क्या नकली माँस की मदद से जलवायु-परिवर्तन में मदद संभव हो सकती है घ् प्रश्न बड़ा और कठिन है, फिर भी इंसानी सभ्यता की ज़द से परे नहीं है। हमें ...
क्या नकली माँस की मदद से जलवायु-परिवर्तन में मदद संभव हो सकती है घ् प्रश्न बड़ा और कठिन है, फिर भी इंसानी सभ्यता की ज़द से परे नहीं है। हमें यह जान लेने में ज़रा भी कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि आने वाले बरसों में, पर्यावरण को सबसे बड़ा ख़तरा खाद्य-सुरक्षा के मोर्चे पर ही आने वाला है। ऑस्ट्रेलिया के सबसे बड़े शहर सिड़नी में जलवायु आपातकाल लागू कर दिए जाने की घोषणा इस संदर्भ का एक अनूठा उदाहरण है द्य समस्या यह भी है ही कि दुनिया की भूख के मुताबिक़ शाकाहार और माँसाहार के बीच कोई भी वाज़िब संतुलन नहीं है। कोई नहीं जानता है कि भूखमरी की स्थिति में हम शहरी बनेंगे या शिकारी और ये सब सूचना तब हैं, जबकि प्रयोगशलाओं में नकली माँस का भारी उत्पादन शुरू हो चुका है द्य नकली माँस बनाने वाली फैक़्टरियाँ खुल चुकी हैं और वर्ष 2040 तक तक़रीबन साठ फ़ीसदी माँस की आपूर्ति इन्हीं कथित फैक्टरियों से होने लगेंगी।
प्रयोगशाला में तैयार किए गए नकली मांस से बने बर्ग़र पश्चिमी देशों में लोकप्रिय बनाने की तेज कोशिशें चल रही हैं, इस अभियान में वांछित सफलता भी हासिल हो रही है और इसकी पक्षधरता में कहा जा रहा है कि इस सबसे भविष्य में माँस की उपलब्धता के लिए शायद पशु-पक्षी वध की अनिवार्यता भी नहीं रहेगी। ज़ाहिर है कि व्यापारिक और औद्योगिक़ घराने इस तमाम अभियान में अपने व्यावसायिक अर्थ-लाभ की नई संभावनाएँ तलाश रहे हैं। यहाँ खाद्य-वैज्ञानिक भी सहमत हैं कि खाद्य-पदार्थ खोजने का इससे बेहतर कोई विकल्प नहीं हो सकता है।
संसारभर के कई पर्यावरण विशेषज्ञ और खाद्य विशेषज्ञ सामान्यतः माँसाहार को जलवायु-परिवर्तन से जोड़कर देखते रहे हैं। पशु-पक्षियों के माँस से दुनिया के कॉर्बन फुटप्रिंट पर गहरा असर पड़ता है। तो क्या यह मान लिया जाना चाहिए कि प्रयोगशाला में तैयार किया गया माँस, हमारी दुनिया को जलवायु-परिवर्तन से बचा सकता हैं? अनेकों विशेषज्ञ स्वीकार करते है कि ऐसा संभव है। यह देखना दिलचस्प हो सकता है कि दुनियाभर में हाल के दिनों तक पशु आधारित कृषि का विस्तार हुआ है और बड़ी तादात में पशुओं को मारा भी जा रहा है, लेकिन दूसरी तरफ माँस के विकल्प के तौर पर नकली माँस के इस्तेमाल का चलन भी बढ़ा हैं । जर्नल साइंस में प्रकाशित एक लेख के अध्ययन में भी इस बात का दावा किया गया है कि नकली माँस के प्रयोग से जलवायु-परिवर्तन के खतरों को कम करने में मदद मिल सकती है। अमेरिकन लेखिका एमंडा लिटिल ने अपनी हाल ही में प्रकाशित एक क़िताब ’फ्यूचर ऑफर फूड’ में लिखा है कि हमारे जितने भी स्वादिष्ट भोजन हैं, वे सबके सब, सबसे पहले पर्यावरण-परिवर्तन के ही शिकार बनेंगे। यह संदेह, चिंता से कहीं अधिक विचार का विषय होना चाहिए कि अगर ऐसा हुआ तो दुनिया में भूखमरी और कुपोषण का ख़तरा कितना भयावह होगा?
आज दुनियाभर के कई रेस्तराँ अपने खाने में नकली माँस से बने व्यंजन प्रमुखता से शामिल कर रहे हैं, जिनमें ब़र्गर मुख्य है। प्रयोगशाला में बने नकली माँस के इस्तेमाल की प्रमुखता कुछ इसलिए भी ज़रूरी हो जाती हैय क्योंकि अमेरिका जैसे देश में मात्र आठ फ़ीसदी लोग ही शाकाहारी हैं। अमेरिका और यूरोप के कई देश नकली माँस से बने ब़र्गर बहुतायद से पसंद कर रहे हैं। प्रसिद्ध अमेरिका लेखक माईकल पॉलन भी न सिर्फ़ इसे पसंद कर रहे हैं, बल्कि शाकाहार के लिए जागरूकता फैलाने के लिए नकली माँस का
खुल्लम खुल्ला प्रचार भी कर रहे है । वे कहते हैं कि हमें कभी भी वह खाना नहीं खाना चाहिए जिसे हमारी पाबंदियाँ पहचानती हैं और परदादियाँ न पहचानती हों। माइकल पॉलन यह भी कहते हैं कि प्रयोगशाला में बने नकली मीट से निर्मित ’मीट बाल्स’ वे इसलिए पसंद करते हैं क्योंकि उनके ऐसा करने से शायद दुनिया बव सके। यहाँ उनकी जलवायु परिवर्तन की चिंता को नकारना मुश्किल है।
याद रखा जा सकता है कि एक बीफ़ बर्गर बनाने में तकरीबन ढ़ाई हज़ार लीटर पानी ख़र्च होता है, जो कि एक आम अमेरिकी परिवार की हफ़्तेभर की ज़रूरतों के बराबर है। मेडिकल जर्नल लेसेंट की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ माँसाहार से होने वाली बीमारियों की वज़ह से होने वाली मौतों का कुल ख़तरा शराब, ड्रग्स और तंबाकू से होने वाली मौतों के बराबर है। रिपोर्ट के इसी एक तुलनात्मक अध्ययन से ज्ञात होता है कि माँसाहार अपेक्षाकृत कितना ख़तरनाक होता है? इस बात पर भी ख़ासतौर से ग़ौर किया जाना चाहिए कि नकली माँस खेतों में नहीं उठाया जा रहा है, बल्कि उसका उत्पादन फैक्टरियों में हो रहा है। इससे भी जलवायु-परिवर्तन की चिंता को समझा जा सकता है। इसी गर्मी के दिनों में दिल्ली का तापमान 47 डिग्री सेल्शियस तक पहुँच गया था और सेनफ्रांसिस्को में भी पहली बार पारा 37 डिग्री पार देखा गया। ऑस्ट्रेलिया के बड़े शहर सिडनी में तो ’क्लाइमेट इमरजेंसी’ भी लागू कर दी गई। सिडनी में जलवायु-परिवर्तन के मुद्दे को लेकर बड़े पैमाने पर जन प्रदर्शन होते रहे हैं। सिडनी इससे पहले ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को रोकने के लिए कई कड़े और बड़े क़दम उठा चुका है। सिडनी के मेयर क्लोवर मूर ने अब जलवायु परिवर्तन के खिलाफ़ ’क्लाइमेट इमरजेंसी’ लागू करते हुए, वैश्विक स्तर पर जागरूकता लाने का नया काम किया है।
ऑस्ट्रेलिया के डारेबिन शहर में वर्ष 2016 में पहली बार ’क्लाइमेट इमरजेंसी’ लगाई थी और यह देश अब तक अपने 26 छोटे-बड़े शहरो में ’क्लाइमेट इमरजेंसी’ लगा चुका है। ’क्लाइमेट इमरजेंसी’ लागू करने वाला आयरलैंड दूसरा देश है। इसी जून माह में न्यूयॉर्क सिटी में भी ’क्लाइमेट इमरजेंसी’ लगायी गई है और दुनियाभर के तकरीबन सात हज़ार कॉलेजों में यह जारी है। फ्रांस और जर्मनी इसे अपने यहाँ कभी भी लागू कर सकते है, जबकि ब्रिटेन दुनिया का ऐसा पहला देश बन गया है, जिसने पूरे देश में ’क्लाइमेट इमरजेंसी’ लगा दी है। पिछले तीन बरस में पंद्रह देशों के 722 छोटे-बड़े शहर ऐसा कर चुके हैं।
जलवायु परिवर्तन को देखते हुए यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या समूची दुनिया का शाकाहारी होना संभव है ? बहुत संभव है कि ऐसा होने पर पर्यावरण संकट कम हो जाए, लेकिन यह सरल नहीं हैंय क्योंकि संसार में ऐसी सभ्यताओं की हिस्सेदारी बहुत बड़ी है, जिनका विकास माँसाहार के आसपास हुआ है और कि जिनके लिए माँसाहार सिर्फ़ स्वाद अथवा भोजन-शैली का ही मामला नहीं है, बल्कि ये वे सभ्यताएँ हैं, जो इसके बिना अपने जीवन की कल्पना भी नहीं कर पाती हैं, फिर यह देखना भी कोई कम दिलचस्प नहीं होगा कि शाकाहार और माँसाहार के बीच का उत्पादन असंतुलन दुनियाभर की खाद्य समस्या को किस भयावहता में धकेल देगा ? कौन नहीं जानता है कि भूख एक बड़ी चुनौती है और भूख से होने वाली मौतें भी कोई कम भयावह संकट नहीं है ? ग्लोबल हंगर इंडेक्स अर्थात् वैश्विक भूख सूचकांक के आंकड़े बता रहे है कि वर्ष 2018 में 119 देशों की क़तार में भारत 103 पर था। दुनियाभर के सभी छोटे-बड़े देश भूख विरूद्ध युद्ध में शामिल हैं और इस संकट से निजात पाना चाहते हैंय क्योंकि खाद्यान्न संकट एक वैश्विक संकट है।
प्रयोगशाला में नकली माँस का उत्पादन शुरू हो चुका है और उम्मीद है कि बहुत जल्द ही फैक्टरियों में भी बड़े पैमाने पर इसका उत्पादन होने लगेगा। एक सर्वेक्षण के मुताबिक अनुमान लगाया गया है कि वर्ष 2040 तक ज़रूरत पूर्ति का साठ फ़ीसदी नकली माँस यहीं से मिलने लगेगा । यह इसलिए संभव होगाय क्योंकि इस क्षेत्र में भारी निवेश किया जा रहा है। प्रयोगशाला में विकसित किए गए इस नकली माँस को चखने वाले दो यूरोपीय खाद्य-आलोचकों का कहना है कि यह स्वादिष्ट है इसका स्वाद कुछ तेज़ है, यह माँस के क़रीब है, लेकिन उतना रसीला नहीं है। वे यह भी कहते हैं कि इसकी सुसंगति बिल्कुल सही है, हालांकि इसमें नमक-मिर्च का अभाव लगता है, किंतु हम नहीं जानते कि यह कितना सुरक्षित है ? फ़िलहाल एक किलो ’कल्चर्ड मीट’ की क़ीमत पच्चीस डॉलर बताई जा रही है, जो कि अगले बरस तक घटकर मात्र दस डॉलर प्रति किलो से भी कम हो सकती है।
’कल्चर्ड मीट’ उत्पादन क्षेत्र को ’सेल्युलर एग्रीकल्चर’ भी कहा जाता है। नकली माँस प्रोटीन उत्पादन के अलावा इस क्षेत्र में ’सिंथेटिक बॉयोलॉजी’ की सहायता से दूध, अंडा, कॉफी, चमड़ा और रेशम का उत्पादन भी किया जा रहा हैं। इसमें से कुछ चीजें तो बिक्री के लिए सुपर मार्केट में आसानी से उपलब्ध भी हो गई हैं। इस तरह के ज़्यादातर काम अमेरिका यूरोप और इज़रायल में हो रहे हैं भारत में ’कल्चर्ड मीट’ को अहिंसा मीट भी कहा जा रहा हैय क्योंकि यह मीट, सीमांत मांसाहारियों को उनके नैतिक दबावों से न सिर्फ़ मुक्त रखता है, बल्कि पशुओं को किसी भी प्रकार से नुकसान नहीं पहुँचाने की पक्षधरता भी बनाए रखता है।
उच्च गुणवत्ता के पोषक प्रोटीन उपलब्ध करवाने वाले इस ’कल्चर्ड मीट उर्फ़ अहिंसा मीट के लिए भारत सरकार ने हैदराबाद स्थित ’सेंटर फॉर सेल्युलर एंड मोलेक्यूलर बॉयोलॉजी’ को यह ज़िम्मेदारी सौंपी है कि वह अगले पाँच बरस में इसका उत्पादन व्यावसायिक स्तर पर सुलभ करते दिखाए। हालांकि इस प्रोजेक्ट पर काम करने के लिए मात्र चार सौ करोड़ का ही बजट दिया गया है, जबकि दिल्ली के एक स्टार्टअप ने अगले माह के अंदर ही अपने उत्पाद बाज़ार में ले आने का लक्ष्य तय कर लिया है।
एक मार्केट रिसर्च से ज्ञात हुआ है कि अमेरिका और यूरोप की तुलना में भारत और चीन के उपभोक्ता उक्त ’अहिंसा मीट’ को ज़्यादा जल्द और सरलता से स्वीकार करने लगेंगे। इससे ज़ाहिर होता है कि ’सेल्यूलर एग्रीकल्चर’ के क्षेत्र में भारत की भूमिका मुख्य होगी । भारत सरकार के विज्ञान और उद्योग के प्रति अपनाई जा रही सकारात्मक विचार-दृष्टि भी यही कह रही है। प्रयोगशाला में निर्मित नकली माँस के मसले का आशय यही है कि वक़्त और ज़रूरत के मुताबिक़ मनुष्य की खाद्य-आदतें बदलती रहती हैं, जिन्हें रोक पाना असंभव है । यही प्रकृति का नियम है।
संपर्क :331 जवाहरमार्ग, इन्दौर-452002,
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