सूली ऊपर सेज पिया की जीवन और मुक्ति का शाश्वत संदेश डॉ0 सरिता मिश्रा हिन्दी विभाग आर्य महिला पी0जी0कॉ0, चेतगंज, वाराणसी। सम्पूर्ण भारतीय मनी...
सूली ऊपर सेज पिया की
जीवन और मुक्ति का शाश्वत संदेश
डॉ0 सरिता मिश्रा
हिन्दी विभाग
आर्य महिला पी0जी0कॉ0, चेतगंज, वाराणसी।
सम्पूर्ण भारतीय मनीषा जिस ज्ञान मीमांसा के द्वारा सत्य की स्थापना को समर्पित है, उसकी अन्तिम परिणिति 'प्रेम' है। वेदों ने जिस सत्य का यशोगान किया है। नेति-नेति कहकर अपने आपको चुका हुआ मान लिया है। उपासना का वह प्रेम मंत्र वियोग की वेदना में तत्वीभूत है। 'बिरह' प्रेम की पराकाष्ठा है चरमोत्कर्ष है। प्रेमाख्यानक कवियों, रचनाकारों की सम्पूर्ण प्रस्तुतियाँ प्रेम को आदर्श रूप में स्थापित करती है। प्रेमोपासना की चरमावस्था में 'सूर' ने भी कहा है- ''ऊधौ बिरहौ प्रेम करै।'' प्रेम की ये दोनो ही अवस्थायें संयोग अथवा वियोग, ईशोपासना की दो विशिष्ट पद्धतियाँ है। वियोग प्रेम की उच्चतम प्रतिष्ठा है। वियोग में संयोग का आदर्श स्वयमेव उपस्थित होता है, अन्तर्निहित होता है। अतः वियोग में संयोग की संभावना निहित है। जीव जब वियोग तप से परिष्कृत और शुद्ध हो जाता है तो स्वयमेव एकाकार हो शिवोऽहं की अनुभूति करता है। संयोग अनुभूत सत्य है, स्वयं सत्य नहीं। विकार रहित जीव स्वयं परमतत्व है। शरीर ही विकारयुक्त हो शरीर बन जाता है। संयोग का अस्तित्व अनुभूत है, और जो भी अनुभूत है वह निर्गुण है। इस प्रकार वियोग और संयोग दो न होकर एक ही है। प्रेम दोनों का उपास्य भी और उपासना भी। प्रेमाश्रयी एवं ज्ञानश्रयी दोनों ही शाखाओं के कवियों में मूलतः संयोग की छटपटाहट है। जो यह सिद्ध करती है कि वियोग का आश्रय संयोग को जन्म देता है। इस प्रकार संयोग का मूल वियोग है। कबीर इसी सत्य की ओर इशारा करते हैं जब कहते हैं- 'जल में कुंभ, कुंभ में जल है, बाहर भीतर पानी।' कबीर का रहस्यवाद इसी सत्य को उद्घाटित करता है। विवेकानन्द का शून्य पर दिया गया अभिभाषण और गणितीय संक्रियाओं में शून्यवाद भी इसी रहस्य का सूत्रपात है। शिव का सती से, कृष्ण का राधा से और मर्यादा पुरुषोत्तम राम का सीता से चिर वियोग उसी प्रेमोपासना का प्रेमोख्यानपरक निदर्शन है। वियोग अथवा संयोग अभिन्न होते हुए भी कालक्रम से भिन्न है और आवागमन के इस अलौकिक कार्य-व्यापार को समर्पित हैं।
जो प्रवाह में है वहीं जीवन हैं जीवन वियोग का संकेत करता है। इस प्रवाहमान जीवन का साध्य संयोग, तत्पश्चात अलौकिक आनन्द की प्राप्ति है। वियोग का लक्ष्य ठहराव है। जो मुक्ति का द्योतक है। 'बहती गंगा' उसी वियोगकथा अथवा प्रवाह का साक्ष्य उपस्थित करता है जो अन्ततः मुक्ति का संदेश देती है। रचना प्रवाहमान जीवन को प्रतीकों, आख्यानों के रूप में प्रस्तुत करती है और भिन्न-भिन्न कथानकों में प्रवाहमान जीवन के आदर्शों, मर्यादाओं को अक्षुण्ण रखते हुए जीवन और मुक्ति के तारतम्य को अभंग रखती है। पूरी रचना जीवंतता से संपृक्त है और अन्ततः मुक्ति का आश्रय पाकर अलौकिक रूप में प्रस्तुत होती है। 'बहती गंगा' जीवन और मुक्ति का महाआख्यान है। जिसमें शीर्षक तो स्वयं में प्रवाह अर्थात् जीवन के आदर्शों को जी रहा होता है और सम्पूर्ण रचना में उभरकर सामने आती संस्कृति मुक्ति का गान गाती है जिसके मधुर स्वरों से बहने वाली अमृतमयी ज्ञान गंगा की अविरल निर्मल धारा की स्वयं में मुक्त हुए बिना नहीं है। फुसफुसा उठती है... 'गंगे तव दर्शनात मुक्तिः'
अगर वास्तव में ऐसा नहीं है तो क्या है? टुन्नू और दुलारी का यह बेमेल प्रेम, मर्यादाओं के आवरण को अलंकृत करता हुआ चिर वियोग के घुमावदार मोड़ का आदर्श, क्या संयोग की महान अभिलाषा को नहीं दर्शाता? अथवा वीर नागर का वीरधर्मा जीवनवृत्त क्या काशी की अमिट संस्कृति को समेटे जीवन्मुक्त होने का संदेश नहीं देती? क्या शीर्षक स्वयं में शाश्वतता का संकेत नही है? रचना का प्रत्येक अध्याय अपने आपमें एक अलग कहानी कहते हुए भी अपने परवर्ती से बिल्कुल अभिन्न है जैसे 'गिरा अरथ जल बीचि सम, कहियत भिन्न न भिन्न। हर कहानी का प्रत्येक पात्र अपने आत्मगौरव को समेटे आगे की ओर बढ़ता जाता है और एक आदर्श उपासक की भाँति प्रेम की एक नयी मर्यादा का सूत्रपात करता है। परन्तु विरह का प्राधान्य कहानियों को दिव्यता के सूत्र से बाँधे रखती है। वियोग
की क्षीण किन्तु, अलौकिक रश्मियाँ अन्त तक अकेले और एक साथ भी, संयोग की उत्कट अभिलाषा का अर्थ सृजित करते हुए निर्णायक रूप में वियोग का वरण करती हैं और सृष्टि के सार को अक्षुण्ण रखती हुई अप्रतिम आनन्द के चिर स्थायित्व को ही पुनर्स्थापित करती हैं।
पूरी रचना प्राणधर्मा है जो काशी की अलौकिक, दिव्य संस्कृति और सभ्यता के निचोड़ का दर्पण बनने में सफल है। रचना आनन्द के चमत्कारिक, सृजन में भी सफल है। जिसका संकेत लेखक खुद करता है-
लुत्फ है लफ्जये कहानी में,
शख्स की हो कि शख्शियत की हो।
रचना की भूमिका उसके उद्देश्य को स्वयं परिभाषित करता है। जिसमें स्पष्ट कहा जाता है कि आनन्द का सृजन ही लेखक का उद्देश्य है और कहानियों का ताना-बाना भी कुछ ऐसा बुना गया है कि अलग-अलग व समग्र रूप में एक ओर जहॉ काशी की सांस्कृतिक परिनिष्ठा का सशक्त उदाहरण प्रस्तुत करती है वहीं नायक और नायिका प्रेम के संयोग पक्ष को न चुनकर अपनी-अपनी मर्यादोओं और गौरव को संजोये विरह की शाश्वत गति का चयन करते हैं तथा उपन्यास के मूल उद्देश्य को सार्थक सिद्ध करते हैं। लेखक उपन्यास के चरित्रों को जिस उद्देश्य से सृजित करता है व चरित्र, समवेत उसी रूप में आ धमकते हैं। उपन्यास के नायको में भंगड़ भिक्षुक, दाताराम नागर, टुन्नू, पद्मनंद सभी के चरित्र जुदा हैं परन्तु सभी आत्म-सम्मान और आत्म-गौरव से संपृक्त अक्खड़ बनारसी संस्कृति के पोषक हैं। इनका प्रवेश ही परिस्थितियों की दिव्यता की गवाही प्रस्तुत करने लगती है।
शिव प्रसाद मिश्र 'रूद्र' जी की 'बहती गंगा' एक अमर कृति है इस उपन्यास की विलक्षणता इसमें वर्णित प्रत्येक कहानियों में नायक का सृजन उसके अद्भुत व्यक्तित्व के क्रमिक विकास और अन्त में उसकी अलौकिकता में समायी है। कहानी 'सूली ऊपर सेज पिया की' की भी इसी तरह अपनी एक अलग विशिष्टता है। कहानी में भिक्षुक का चरित्र एक गुंडे का चरित्र है परन्तु उसके नाम के साथ उसके नायकत्व, में अद्भुत आकर्षण है उसमें तमाम गुणों का समावेश हैं वह ज्ञानी भी है, बैरागी भी और संगीत का साधक भी। उसमें सारे जमाने की पीड़ा को पीने का भी माद्दा है। लेखक ने उसके चरित्र को काशी की तत्कालीन सभ्यता को दृष्टिगत रखते हुए गढ़ा है। लेखक के शब्दों में- ''उसने सदा की तरह गेरूए रंग की लुंगी कमर से बाँध रखी थी और शीत ऋतु होते हुए भी उसके शरीर पर दुपट्टे के सिवा कोई वस्त्र न था। स्नेह-सिक्त भ्रमर-कृष्ण कुंचित केश उसके कंधों पर लहरा रहे थे और इसके साथ ही कानों, के ठीक नीचे कटा चौड़ा पट्ठा उसके मूँछ-दाढ़ी मुड़े गोरे मुख-मंडल पर ऐसा जान पड़ता था जैसे सहस्त्र पूछों और दो हाथों वाले सर्प ने किसी कनक-गोलक के दोनों और अपना पंजा जमाकर उससे चिपक अपनी सारी पूँछे लटका दी हों। उसके सस्मित ओष्ठाधर पान के रस से रंगे थे और नशे से डगमग उसकी बड़ी-बड़ी मदभरी आँखों में सूरमे की गहरी बाढ़ थी। दोनों कानों में एक-एक रूद्राक्ष की बाली और गले में स्फटिक का कंठा झूल रहा था। चौड़े ललाट पर भस्म का त्रिपुण्ड दमक रहा था और त्रिपुण्ड के बीच में एक सिन्दूरी टीका था। कंधे के नीचे चौड़े फल का भीषण कुठार लटक रहा था।''
नायक के स्वरूप का ऐसा अदभुत वर्णन उसके वीर धर्मा होने की स्पष्ट गवाही देती है। भिक्षुक काशी की सभ्यता और संस्कृति की प्रतिकृति है। वह वियोगी है लेकिन मर्यादा का त्याग उसकी नायकत्व के सर्वथा अनुरूप नहीं है। उसके आकर्षक शरीर के बीचोंबीच एक कोमल ह्नदय भी है। जिसमें प्रेम बसता है जो चिर वियोगी है। जब वह अत्यन्त विषम परिस्थिति में अपनी ब्याहता मंगला गौरी से मिलता है तो उसके इस प्रश्न पर ''क्या गौरी की तपस्या अब भी पूर्ण नही हुई'' उसे पहचान कर पुनः मिलने का वादा करता है तथा एक उदात्त प्रेमी की तरह मंगल गौरी के आकर्षण के वशीभूत अर्द्धरात्रि में यंत्रवत नाव खेते हुए गंतव्य तक पहुँचता भी है। लेकिन यहीं से कथा अद्भुत मोड़ लेती है मिलन की तीव्र उत्कंठा वियोग के चिर आश्रय का मुखापेक्षी हो जाता है। पर-स्त्री गमन के भ्रम में वह वापस हो जाता है उसके और गौरी के बीच भ्रामक ही सही मर्यादा की लम्बी लकीर खिंच जाती है जिसका उल्लघंन भिक्षुक के वश की बात नहीं। ऐसा करके लेखक ने भिक्षुक के चारित्रिक आभा-मंडल का और विस्तार करने में अद्भुत सफलता अर्जित की है। भिक्षुक में वर्तमान सभी गुणों के अतिरिक्त वह प्रेम से परिपूर्ण ज्ञानी व्यक्ति है। गौरी से मिलने जाने के पूर्व वह मर्यादाओं के आवरण में इसे तर्क की कसौटी पर कसता है ''वह इस प्रश्न की मीमांसा न कर पाया था कि जिसका त्याग कर दिया उसका पुनर्ग्रहण उचित है या नहीं? विधि व निषेध दोनों पहलू उसके सामने आते थे- 'त्यागी हुयी वस्तु उच्छिष्ट है, मानों उसे ग्रहण नहीं करते। नारी साधना पक्ष का अन्तराय है, मैं साधक हूँ।''
विवाह मंडप से पलायित निरक्षर, चरनचूर, 'मूर्ख है' ऐसा सुनकर ज्ञानार्जन के लिए काशी आता है और एक अनन्य साधक की भाँति अपने प्रत्येक कर्म को साधना-पथ को समर्पित कर बिरह के आश्रय में तपस्वी की भाँति निखर उठता है तथा काशी में अपनी एक अलग छवि प्रस्तुत करने में सफल सिद्ध होता है। जिसमें वह एक साधक भी है, ज्ञानी भी है, दानी भी है और विवेकी वीर भी। वह बनारस की छवि, सभ्यता, संस्कृति को, सांऽगोपांऽग धारण करता है। लेखक के शब्दों में ''उसके पीछे सैकड़ों आदमियों की भीड़ थी। गंधियों ने दौड़कर उसको इत्र मला, मालियों ने गजरे पहनाये और सेठ साहूकारों ने रूपये-पैसे की भेंट दी। वह काशीवासियों की वीरवृत्ति का प्रतीक था- .......... ''जो जहाँ सुनता वह वहीं उसे देखने के लिए दौड़ पड़ता। शिवाला घाट पर अंग्रेजों की कब्रें भिक्षुक के पौरूष की साक्षी थीं और उसी सिलसिलें में आज उसकी गिरफ्तारी के लिए डौड़ी पीटी जा रही थी।''
लेखक ने उसके चारित्रिक पक्ष को लक्ष्य कर उसके आभा-मंडल को असीम विस्तार देने के लिए उसे दैवीय गुणों से विभूषित कर काशीवासियों द्वारा उसके वीरवृित्त की मान्यता की प्रबल संस्तुति करा दी है ताकि काशी की अमर संस्कृति की विलक्षणता जिसमें मृत्यु को भी मंगल मानकर कहते हैं- 'कास्यां मरणान मुक्तिः' को सर्वसुलभ और सर्वसिद्ध प्रमाणित किया जा सके। काशी की यह दिव्य भूमि जो वीर प्रसूता है, जिसके कंकड़-कंकड़ में ज्ञान का सोता बीजवत विद्यमान है, जहाँ जन्म वियोग की पहचान और मृत्यु अमरत्व का मंगलगान है। वहां चरनचूर, चन्द्रचूड़ पुनः भंगड़-भिक्षुक रूप में अपने को ख्यात पाता है। क्योंकि काशी संस्कृति व ज्ञान का संवाहक है शास्त्र कहते हैं ''कासते प्रकाशते, सर्वविधं ज्ञानं इति काशी'' लेखक का भी उद्देश्य यही है। लेखक ने कहीं भी भिक्षुक के पाषंडपूर्ण वेश-भूषा का अनावश्यक उल्लेख नहीं किया है। वह उसके आन्तरिक गुणों जो आम जनमानस में नायकत्व के जगमग तस्वीर प्रस्तुत करती है जिसमें शुद्धता है, सत्यता है और सांस्कृति मर्यादा की अन्यतम विशिष्टतायें है। बीरबाने का उद्देश्य शत्रुदल के दर्प के दलन के लिए भूमिका के प्रभाव का चयन है। जिसमें 'रूद्रजी' ने महान सफलता पायी है। नायकत्व के उत्कर्ष का प्रथम सोपान नायक का बाना है जिसमें उसके विकास का सम्पूर्ण प्रभाव उपस्थिति होता है। भंगड़-भिक्षुक की विशिष्टताओं का वर्णन करते हुए लेखक कहता है- 'भिक्षुक के बल और जीवट, शस्त्र-कौशल और शास्त्र-ज्ञान कुश्ती की निपुणता और संगीत की साधना आदि का हाल बनारस का बच्चा-बच्चा जानता था।'' ..... 'भिक्षुक ने भैरव विषाण के वज्रंनाद के समान भयंकर अट्टहास किया।'' लेखक ने उसके विशद व्यक्तित्व का वर्णन जिस निपुणता और विद्धत्ता से किया है उससे उसके व्यक्तित्व के फलकों से फूट पड़ने वाली रश्मियाँ दिगंतव्यापी हो उठी हैं।
लेखक का ह्नदय विशाल व पारदर्शी है। उसका मन्तव्य सहजरूप में रचना के शब्द-शब्द में समाविष्ट हो उठा है। शिवत्व प्राप्त कर पाने की सहज संकल्पना जो लेखक के ह्नदय के किसी कोने में उफान ले रही थी वह भिक्षुक के व्यक्तित्व में मूर्त्त हो उठती है। वह संगीत विशारद है। उसकी आवाज में जादू है। जिसे सुनकर झुंड के झुंड खिंचे चले आते हैं। उसकी यह दिव्य कला उसके व्यक्तित्व के तेजमंडल की अग्रिम पंक्तियों का नेतृत्व करते हैं। पंचरत्नी के महाप्रसाद का चुल्लू भर पानी के साथ भोग लगा जब वह शिवमय हो बीन की धुन पर मस्त हो लावनी गा उठता है ठीक उसी वक्त वियोग की चरमावस्था में पहुँच, परमानन्द की प्राप्ति की ओर भी अग्रसर हो उठता है। उसके कंठ से सुरीली, दर्दभरी तान फूट पड़ती है-
मत पास पहुँच हरि के, विधि के बुध के विगंठ के पूछो।
विष-रस पीने का मजा कंठ से नीलकंठ के पूछो।।
लावनी की पहली अर्द्धाली उसके वियोगी होने की पुष्टि करते हैं। वह बिरह- आनन्द के अतिरेक में समाया हुआ संयोग की अलौकिक छुवन से दूर रहकर उस परात्पर के लिए अपनी लोलुपता को बनाये रखना चाहता है। वियोगी होने की यह पहली अमूर्त्त शर्त है। बीन के तारों से गुंजायमान सुंदर स्वर लहरी से उठने वाली आनन्द हिलोरें काशी के कंकड़-कंकड़ में अपनी पहचान को पुष्ट करती हैं। जनता आह्नलादित हो उसके पीछे-पीछे चल देती हैं। लेखक कहता है- ''बीन के तारों जैसी उसके गले की मीठी झनकार से आकृष्ट होकर लोग अपने घरों और दुकानों से बाहर निकल आये। भिक्षुक का रंगीला रूप और दुस्साहस देखकर काशी के नागरिक एक साथ ही मुग्ध और विस्मित हो गये।'' भिक्षुक का प्रताप उसका साहस उसका बल विस्मयकारी है। अंग्रेजी सत्ता के ताप का उसे जरा भी भय नही। शास्त्र कहते हैं 'बले रिपु भंय' बलवान होते हुये भी वह वियोगी है अतः न तो उसे अपने बल का दर्प है और न ही उसके बल को किसी का भय। क्योंकि वह वैरागी है और ''वैराग्यमेव अभयं'' उसे उसके अतुल्य रूप का भी उसे कोई दर्प नहीं क्योंकि वह जानता है कि 'रूपे जराया भयं।' हाँ उसके रूप श्रृंगार पर जनमानस जरूर मुग्ध है। यही उसका सफल नायकत्व है।
प्रत्येक कहानी के दिव्यता का दृढ़ आधार उसके स्त्री नायिकाओं/पात्रों का नये आयाम में प्रस्तुतिकरण है कुछ ऐसे कि वे स्त्री आदर्श और प्रेम, दोनों ही को ऐसे जीती हैं कि मर्यादा के उच्चतम मानदंडो का छूकर निकलती हैं। और एक ऐसा गौरव स्थापित करती है कि पाठक, नायिका तथा उसके द्वारा स्थापित गौरव दोनों से प्रभावित हुए बिना नही रह सकता। 'सूली ऊपर सेज पिया की' कहानी की नायिका के व्यक्तित्व निर्माण में भी लेखक ने कोई कसर नहीं छोड़ रखी है। सप्तपदी की पारम्परिक रस्मों के बाद दैवीय विड़म्बना का सृजन जिसमें विरह के अजन्मा रूप का प्रकट निदर्शन है बड़ी सूक्ष्मता से उसके प्रधानता की रूप-रेखा का स्पष्ट उद्भव होता हुआ दिखायी देता है। लेखक का कथा चातुर्य उसे समकालीन शीर्ष लेखकों की कतार में खड़ी कर देता है। विरह के उद्भव काल में कथासूत्र खींचकर उसे सर्वकालिक कथा के नजदीक ले आते हैं और पाठक कह उठता है ''लिखत सुधाकर गा लिखि राहू।'' तेरह वर्षों के कठिन वियोग तप से उर्जित तपस्विनी गौरी अब भी चन्द्रचूड़ से संयोग की आकांक्षी है। उससे संयोग को अश्वस्त वह विरहिणी जब उससे मिलती है तो वह चन्द्रचूड़ नहीं भंगड़-भिक्षुक है। जो एक वीर-व्रती, वैरागी है। दीपक के लौ के प्रकाश में उसपर दृष्टिपात करते ही प्रथम साक्षात्कार का समवेत दृश्य उसके आँखों के आगे तेजी से गुजर जाता है। वह कह उठती है- 'क्या गौरी की तपस्या अब भी पूरी नहीं हुयी'' ....गौरी से किये गये वादे के अनुरूप भिक्षुक मिलने आता है और आकर चला जाता है। मिलन की तीव्र उत्कंठा मन मे लिए, पिया मिलन की आशा में सजे सेज पर पलभर को उसकी आँखें ढप जाती हैं। कथा आगे बढ़ती है .......भिक्षुक अपने खोह में अंग्रेजो द्वारा लगाये गये प्रचंड अग्नि के तेज को आत्मसात कर दुश्मनों के छक्के छुड़ाते उनके शर-समिधाओं की आहुति देता अपना प्राणोत्सर्ग कर देता है। गौरी अपनी कोठरी में अग्निशय्या का वरण करती है। इस प्रकार अलौकिक कथा के समापन में भी विरह का प्राधान्य इस अभिलिप्सा के साथ बना ही रहता है कि संयोग के अद्भुत अलौकिक आनन्द की लोलुपता चिरकाल तक अक्षुण्ण रूप में बनी रहे। ......... और उपन्यास एक और दिव्य कथा को अपने कथासूत्र में पिरोकर सद्यः एकीकृत कर लेने के लिए अवकाश छोड़ जाती है।
संदर्भ- बहती गंगा- शिव प्रसाद मिश्र 'रूद्र'
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