिन छह महिने भी नहीं गुजरे और छोटी बहू ने यह कहकर सास को रोटी देने से इनकार कर दिया- क्या सारी जमीन एक ही बेटा खा रहा है? बुढ़ा जल्दी मर गया और बड़े बेटे को आजाद कर दिया। लेकिन यह बुढ़िया दस-बीस साल नहीं मरेगी और हमें खाया करेगी।
तब धापू ने किसी को कुछ भी कहे बिना ही अलग रहने का निश्चय कर लिया था। उसे पता था कि बड़े बेटे को कहना भी व्यर्थ होगा।
अब धीरे-धीरे उसकी उम्र बढ़ती गयी और उसे दिखाई देना कम हो गया। खाना बनाना तो दूर, चलना-फिरना भी मुश्किल हो गया। तब आस-पड़ोस और समाज आदि के डर से थोड़ा बहुत कहना मानकर छोटी बहू ने रोटी देना स्वीकार किया। चाहे समाज में बहुत बुराइयाँ हो। लेकिन अगर वह चाहे, तो लोगों को ठीक से रहना सीखा सकता है।
आज छोटी बहू ने अपने लड़के को यह कहकर सास के पास भेजा था- जा, दादी से पाँच सौ रूपये लेकर आ।
लड़के ने दादी के बिस्तर के पास आकर कहा, मम्मी रूपये मँगवा रही है।
दादी ने कहा- बेटा, मेरे खाते में अब तक पेंशन नहीं आयी है। मैंने पता करवाया है। पेंशन आते ही मैं खुद दे दूँगी, मेरे क्या करूँ? लेकिन यह बात छोटी बहू के गले नहीं उतरी और उसने साफ मना कर दिया- मैं खाना नहीं दूँगी।
कुछ दिन जैसे-तैसे गुजर गये। लेकिन इसी बीच धापू बीमार हो गयी। अब कौन डॉक्टर को बुलाये? बेटा चाहते हुए भी बहू के आगे लाचार था। पास-पड़ोस में कहकर किसी के द्वारा डॉक्टर तो बुलवा लिया। लेकिन जब रूपये देने की बात आयी। तो बहू ने घर सिर पर उठा लिया और कहने लगी- हम कहाँ से लायें रूपये?
दो-चार दिन से बहू की नजर सास की पेंशन की आने वाली रकम पर टिकी थी। जैसे बाज शिकार की ताक में रहता है। उस वक्त रूपये देने की बात सुनकर उसकी उम्मीदों पर पानी फिर गया था।
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कहानी- हक
अभी सूर्योदय हुआ ही है। आसमान में चारों ओर लालिमा फैली हुई है और स्कूल के सामने जो बरगद है, उस पर रातभर बसेरा करने वाले पक्षी अपनी मधुर कलरव के साथ जाग चुके हैं।
भोलू काका वैसे तो जल्दी पाँच-साढे पाँच उठ जाते हैं। लेकिन आज आंगन के एक कोने में पड़ी खाट पर सोये हुए है। नींद तो उड़ चुकी है, पर तबीयत कुछ नरम लग रही है।
भैरू इनका इकलौता लड़का है। जो अभी रसोई से चाय पीकर निकला है और अन्दर अभी उसकी पत्नी कमला अपने बच्चों को चाय-दूध पिला रही है।
मम्मी! दादाजी के लिए चाय कप में भरकर मुझे दे। मैं देकर आऊँगी।
चाय नहीं देनी है। अभी उठने का समय नहीं हुआ है। बच्चे उठ गये हैं। लेकिन
आज क्यों नहीं उठे हैं दादाजी? क्या बीमार हो गये हैं?
हररोज होते हैं बीमार। तुझे ज्यादा ही फिक्र हो रही है। तो तू लेकर चली जा अस्पताल।
अस्पताल कहाँ है? भैया बीमार हुआ था। उस दिन तो डॉक्टर साहब घर पर ही आये थे। उस दिन अस्पताल क्यों नहीं?
चुप कर। नहीं तो अभी थप्पड़ पड़ेगी। कब से बराबर बोले जा रही है। आज स्कूल नहीं जाना है क्या?
जाना है लेकिन दादाजी।
इतना कहकर सोनू चुप हो गयी और वहाँ से उठकर बाहर आ गयी और अपने स्कूल के कपड़े ढूँढने लगी थी।
आठ बजे तक कमला ने बेटे पप्पू को शहर के स्कूल से आने वाले ऑटो में भेज दिया और उसके बाद सोनू को भी गाँव के ही स्कूल में। जो घर के सामने ही है। फिर थोड़ी देर बाद घर का सारा काम निपटाकर कहीं बाहर किसी पड़ोसन के यहाँ चली गयी।
बहुत तेज बुखार चढ़ चुका था भोलू काका को। वैसे चाय की तो कोई इच्छा नहीं थी। लेकिन अब होंठ सूख रहे थे और खाट से उठने तक की हिम्मत न थी। ऐसा लग रहा था कि किसी पेड़ की शाखाएँ टूटकर नीचे झूक गयी हो।
कुछ देर तक वो इस इन्तजार में बाहर दरवाजे पर टकटकी लगाये बैठे थे कि कोई बाहर आने-जाने वाला निकलेगा। तो उसे आवाज देकर बुलाऊँ। पर दो-चार आदमी निकले थे, उनको जितना जोर आवाज़ लगा सकते थे। उतनी जोर से पुकारा- भाई, मुझे पानी पिला दे। घर पर कोई नहीं दिख रहा है।
पता नहीं यह आवाज़ किसी के कानों में पहुँची थी या नहीं। किसी ने सुना अनसुना कर दिया। किसी ने सुना ही नहीं था। अब कोई उम्मीद शेष न बची थी। तो भोलू काका ने पुनः अपनी चादर खींचकर ओढ़कर लेट गये। जैसे की सचमुच नींद आ रही हो। बिना हिले-डूले पड़े हुए थे। तभी बाहर से किसी ने आवाज़ देकर कहा- काका! काका!
यह शब्द कानों में पड़ते ही काका की जान में जान आ गयी। कारण यह था कि उनकी तरफ आते हुए दिखाई दिया था हरि।
क्या हो गया है आपको? तबीयत ठीक नहीं लग रही है।
उसने उनकी खाट के पास आकर बैठते हुए पूछा था। कुछ नहीं हुआ है। बस, शरीर सुस्त हो रहा है।
देखूँ मैं, हाथ इधर करो।
हाथ छूते ही हरि ने कहा- ओह! इतना तेज बुखार है और आप कह रहे हैं कुछ नहीं हुआ है। चलो, मेरे साथ घर पर ही। वहाँ जितनी रोटी भाये, उतनी खालें। फिर हम अस्पताल चलेंगे।
नहीं रे हरि। वैसे ही ठीक हो जाऊँगा और भैरू आता ही होगा।
काका ने अपने पुत्र पर कोई उंगली नहीं उठाये। इसलिए यह कहा था। तभी उनको याद आया कि दो दिन से बेटे को कह-कहकर थक गया हूँ। पर उसने सुना-अनसुना कर दिया था।
इस बात का वैसे सभी को पता था कि भैरू को ज्यादा किसी से कुछ लेना-देना नहीं था। दिन-रात नशा ही उसके लिए सबकुछ था। जब-तक जेब में पैसे रहते थे। तब-तक उसे कुछ भी याद नहीं आता था। न पत्नी का ध्यान, न बच्चों की देखभाल और न पिता के प्रति कुछ जिम्मेदारी।
यह जानते हुए ही हरि उनको अस्पताल लेकर गया था और उनके इन्जेक्शन-दवा आदि लेकर आया। जब उनको वापस घर छोड़ने गया। तो कमला हरि पर ऐसे दाँत पिसने लगी और धीरे-धीरे बिल्ली की तरह गुर्राने हुए कहने लगी- देखो, रूपये-पैसे के लिए लोग कितने सगे बन रहे हैं? इन्हें हमारे घर की इतनी फिक्र क्यों हो रही है? खुद के नहीं है कोई घर में। इसमें हम क्या करें? हमारे मरे या जीयें। पर इनको यह हक किसने दे दिया है।
हरि तो ज्यादा देर नहीं रूका था। लेकिन कई देर तक काका उसकी बात को सुनते रहे। जब और आगे सुनना मुश्किल हो गया था। तो धीरे से बोल ही पड़े- हक तो तुम्हारा ही है। बस, कर्तव्य हरि का है। उसके पास किस चीज कमी है? खूब रूपये-पैसे हैं। केवल भगवान ने बाल-बच्चे नहीं दिये।
इतना कहकर काका चुप हो गये थे। पर मन के अन्दर विचारों ने बड़ी उथल-पुथल मचा दी थी। जब भैरू दो-ढाई साल का था और उसकी माँ की मृत्यु हो गयी थी। तब लोगों ने कहा था कि और विवाह कर लो। पर मैंने यह सोचकर उनकी बात को नकार दिया था कि और विवाह करके क्या करना है? यह एक लड़का है, जो खूब है। खुद मेहनत-मजदूरी करके इसे पढ़ाया। लेकिन सातवीं कक्षा में आते-आते स्कूल छोड़ भाग गया। दो-चार साल इधर-उधर घुम-घाम कर अपने घर आ ही पहुँचा। आते ही बोला कि मुझे उस लड़की से शादी नहीं करनी है। जिसके लिए आपने बात की है। मैं खुद मेरी पसंद की लड़की से ही करूँगा शादी। बेचारा बाप क्या करता? बेटे की बात मानकर जहाँ उसने बताया। वही पर शादी करवा दी कमला से। और घर आते ही वह मालकिन बन बैठी और बात-बात पर लड़ाई-झगड़ा करने लगी। तो भैरू ने इससे मुक्ति पाने के शराब को गले लगा लिया। अब कमला को कोई दुख नहीं है। पूरा घर में उसकी ही चलती है। और ससुर उसके लिए मरे हुए के समान है।
यह सोचते-सोचते अचानक काका के विचार भंग हो गये थे। जब स्कूल से आते ही सोनू ने कहा- दादाजी, आप कैसे हो?
मैं ठीक हूँ। तेरे हरि काका मुझे अस्पताल लेकर गये थे।
यह बात चल ही रही थी और कमला ने बेटी को अपनी तरफ बुला दिया था। अब दादा ने मन ही मन कहा- क्या इस मासूम बच्ची पर भी मेरा हक नहीं है।
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लेखक-परिचय
रतन लाल जाट S/O रामेश्वर लाल जाट
जन्म दिनांक- 10-07-1989
गाँव- लाखों का खेड़ा, पोस्ट- भट्टों का बामनिया
तहसील- कपासन, जिला- चित्तौड़गढ़ (राज.)
पदनाम- व्याख्याता (हिंदी)
कार्यालय- रा. उ. मा. वि. डिण्डोली
प्रकाशन- मंडाण, शिविरा और रचनाकार आदि में
शिक्षा- बी. ए., बी. एड. और एम. ए. (हिंदी) के साथ नेट-स्लेट (हिंदी)
ईमेल- ratanlaljathindi3@gmail.in
बढ़िया लेख लिखा है आपने
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