तेजपाल सिंह के कुछ गीत -एक- छोड़ो जो दिन बीत गए। छोड़ो जो दिन बीत गए। छोड़ मुझे रस्ते में तन्हा, अपने ही मनमीत गए । छोड़ो जो दिन बीत गए...
तेजपाल सिंह के कुछ गीत
-एक-
छोड़ो जो दिन बीत गए।
छोड़ो जो दिन बीत गए।
छोड़ मुझे रस्ते में तन्हा,
अपने ही मनमीत गए ।
छोड़ो जो दिन बीत गए।
अश्क हुए यूँ पानी-पानी,
ख़्वाब सुनहरे रीत गए।
छोड़ो जो दिन बीत गए।
अर्थों की खींचा-तानी में,
रूठ सकल नवगीत गए ।
छोड़ो जो दिन बीत गए।
*****
-दो-
गाँव मेरा अब गाँव कहाँ
गाँव मेरा है गाँव कहाँ अब ?
चौपालों पर छाँव कहाँ अब ?
ना पीपल, ना नीम, ना जामुन,
चिड़ियों को है ठाँव कहाँ अब?
ना आँगन ना चूल्हा चक्की,
तिरने को है नाव कहाँ अब ?
ना ढोलक ना ढोल-मंजीरे,
साँसों में है चाव कहाँ अब ?
सूखे ताल –तलैया- पोखर,
है पहले जैसा गाँव कहाँ अब ?
बिखर गए सब रिश्ते- नाते,
दिल को दिल की चाह कहाँ अब ?
वक्त ने ऐसी करवट बदली,
मिलने का है भाव कहाँ अब?
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-तीन-
कैसा चित्र अनूप
कैसा चित्र अनूप।
आँगन-आँगन घना अँधेरा,
जंगल-जंगल धूप।
ना जाना पहचाना उसने,
नाही मेरा सलाम लिया,
फिर भी मैंने जैसे-तैसे
अपना काम तमाम किया,
कोई नहीं यहाँ पढ़ने वाला,
मेरे लिखे खतूत ।
आँगन-आँगन घना अँधेरा,
जंगल-जंगल धूप।
जिन्दा रहते हमसे जग में ,
नहीं किसी ने प्यार किया,
प्यार किया तो प्यार शब्द पे
जम करके व्यापार किया,
बिन पानी सब आज
हथेली उगा रहे हैं दूब ।
आँगन-आँगन घना अँधेरा,
जंगल-जंगल धूप।
सोते-सोते जगने वाले
जगते-जगते सोए,
जगते- सोते जाने कितने
स्वप्न सलौने खोए,
फूलों-सी हँसती दुनिया पर भारी पड़े बबूल।
आँगन-आँगन घना अँधेरा, जंगल-जंगल धूप।
*****
-चार-
मधुर-मधुर मेरे मन गा कुछ
मधुर-मधुर मेरे मन गा कुछ।
सदा विरह की पगडंडी पर
चलते-चलते हार गया,
जिसने समझी मन की पीड़ा
वो सपनों के पार गया,
तोड़ तिमिर की घेराबन्दी
अपना भी संसार बसा कुछ।
मधुर-मधुर मेरे मन गा कुछ।
मन्द पवन में खुशबू-खुशबू
मद्धिम –मद्धिम धूप सुहानी,
पीपल की कोपल पर बैठी
कोयलिया लिख रही कहानी,
ऐसे में मत उलझ समय से,
अपना भी इतिहास बना कुछ।
मधुर-मधुर मेरे मन गा कुछ।
तन्हाई में मुक्त गगन से
कब तक आँख लड़ाओगे,
बेगानी दुनिया में खुद से
कब तक आँख चुराओगे,
इधर-उधर की छोड़ कहानी
अन्तर में अनुराग जगा कुछ।
मधुर-मधुर मेरे मन गा कुछ।
*****
-पाँच-
सहर हुए…….
सहर हुए विश्वास समूचा डोल गया,
मन के सब खिड़की दरवाजे खोल गया ।
करवट-करवट सोचों की थी घनी चुभन,
यादों का अँधियारा सिर चढ़ बोल गया ।
मन के सब खिड़की दरवाजे खोल गया ।
उसके हँसने में भी था दुख का दर्शन,
वो भेद अचानक मन के सारे खोल गया ।
मन के सब खिड़की दरवाजे खोल गया ।
भूल गए सब प्रेम-प्रीत की परिभाषा,
कोई शातिर दरिया में विष घोल गया ।
मन के सब खिड़की दरवाजे खोल गया ।
सहज सावनी हवा चली तो सहसा वो,
जाते -जाते मन की साँकल खोल गया ।
मन के सब खिड़की दरवाजे खोल गया ।
*****
-छह-
संघर्षों की कठिन डगर पर
संघर्षों की कठिन डगर पर
पाँव से पाँव मिला रखना,
संबन्धों की स्याह रात में फिर-फिर दीप जला रखना ।
माना कि इंसानी रिश्ते
अनुबन्धों से टूट रहे,
मानवता के लिए मगर तुम मन का द्वार खुला रखना ।
संबन्धों की स्याह रात में फिर-फिर दीप जला रखना ।
लाज शर्म सब हवा हुई
और प्रीत-रीत का खून हुआ,
आदर्शों की दुल्हनियाँ से
आँख से आँख मिला रखना ।
संबन्धों की स्याह रात में
फिर-फिर दीप जला रखना ।
बस्ती-बस्ती पीड़ा पसरी,
जंगल -जंगल धूल उड़ी,
भोर हुए चिड़िया बन गाना
घर घर फूल खिला रख्नना ।
संबन्धों की स्याह रात में
फिर-फिर दीप जला रखना ।
आज सियासत हुई निकम्मी
रक्षक भक्षक बन बैठे,
लुटती पिटती पाजेबों की
आख़िर लाज बचा रखना ।
संबन्धों की स्याह रात में
फिर-फिर दीप जला रखना
*****
-सात-
पहले कभी देखी न थी
दोपहर इतनी मदभरी
पहले कभी देखी न थी,
होठों पे इतनी तिश्नगी, पहले कभी देखी न थी ।
मखमली तन को संभाले
श्वेतवसना कमसिनी,
नहाती हुई तालाब में ,
पहले कभी देखी न थी ।
उसने भी शायद स्वयं को
देखा था पहली बार,
खुद से करती मसखरी,
पहले कभी देखी न थी ।
कपड़ों के आर-पार तक
लगीं देखने आँखें मेरी,
आँखों की ये फितनागरी
पहले कभी देखी न थी ।
कौन कब चौखट चढ़ा
उतरा न जाने किस घड़ी,
ऐसी कोई प्रश्नावली
पहले कभी देखी न थी ।
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-आठ-
मैं तो काँटों का आदी हूँ
मैं तो काँटों का आदी हूँ,
फूलों का हार उन्हें दे दो ।
पलकें हैं बोझिल जिनकी,
उर्मिल रंग उन्हें दे दो ।
जो प्यार के दर से कोसों दूर खड़े हैं,
औ’ अरमानों की अर्थी लिए खड़े हैं,
अंधियारे मेरे खाते में,
कुल उजियार उन्हें दे दो ।
मैं तो काँटों का आदी हूँ,
फूलों का हार उन्हें दे दो ।
मेरे गीतों के जैसे तंग हैं जो बेचारे,
जो करते-करते दुआ वफ़ा की हारे,
वो रह जाएं ठगे- ठगे,
कुछ ऐसा प्यार उन्हें दे दो ।
मैं तो काँटों का आदी हूँ,
फूलों का हार उन्हें दे दो ।
जिनका हर एक दर्द है कविता कवि की,
जिनकी है हर हार सफलता जग की ,
ढोलक चिमटा डमरू वीणा
और खरताल उन्हें दे दो ।
मैं तो काँटों का आदी हूँ,
फूलों का हार उन्हें दे दो ।
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12 । 05 । 1979 को आकाशवाणी दिल्ली से “कवि के मुख से” नामक कार्यक्रम में से प्रसारित
-नौ-
यूँ ना बैठे हाथ मलो
यूँ ना बैठे हाथ मलो,
काँटों पर चलने का दम है,
तो तुम मेरे साथ चलो।
सूरज तो सूरज है यारा,
आज नहीं तो कल निकलेगा।
जीवन माना बर्फ सरीखा,
आज नहीं तो कल पिघलेगा।
काँटों पर चलने का दम है,
तो तुम मेरे साथ चलो।
यूँ ना बैठे हाथ मलो,
मुझको तो अनुबन्धी युग में,
सम्बन्धों को जीना है।
छोड़के तेरा-मेरा सचमुच,
ज़हर प्रेम का पीना है।
काँटों पर चलने का दम है,
तो तुम मेरे साथ चलो।
यूँ ना बैठे हाथ मलो,
तू क्या जाने कल की खातिर,
खून को किया पसीना है।
हर पल खोया ही खोया है,
हक हमको मिला कभी-ना है।
काँटों पर चलने का दम है,
तो तुम मेरे साथ चलो।
यूँ ना बैठे हाथ मलो।
नए दौर में भूल गए हम,
मानवता का मूल तलक।
प्रेम-प्रीत की पगडंडी पर ,
बिछा सके तो बिछा पलक।
काँटों पर चलने का दम है,
तो तुम मेरे साथ चलो।
यूँ ना बैठे हाथ मलो|
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-दस-
गीत कुछ उदास है।
शहर और गाँव में
क्रूरता की छाँव में
सो गया ईमान है
खो गया उजास है।
गीत कुछ उदास है।
भीड़भाड़ शोर में
भाषणों के दौर में
दब गई कविता कहीं
दूर है न पास है।
गीत कुछ उदास है।।
ज़रा ज़रा हुआ अमन
हो गए खारे नयन
है आचरण धुंआ-धुंआ
प्रतिबंधित आस है।
गीत कुछ उदास है।
दाल रोटी भात पर
आदमी की जात पर
राजनेता पल रहे
आदमी निराश है।
गीत कुछ उदास है।
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तेजपाल सिंह तेज’ (जन्म 1949) की गजल, कविता, और विचार-विमर्श की लगभग दो दर्जन किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं - दृष्टिकोण, ट्रैफिक जाम है, गुजरा हूँ जिधर से, हादसो के शहर में, तूंफ़ाँ की ज़द में ( गजल संग्रह), बेताल दृष्टि, पुश्तैनी पीड़ा आदि (कविता संग्रह), रुन - झुन, खेल - खेल में, धमाचौकड़ी आदि ( बालगीत), कहाँ गई वो दिल्ली वाली ( शब्द चित्र), पांच निबन्ध संग्रह और अन्य। तेजपाल सिंह साप्ताहिक पत्र ग्रीन सत्ता का साहित्य संपादक, चर्चित पत्रिका अपेक्षा का उपसंपादक, आजीवक विजन का प्रधान संपादक तथा अधिकार दर्पण नामक त्रैमासिक का संपादक भी रहे हैं। स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त होकर आप इन दिनों स्वतंत्र लेखन के रत हैं। हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार ( 1995-96) तथा साहित्यकार सम्मान (2006-2007) से सम्मानित किए जा चुके हैं।
Kya aap apne poets ko unki kavitaon ke liye pay karte hain? Maine bhi Awdhi mein kavitaen likhi hain. Kya aap unhen swikaarenge?
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