वो ज़िन्दगी के हर पहर में, वो जुझती सी औरत, कौन? मुँह अंधेरे उठकर, काम में लगती, कभी बच्चों, तो कभी पति को तकती, हर दम दबी-घुटी, सबकी फरमाईश...
वो
ज़िन्दगी के हर पहर में,
वो जुझती सी औरत,
कौन?
मुँह अंधेरे उठकर,
काम में लगती,
कभी बच्चों, तो कभी पति को तकती,
हर दम दबी-घुटी,
सबकी फरमाईशें पूरी करती,
फिर भी सवालों के घेरे में घिरी,
एक साथ कई काम निबटाती,
बिंदी माथे से उतर कर
कभी कोहनी पर या गाल पर आ जाती,
बाल संवर नहीं पाते,
पर काम पूरे ही नहीं होते,
बैठकर ठहाके लगाता
आँगन में पूरा परिवार,
लाँघते ही आँगन तिरछी सी
मुस्कान बिखेर जाती,
फिर जुट जाती, इस हिसाब में,
कौन मेहमान आने वाले हैं?
किसको क्या लेना-देना है,
सत्तो ताई बीमार है पूछने जाना है,
पटवारी के घर पोता हुआ, बधाई देनी है,
मशीन से हाथ चला
कोशिश करती पूरे काम,
ये कौन, इक मालकिन, उस बड़े घर की,
जो कहलाती महज़ इक सकुशल,
घरेलू महिला।
- शबनम शर्मा
वो नन्हा
पहन के बस्ता,
टाँग के बोतल,
स्कूल की चमकीली वर्दी में,
ठुमक-ठुमक कर वो पग भरता,
आया घर से पहली बार,
बहुत समझाया सबने उसको,
जा रहा वो भी शाला आज,
उतर गोद से पहन रहा वो,
ज़िम्मेदारी का है ताज।
जैसे ही स्कूल वो आया,
हमने उसे कमरा दिखलाया,
मैडम को था, हाथ थमाया,
नन्हें ने फिर शोर मचाया।
जोर से पकड़ा उसने मुझको,
नहीं रहूँगा, मैं कभी यहाँ,
ये सब तो घर में नहीं हैं
जाऊँ हो मौज मस्ती जहाँ,
उसके रुदन से, डब-डब आँखों से,
मेरा मन भी था भर आया,
छुड़ा कर हाथ, थमा शिक्षा के
मन्दिर में, मैं छोड़ के आया।
- शबनम शर्मा
माँ की वो संदूकड़ी
साल भर इन्तज़ार रहता,
मायके जाने का,
छुट्टियाँ होते ही, कुछ दिन
घर के काम-काज से चुराकर,
और भाई-बहनों संग प्रोग्राम
बनाकर, पहुँच ही जाते,
हम माँ के घर,
अपने गाँव में।
घर का कोना-कोना निहारती
दिखती माँ
समेटती छोटी-छोटी चीजें
हम सबको देने के लिये।
बटोरती कुछ सिक्के भी
बाँध लेती चुन्नी के कोने में,
आते ही गली से कोई भी आवाज़,
पुकारती बच्चों को, देती
अंटी से खोल कुछ पैसे, भागते
बच्चे, लाते सामान, खाते और
खिलखिलाते।
दिन बीत जाते, हम भी सामान बांधते,
देख हमें, माँ निकालती अपनी बरसों
पुरानी संदूकड़ी, जिसमें बाँधकर रखे हैं
हम सबके जोड़े, पुड़ियों में बंधे पैसे
मुन्ने के कंगन, गुड़िया की पायल।
एक-एक को पुकार कर देती,
खुश होती, बस दुआएँ देती,
मिलने जाते हम भी दूसरे कमरों में
वहाँ रहती है हमारी भाभियाँ
सामने वाले घर में दो चाचियाँ,
देखते ही हमको इक बनावटी मुस्कान,
पर्स से निकाल वो एक आध शगुन,
का नोट, कितना भारी लगता उन्हें,
दस बार अलमारी खोलती-बंद करतीं,
फिर कह देतीं, ‘‘तेरे लायक कोई कपड़ा
ही नहीं अलमारी में, सब..............’’
सोचती मैं कितनी अमीर है मेरी
माँ की वो जंग खाई पुरानी संदूकड़ी,
इन चमचमाती अलमारियों से
जिनमें से इक रूमाल भी नहीं
झाँकता लड़की को देने के लिए।
- शबनम शर्मा
व्यथा शब्दों की
आसमान के ख़्याल,
धरा की गहराई,
रात्री का अंधेरा,
दिन की चमक,
शब्द बोलते हैं।
इन्सान की इन्सानियत,
हैवान की हैवानियत,
फूल की मुस्कान,
काँटों का ज्ञान,
शब्द बोलते हैं।
प्रकृति का प्रकोप,
जवान की शहादत,
विधवा का विलाप,
बच्चों की चीत्कार,
शब्द बोलते हैं।
शब्दों की चोट,
मन की खोट,
नज़रों का फेर,
गहन अन्धेर,
शब्द बोलते हैं।
शब्दों पर कटाक्ष,
शब्दों पर प्रहार,
शब्दों का दुरुपयोग,
शब्दों का आत्मदाह,
सिर्फ़ शब्द झेलते हैं।
- शबनम शर्मा
नदी के पत्थर
एक शाम, एक बाबू
नदी के तट पर खड़ा
निहारता रहा, नहाते
पत्थरों को, सफ़ेद
गोल-गोल पत्थरों पे अड़ा
आदेश दे, फटेहाल
पिंजर शरीरों को,
ट्रक भर भिजवा देना
सुनसान तट से टला
सुन ये आवाज़
पत्थर थर्रा गये
फुसफुसाये, गुहार की
कि बीच में बड़े
पत्थर ने पहली
बार प्यार से बात की,
चुन लिये गये हो
भिजवा दिये जाओगे
किस-किस बंगले
की शान कहलाओगे
चीख़ों से नदी गूँज गई,
रोये बड़े छोटे मिलकर
सब पत्थर गले लगकर
सोच कल लाखों प्रहारों को
हज़ारों टुकड़ों को,
हौसला दिया बड़े
पत्थर ने, विदाई
दर्दनाक हो उठी।
- शबनम शर्मा
ज़िन्दगी की सांझ में
ज़िन्दगी की सांझ में
इक राग छेड़कर
मुझे चूल्हे के पास
अपनी कंबली में
बिठा लेना।
छोटी-छोटी लकड़ियाँ
मैं लगाती जाऊँगी
ताकि तुम्हारी साँसों
की गरमाहट का
अहसास होता रहे मुझे।
बड़ी लकड़ी सिर्फ़
तुम ही लगाना
शायद मुझे
नींद आ जाये
तुम्हारे सीने से
लगकर,
तृप्त हो जाये वो पिपासा
जो ताउम्र तुम्हारा सानिध्य
ढूँढती रही।
ज़रूर अंकित करना
मेरे लबों पर चुंबन
जो बड़ी लकड़ी के
राख होने तक
गरमाहट देता रहे।
- शबनम शर्मा
याद
बरसों बाद
पीहर की दहलीज़,
आँख भर आई,
सोच
बेसुध सीढ़ियाँ चढ़ना
पापा के गले लग
रो देना,
हरेक का उनके
आदेश पर गिर्द घूमना,
खूँटी पर टंगा काला कोट,
मेज़ पर चश्मा, ऐश-ट्रे,
घर के हर कोने में
रौबीली गूँज।
आज घूरती आँखें,
रिश्तों को निभाती आवाज़ें,
समझती बेटी को बोझ,
हर तरफ़ परायापन
एक आवाज़ बुलाती,
जोड़ती उस पराये
दर से ‘पापा बुआ
आई हैं।’
- शबनम शर्मा
पीपल का पेड़
सदियों पुराना, दादाओं का दादा,
गाँव के उस छोर पर खड़ा पीपल का पेड़।
दिन बीते, माह बीते, बरस बीते, दशक बीते,
सदियाँ बीत गईं, इंसान पुश्त-दर-पुश्त गया,
पर एक टाँग पर खड़ा
देखता रहा बदलते युगों को
ये पीपल का पेड़।
दुनिया क्या से क्या हो गई,
राजाओं के महल डह गये,
पुरानी संस्कृति विलुप्त हो गई,
नई सभ्यता ने जन्म लिया, पर ये
सबको ताकता रहा पीपल का पेड़।
सदियों तक पूज्य रहा
सभ्य रहा, बना रहा
आभूषण ये पीपल का पेड़।
आज यह पूज्य नहीं, सभ्य नहीं,
चुपचाप काटा जाता है इसे,
वह भी लोगों की तरह अंधा, बहरा, गूँगा
व मूक बन जाता है।
देखता है सिर्फ, उसके आँसू,
ये गगन, ये हवा और देते
हैं आवाज़, चुप हो जा,
समझौता कर ले।
सह लेता है असंया वज्र
मूक खड़ा ये पीपल का पेड़।
- शबनम शर्मा
अनमोल कुंज, पुलिस चैकी के पीछे, मेन बाजार, माजरा, तह. पांवटा साहिब, जिला सिरमौर, हि.प्र. – 173021
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