अनुपमा मिश्रा बादल काले हों तो बारिश हो परन्तु मन भारी हो तो पलकें गीली, नयी कविता प्रस्फुटित होगी कोई शायद उन्हीं गीली पलकों तले जो ...
अनुपमा मिश्रा
बादल काले हों तो बारिश हो
परन्तु
मन भारी हो तो पलकें गीली,
नयी कविता प्रस्फुटित होगी कोई शायद
उन्हीं गीली पलकों तले
जो
आँखों से रिसती हुई
जा पहुँचेगी
कोमल हृदय तक
फिर हृदय की तरंगमालाओं
को छूकर
होगी पवित्र,
कोपलें भी निकल आएँगी नवीन
तब आएगा समय वह
कविता होगी परिपक्व,
होकर परिपक्व
गुज़र कर इन गलियारों से
उतर आएगी कविता एक
कागज़ पर ।
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प्रेम की परिपूर्णता
इसी में है
परोपकार को भी इसमें मिलाया जाए,
बिना इस सहज, सरल भाव के
प्रेम को स्वार्थ में बदलते देर नहीं लगती ।
प्रेम ही मूल तत्व है ब्रह्माण्ड का
समाहित है इसके कण-कण में,
अनुराग बसा है इसके हर अंश में,
उदीप्त होती है ये निहारकर
हर विकल, हर दुखी को।
प्रेम की अक्षुण्णता इसी में है कि
इसे वृहदतम स्तर पर ले जाया जाए,
मैं और मेरा
को छोड़कर
हर जीव को उसके रूप में अपनाया जाए।
---
उलझी हुई ज़िन्दगी बेहतर है
सुलझी हुई हयात से,
ऐसा भी क्या सुलझना
कि, कोई राहगीर भी पढ़ जाए
उलझनें हो और ऐसी हों कि
अपने भी सुलझा न पाएँ ।
सुलझने में मज़ा ही नहीं कोई
उलझनें हो तो अलानाहक वक़्त भी कटेगा,
सिरे ढूँढते- ढूँढते
एक सिरा जो मिल भी जाएगा,
दूसरे की तलाश में कटेगी उम्र।
ज़ियारत की भी क्या ज़रूरत
कई ज़र्ब जो मिले
उन्हीं में ज़िया ढूँढें
ढूँढते ही रहें
और खो जाएँ कहीं यूँ
कि ख़ुदी का भी गुमाँ न रहे
यूँ ही कट जाए ज़िन्दगी
ख़ुद-ब-ख़ुद ज़फर हो जाये
उलझी हुई ज़िन्दगी।
00000000
अनिल कुमार
'याचक'
याचक छोटा या बड़ा
सब ईश्वर के घर है खड़ा
कोई कम माँगता
कोई याचक गठरी बाँधता
मन्दिर मन्दिर दौर चढ़ा
कोई सीढ़ी पर
हाथ जोड़ है खड़ा
कोई मन्दिर के अन्दर
माँग रहा पड़ा पड़ा
बाहर का भिक्षुक
याचक कम माँगता
आवश्यकताओं की चादर
क्योंकि कम लाँगता
अन्दर मन्दिर में याचक
माँग की भूख कहाँ त्यागता
चाहत में अपनी याचक बन
ईश्वर को भी धन दानता
गर होता याचक अन्दर सच्चा
तो बाहर का याचक
सीढ़ी पर बैठा भूखा न होता
याचक तो हम सब है
देता तो बस वह रब है
उसका उसको देकर क्या करेगा
भूखे को देगा गर
तो उसका पेट भरेगा
दुआ होगी उसकी तेरे संग
ईश्वर भी तेरी मन्नत पूरी करेगा।
अनिल कुमार, वरिष्ठ अध्यापक 'हिन्दी'
ग्राम देई, तह. नैनवाँ, जिला बून्दी, राजस्थान
0000000000
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अनुपमा अनुश्री
*** व्यंगिका***
चलते हैं सोसायटी के उन अंधेरों ,
उन सड़कों, गलियों, घर ,
चौराहों, बाज़ारों की ओर
जहां दहशत ग्रस्त हैं लोग
अपराध पलता है ।
ये मर्यादा हीन, संस्कार विहीन, कमजोर ,
पौरुषहीन, मान वेतर, जानवरों से बदतर, घूमते हैं छाती चौड़ी कर ,
जैसे जानते हैं भारत भूमि है,
यहां कौन डरता है,
यहां के हम सिकंदर ,
कोई है जो कर सके हमें अंदर !
यहां तो अहा! सब चलता है!!
बेखौफ ,बेधड़क ,खुली आबोहवा में ये
निर्लज्ज, हैवान झूम रहे और
इन्हें दंड देने वाली फाइलें
न्यायालयों में घूम रही हैं ।
निर्भया जैसे वीभत्स कांड करने वाले,
अपराधियों को कोई भय नहीं ,
क्योंकि सात साल बाद भी
उन्हें मिली सजा-ए-मौत नहीं।
अपराधियों के मानवाधिकारों की चिंता है,
इन नन्ही-मुन्नियों का तो सांस लेने का
भी हक,
किस हक से इन पापियों ने छीन लिया है!
ढेरों सवाल जिनके जवाब नहीं पाओगे,
यहां तो न्याय बस ढूंढते रह जाओगे,
बहरा -अंधा कानून कहां देखता है,
दुर्भाग्य !भारत में सब चलता है!
इन नराधमों का अंग भंग कर
नपुसंक कर देने से कम,
कोई उपाय नहीं बचता है।
क्योंकि सच तो यह है कि
" सब कुछ नहीं चलता है"
@अनुपमा अनुश्री
-0000000000
सत्येंद्र कुमार मिश्र 'शरत'
:- तुम-:-
तुम
मत झुकना कभी
मैं ही
हर बार
फूल की डाली सा
तेरे आगे
झुक जाऊंगा।
तुम मत
मानना कभी
मैं ही
हर बार
तेरे मनाने से पहले
मान जाऊंगा।
तुम सदा
जादूई मुस्कान
बिखेरती रहना,
तेरे सारे ग़म
हर बार
ओढ़ लूंगा मैं।
बस तुम
हंसना, गुनगुनाना ,चहकना
मेरे मीत
मेरे मन के आंगन में।
.......शरत्
(10-06-19
-
:प्रेम-:
कोई रूठता है
कोई मनाता है
कम नहीं है
प्रेम
दोनों तरफ।
रूठना भी प्रेम है
मनाना भी प्रेम है
कुछ
देर के लिए ही सही
आओ
भूल जाए
ये सारी दुनिया।
जहां ना रूठना हो
ना मनाना
खो जाए
हम
एक दूसरे में।
मिटा कर
अस्तित्व
अपना
साकार करें
अर्द्धनारीश्वर
की कल्पना।
......शरत
(09-06-19)
कविता -:कोई आया-:
वर्षों
इंतजार के बाद
आहिस्ता से
अनायास
जिंदगी में
कोई ऐसे आया
जैसे
जाड़े में
सुबह की धूप नें
हौले से
मेरी खिड़की को खड़खड़ाया
और कहा हो
की अब उठो
आंखें खोलो
बाहर
देखो सुबह हो गई।
जैसे
पहली बार
अभी अभी
मेरे सामने
गुलाब की कली ने अलसाकर कर
अंगड़ाई ली हो
और
चट् से बिखर गई।
जैसे
कहीं दूर से
कूकी हो कोयल।
घुल गई हो मिठास मेरे कानों में।
कोई
ऐसे ही आया
मेरे सूने जीवन में।
पहली बार
जैसे
किसेने
कोई गीत गुनगुनाया।
इस
उमस भरी
गर्मी में
बदली बन कर आई
और
बरस गई
इस सूखे जीवन में।
.....शरत्
MGKVP
0000000000
बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
32 मात्रिक छंद "जाग उठो हे वीर जवानों"
जाग उठो हे वीर जवानों, तुमने अब तक बहुत सहा है।
त्यज दो आज नींद ये गहरी, देश तुम्हें ये बुला रहा है।।
छोड़ो आलस का अब आँचल, अरि-ऐंठन का कर दो मर्दन।
टूटो मृग झुंडों के ऊपर, गर्जन करते केहरि सम बन।।1।।
संकट के घन उमड़ रहे हैं, सकल देश के आज गगन में।
व्यापक जोर अराजकता का, फैला भारत के जन-मन में।।
घिरा हुआ है आज देश ये, चहुँ दिशि से अरि की सेना से।
नीति युद्ध की टपक रही है, आज पड़ौसी के नैना से।।2।।
भूल गयी है उन्नति का पथ, इधर इसी की सब सन्ताने।
भटक गयी है सत्य डगर से, स्वारथ के वे पहने बाने।।
दीवारों में सेंध लगाये, वे मिल कर अपने ही घर की।
धर्म कर्म अपना बिसरा कर, ठोकर खाय रही दर दर की।।3।।
आज चला जा रहा देश ये, अवनति के गड्ढे में गहरे।
विस्तृत नभ मंडल में इसके, पतन पताका भारी फहरे।।
त्राहि त्राहि अति घोर मची है, आज देश के हर कोने में।
पड़ी हुयी सारी जनता है, अंधी हो रोने धोने में।।4।।
अब तो जाग जवानों जाओ, तुम अदम्य साहस उर में धर।
काली बन रिपु के सीने का, शोणित पी लो अंजलि भर भर।।
सकल विश्व को तुम दिखलादो, शेखर, भगत सिंह सा बन कर।
वीरों की यह पावन भू है, वीर सदा इस के हैं सहचर।।5।।
बन पटेल, गांधी, सुभाष तुम, भारत भू का मान बढ़ाओ।
देश जाति अरु राष्ट्र-धर्म हित, प्राणों की बलि आज चढ़ाओ।।
मोहन बन कर के जन जन को, तुम गीता का पाठ पढ़ाओ।
भूले भटके राही को मिल, सत्य सनातन राह दिखाओ।।6।।
बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
********
ग़ज़ल (आज फैशन है)
1222 1222 1222 1222
लतीफ़ों में रिवाजों को भुनाना आज फैशन है,
छलावा दीन-ओ-मज़हब को बताना आज फैशन है।
ठगों ने हर तरह के रंग के चोले रखे पहने,
सुनहरे स्वप्न जन्नत के दिखाना आज फैशन है।
दबे सीने में जो शोले जमाने से रहें महफ़ूज़,
पराई आग में रोटी पकाना आज फैशन है।
कभी बेदर्द सड़कों पे न ऐ दिल दर्द को बतला,
हवा में आह-ए-मुफ़लिस को उड़ाना आज फैशन है।
रहे आबाद हरदम ही अना की बस्ती दिल पे रब,
किसी वीराँ जमीं पे हक़ जमाना आज फैशन है।
गली कूचों में बेचें ख्वाब अच्छे दिन के लीडर अब,
जहाँ मौक़ा लगे मज़मा लगाना आज फैशन है।
इबादत हुस्न की होती जहाँ थी देश भारत में,
नुमाइश हुस्न की करना कराना आज फैशन है।
नहीं उम्मीद औलादों से पालो इस जमाने में,
बड़े बूढ़ों के हक़ को बेच खाना आज फैशन है।
नहीं इतना भी गिरना चाहिए फिर से न उठ पाओ,
गिरें जो हैं उन्हें ज्यादा गिराना आज फैशन है।
तिज़ारत का नया नुस्ख़ा है लूटो जितनी मन मर्ज़ी,
'नमन' मज़बूरियों से धन कमाना आज फैशन है।
बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
********
माहिया (टप्पा)
प्रथम और तृतीय पंक्ति तुकांत (222 222)
द्वितीय पंक्ति अतुकांत (22. 222)
कुड़िये कर कुड़माई,
बहना चाहे हैं,
प्यारी सी भौजाई।
धो आ मुख को पहले,
बीच तलैया में,
फिर जो मन में कहले।।
गोरी चल लुधियाना,
मौज मनाएँगे,
होटल में खा खाना।
नखरे भारी मेरे,
रे बिक जाएँगे,
कपड़े लत्ते तेरे।।
ले जाऊँ अमृतसर,
सैर कराऊँगा,
बग्गी में बैठा कर।
तुम तो छेड़ो कुड़ियाँ,
पंछी बिणजारा,
चलता बन अब मुँडियाँ।।
नखरे हँस सह लूँगा,
हाथ पकड़ देखो,
मैं आँख बिछा दूँगा।
दिलवाले तो लगते,
चल हट लाज नहीं,
पहले घर में कहते।।
बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
****
परिचय -बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
नाम- बासुदेव अग्रवाल;
शिक्षा - B. Com.
जन्म दिन - 28 अगस्त, 1952;
निवास स्थान - तिनसुकिया (असम)
रुचि - काव्य की हर विधा में सृजन करना। हिन्दी साहित्य की हर प्रचलित छंद, गीत, नवगीत, हाइकु, सेदोका, वर्ण पिरामिड, गज़ल, मुक्तक, सवैया, घनाक्षरी इत्यादि। हिंदी साहित्य की पारंपरिक छंदों में विशेष रुचि है और मात्रिक एवं वार्णिक लगभग सभी प्रचलित छंदों में काव्य सृजन में सतत संलग्न हूँ।
परिचय - वर्तमान में मैँ असम प्रदेश के तिनसुकिया नगर में हूँ। whatsapp के कई ग्रुप से जुड़ा हुआ हूँ जिससे साहित्यिक कृतियों एवम् विचारों का आदान प्रदान गणमान्य साहित्यकारों से होता रहता है। इसके अतिरिक्त हिंदी साहित्य की अधिकांश प्रतिष्ठित वेब साइट में मेरी रचनाएँ प्रकाशित होती रहती हैं।
सम्मान- मेरी रचनाएँ देश के सम्मानित समाचारपत्रों में नियमित रूप से प्रकाशित होती रहती है। हिंदी साहित्य से जुड़े विभिन्न ग्रूप और संस्थानों से कई अलंकरण और प्रसस्ति पत्र नियमित प्राप्त होते रहते हैं।
Blog - https:// nayekavi.blogspot.com
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आदि . एन. मिश्र
जिंदगी का सफर
कब , कहां रूक जाए
कुछ पता भी नहीं चलता .......
लोग गुजर जाते है.....
संग , साथी, रिश्तेदार और घरवाले
सब शमशान तक जाते हैं अंतिम बार .....
बचती है तो सिर्फ वो यादें हमारी....
वो गुजरे हुए पल अपनों के साथ
सिर्फ यादें बनकर रह जाती है ,
वो प्यारी सी यादें वो बीते हुए सुनहरे पल ....
कभी हंसाती है, तो कभी रूलाती है
सिर्फ यादें बनकर...
वो गुजारें हुए साथ के लम्हे ,
वो सामने दिखती हुई तस्वीरें याद आती है,
तब आंखें भर आती है ।
दुःखी होते हैं हम ,
रोते हैं कुछ दिन तक ,
परेशान भी रहते हैं फिर......
फिर.....
कुछ दिनों के बाद सब वैसा ही ,
सब अपने जीवन जीने में लग जाते हैं।
अपने काम, अपने जिम्मेदारियों में ,
भूल जाते हैं कि ....
कोई अब कभी के लिए ,
इस दुनिया में नहीं रहा....
लोग जिंदगी जीते रहते है
पर साथ गुजारे हुए
खूबसूरत पल , वो लम्हे ...
कभी कभी याद आ ही जाते हैं ...
आंखें नम हो ही जाते हैं.....
सिर्फ यादें बनकर रह जाती है
यादों में ही पास होने का एहसास होता है ..
वो पल...
वो चन्द लम्हें ...
वो यादें...
वो लोग...
सब सिर्फ यादें रह जाती है ।
सिर्फ यादें .....
---- आदि . एन. मिश्र
भदोही (उत्तर प्रदेश)
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नाथ गोरखपुरी
गज़ल
कुछ पल अब बचा है, जो गुजर जायेगा
तो बता ऐ अंधेरे, फिर तूं किधर जायेगा
वो पार पा ही लेंगे, लहरों की ललकार से
जिनको लहरों से, लड़ने का हुनर आयेगा
बस इक झलक को बेताब, है उसका दिल
दीदार हो जाये ,तो आशिक सुधर जायेगा
"सुनो सबकी करो मन की"ऐ मेरे दोस्त
हजारों नसीहतें मिलेंगीं, जिधर जायेगा
कहां उसके भरोसे चले हो टकराने तुम ?
देखना! वो वक्त पड़ते ही, मुकर जायेगा
'नाथ' का ग़र सहारा हो, सिर पर सनम
लोग हस्तीं मिटाये ,पर तूं संवर जायेगा
गज़ल
तेरे नफरतों के बाद भी जिये जा रहें है
तेरे सारे जख्म सीने पर लिये जा रहें हैं
वो जो मरा मुसलमां महफिले सरेआम
रोते हुये हिन्दू क्यों किसलिए जा रहें हैं
बेगैरत बेलाग बन गई है ग़र सियासत
आप उनमें शामिल क्यों हुये जा रहें हैं
हसीनों की आदत है अदायें दिखाने की
ये आशिक ही पागल हैं जो मुये जा रहें हैं
मैने माना कि 'नाथ' मौत चाहते हो तुम
फिर भी मोहब्बत तुझसे किये जा रहें हैं
गज़ल
सुन हमें पता है कि तुझे गुरुर है
के अब इस शहर में तुं मशहुर है
पर याद रख परिन्दे अपनी हदें
उड़ने वाले पर कतरते जरूर हैं
तुम और मैं ये बस्ती नही बसाते
फिर कैसे कहें के हम ही हजूर हैं
चाँद भी ग्रसित हो जाता ग्रहण से
फिका भी पड़ता सूरज का नूर है
काव्य
"प्रणय सुंदरी"
प्रणय सुंदरी है मुस्काई
मौसम ने है रूख को बदला,
आसमान है मचला मचला,
वृक्ष कपोंले सरस हो गये
देखन में तरू कड़े हो गये
वायु ने अपना तपन है छोड़ा,
समर में शीतलता है समाई,
प्रणय सुंदरी है मुस्काई।
मेघ गरजते बढ़े जा रहे,
अम्बर पै जनु चढ़े जा रहे
श्याम रंग का चोला डोले
गोरी ज्यों घुंघट हो खोले
लेने को कसके आलींगन
घटा ने दामन है फैलाई
प्रणय सुंदरी है मुस्काई
नयन सलोने पिय को निरेखे
सच भी लागै ख्वाब सरिखे
चंचल मन अठखेल है करता
पल पल सौ सौ आहें भरता
कातर दृष्टि डाल डालके
गोरी मीलन को है ललचाई
प्रणय सुंदरी है मुस्काई।
कितने सावन याद में गुजरे
ढूंढ रही थी व्याकुल नजरें
बीस बरिस भयो मेरे तन को
अंग अंग में रंग है मन को
पिय जो मेरे पास भयो तो
पिय देखन में क्या है बुराई
प्रणय सुंदरी है मुस्काई
नदी सी अल्हड़ मचल रही थी
बिना दिशा कै निकल रही थी
पेड़ों पर्वत से टकराती
मद में अपने ही बलखाती
लागै नदि नेह में देखौ
मीलन को अम्बर से उफनाई
प्रणय सुंदरी है मुस्काई
गगन संग मनु ब्याह चली हो
सिंधु लहरि अथाह चली हो
मन में स्वप्न स्वप्न में साजन
साजन लगे लोक कै राजन
निज राजन साजन से मिलने
तभी तो लोकलाज तजि आई
प्रणय सुंदरी है मुस्काई
दुनिया दिल का हाल ना जाने
मन का मोरे चाल ना जाने
पग पग कांटे लोग हैं बोते
प्रीत कै काहें दुश्मन होते
सदियों से इस जगमा
रीति है कैसी ये चली आई
प्रणय सुंदरी है मुस्काई
जग की जैसे खबर नही है
जग उससे बेखबर नही है
वो बुझे दिल की ही बातें
कटती नही है सुनी रातें
सावन गरज गरज है बरसै
गोरी कै तन तपन है आई
प्रणय सुंदरी है मुस्काई
जग को लागै सुध ही नही है
हृदय है उसका बुध वो नही है
उसको दु:ख उपदेश ना देना
ख्वाब में दिन है दिन में रैना
दिन दारूढ़ दुश्मन है लागै
रैना साजन से है मिलाई
प्रणय सुंदरी है मुस्काई
बागन में बौरे हैं लागै
इधर उधर हैं भौंरे भागै
पुष्प गन्ध रसपान करन कौ
पुरित निज अरमान करन कौ
कच्चे तन कौ पाक करन कौ
कलियों ने बाहें फैलाई
प्रणय सुंदरी है मुस्काई
लागै चंद भी हौं कामातुर
चाँदनी चंचल चितवन चातुर
अर्द्धनिशा में नेह जगत ह्वै
प्रेमपिपासु प्रेम मगत ह्वै
पिय सों प्रीत पावन को खातिर
चाँद को चाँदनी है फुसलाई
प्रणय सुंदरी है मुस्काई
नयन में निज ख्वाबों कौ बसाके
पिय सुरत देखति है लजाके
जग कहिं मोपर नजर ना डाले
कारे नयन बने पनिआले
छुप छुप गोरी प्रेम निभाती
सदियों वाली रीति निभाई
प्रणय सुंदरी है मुस्काई
हृदय हजारों हलचल होते
पल में हँसते पल में रोते
दुरी दारूढ़ दु:ख देती है
दुनिया दुश्मन क्यों बनती है
नेहनिभाना गर जो खता है
लो फिर मैं भी खता कर आई
प्रणय सुंदरी है मुस्काई
रस्म रीति को मैं क्युं जानू
परिणय नियम को मैं मांनू
हृदय में कोई भी बस सकता?
या दिल में भी है कोई रसता
पिय संग ही मैं ब्याह चलुंगी
लौ मैने यह कसम है खाई
प्रणय सुंदरी है मुस्काई
"प्रणय सुंदरी" (भाग दो)
वो प्रणय सुंदरी क्यों रोती है?
कल जो थी कुछ चाहने वाली
शायद कल थी ब्याहने वाली
कल उसने कुछ ख्वाब बुना था
लोगों से यह हमने सुना था
अब सूने आंगन क्यों सोती है?
वो प्रणय सुंदरी क्यों रोती है?
कली को कंटक किसने चुभोया?
उसके दर्द पर जग क्यों सोया?
निशा निशा निराश रह गई
अर्द्ध में उसकी आस रह गई
आंख से झड़ते क्यों मोती हैं?
वो प्रणय सुंदरी क्यों रोती है?
मुक्ता बिना बनी सुहागन
क्या वह इतनी ही थी अभागन?
कर में कंगन कड़े पड़ गए
दौलत नेह से बड़े पड़ गए
क्या जग की रीत यही होती है?
वो प्रणय सुंदरी क्यों रोती है?
क्यों निराश हो वह बाप हो गया?
क्या बिटिया बोना पाप हो गया?
बाणव्यंग का झेल रहा है
सदियों का यह खेल रहा है
यह अनहोनी क्यों होती है?
वो प्रणय सुंदरी क्यों रोती है?
जिसमें सारा संसार समाया
जग ने उसको क्यों तरसाया?
सपने उसके रेत हो गए
जग वाले क्या प्रेत हो गए?
नेह जो हर दम ही बोती है
वो प्रणय सुंदरी क्यों रोती है?
बादल बन बूंदें जो देती
सदय हृदय से सबको सेती
पीर परायों सा ओ छुपाती
पुष्प सा प्रेमप्राण है लुटाती
निशदिन जागे ना सोती है
वो प्रणय सुंदरी क्यों रोती है?
जिसने यम को मात दे डाला
शिव सम पीती है जो हाला
छड़ में दुर्गा छड़ में काली
खड़ग हाथ कहीं लिए भूजाली
रक्त केस को जो धोती है
वो प्रणय सुंदरी क्यों रोती है?
- नाथ गोरखपुरी
एम एड्- छात्र
दी द उ गो वि वि गोरखपुर
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सुधा गुप्ता
दोहे
प्रेम
1. तुम चंदा से टंक गये , हिरदय के आकाश ।
छिटकी मन में चांदनी , चारों ओर उजास ।।
2. कली प्रेम की हो गई , खिल कर के कचनार ।
याद तुम्हारी लंहकती , अखियां हैं रतनार ।।
3. जो बनते लाकिट प्रिये , रहते हिय के पास ।
जो कहुं बिछुरन सालहति , लख नित बुझती प्यास ।।
4. हवा चुलबुली छेड़ती , यादें देर सबेर ।
धूप संगिनी आ सखी , पिय को लाना हेर ।।
5. मेंहदी मादक हो गई , रक्तिम हुए कपोल ।
हार गले में बांह के , बजे मिलन के ढोल ।।
मातृत्व
1. मां है पावन गंग जल , मां धरती सी धीर ।
सिर पर रख दे हाथ तो , पल में हटती पीर ।।
2. मां की ममता प्यार है , जैसे फूल गुलाब ।
पास बैठियो प्रेम से , महक उठेंगे ख्वाब ।।
3. मां की बिंदिया में मुझे , दिखता है ब्रह्माण्ड ।
घुंघट मेंहदी चूड़ियां , रचतीं सुन्दरकाण्ड ।।
4. रहो देस परदेस में , मां का बरसे प्यार ।
जाने कैसे जानती , बेटा है बीमार ।।
5. मां ने हिस्से में चुने , मेरे पथ के शूल ।
नित्य निछावर कर रही , ममता के सब फूल ।।
0000000000
वीरेन्द्र पटनायक
फुदकती नन्ही बुलबुल उड़ने को तैयार,
झॅऺझरी-झरोखे में बैठी मां का इंतजार।
चोंच निवाला डालेगी कीट-पतंग सह प्यार,
अबला नहीं तू सबला है मां धरती करे पुकार।।
दुलारती-संवारती तू चौंकन्ना नज़र बाजार,
कब कौन बाधित करे हिल-मिल बिन औजार।
सिखाती संबल साहस शनै: शनै: शिकार,
अबला नहीं तू सबला है मां धरती करे पुकार।।
पारिवारिक होती गई समय का श्रृंगार,
घर-डेहरी सूनी अस गृहणी न अलंकार।
हम विस्तृत तुम संयमित कैसा साक्षर नियोजन परिवार,
अबला नहीं तू सबला है मां धरती करे पुकार।।
© वीरेन्द्र पटनायक, भिलाई
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अरुण तोमर
" कर्ण यथार्थ पर"
१.
केशव! अपनी प्रीत का दीप
तुमने मेरे हृदय में जाला है।
बहुत दूर, वंचित-सा रखकर
तुमने स्नेह से पाला है ।।
बहुत हर्षित हूँ इस जीव की
तुम्हें आज याद तो आयी,
किसी विशेष कार्य के लिए
मैंने बड़ी धन्यता पायी।।
किन निर्दिष्ट उद्देश्यों के लिए
मुझे मोल अपना चुकाना है
महासंग्राम में बोलों माधव!
किसका हिसाब पुराना है।।
पर ! मुझको अवतरित करने से पहले
गीता का नया वर दो सखे!
पहुँच सकूँ अपने लक्ष्य तक
वो विश्वास अमर दो सखे।।
धरा की पीर हरने को
क्या महासमर करना होगा!
निज सगे-सम्बन्धियों के निहित
क्या एक और युध्द लड़ना होगा!!
या समन्वय होगा समता का
कलुषित हृदयों का संताप हटेगा
क्या सम्भावनायें शेष है निश्चित
यथार्थ से अंधकार शीघ्र घटेगा।।
२.
देखो !आज धरा पर सखे!
संकट घनघोर घहराता है
प्रशांत सिंधु में सोया
कोई काल सर्प लहराता है।।
तप रहा धरती का आँचल
सहमी नदियों की धारा है,
नित जलवायु परिवर्तन से
क्रम ऋतुओं का हारा है।।
जंगलों की मृत्यु देखो!
टूटा परिंदों का बसेरा है।
उन्नति के बारूदी शिखर पर
मौन स्वर में सवेरा है ।।
कल की आशाओं के लिए
पग-पग पर युध्द करना होगा।
कर्म यज्ञ में पार्थ ! तुम्हें
आहुति बनकर जलना होगा।।
जाना तुमको युग पथ पर
लेने सब व्यथाओं की थाह,
परम्पराओं के विरुद्ध सखे
करने जग की परवाह ।।
तुम संस्कृति, सभ्यता के रक्षक
मानव धर्म के हो आधार।
देशभक्ति के तुम हो गौरव
चेतना के सरल विचार ।।
सुन्दर, सरल, सरस बने सब
तुम्हें आह्वान नया करना होगा।
मानव फिर मानव बनें
तुम्हें निर्माण नया करना होगा।।
---
"कर्ण संगी"
मेरे हृदय की गहराई में
कितने भाव जमे हुये है।
बहने थे जो आँसू निर्झर
वे भी निष्ठुर बने हुये है।।
सह लिया अब व्यथाओं का युग
अब मन का तम भी टलने दो,
धरा की पीर कुछ हरने को
क्षितिज के पार चलने दो ।।
केशव! मानव जीवन में अब
तुम मेरी ज्योति के आधार बनों,
इस कुरु से बड़े महासमर में
शक्ति के ज्वलित श्रृंगार बनों।।
मानवता के कल्याण मार्ग में
प्रकृति का पालन- पोषण हो
जीवन का सबको उद्देश्य मिले
किसी जन का ना शोषण हो।।
इस बार धर्म और प्रतिज्ञा के
सार्थक प्रतिबिंब मुझे देना
परिवर्तित कर सकूँ दुर्योधन को
तनिक लोक व्यवहार मुझे देना।।
स्वयं को श्रेष्ठ साबित करूँ
इतना लघु ना मन देना
मुझको मानव हित के लिए
केशव! सार्थक जीवन देना।।
दीन-हीन संसार में अब
कर्ण संगी बनकर चलो
सबको समता देने को
हे ! तात अब तत्पर चलो।।
असत्य, अधर्म और घृणा का युध्द
अब मुझे अकेले लड़ना है
आप बीता-सा जो सहा है
उसका उपचार कुछ करना है।।
--
अरुण तोमर
हिन्दी परास्नातक
मेरठ कालेज, मेरठ
000000000000
हरदीप सबरवाल.
१. इस तरह तो
उन्होंने कहा, रामराज्य!
हम नतमस्तक हो गए मंदिरों और घरों में,
राम की तस्वीरों और मूर्तियों के सामने,
उन्होंने समझा दिया हमें,
इंडिया और इटली का फर्क
हम वंदे मातरम को ठीक से
रटने लगे,
उन्होंने गोरक्षा पर अपनी चिंताएं प्रकट की,
हम हथियारों से लैस दस्ते में शामिल हो गए,
उन्होंने गोडसे के मन की बात की,
हमने गांधी को सूली पर चढ़ा दिया
वो कहते गए सबका साथ सबका विकास,
हम बेकाबू भीड़ का कानून चलाने लगे,
हमारे अट्टहास में जय श्री राम गूंज उठे,
दूर से देख रावण खिलखिला उठा,
बोला, इस तरह तो कभी
मै अट्टहास करता था…….
२. दिशाएं
भ्रम है, कि दिशाएं है,
तिस पर टांग रखे हैं यहां वहां,
तमाम तरह के दिशासूचक,
पानी की ऊपरी या निचली सतह
को खोजने जैसा ही आसान काम,
जीवन की दिशा का अवलोकन करना,
या रेत में से रेत के कणों की चमक को सहेजना,
वक़्त के प्रतिमान किसने देखे,
किसने लड़े युद्ध समय के विपरित,
वो जो इतिहास हो गए,
वो जो वर्तमान के दंभ में है,
या वो जो भविष्य के गर्भ में है,
पर असल में तो सब
बस व्यवस्थित रखना चाहते हैं,
सारे के सारे तिलिस्म,
और चुपचाप बने रहते हैं,
अपनी अपनी काल्पनिक दिशाओं में,
घोर सूनेपन से बचने को………
© हरदीप सबरवाल
परिचय
हरदीप सबरवाल पंजाबी यूनीवर्सिटी से सनातकोत्तर है, उनकी रचनाऐं विभिन्न ऑनलाइन और प्रिंट पत्रिकाओं में जैसे The Larcenist , Zaira Journal, PIN Quarterly Journal, Literature Online, The Writers Drawer, Quail Bells, NY Literary Magazine, In-flight literary Magazine, Toplogy magazine, Amomancies Magazine, Literary Yard, Alive, The Taj Mehal Review, जनकृति इंटरनैशनल मैगजीन, हस्ताक्षर वैब पत्रिका, सेतू मैगजीन, दिल्ली पत्रिका, हस्तक्षेप मैगजीन, साहित्य सुधा, नवपल्लव मैगजीन, साहित्य एक्सप्रेस, परिकल्पना समय, साहित्य कलश, जयदीप पत्रिका, सुखनवर पत्रिका, पुरवाई पत्रिका और कुछ समाचार पत्रों में प्रकाशित हुई है.
२०१४ में उनकी कविता HIV Positive को Yoalfaaz best poetry competition में प्रथम स्थान मिला। 2015 में उनकी कविता The Third Desire इस प्रतियोगिता में द्वितीय आई। दिसम्बर 2015 में उनकी कविता The Refugee's Roots को The Writers Drawer International poetry contest में दूसरा स्थान मिला.
जून 2016 मे उनकी कहानी "The Swing" ने The Writers Drawer short story contest 2016 में तीसरा स्थान जीता .
प्रतिलिपी लघुकथा सम्मान 2017 में इनकी में तृतीय स्थान मिला.
अब तक ६ सांझा संग्रहों में रचनाएं प्रकाशित
प्रतिलिपि कविता सम्मान 2019 से सम्मानित
000000000000
संजय वर्मा 'दृष्टी '
खुश्बू
दिल गया
गया नहीं
मौसम के फूलों की खुश्बू में
खो गया
यकीं न होतो खुश्बू से
तनिक पूछकर देखो
वो ले जाएगी
प्यार की दुनिया में
जो बालों में कभी फूल
लगाकर पास से गुजर कर
कर देती थी मदहोश
खुशबु तो प्रमाण होती प्यार का
जो रह रह कर याद दिलाती
आराध्य पर चढ़े हो या बगिया के खिले हो
ये भी सच तो है
फूलों की खुश्बू भी प्यार का मिसकॉल मारती
जब उसे तुम्हारी याद आती
और तुम्हें उसकी
बहारें इन्तजार करवाती
उसकी तरह
जिसका तुम इन्तजार हर मौसम में
एक दीदार के लिए करते थे
मनावर (धार )
00000000000
-बिलगेसाहब
बोझ-ए-जिंदगी को मुझ पे झोकना मत।
गर मैं मरना चाहूँ तो मुझ को रोकना मत।
दर्द देकर हमदर्द यहाँ बन जाते है लोग।
मेरे छलकते हुए आँसुओं को पोछना मत।
सपनों में भी मिलने मुझे नही आएगी वो।
मेरी आँखों का पता उस को देना मत।
गम ही नसीब होंगे मोहब्बत की राहों में।
किसी का दामन प्यार से तुम भरना मत।
डूब कर बह जाएंगी दुनिया बारिश में।
आसमान को मेरा हाल बताना मत।
और सब ने दी थी मेरे ख़िलाफ़ गवाही।
सिर्फ़ आईने को ही बस तुम टोकना मत।
मुझे जलते हुए देखने का अरमान था उसका।
उसके आने से पहले मुझ को फुकना मत।
मेरी मौत का जिम्मेदार मैं खुद ही हूँ 'बिलगे',
इस बात के लिए तू ख़ुदा को कोसना मत।
-बिलगेसाहब
00000000
अविनाश तिवारी
प्रेम के बेर
#########
खाके मीठे बेर शबरी के
प्रेम तत्व अपनाया था।
छोड़ दुर्योधन के पकवान
साग विदुर का खाया था।।
शबरी की भक्ति राम ने
सहज प्रेम स्वीकारा था,
नवधा भक्ति शबरी के
रोम रोम समाया था।।
प्रभु भाव के भूखे
भक्ति से बंधे जाते हैं।
देख सुदामा को मिलने
प्रभु कैसे दौड़े आते हैं।
खाके चावल की दो मुट्ठी
दो लोक का दान दिया
कृष्ण सुदामा की मित्रता
ने जीवन को आयाम दिया
प्रेम जगत का सार तत्व है
जीवन का आधार है।
भक्ति में शक्ति निहित है
प्रभु का व्यापक विस्तार है।
@अवि
अविनाश तिवारी
अमोरा
जांजगीर चाम्पा
वर्तमान पता प्रतापपुर सूरजपुर
छत्तीसगढ़
0000000000
संजय कुमार श्रीवास्तव
नई दास्तां लिखता वही है ।
खुद पर यकी हो औरो पर नहीं ।।
नई दास्तां सिर्फ लिखता वही ।
करो आत्मविश्वास सही है यही ।।
बदल दोगे दुनिया सही है सही है ।
मातु पिता को करो तुम नमन ।।
बदल देंगे तकदीर चमकते रहोगे ।
नई दास्तां सिर्फ लिखता वही ।।
करो आत्मविश्वास सही है यही ।
गुरुजनों का करो तुम आदर।।
बदल देंगे जीवन आहिस्ता आहिस्ता
नई दास्तां सिर्फ लिखता वही
खुद पर यकी हो औरों पर नहीं
दो o कवि की सुंदरता उसका काव्य होता है
नाट्य की सुंदरता उसका साज होता है
यार की सुंदरता उसका प्यार होता है
दिल की सुंदरता उसका राज होता है
---
इस कॉलेज की पावन धरा को नमन करता हूं।
सभी गुरुओं को "कर'जोड़ नमन करता हूं।।
दिखलाई है हमें सच्ची राह इस कॉलेज ने ।
करु बखान कैसे शब्द नहीं है मुझ में ।।
एक बार नहीं बार-बार वंदन है ।
इस कॉलेज को तहे दिल से अभिनंदन है ।।
तीन सालों में विश्वास सबका जीत लिया ।
करु ना गलती कोई ऐसा प्रण माँ ने दिया ।।
क्या करूं मैं भी संकल्प लिए बैठा था ।
था संकल्प मेरा कवि की पीड़ा बनने का ।।
सीख लिया प्यार और प्यार की पीड़ा क्या ।
सीख लिया प्यार और प्यार की पीड़ा क्या ।।
--
-: कवि की कलम:-
नाम - संजय कुमार श्रीवास्तव
ग्राम - मंगरौली
पोस्ट - भटपुरवा कला
जिला - लखीमपुर खीरी
0000000000
अजय अमिताभ सुमन
कैसे कहूँ है बेहतर ,हिन्दुस्तां हमारा?
कह रहे हो तुम ये ,
मैं भी करूँ ईशारा,
सारे जहां से अच्छा ,
हिन्दुस्तां हमारा।
ये ठीक भी बहुत है,
एथलिट सारे जागे ,
क्रिकेट में जीतते हैं,
हर गेम में है आगे।
अंतरिक्ष में उपग्रह
प्रति मान फल रहें है,
अरिदल पे नित दिन हीं
वाण चल रहें हैं,
विद्यालयों में बच्चे
मिड मील भी पा रहें है,
साइकिल भी मिलती है
सब गुनगुना रहे हैं।
हाँ ठीक कह रहे हो,
कि फौजें हमारी,
बेशक जीतती हैं,
हैं दुश्मनों पे भारी।
अब नेट मिल रहा है,
बड़ा सस्ता बाजार में,
फ्री है वाई-फाई ,
फ्री-सिम भी व्यवहार में।
पर होने से नेट भी
गरीबी मिटती कहीं?
बीमारों से समाने फ्री
सिम टिकती नहीं।
खेत में सूखा है और
तेज बहुत धूप है,
गाँव में मुसीबत अभी,
रोटी है , भूख है।
सरकारी हॉस्पिटलों में,
दौड़ के हीं ऐसे,
आधे तो मर रहें हैं,
इनको बचाए कैसे?
बढ़ रही है कीमत और
बढ़ रहे बीमार हैं,
बीमार करें छुट्टी तो
कट रही पगार हैं।
राशन हुआ है महंगा,
कंट्रोल घट रहा है,
बिजली हुई न सस्ती,
पेट्रोल चढ़ रहा है।
ट्यूशन फी है हाई,
उसको चुकाए कैसे?
इतनी सी नौकरी में,
रहिमन पढ़ाए कैसे?
दहेज़ के अगन में ,
महिलाएं मिट रही है ,
बाज़ार में सजी हैं ,
अबलाएँ बिक रहीं हैं।
क्या यही लिखा है ,
मेरे देश के करम में,
सिसकती रहे बेटी ,
शैतानों के हरम में ?
मैं वो ही तो चाहूँ ,
तेरे दिल ने जो पुकारा,
सारे जहाँ से अच्छा ,
हिन्दुस्तां हमारा।
पर अभी भी बेटी का
बाप है बेचारा ,
कैसे कहूँ है बेहतर ,
है देश ये हमारा?
अजय अमिताभ सुमन:
सर्वाधिकार सुरक्षित
0000000000
अशोक कुमार
प्राकृतिक सुन्दरता
कैसे इसकी तारीफ करू
वो शब्द कहा से लाऊ
खो न जाए वो रंग
जो भर दिए प्रभु ने
मन मेरा तड़प रहा
प्रकृति तुझे कैसे बचाऊ
दर्द तेरा न कोई समझ रहा
रोना रोते सब आधुनिकता का
फैल रहा मधुमेह ,विलुप्त हो रही प्रजातिया
कैसे मै प्रकृति संरक्षण युक्ति इन्हे सुझाऊ
उजडती प्रकृति कैसे मै जश्न मनाऊ
नम आँखों से मै तेरा दर्द सब को सुनाऊ
सब प्यार करे ,तुझे सजाए
ऐसी वाणी का ओज कहा से लाऊ
है प्रार्थना तुझसे माँ सरस्वती
ऐसी निरवता मुझमे भर दे
सब के मन मे प्रकृति संरक्षण
सुन्दर प्रेम भाव रस भर दे
हाथ उठे सबके ,सभी यह आस लगाए
ऋणी आत्मा इस भू की ,
इसके लिए सभी पेड लगाए
भारत 05-06-2019
©®
अशोक कुमार
नई बस्ती
बडौत बागपत
उत्तर प्रदेश 250611
00000000
संध्या चतुर्वेदी
शब्द शब्द में सोचा तुम को
फिर अक्षर अक्षर याद किया।
प्रिय तुम्हारी खामोशी का
ऐसे मैंने एहसास किया।।
तुम पर जब भी गीत लिखा।
उस को लिखकर चूम लिया।।
प्रिय तुम्हारी यादों को फिर
अंतस मन से याद किया।।
जहाँ मिले थे हम तुम पहले
उस पल को फिर आबाद किया।।
ज्यूँ पवन ने फूलों से प्रेम का इजहार किया।
अपने रूप में तुम को ऐसे मैंने
ढाल लिया।।
शब्द शब्द में सोचा तुम को
अक्षर अक्षर याद किया
फिर अपनी बेचैनी का
ऐसे कुछ इजहार किया।।
तुम पर ही एक गीत लिखा
और तुम को ही स्वीकार किया।।
यूं अपने जीवन में मैंने
प्रेम का इस्तकबाल किया।।
संध्या चतुर्वेदी
अहमदाबाद, गुजरात
000000000000
डॉ0 मृदुला शुक्ला 'मृदु'
1– मंगल होते थे कभी जंगलों में नित-नित,
धरा बंजर हुई जंगल उजड़ गए।
पक्षियों के कलरव कोयल की कुहू-कुहू,
चीड़, सागौन कटे घोसले उजड़ गए।।
पानी के बिना ही सारी सृष्टि का संकट बढ़ा,
चन्द पैसों के लिए प्राणी ही उजड़ गए।
शूल स्वयं बोते नर लालच में पड़कर,
वन उजड़े खग-मृग भी उजड़ गए।।
2–वृक्ष न रहे धरा पे जग न रहेगा यह,
पशु,पक्षी,प्राणियों का अन्त ही आ जायेगा।
अन्न,फल,फूल,छाया कुछ न रहेगा शेष,
सूरज का अति कोप जग में आ जायेगा।।
जन-जन पूर्ण करे निज कर्तव्य सदा,
वृक्षों की लगें कतार जीवन आ जायेगा।
बाग-बगीचों में खूब हरियाली लहराए,
कटते रहे जो वृक्ष भूचाल आ जायेगा।।
3–फल,फूल,मेवे के हैं भण्डार भरे ये वृक्ष,
नित्य प्रदूषण हर शुद्ध वायु देते हैं।
स्वयं नहीं खाते यह पर उपकारी वृक्ष,
छाया, पत्र, पुष्प, फल दान कर देते हैं।।
इनके ही कारण हैं नभ में सुहाते मेघ,
वर्षा सुहानी लाकर हरियाली देते हैं।
तन-मन हर्षित हों वृक्षों को लगाएँ खूब,
धरती माँ का श्रृंगार वृक्ष कर देते हैं।।
4–आम,नीम, कटहल के खूब लगाओ वृक्ष,
वृक्षों को लगा के खूब दौलत कमाओगे।
वृक्ष काटकर नहीं वृक्ष आरोपित कर,
सारे जगत का तुम जीवन बचाओगे।।
स्वास्थ्य बने उत्तम औ देव भी प्रसन्न होवें,
धरती माँ को अद्भुत स्वर्ग बनाओगे।
सूरज की तपन में राही को आराम देते,
वृक्ष रोपित कर आशीष खूब पाओगे।।
कवयित्री
डॉ0 मृदुला शुक्ला 'मृदु'
114, महराज-नगर
लखीमपुर-खीरी (उ0प्र0)
कॉपीराइट–कवयित्री डॉ0 मृदुला शुक्ला 'मृदु'
00000000000
अक्षय भंडारी
मेरा बचपन का खेल मुझे लौटा दो,
आज के भविष्य को वह सिखला दो।
हो न जाए पब्जी जैसे खेलो में खत्म भविष्य
इसलिए अब इस पर जोर लगा दो,
मेरा बचपन का खेल मुझे लौटा दो।।
स्कूलो में खेले थे,वह जीवित खेल
उसे आज के भविष्य को लौटा दो,
फिर से सेहतमंद खेल उन्हें सिखला दो।।
आज खेल मोबाइल पर चल रहे है
मेरे बचपन के खेल आज के भविष्य
ढूढ रहे है,वो कल वाले खेल फिर से लौटा दो,
मेरा बचपन का खेल मुझे लौटा दो।।
आज के खेल मोबाइल पर दिमाग को
सुप्त कर रहे है,आने वाली शिक्षा
की प्राप्ति को मानो जैसे विलुप्त कर रहे है,
हमारी संस्कृति ओर हमारी परंपरा
फिर आज के भविष्य में लौटा दो,
उस बचपन के खेल की याद दिला दो,
मेरा बचपन का खेल मुझे लौटा दो।।
अक्षय भंडारी,राजगढ़ ,
तहसील सरदारपुर,जिला धार,मध्यप्रदेश।
000000000000000
चंचलिका शर्मा
माँ !!
चिलचिलाती धूप में
तुम घना साया हो....
जीवन की आपाधापी में
तुम ही निश्छल माया हो....
घोर तमस जब भी घिरे
तुम ही रौशन काया हो...
दुख दर्द के घनेरे बादल में
तुम ही सुख की छाया हो.....
मेरा वजूद तुम्हीं से है
तुम ही मेरा हमसाया हो
दूर रहकर भी मेरे जीवन की
तुम आलोकित आभा हो.....
इस विराट विश्व की
तुम ही आधारशिला हो
तुमसे जीवन की शुरुआत
तुम ही जीवन स्वरुपा हो...
" माँ " ध्वनि की आवृत्ति से
सारे क्लेश कष्ट दूर हुए
ममता की मूरत के संग
तुम दया की सूरत हो.......
माँ की कोख में संतान रहती
सृष्टि निर्माण तुम्हीं से है
सारी खुशियाँ तुम्हीं से शुरु
तुम ही जीवन का प्राण हो....
---- चंचलिका शर्मा.
000000000000
भुवन चन्द्र पन्त
जन्मतिथि - ०९ जनवरी १९५४
शिक्षा - स्नातकोत्तर
आकाशवाणी से कई रचनाएँ प्रसारित
डाक का पता - वार्ड नंबर - ५, रेहड़
भवाली ( नैनीताल)
उम्र यों फिसल गयी
=============
रेत भर मुट्ठी में
भींच अंगुली पोर
अज्ञात जीवन का छोर
रफ्ता रफ्ता रेत सी
उम्र यों फिसल गयी
ज्ञात नहीं बचा शेष है
जिन्दगी की जुस्तजू में
पाने की आस लिए
चाहत अशेष है
सपने गढ़ते, बुनते ,ढहते
उम्र यों निकल रही
संतापों की तपिश में
जिन्दगी शनैः शनैः
मोम सी पिघल रही
खोजते रहे उजास
कभी दूर कभी पास
याद अब अतीत की
गुदगुदी लगा रही
हासिल जो हो न सका
मुँह चिढ़ा ठगा रही
रूपहले पर्दे पर
सुख-दुख समेटे
श्वेत-श्याम छवि सी
सरपट यों सरक गयी
अन्तहीन लिए आस
सांसो का छूटा साथ
अट्टहास करती यों
मरघट पर अटक गयी
.................
सोशल मीडिया की समाज में बढ़ती दखल पर प्रस्तुत हैं चन्द पंक्तियां :-
# आभासी दुनियां के पंछी , अंबर में घर ढॅूढ रहे हैं #
==================================
सोशल मीडिया के दलदल में, यों आकण्ठ से डूब रहे हैं
आभासी दुनियां के पंछी , अंबर में घर ढॅूढ रहे हैं
बनी तर्जनी सेतु परस्पर, अजनबियों का लगा है मेला
मित्रों के अंबार है फिर भी , घर में बैठा हुआ अकेला
संदेशों कमेंट्स की ध्वनि पर, तुरत लपक कर हेर रहे हैं
घर-पड़ोस क्रन्दन पर बुत बन , अपनों से मुंह फेर रहे हैं
सुविचारों की लगी झड़ी है ,मानो बदल गयी है दुनियां
पर उपदेश कुशल बहुतेरे , ज्ञान दे रहे मुन्ना-मुनियां
अनजाने चेहरों से जुड़कर, रिश्ते-नाते छूट रहे हैं
आभासी दुनियां के पंछी , अंबर में घर ढॅूढ रहे हैं
सम्प्रदाय के बीच सहिष्णुता, अब अतीत की बात हो गयी
संवादों के द्वन्द युद्ध में , जहरीली कायनात हो गयी
सम्प्रदाय और जाति धर्म का, इसके जरिये विष ना घोलो
राजनीति के दलीय स्वार्थ में, इस पर तो कुछ भी नाबोलो
स्वतंत्रता का अर्थ यह नहीं, जो मन आये कुछ भी बोलो
आहत ना हो कथन से कोई , शब्द-तुला पर इसको तौलो
तस्वीरों को साझा करना , ये तो इतना नहीं जरूरी
इन्सा को इन्सा से जोड़े, दूर कर सकें दिल की दूरी
प्रेम-प्यार की कोपल भी अब, फेसबुकों पर फूट रहे हैं
आभासी दुनियां के पंछी , अंबर में घर ढॅूढ रहे हैं
बनी अंगुलियां भाग्य विधाता, जिसको चाहें धूल चटा दें
गर चाहें तो पल भर में ही, बौनों को असमान चढ़ा दें
क्यों परोक्ष में टिप्पणियां लिख, पानी पी-पी करगरियाते ?
कसम खुदा की क्या प्रत्यक्ष में, उनको यह सब तुम कहपाते ?
टिप्पणियां लिखने से पहले , सम्मुख का अहसास नहीं है
नजरें मिला सको मिलने पर, भले तुम्हारे पास नहीं है
सालगिरह या जनम-मरण पर , बरस रहे संदेश अनगिनत
अंगुलियों का खेल हो रहा ,बिना भाव अभिव्यक्त सा अभिमत
रिश्तों की नाजुक चादर के, ताने-बाने टूट रहे हैं
आभासी दुनियां के पंछी , अंबर में घर ढॅूढ रहे हैं
क्रान्ति-शान्ति का बिगुल फॅूकने, इससे सुन्दर मंच कहाँ है ?
मन की बात बयां करने को , ऐसा साझा मंच कहाँ है ?
आओ! मिलकर शपथ आज लें , नफरत भरी पोस्ट ना डालें
सृजनशीलता को अपनाकर , मानवता को गले लगा लें
धर्म, जाति और राजनीति का, करें प्रचार ये हर्ज नहीं है
तोड़ें नहीं इन्हें जोड़ें हम , मानवता का फर्ज यही है
आभासी दुनियां में सब कुछ , बुरा हो रहा ये नहीं कहता
निर्मल जल की सरिता में भी , कूड़ा अक्सर बहता रहता
बढ़ती है नित मित्रमण्डली, लेकिन अपने रूठ रहे हैं
आभासी दुनियां के पंछी , अंबर में घर ढॅूढ रहे हैं
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संवेदना के स्वर
===========
जब किसी लाचार के, आँखों में आंसू आते हैं ।
खुद ब खुद संवेदना के, स्वर मुखर हो जाते हैं ।।
स्पन्दन की भंगिमा में, स्वर स्वयं ही बोलते ।
काव्यमय अभिव्यंजना बन, मर्म को छू जाते हैं ।।
उसमें न कोई स्वार्थ होता, आत्मश्लाघा भी नहीं ।
करूणा छलकते नयन के जब, कोर भीगा पाते हैं ।।
कौन याचक कौन दाता , भेद कर पाते नहीं ।
खुद-ब खुद ही नेहवश , दो हाथ यों बढ़ जाते हैं ।।
यों दुवाओं के भिखारी , ऐसे भी बहुतेरे है ।
एक सिक्का फैंक करके , ख्वाब लाख सजाते हैं ।।
कौन याचक कौन दाता , यह तुम्हीं पर छोड़ता ।
यों भी सौदेबाजी करते , लोग देखे जाते हैं ।।
स्वजन से भी स्वार्थवश यों, शूल मिलते देखे हैं ।
अजनबी के दिल में स्नेहिल, दीप जलते देखे हैं ।।
कौन जाने कब किसी के, दिल की आहें झांक ले ।
पत्थरों के वक्ष पर भी , फूल खिलते देखे हैं ।।
आत्मा-परमात्मा का, ये ही पावन नाता है ।
जब कोई मूरत बिना , परमात्मा को पाता है ।।
संवेदनाऐं जब कभी यों ,मर्म को झकझोंरती ।
तब कहीं परमात्मा के पास, खुद को पाता है ।।
बिना प्रतिफल आश के, विश्वास जीते जाते हैं ।
कुछ न मांगे ईश से जो, शीश को यों नवाते हैं ।।
इससे बढ़कर मिल न पायेगी, सुकून ऐ जिन्दगी ।
जब किसी लाचार को हम , बेवजह अपनाते हैं।।
देखा नही भगवान को , वो फिर भी पूजे जाते हैं ।
पत्थरों को पूजकर , इन्सान को ठुकराते हैं ।।
आजमा कर देख लो, इन्सान को खुश कर कभी ।।
पास तब परमात्मा के, आत्मा को पाते हैं ।।
..................................
ये जश्न नहीं चिन्तन के पल
====================
नववर्ष तुम्हारा अभिनन्दन, ये जश्न नहीं चिन्तन के पल
संकल्प विकल्पों की बेला, आने वाला कल हो अविकल
कुछ नया नहीं हैं नया साल , बस कालखण्ड का मापक है
आगाह कराता है हमको , उपयोग करें इसका प्रतिपल
दिनमान वही प्रतिमान वही , है काल चक्र गतिमान वही
बदले हैं तारीख, बरस ,माह, हम खड़े अभी भी वहीं कहीं
नव वर्ष मनाने का उत्सव, सब अर्थहीन एक धोखा है
गर वैचारिकता धरा वही , नव्यता भव्यता कहीं नहीं
है नये कोष्ठ का उद्घाटन और विगत् कोष्ठ का अवगुंठन
कोष्ठक से कोष्ठक यात्रा में , जो समा गया वह ही जीवन
अवगुंठित कोष्ठक के अन्दर , ना घटा सकें ना बढा सकें
अब शुरू हुआ है नया कोष्ठ, तन,मन से कर लो अभिनन्दन
फिर दाना एक पिरोता हॅू
==========
सालगिरह की बेला पर ,कुछ पाता हॅू कुछ खोता हॅू
समय सूत्र की माला में , फिर दाना एक पिरोता हॅू
क्या खोया क्या पाया मैंने ,समय बही के पन्नों में
आत्म प्रवंचन की मथनी से, मैं नवनीत बिलोता हॅू
माला की कितनी लम्बाई , इसका तो कोई अर्थ नहीं
हर दाना मोती सा चमके , यह मेरी सामर्थ्य नहीं
श्वासों का नहीं भरोसा है ,कब दे जायें ये धोखा
रहे सजगता हर पल ही, इक क्षण भी जाये व्यर्थ नहीं
लघुता का संकोच न हो , ना गुरूता का अभिमान रहे
सामाजिक समरस जीवन हो ,निज कर्तव्यों का ध्यान रहे
भूलें अतीत के घावों को , जिसने जब जब भी मुझे दिये
बस प्रेम प्यार की भाषा हो , निश्छल आदान प्रदान रहे
पद, मान,प्रतिष्ठा, धन, वैभव , ये जीवन की उपलब्धि नहीं
दम्भ भरा करते जिन पर , निश्चय छूटेंगीं सत्य यही
सम्बल बनकर देखें उनका, जो निरालम्ब ’औ’ निराश्रयी
स्वार्थों को दरकिनार करके ,जो लब्धि मिली उपलब्धि यही
टूटे जब श्वासों की माला , बिखरें जब वर्षौं की लड़ियां
मेरी हर बिखरी लड़ियों में ,जोड़े कोई यादों की कड़ियां
तब समझॅूगा मैं धन्य हुआ , जीवन पथ यात्रा का वृतान्त,
कर्ज- फर्ज के बन्धन से , सब खुल जायेंगी हथकड़ियां
सुरमई शाम सी जिन्दगी ढल गयी
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सुरमई शाम सी, जिन्दगी ढल गई
हाथ की रेत सी,हमको यॅू छल गयी ?
ख्वाब पाले रहे , सब धरे के धरे
पूरे कुछ ना हुए , घाव देते हरे
दूसरों से कदम , हम मिलाते रहे
खुद की हस्ती को हम , यों मिटाते रहे
उन सा ना बन सके ,खुद को भी खो दिया
खुद के पद चाप को , हम भुलाते रहे
चाहतों का है क्या , वे तो अब भी जवां
दौड़ना व्यर्थ जब, छूटता कारवां
गढ लिए ख्वाब कुछ , पीर बन जो सहे
पृष्ठ कोरे बचे , जो रहे अनकहे
वक्त अब है नहीं , लिख सकें कुछ नया
शेष वो ही जमा ,जो गया सो गया
रफ्ता रफ्ता उमर ,मोम सी गल गई
सुरमई शाम सी , जिंदगी ढल गयी
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श्रमिक
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श्रमिक हॅू इबादत ही श्रम साधना है
कमरतोड़ मेहनत ही आराधना है
सदियों से किस्मत को अपनी लड़ा हॅू
जहॉ पर खड़ा था वहीं पर खड़ा हॅू
खड़े कर गगनचुम्बी अट्टालिकाऐं
दमकते घरों से सजी वीथिकाएं
भटकता हॅू दर दर न है आशियाना
खुले आसमां की खुली सी फिजाऐं
उगाता हॅू फसलें धरा चीर सीना ं
अघाता हॅू सबको बहाकर पसीना
गर भूखा सोना है पड़ता कदाचिद्
न करता हॅू शिकवा न हक मैंने छीना
मेरे धूल मिट्टी, सने तन बदन पर
फटेहाल बच्चे या बिकते कफन पर
अभावों भरी मुफलिसी मेरी फितरत
सोहरत वो पाते बयां करते शायर
दिया क्या नहीं मैंने उगते चमन को ?
बहाकर पसीना, गला तन बदन को
मुझको मयस्सर न दो जून रोटी
शिकवा न फिर भी है अहले वतन को
ये तख्ता नशीं और अमीरों की दौलत
बहा खूॅ-पसीना , कबूली हुकूमत
बुलन्दी पै चढ़ने को हॅू माल कच्चा
सॅवारी जो किस्मत तो मेरी बदौलत
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कंचन खत्री
है! मानव तू कहाँ जा फँसा है?
प्रकृति की छांव को छोड़कर,
ईट-पत्थर के मकान में जा बसा है।
शब्दों की तराजु को बीच राह में छोड़कर,
मतलब की नाव में जा चढ़ा है।
है! मानव तू कहाँ जा फँसा है?
दूसरों की काबिलियत का हरण कर,
स्वयं ऊचाईयों को छूने चला है।
मानवता की राह को त्यागकर,
कागज़ के नोटों को सँजोने में जुटा हैं।
हैं! मानव तू कहाँ जा फँसा है?
विज्ञान की राह पर चलकर,
ये जिसकी देन है उसी को भूलने लगा है।
पर्यावरण को ख़तरे में डालकर,
ख़ुद के क्षणिक सुख की ख़ोज में चला है।
है! मानव तू कहाँ जा फँसा है?
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मुकेश बंसोड़े
प्रकृति है तो ऊर्जा है,
ऊर्जा है तो जीवन है,
जीवन है तो धड़कन है,
धड़कन है तो संगीत है,
संगीत है तो उत्साह है,
उत्साह है तो उल्लास है,
उल्लास है तो उमंग है,
उमंग है तो प्रेम है,
प्रेम है तो विश्वास है,
विश्वास है तो आस्था है,
आस्था है तो भक्ति है,
भक्ति है तो शक्ति है,
शक्ति है तो प्रकृति है,
प्रकृति है तो ऊर्जा है,
ऊर्जा है तो जीवन है
और जीवन अनमोल है !!
प्रकृति को बचाएं, एक पेड़ लगाएं ।
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