-एक- धरती-धरती अम्बर देख, पलकों बीच समंदर देख। तू भी कभी गली से उनकी, एक-दो बार गुजरकर देख। कब तक बिखर-बिखर गुजरेगा, थोड़ा-बहुत सिमट...
-एक-
धरती-धरती अम्बर देख,
पलकों बीच समंदर देख।
तू भी कभी गली से उनकी,
एक-दो बार गुजरकर देख।
कब तक बिखर-बिखर गुजरेगा,
थोड़ा-बहुत सिमटकर देख।
चाँद से बातें करनी हैं तो,
तू भी कभी संवरकर देख।
हर लम्हा न बना दूरियाँ,
खुद से जरा लिपटकर देख।
तेरे पीछे भी कोई है,
पीछे जरा पलटकर देख।
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-सो-
लाखों दीप जलाए लेकिन
दिल का मंदिर कब निखरा,
बाहर-बाहर घना उजाला,
भीतर-भीतर तम पसरा।
धरती-धरती अम्बर-अम्बर
धुआँ-धुआँ बस धुआँ-धुआँ,
गली-गली में धूम-धड़ाका,
जगह-जगह बिखरा कचरा।
आँखों-आँखों नफरत तारी,
होठों पर मुस्कान धरी,
अंतर-अंतर ज्वाला धधकी,
माथे-माथे तिलक धरा।
दिल के दीप जलें ग़र यारा,
प्रेम का दरिया बह निकले,
आँगन-आँगन महक उठे,
हो रात चांदनी दिन उजरा।
मानवता के पदचिन्हों पर
कुछ दूरी तो चलकर देख,
निजता की खातिर तू
बन्दे मानवता से मत टकरा।
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-तीज-
ये ज़िन्दगी, सवाब है, क्या है,
मोहब्बत है, रुआब है, क्या है।
मैं खुद ही को पढ़ता रहता हूँ,
मेरे भीतर किताब है, क्या है।
भंवरे उससे ही मुख़ातिब क्यूँ हैं,
उसका चेहरा गुलाब है, क्या है।
वो क्यूं, आँखों में नहीं उतरे है,
रुखपे उसके, नकाब है, क्या है।
मैं सोकर भी क्यूं सो नहीं पाता,
मेरी आँखों में ख्वाब है, क्या है।
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-चार-
इक सफर सा ज़हन में पलता रहा,
मैं नींद में भी बारहा चलता रहा।
देखकर नये दौर की फितनागरी,
हर-नफ़स इक वहम सा पलता रहा।
न धुआँ उठा, न आग ही दहकी मगर,
दिल मिरा था हर-नज़र जलता रहा।
मेघों ने की यूं पेटभर मस्ती बहुत,
पर धूप में आँगन मिरा जलता रहा।
‘तेज' गो घर का रहा न घाट का,
उसका हर लहजा मगर जिन्दा रहा।
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-पाँच-
शहर-शहर, बस्ती-बस्ती,
हर चौरस्ते पर भूख खड़ी है,
दुल्हनिया सी सही-धजी है
हरसू सबसे आँख लड़ी है।
बात-बात पर नभ से बोझिल
आग के गोले उगल रही है,
वर्षों से भूखी हो जैसे,
मानवता पर टूट पड़ी है।
माथे पर बेम्याद लकीरें,
आँखें हैं कि तल्ख समंदर,
प्रलयंकारी कृत्य घिनौने,
करके सीना तान खड़ी है।
कूकेगी अब क्या कोयलिया,
कूकेगा अब कहाँ पपीहा,
जंगल-जंगल आग लगी है,
मृत्यु तंबू तान खड़ी है।
जला आसमां दरकी धरती,
जीवन रूठा सांसे टूटीं,
अब क्या महकेगी पुरवैया,
बगिया-बगिया त्रस्त पड़ी है।
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-छ्ह-
मौत की जाने न क्यूँ नीयत बदल गई,
वो आई भी लेकिन, आकर पलट गई।
ज़िन्दगी पहले भी कुछ कम न थी,
ज़ख्मों का ज़खीरा थी, मरहम न थी।
म्ररने की हसरत में, मैं जिया ना मरा.
मैं वो दरख़्त हूँ कि जो सूखा ना हरा।
मेरी आँखों में कभी सवेरा ना हुआ,
चाँद का, सूरज का बसेरा ना हुआ।
अब जिन्दगी न मौत का खटका बाक़ी,
अब रहा न इश्क से न बैर से रिश्ता बाक़ी।
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-सात-
मौत तो कुछ जानी-पहचानी लगती है,
कि आए-दिन की रामकहानी लगती है।
लगी पूछने आते-जाते हाल मिरा,
बिटिया अब हो गई सयानी लगती है।
अबका पतझर मधुरितु सा लहराएगा,
मौसम की ये गलगबयानी लगती है।
जीवन की कोई एक कहानी थोड़ी है,
सबकी अपनी अलग कहानी लगती है।
खून-खराबा, चोरी-जारी `तेज' हुई,
मौन हमारी अब रजधानी लगती है।
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-आठ-
मौत हकीकत है, इसमें शुबा कुछ भी नहीं,
जिन्दगी का पुरअसर है मर्तबा कुछ भी नहीं।
ताउम्र मैं चलता रहा, खटता रहा, लेकिन,
तल्ख ख्वाबों के सिवा मुझको मिला कुछ भी नहीं।
रोका किया मैं उम्रभर, सांस जीने के लिए,
सांसे तो जिन्दा हैं मगर, मैं जिया कुछ भी नहीं।
करके कोई अहसान कुछ, गरजता तो ठीक था,
हरसू अबस चर्चा हुआ, पर किया कुछ भी नहीं।
लो करने लगे अपने ही अब बेआबरू ए! तेज,
उम्र के इस मोड़ पर शिकवा-गिला कुछ भी नहीं।
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शुबा = शुबाह = शक
-नौ-
वो आया भी पर आँख मिलाकर बच निकला,
जिसका अंदेशा था मुझको, सच निकला।
वक्त ने करवट ली तो रिश्ते दरक गए,
कि मेरे हक़ में झूठा हर इक मत निकला।
लिखते-लिखते सहर रात के अधरों पर,
बरस उठीं आँखें कि मन का डर निकला।
कि प्यास बुझाने की खातिर दोपहरी में,
मैं रेत के दरिया से जैसे तपकर निकला।
चलते-चलते `तेज' वो जाने किधर गया,
कि रहबर की सूरत में जो रहजन निकला।
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-दस-
परिवर्तन की आड़ में यारो घोड़ी चढ़ी शराब,
नई संभ्यता के आँगन में जमकर उड़ी शराब।
पैसे वालो से है इसका रिश्ता बहुत पुराना,
थाम कटोरा निर्धनता के दर पर खड़ी शराब।
क्या पूरब क्या पश्चिम उत्तर-दक्खिन क्या,
चहूदिशा में पायल बाँधे बनठन खड़ी शराब।
लेकर खाली प्याला-प्याली थोड़ा सा नमकीन,
बचपन को बोतल में भरकर औंधी पड़ी शराब।
आँख बांधकर संसद सोई जनता भई अधीर,
‘तेज' हिमालय सी छाती पर तनकर खड़ी शराब।
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(तूफां की ज़द में से प्रस्तत)
तेजपाल सिंह तेज’(जन्म 1949) की गजल, कविता, और विचार-विमर्श की लगभग दो दर्जन किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं - दृष्टिकोण, ट्रैफिक जाम है, गुजरा हूँ जिधर से, हादसो के शहर में, तूंफ़ाँ की ज़द में ( गजल संग्रह), बेताल दृष्टि, पुश्तैनी पीड़ा आदि (कविता संग्रह), रुन - झुन, खेल - खेल में, धमाचौकड़ी आदि ( बालगीत), कहाँ गई वो दिल्ली वाली ( शब्द चित्र), पांच निबन्ध संग्रह और अन्य। तेजपाल सिंह साप्ताहिक पत्र ग्रीन सत्ता का साहित्य संपादक, चर्चित पत्रिका अपेक्षा का उपसंपादक, आजीवक विजन का प्रधान संपादक तथा अधिकार दर्पण नामक त्रैमासिक का संपादक भी रहे हैं। स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त होकर आप इन दिनों स्वतंत्र लेखन के रत हैं। हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार ( 1995-96) तथा साहित्यकार सम्मान (2006-2007) से सम्मानित किए जा चुके हैं।
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