सबक - कहानी - प्रियंका कौशल

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सबक रघुवर प्रसाद आज बहुत खुश थे। उन्होंने अपने कुछ पुराने मित्रों को भोजन के लिए घर बुलाया था। कितने वर्ष हो गए, घर पर दोस्तों को कोई दावत द...

सबक

रघुवर प्रसाद आज बहुत खुश थे। उन्होंने अपने कुछ पुराने मित्रों को भोजन के लिए घर बुलाया था। कितने वर्ष हो गए, घर पर दोस्तों को कोई दावत दिए। लेकिन 20 वर्षीय पोते सुमेर ने जिद ही पकड़ ली थी कि दादू कभी अपने दोस्तों को भी पार्टी-वार्टी दिया करो। मैंने उसे समझाने की बहुत कोशिश की, लेकिन वो नहीं माना। अंततः मैंने भी कुछ खास दोस्तों को खाने की दावत दे ही दी। पर मैंने सुमेर से कह दिया था कि मैं तेरे माता-पिता से नहीं कहूंगा कि मेरे दोस्त आ रहे हैं खाने पर, तू ही बताना उन्हें और भोजन का इंतजाम करवाना। सुमेर ने दावत की पूरी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली थी।

ख़ैर शाम हुई, खाने का वक्त होते-होते मेरे सभी दोस्त पहुंच गए। उधर रसोई से खाने की बहुत बढ़िया खूशबु आना शुरु हो गई। मैंने सोचा, मैं तो नाहक ही संकोच कर रहा था, बहू तो दावत की बढ़िया तैयारी कर रही है। कभी-कभी हम अपनी सोच का शिकार खुद हो जाते हैं। सामनेवाला उतना भी बुरा नहीं होता, जितनी बुरी तस्वीर हम अपने मन में बना लेते हैं। शायद मैं बहू के बारे में मेरी अपनी ही सोच गलत थी, या वो वक्त के साथ बदल गई थी और उसमें हुए बदलाव को जानने की उत्सुकता मैंने कभी दिखाई ही नहीं। सुमेर पूरी व्यवस्था देखने में जुटा हुआ था, लेकिन बहुत देर से नजर नहीं आ रहा था। हां, याद आया कि वह मिठाई लेने नत्थू हलवाई की दुकान तक गया है। नत्थू हलवाई की दुकान पूरे शहर में प्रसिद्ध है, इसलिए वहां समय लगता ही है, भीड़ ही इतनी ज्यादा होती है। मैं सुमेर के आने की प्रतीक्षा करने लगा। मेरे कुछ दोस्त डायबिटिक हैं (मधुमेह के मरीज)। उन्होंने निवेदन किया कि वे समय पर ही खाना खाते हैं, इसलिए दावत शुरु की जाए ताकि वे समय पर दवाई भी ले सकें। मैंने बहू को आवाज लगाई। बहू तो नहीं आई, लेकिन उसकी सहायिका मंजू बाहर आई, बोली बाबूजी.. भाभी आपको अंदर बुला रही हैं। मुझे लगा कि कुछ पूछने के लिए बुला रही होगी। मैं रसोई में पहुंचा तो वो बड़बड़ा रही थी। क्या हो गया बहू? कुछ पूछना है क्या? बाबूजी पूछना नहीं बताना है कि आपको भी आज ही महफिल जमानी थी, आपको नहीं पता क्या कि आज सुमेर ने अपने कुछ दोस्तों को घर पर खाने के लिए बुलाया है। दोपहर से उसकी तैयारी में खट रही हूं और अब आपके भी इतने सारे दोस्त आ गए हैं, इनके लिए चाय-पानी का इंतजाम नहीं कर पाऊंगी मैं। आप किसी और दिन अपनी महफिल जमा लेना।

रघुवर प्रसाद के पैरों के नीचे से जैसे जमीन ही खिसक गई। सुमेर के दोस्त मतलब? उन्होंने अंदाजा लगाया कि लगता है कि सुमेर ने अपनी मां को पूरा सच नहीं बताया, बल्कि झूठ बोलकर खाना बनवा लिया है। इतने में सुमेर भी पहुंच गया। उसे देखकर दादाजी की जान में जान आई। सुमेर हड़बड़ाता हुआ आया और अपनी मां से बोला, ओह्हो मम्मा सॉरी, मेरे दोस्तों ने आज की पार्टी कैंसिल कर दी है। आपने इतनी मेहनत करके खाना बनाया है, चलो दादाजी के दोस्तों को ही आज खाना खिलाकर विदा करते हैं। आखिर मेरी मास्टर शेफ मम्मी के हाथों के खाने का स्वाद वे भी चखें। देखना आपकी तारीफ करते हुए जाएंगे। दादाजी को सुमेर की झूठी और मनगंढत बातें सुनकर बहुत गुस्सा आ रहा था। लेकिन सुमेर ये सब उन्हीं के लिए तो कर रहा था। ये सोचकर वे कुछ बोल भी नहीं पा रहे थे। वे ड्राइंग रूम की तरफ चले गए, जहां उनके दोस्त बैठे थे। भीतर उनकी बहू ने फरमान सुनाया, क्यों खिला दूं तेरे दादाजी के दोस्तों को खाना। उन्हें आदत लग जाएगी यहां दावत उडाने की। सुमेर ने प्रतिरोध किया, क्या मम्मी आप भी कैसी बातें करती हो। खाना तो बन ही चुका है ना तो क्यों नहीं खिला सकती और वे सब इज्जतदार लोग हैं, बिना बुलाए तो नहीं आ जाएंगे आपके हाथ का बना खाना खाने। प्लीज़ ऐसी बात मत करो। लेकिन सुनंदा यानि कि रघुवर प्रसाद की बहू अपने प्रिय बेटे की बात भी सुनने को राजी नहीं थी। बोली, तुझे पता है आटे-दाल का भाव। तेरे पापा कितनी मेहनत से कमाते हैं, तब जाकर यह घर चलता है। मम्मी, आप ये क्यों भूल रही हैं कि पापा को इस लायक दादाजी ने ही बनाया है। उनके भी कुछ अरमान होंगे, उन्हें क्यों नहीं पूरा करने देती हो। और जिस घर में हम रहते हैं, ये भी दादाजी का है, तो उनका इतना भी हक नहीं है क्या। फिर जो खाना बर्बाद ही होने वाला हो, किसी को खिला देने में क्या हर्ज है। अबकि बार सुनंद चिढ़कर बोली, मुझे तो लगता है कि तेरे दोस्तों की कोई पार्टी यहां थी ही नहीं, ये सारा इंतजाम तुने अपने दादाजी के लिए ही करवाया है। तभी इतना ड्रामा कर रहा है। बहू और सुमेर की बातें इतने ऊंचे सुर में होने लगी थीं, कि वे बाहर बैठक में भी सुनाई दे रही थी।

रघुवर प्रसाद के दोस्त बोले, देख भाई, तू शर्मिंदा ना हो। हम सब समझते हैं। हर दूसरे घर की यही कहानी है। हम कौन से सुखी हैं, अपने बच्चों के साथ। इनके लिए हमने ना दिन देखा ना रात देखी। बस चक्की की तरह चलते रहे। लेकिन इन्हें हमारी मेहनत का मूल्य नहीं मालूम है। खाना हम फिर कभी खा लेंगे, तू चिंता मत कर। हममें से किसी को बुरा नहीं लगेगा। उल्टा हमें तेरी चिंता हो रही है। तू भी कुछ मत सोच। वैसे भी हम सब अपने घर में ये बोलकर नहीं आए हैं कि हम कहीं बाहर खाने जा रहे हैं। हम सबका खाना घर में भी बना ही होगा। चुपचाप जाकर घर में खा लेंगे। रघुवर प्रसाद कुछ नहीं बोल पाए। शर्म और पीड़ा को बस आंखों में रोककर रखा, ताकि दोस्तों के सामने ना बह निकले। जब सारे दोस्त चले गए तो चुपचाप अपने कमरे में जाकर लेट गए। थोड़ी देर में सुमेर की मां ने आखिर बेटे के सामने हथियार डाल ही दिए, बोली जा खिला ले, जिसको खिलाना है ये खाना। लेकिन आइंदा ऐसी गलती की तो तेरे पापा से शिकायत करूंगी। सुमेर खुशी में कूदता हुआ दादाजी को सूचना देने बाहर आया, लेकिन तब तक तो बहुत देर हो चुकी थी।

हर नया दिन जीवन की एक नई उम्मीद लेकर आता है। लेकिन हम अपनी दिनचर्या में इतने गहरे बैठ चुके होते हैं कि हम उस नए अवसर का लाभ उठाने की कोशिश ही नहीं करते, जीवन में कुछ नया करने का प्रयास भी नहीं करते। उस पालतू हाथी की तरह हमारी मनोस्थिति हो जाती है, जिसे महावत कुछ दिनों तक एक मजबूत पेड़ से बांधकर रखता है, हाथी आजादी चाहता है, लेकिन मजबूत पेड़ से बंधा होने के कारण मुक्त नहीं पाता। जब उसे ये अहसास हो जाता है कि अब आजादी संभव नहीं, तो महावत को किसी मजबूत पेड़ की जरूरत नहीं पड़ती, बल्कि वो उसे किसी साधारण फायबर की कुर्सी से भी बांधकर निश्चिंत रहता है। उसे पता है कि हाथी के मन में मजबूत पेड़ की स्मृति है, वह प्रयास भी नहीं करेगा अपनी आजादी के लिए। वह प्रयास करे तो बंधनमुक्ति के लिए, फिर वह जाने की इस बार पेड़ नहीं, एक हल्की सी कुर्सी है, जो उसकी स्वतंत्रता की राह का रोड़ा बनने की औकात नहीं रखती। बस यही हम मनुष्यों की भी परेशानी है, अपने बंधनों से मुक्त होने का प्रयास ही नहीं करते हम। रघुवर प्रसाद सुबह जल्दी उठ जाते हैं। पास ही एक पार्क है, वहां चहलकदमी कर मन्नू की दुकान पर सुबह की चाय पीते हैं। आज मन्नू की दुकान पहुंचे तो देखा सुमेर वहां पहले से मौजूद है। अरे तुम यहां क्या कर रहे हो बेटा। उन्होंने अपने पोते से पूछा। दादाजी मुझे रात भर नींद नहीं आई, आखिर मम्मी आपके साथ ऐसा कैसे कर सकती है और पापा, वो भी कम नहीं है। पता है, मैंने कल उन्हें सारी बात बताई तो वे भी मम्मी का ही पक्ष ले रहे थे। दादाजी मुस्कुरा उठे। बोले, बेटा क्या किया जा सकता है, है तो वो मेरा ही बच्चा। वो मुझसे प्रेम करे या ना करे, मुझे तो उससे आज भी उतना ही प्यार है, जितना उसके जन्म लेते ही हुआ था। नहीं दादा जी, आपको अब अपनी सोच बदलनी होगी। देखिए मैं भी अपने मम्मी-पापा से उतना ही प्यार करता हूं। लेकिन मुझे लगता है कि उनकी हरकतें देखकर मैं उनसे नफरत भी करने लगूंगा। मैं नहीं चाहता उनके जैसा बनना। लेकिन जो वो आपके साथ कर रहे हैं ना, तो मुझे लगता है कि मैं भी कहीं उनके साथ वही व्यवहार ना करने लगूं। सुमेर बोला, तो दादाजी कांप उठे, नहीं-नहीं बेटा..ऐसा मत सोचो। वो तुम्हारे माता-पिता हैं। तो आप भी तो उनके पिता हो और दादी इस दुनिया से कैसे चली गई, वो भी मैंने अपने आंखों से देखा है। देखिए आपके समझाने का मुझपर ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा। लेकिन हां, यदि आप एक योजना में मेरा साथ दें तो सबकुछ ठीक हो सकता है। सुमेर बोला। कैसी योजना? रघुवर प्रसाद ने पूछा। सुमेर ने सबकुछ समझा दिया। पहले तो वे तैयार नहीं हुए, लेकिन सुमेर के प्यार और जिद के आगे उन्होंने सहमति दे दी।

अगले दिन सुमेर ने अपने माता-पिता और खुद के लिए मनाली ट्रिप बुक कर दी। वह चहकता हुआ घर पहुंचा। रविवार का दिन था, सब घर में ही थे। पापा-मम्मा सुनो, हम सब मनाली जा रहे हैं। सुनंदा ने चौंककर पूछा, भई कैसे? कब? जा रहे हैं मनाली। सुमेर ने कहा कि उसका एक जैकपॉट खुला है। उसमें तीन लोगों के लिए मनाली ट्रिप फ्री है। चलिए सामान पैक कर लीजिए, एक हफ्ते का टूर है। कल ही निकलना है हमें। सुमेर ने मां-पिता को मना लिया और वे मनाली के लिए निकल गए। सुनंदा या उसके पति ने, यानि रघुवर प्रसाद के बेटे ने एक बार भी नहीं सोचा कि पिताजी एक हफ्ते किसके भरोसे रहेंगे। ये देखकर रघुवर प्रसाद को गहरा धक्का पहुंचा। बहरहाल, एक हफ्ता कब निकल गया, पता ही नहीं चला। जब वे तीनों मनाली से लौटे तो घर के बाहर एक चौकीदार बैठा था। उसने उन तीनों को घर में घुसने ही नहीं दिया। रमेश यानि सुमेर के पिता ने उसे धमकी भरे अंदाज में कहा, सुनो ये मेरी ही घर है, मुझे मेरे ही घर में घुसने से रोक रहे हो। अंदर जाकर मेरे पिताजी को बुलाकर लाओ, वे तुम्हें बताएंगे कि हम ही इस घर के मालिक हैं। चौकीदार बोला, अंदर कोई नहीं रहता है। ये सुनकर सुनंदा और रमेशा चौंक गए, क्या मतलब है तुम्हारा कि अंदर कोई नहीं रहता। सुनंदा चिल्लाई। हल्ला सुनकर पड़ोस में रहने वाला गुलशन बाहर निकला। अरे रमेश भाई, यहां आईए आप लोग। उसने आवाज दी। रमेश, सुनंदा और सुमेर..गुलशन के घर चले गए। गुलशन ने कहा कि आइए पहले चाय वगैरह पी लीजिए, इतनी दूर से आ रहे हैं आप लोग। वो बोला। नहीं गुलशन चाय रहने दो, ये बताओ कि ये चल क्या रहा है हमारे घर पर। रमेश ने पूछा। गुलशन बोला यार, चाचाजी यानि तुम्हारे पिता ने ये मकान बेच दिया है और वे कहीं और रहने चले गए हैं। तुम्हारा सामान उन्होंने वो सामने वाले मकान में रखवा दिया है, मकान का सालभर का किराया भी दे दिया है। ये है उस मकान की चाबी और किराए की रसीद। ये क्या कह रहे हो गुलशन, मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा है। रमेश ने कहा। तुम्हारे मनाली जाने के बाद चाचाजी की तबीयत अचानक बिगड़ गई थी। उनके पास इलाज के पैसे नहीं थे और कोई हालचाल पूछने वाला भी नहीं था। वे कितने खुद्दार हैं, ये तो तुम्हें पता ही होगा, आखिर तुम्हारी पिता हैं। तो उन्होंने मजबूरी में ये मकान बेच दिया और एक छोटा मकान खरीदकर उसमें रहने चले गए, बाकी पैसों से अपना इलाज करवा रहे हैं। पूरे तीन करोड़ में बिका तुम्हारा ये मकान। सही भी तो है चाचाजी भी तो करोड़पति ही थे, बस उसपर हक नहीं जमा रहे थे। मकान बेचकर अब अपनी संपत्ति के सही मालिक बन गए हैं। गांव से उनकी कोई विधवा बहन को बुला लिया है अपने पास। वही उनकी भरपूर सेवा भी कर रही है। गुलशन ने कहा। अब तुम ठहरे जवान आदमी, कुछ साल किराए के मकान में रहो और फिर अपनी मेहनत के बल पर खुद का मकान भी एक ना एक दिन खरीद ही लोगे। गुलशन ने सहानुभूति दिखाई।

क्यों, पिता जी ने जो मकान खरीदा है, वह भी तो हमारा ही हुआ ना। सुनंदा ने कहा। नहीं भाभी, वो आपका नहीं होगा, क्योंकि चाचा जी ने अभी से वो मकान अपनी विधवा बहन के नाम कर दिया है। उनके नहीं रहने के बाद वही उस मकान की मालिक होंगी। चाचाजी का कहना है कि सगे संबंधी होने से कुछ नहीं होता, जो उनकी सेवा करेगा, मान-सम्मान देगा, वहीं उनकी वसीयत का असली हकदार होना चाहिए। ये बात सुनकर जैसे रमेश और सुनंदा के होश ही उड़ गए। वे लगभग गिड़गिड़ाते हुए बोले, यार गुलशन हमसे बहुत बड़ी गलती हो गई। बाबूजी का नया पता दे दो, कम से कम हम उनसे माफी ही मांग लेंगे। गुलशन ने पता देने से इंकार कर दिया। रमेश और सुनंदा हिचकियां ले-लेकर रोने लगे। उन्हें प्रयाश्चित होने लगा। लेकिन गुलशन पता बताने को तैयार ही नहीं हो रहा था। आखिर दोनों उसके पैरों पर गिर पड़े। रमेश बोला, गुलशन हम बचपन के दोस्त हैं, भाईयों की तरह रहे हैं। तू समझ, हमें अपनी गलती सचमुच में समझ आ गई है। कम से कम प्रायश्चित करने का मौका तो हमें मिलना ही चाहिए। हम पिता जी को बिलकुल परेशान नहीं करेंगे, लेकिन एक बार उनके पैरों पर गिरकर अपनी गलतियों की माफी मांगने का मौके से हमें वंचित मत कर दोस्त। सुनंदा ने भी प्रार्थना की।

उठो बेटा, मैंने तुम्हें माफ कर दिया है। रमेश और सुनंदा चौंककर पलटे। देखा तो पीछे रघुवर प्रसाद खड़े थे। दोनों दौड़कर उनके पैरों में गिर पड़े। अपनी गलतियों की माफी मांगने लगे। रघुवर प्रसाद ने दोनों को उठाया और गले से लगाकर बोले कि मैंने कहा तो कि माफ कर दिया है तुम्हें। नहीं पिता जी, मुझे तो आप एक जोरदार थप्पड़ मारिए। मैं अपने स्वार्थ में कितना अंधा हो गया था कि कभी आपके बारे में सोचा ही नहीं। सुनंदा भी लगातार रोए जा रही थी। रघुवर प्रसाद बोले कि गुलशन ने तुम्हें जो भी कहानी सुनाई है, वैसा कुछ भी नहीं है। मैंने केवल तुम्हारे अच्छे भविष्य के लिए ये पूरे ड्रामे में एक रोल भर किया है। ड्रामा, रोल, हमारा अच्छा भविष्य...ये सुनकर रमेश और सुनंदा चौंके। रघुवर प्रसाद ने उन्हें पूरी बात बताई कि सुमेर चाहता था कि मैं ये सब करुं। गुलशन को भी उनसे ही इस योजना में शामिल किया था। दरअसल सुमेर को लगता था कि तुम जो मेरे साथ व्यवहार करते हो, उसे देखकर वैसा ही व्यवहार वो तुम्हारे साथ करने को प्रेरित हो रहा था। उसे रातों में नहीं आ रही थी। उसने अपनी परेशानी को दूर करने का यही हल निकाला। हमने तो बस डायरेक्टर सुमेर की फिल्म में अभिनय भर किया है। इतना सुनते ही सुमेर दादाजी के गले लगकर रोने लगा। रमेश और सुनंदा को पहले ही रो रहे थे, अब गुलशन और दादाजी की आंखे भी गीली हो गईं। सुमेर को संतोष था कि उसने अपने माता-पिता को अच्छा सबक सिखा दिया था। अब दादाजी पूरे सम्मान के साथ घर में रह सकेंगे। अभी सुमेर यह सोच ही रहा था कि उसकी मां बोली, बेटा आज शाम को दादाजी के दोस्तों को घर पर दावत के लिए बुला लेना। मैं उन सबकी पसंद का खाना तैयार करूंगी। सुमेर सहसा बोल पड़ा, इसे कहते हैं हैप्पी एंडिंग।


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प्रियंका कौशल
संक्षिप्त लेखक परिचय -लेखिका पिछले 15 वर्षों से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय हैं। नईदुनिया, दैनिक जागरण, लोकमत समाचार, जी न्यूज़, तहलका जैसे संस्थानों में सेवाएं दे चुकी हैं। वर्तमान में भास्कर न्यूज़ (प्रादेशिक हिंदी न्यूज़ चैनल) में छत्तीसगढ़ में स्थानीय संपादक के रूप में कार्यरत् हैं। मानव तस्करी विषय पर एक किताब "नरक" भी प्रकाशित हो चुकी है।

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रचनाकार: सबक - कहानी - प्रियंका कौशल
सबक - कहानी - प्रियंका कौशल
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