श्रीरामकथा के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग जब रावण ने जटायु को छल-कपट, असत्य से पराजित किया गृघ्रराज जटायु की श्रीराम से वन में भेंट के समय उसकी ...
श्रीरामकथा के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग
जब रावण ने जटायु को छल-कपट, असत्य से पराजित किया
गृघ्रराज जटायु की श्रीराम से वन में भेंट के समय उसकी आयु ६०,००० वर्षों की थी। वह वन में पक्षियों का अजेय राजा था। सीताहरण के समय रावण द्वारा उसके द्वंद्व युद्ध में रावण हिम्मत हार गया। उसने श्रीराम के नाम का सहारा लेकर जटायु से छल कपट, असत्य का सहारा लेकर पराजित करने का प्रयत्न किया। सत्य को प्रकट करने हेतु यहाँ कथाएँ दी जा रही है।
वाल्मीकीय रामायण में गृघ्रराज जटायु, श्रीराम, सीताजी एवं रावण का प्रसंग एक अपनी अलग विशेषता लिए हुए वर्णित है। पंचवटी में श्रीराम की जटायु से प्रथम भेंट होती है। श्रीराम एवं लक्ष्मण ने वन मार्ग में विशालकाय पक्षी को देखकर उससे पूछा कि आप कौन हैं? तब जटायु ने जो कुछ कहा वह अत्यन्त ही आत्मीय वार्तालाप है। यथा-
ततो मधुरया वाचा सौम्यया प्रीणयन्निव।
उवाच वत्स मां विद्धि वयस्यं पितुरात्मन:।।
वा. रा. अरण्यकाण्ड सर्ग १४-३
जटायु ने अत्यन्त ही मधुर और कोमल वाणी में उन्हें (तीनों को) प्रसन्न करते हुए कहा- बेटा अपने पिता का मित्र समझो। श्रीराम ने पिता का मित्र मानकर गृघ्रराज का आदर किया और उनके कुल तथा उनका नाम पूछा।
[post_ads]
श्रीराम के इस प्रश्न के प्रत्युत्तर में उस पक्षी ने उन्हें अपने कुल और नाम का परिचय देते हुए समस्त प्राणियों की उत्पत्ति का क्रम बताया। हे रघुनन्दन! कश्यपजी अन्तिम प्रजापति कह गए हैं। प्रजापति दक्ष के साठ यशस्विनी कन्याएँ जो कि बहुत विख्यात थी। उनमें से आठ सुन्दरी कन्याओं - अदिति, दिति, दनु, कालका, ताम्रा क्रोघवशा, मनु और अनला का विवाह प्रजापति कश्यपजी से किया गया।
कश्यप पत्नी ताम्रा की पुत्री जो शुकी थी। उसकी पौत्री विनता थी तथा कद्रू, सुरसा की बहिन एवं क्रोधवशा की पुत्री थी। कद्रू ने एक सहस्त्र नागों को उत्पन्न किया जो कि इस पृथ्वी को धारण करने वाले तथा विनता के दो पुत्र - गरूड और अरूण हुए। उन्हीं विनता के पुत्र अरूण से मैं जटायु तथा मेरे बड़े भाई सम्पाति उत्पन्न हुए हैं।
तात् यदि आप चाहें तो मैं यहाँ आपके निवास में सहायक होऊँगा। इस दुर्गम वन में अनेक मृग एवं राक्षसों का निवास है। आप लक्ष्मण सहित यदि अपनी पर्णशाला से जब कभी बाहर चले जाएंगे तो उस अवसर पर मैं देवी सीता की रक्षा करूँगा। पंचवटी में पर्णशाला श्रीराम की आज्ञा से लक्ष्मण द्वारा निर्मित कर तथा पर्णशाला की वास्तुशांति उपरान्त पक्षीराज जटायु के साथ श्रीराम यहीं रहे।
वहाँ गधों से जुता हुआ और गधों के समान शब्द करने वाला रावण का विशाल सुवर्णमय मायानिर्मित दिव्यरथ में से रावण उतरा। रथ के प्रकट होते ही जोर-जोर से गर्जना करने वाले रावण ने कठोर वचनों द्वारा विदेह नंदिनी को डांटा और गोद में उठाकर तत्काल रथ पर बैठाकर चल दिया। सीताजी ने विलाप करते हुए कहा-
ननुनामाविनीतानां विनेतासि परंतप।
कथमेवंविधंपापं न त्वं शाधि हि रावणम् ।।
वा. रा. अरण्यकाण्ड- सर्ग ४९-२६
शत्रुओं को संताप देने वाले आर्यपुत्र आप तो कुमार्ग पर चलने वाले उद्दण्ड पुरुषों को दण्ड देकर उन्हें राह पर लाने वाले हैं। फिर ऐसे पापी रावण को क्यों नहीं दण्ड देते हैं। उस समय अत्यन्त दु:खी हो करूणाजनक बातें कहकर विलाप करती हुई विशाल लोचना सीताजी ने एक वृक्ष पर बैठे हुए गृघ्रराज जटायु को देखा तथा-
तं शब्दमवसुप्तस्तु जटायुरथ शुश्रुवे।
निरैक्षद् रावणं क्षिप्रं वैदेहीं च दशर्श स:।।
वा.रा. अरण्यकाण्ड सर्ग ५०-१
जटायु उस समय सो रहे थे। उसी अवस्था में उन्होंने सीता की करूण पुकार सुनी। सुनते ही तुरन्त आँख खोलकर उन्होंने विदेहनन्दिनी सीता तथा रावण को देखा। जटायु ने अपना परिचय देकर रावण से कहा- भैया इस समय मेरे सामने तुम्हें ऐसा निन्दित कर्म नहीं करना चाहिये। रावण! मेरे पूर्वजों से प्राप्त इस पक्षियों के राज्य का विधिवत् पालन करते हुए मुझे जन्म से लेकर अब तक ६०,००० वर्ष बीत गये। अब मैं बूढ़ा हो गया हूँ और तुम नवयुवक हो मेरे पास युद्ध का कोई शस्त्र नहीं है? तुम्हारे पास तो धनुष-बाण, कवच तथा रथ सब कुछ है फिर भी तुम सीता को लेकर कुशलपूर्वक नहीं जा सकोगे। दशमुख रावण! ठहरो-ठहरो केवल कुछ क्षण रूको फिर देखो जैसे डंठल से फल गिरता है। उसी प्रकार तुम्हें इस उत्तम रथ से गिरा देता हँू। निशाचर! अपनी शक्ति के अनुसार युद्ध में तुम्हारा पूरा-पूरा अतिथि सत्कार करूँगा। इतना ही नहीं तुम्हें भलीभाँति भेंट पूजा भी दूँगा।
साथ ही साथ उन महाबली पक्षिशिरोमणि ने अपने तीखे नखों वाले पंजे मार-मारकर रावण के शरीर में बहुत से घाव कर दिये। रावण ने भी तीखे बाणों से जटायु को क्षत-विक्षत कर दिया। जटायु ने फिर रावण के पिशाच के मुखवाले वेगशाली गधों को मार डाला। जटायु ने तत्पश्चात् रावण के सारथि के मस्तक को धड़ से अलग कर दिया। इस प्रकार धनुष, रथ और सारथि के नष्ट-भ्रष्ट हो जाने से रावण सीता सहित रथ से पृथ्वी पर गिर पड़ा। उस समय रावण के पास सब साधन तो नष्ट हो गये थे किन्तु एक तलवार उसके पास शेष रह गई थी। रावण ने उसी तलवार से जटायु के दोनों पंख, पैर तथा पार्श्वभाग काट डाले। सीताजी यह दृश्य देखकर जटायु की ओर दौड़ी तथा उसे पकड़कर रोने लगी। रावण उनके निकट आया और उन्हें आकाश मार्ग से लेेकर चल दिया। सीताजी ने रावण को धिक्कारते हुए कहा - मेरे श्वसुर के सखा वे जो बूढ़े जटायु मेरी रक्षा करने के लिये उद्धत हुए थे, उनको भी तुने मार डाला।
मारीच का वध करके श्रीराम आश्रम की ओर लौटे तो मार्ग में लक्ष्मण भी मिल गये। श्रीराम ने सीताजी के बारे में अनेक आशंकाएं बतलायी। वे दोनों भाई जनस्थान में ही खोज करने चल पड़े। थोड़ी दूर आगे जाने पर उन्हें पर्वत शिखर के समान विशाल शरीरवाले पक्षिराज जटायु दिखाई पड़े जो रक्तरंजित पृथ्वी पर पड़े थे। पर्वत शिखर के समान देखकर श्रीराम लक्ष्मण से बोले कि लक्ष्मण यह गृघ्र के रूप में अवश्य ही कोई राक्षस जान पड़ता है जो वन में घूमता रहता है और नि:सन्देह इसी ने सीता को खा लिया होगा। अब मैं इसका वध करूँगा। श्रीराम को धनुष-बाण चढ़ाये देख जटायु अपने मुंह से फेनयुक्त रक्तवमन करते हुए बोला, रावण देवी सीता को तथा मेरे प्राणों को रावण ने हर लिया है। जटायु ने श्रीराम से रावण के साथ हुए युद्ध का वर्णन भी किया तथा सीता को दक्षिण दिशा में ले जाने का कहा। रावण सीताजी के जिस विन्द मुहूर्त में ले गया है उस मुहूर्त में खोया हुआ धन स्वामी को प्राप्त हो जाता है, अत: आपको देवी सीता पुन: प्राप्त होगी। जटायु ने अंत में कहा कि रावण विश्रवा का पुत्र और कुबेर का भाई है। बस इतना कह रहे थे कि उनके मुख से मास युक्त रूधिर निकलने लगा तथा दुर्लभ प्राणों का त्याग कर दिया।
श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा कि इस समय मुझे भी सीता के हरण का उतना दु:ख नहीं है जितना कि मेरे लिये प्राण त्यागने वाले जटायु की मृत्यु से हो रहा है। यशस्वी श्रीमान् राजा दशरथ जैसे मेरे माननीय और पूज्य थे, वैसे ही यह पक्षिराज जटायु भी है। श्रीराम ने लक्ष्मणजी से सूखे काष्ठ मँगवाये और उसे मथकर आग निकालकर गृघ्रराज जटायु का दाह संस्कार किया। तदनन्तर श्रीराम ने जटायु का पिण्डदान भी किया। उन दोनों भाईयों ने गोदावरी में नहाकर जटायु के लिये जलाञ्जलि दी। दोनों सीताजी की खोज हेतु दक्षिण-पश्चिम दिशा के मार्ग पर चल दिये।
भारतीय संस्कृति में सम्भवत: ऐसा जटायु के समान प्राणों का उत्सर्ग का उदाहरण नहीं है।
श्रीराम द्वारा उसके पिता तुल्य दाहसंस्कार, पिण्डदान एवं जलाञ्जलि पक्षिसमुदाय के प्रति सम्मान का भाव प्रकट करता है।
गुजराती गिरधर रामायण
रावण-जटायु प्रसंग
इस रामायण में भी यह प्रसंग अरण्यकाण्ड में वर्णित है। रावण को जटायु द्वारा शरीर पर अनेक घाव कर देने से, वस्त्र फट जाने, रथ, सारथी एवं शरीर के आभूषण नष्ट हो जाने के बाद, रावण की राक्षसवृत्ति द्वारा धोखे, छल, कपट, असत्य से जटायु को घायल करने का वर्णन है। इस रामायण में यह प्रसंग श्रीराम कथाओं एवं अन्य रामायणों से हट कर नवीनता लिये हुए हैं। रावण-जटायु प्रसंग गिरधर रामायण के अरण्यकाण्ड के अध्याय १६ में बताया है कि-
सीता करती विविध विलाप जी, सुणी जटायु ने थयो परिताप जी,
धाई ने आव्यो ते पक्षीराज जी, क्यम जाय पापी करो विपरीत काज जी।।
गुजराती गिरधर रामायण अरण्यकाण्ड १६-१
सीताजी विविध प्रकार से विलाप कर रही थी। उसे सुनकर जटायु को परिताप का अनुभव हुआ। वह पक्षिराज दौड़कर आ गया। जटायु ने सोचा कि पापी रावण विपरीत काम करके कैसे जा सकता है। जटायु ने रावण को ललकारा और कहा कि तुम्हारा आचरण उत्तम नहीं है। तुम ब्रह्मा के वंश में चण्डाल के रूप में उत्पन्न हुए हो। जिस प्रकार दीपक से काजल उत्पन्न होता है, उसी प्रकार तुम ब्रह्मा के वंश में उत्पन्न हुए हो। तुम्हारे जप, तप, बल को धिक्कार है। इतना सुनते ही रावण ने उस पक्षिराज की ओर असंख्य बाण चला दिए।
जटायु ने अपनी चोंच से उन सब बाणों को काट डाला, रावण के रथ को तोड़ डाला, सारथी के मस्तक को तोड़कर फेंक दिया। जटायु को इतने पर भी सन्तोष न हुआ, उसने रावण के अनेक आभूषणों को तोड़ डाला, उसके शरीर के वस्त्र फाड़ दिये। उसके दसों मस्तकों को चोंचमार कर घायल कर दिया। तदनन्तर रावण निर्वस्त्र होकर सीताजी को छोड़कर भाग गया। कुछ देर ठहरकर सोचा कि उसकी अपकीर्ति हो जाएगी कि वह एक पक्षी से पराजित हो गया। तब रावण ने जटायु से कहा-
त्यारे जटायु ने कहे रावण तुज मरण क्यम थाय जाण।
जो सांचु नव कहे तो तनो छे, राम केरी आण।।
ते आण मानी पंखी बोल्यो, वचन सुणीने कर्ण।
ज्यारे पंख ऊपड़े मारी त्यारे, निश्चे पामुं मर्ण।।
गुजराती गिरधर रामायण अरण्यकाण्ड १६-।।-१२
जानते हो तुम्हारी मृत्यु कैसे होगी? तुम यदि सत्य न कहोगे तो तुम्हें राम की शपथ कसम- सौगन्ध है। उसकी ऐसी बात सुनकर जटायु ने उस शपथ को स्वीकार करते हुए कहा- जब मेरे पंख उखड़ेंगे, तब मैं निश्चय ही मृत्यु को प्राप्त हो जाऊँगा। इतना सुनकर रावण क्रोध में आकर दौड़ पड़ा तथा जटायु को पकड़ लिया। तदनन्तर रावण ने जटायु के दोनों पंख पकड़कर हाथ के वार से नष्ट कर दिये। जटायु रक्त से लथ-पथ रक्त रंजित होकर एवं विफल होकर भूमि पर धराशायी हो गया। रावण सीता का हरण कर चल पड़ा। सीताजी विलाप करती हुई बोली हे पक्षिराज, श्रीराम के तुमसे मिलने तक तुम्हारे प्राण रह जाए। तुमने जो मेरे लिये त्याग किया है। अत: तुम्हारा कल्याण हो। सीता ऐसे कहते हुए गयी। अत: जटायु के प्राण प्रखेरू उड़े नहीं तथा जटायु श्रीराम की प्रतीक्षारत रहा।
श्रीराम स्वर्णमृग को मारकर आश्रम की ओर चल पड़े तथा मार्ग में लक्ष्मणजी से भेंट होने पर उनसे पूरी बात ज्ञात हुई। श्रीराम को सीताजी न दिखने पर विरह से लीला कर व्याकुल हो गये। सीताजी की खोज करते हुए दोनों भाई जा रहे थे। उन्हें पर्वताकर रक्त बिम्ब अथवा पलाश के फूलों सा पक्षी, रक्त सा लाल पंखहीन पड़ा दिखाई दिया। लक्ष्मणजी ने उसे राक्षस समझकर बाण चढ़ा दिया और जब वे उसके पास गये तो रामनाम की ध्वनि सुनायी पड़ी। पक्षी रामनाम जप रहा था। श्रीराम उसे पहचान गये। श्रीराम दौड़कर उसके पास पहँुच गये। श्रीराम को ऐसा दु:ख हुआ जैसे पुत्र को दु:खी देखकर माता को दु:ख होता है। जटायु ने सारा वृत्तान्त श्रीराम से कह दिया। जटायु ने मन को एकाग्र करके श्रीराम के सम्मुख प्राण त्याग दिये। वह बैकुण्ठ में चला गया। श्रीराम ने उसे अपना तथा माता-पिता का भक्त समझकर अपने हाथों से उसकी दाहसंस्कार क्रिया सम्पन्न की। श्रीराम ने राजा दशरथ की जैसी समस्त उत्तर क्रिया जटायु की कर दी। इतना कर के श्रीराम दक्षिण दिशा में चल दिये।
[post_ads_2]
मराठी भाषा में भावार्थ रामायण संत श्री एकनाथ महाराजकृत
रावण जटायु प्रसंग
मराठी भाषा के साहित्यिक क्षेत्र में सन्त श्री एकनाथ महाराज का स्थान सर्वोपरि है। उनका नाम महाराष्ट्र के पाँच श्रेष्ठ सन्तों अथवा भक्त कवियों में माना गया है। उन्होंने दार्शनिक, व्याख्यात्मक काव्य, महाकाव्य आख्यानात्मक एवं चरित्र-काव्य, अभंग, भारूड़ आदि विविध विद्याओं में रचनाएँ प्रस्तुत करके अपना नाम अजर अमर बना लिया। उनकी भावार्थ रामायण में ४०,००० ओवी छन्द हैं। इतने छन्दों वाली रचना मराठी साहित्य जगत् में शायद ही किसने की हो।
भावार्थ रामायण में जटायु के वंश का संक्षिप्त वर्णन वर्णित है। इस रामायण में कश्यप एवं विनता के दो पुत्र अरूण और गरूड़ बताये हैं। अरूण सूर्य के सारथी तथा जटायु के काका गरूड़ विष्णु भगवान के वाहन हैं। अरूण के दो संतान सम्पाती और जटायु थे। जटायु ने श्रीराम से वन में भेंट के समय बताया कि उसके पिता ने पूर्व में स्पष्ट आज्ञा दी है कि वे सूर्य वंश के सेवक हो। इस कारण मैंने जटायु ने दशरथ जी से मित्रता की। आप उनके वंशज है अत: श्रीराम आप पंचवटी में रहेंगे तब मुझे अपनी सेवा का अवसर दे। पंचवटी में सीता को छोड़कर आप एवं लक्ष्मण जब मृगया के लिये जायेंगे तो मैं सीता की रक्षा करूँगा।
रावण सीता का हरण करके वहाँ से निकला। जब रावण ने सीता का हरण किया तब जटायु वन-विहार के लिये गया था। उसने जानकी का आक्रोश-विलाप सुना और वह अत्यन्त ही वेग से उड़ते हुए वहाँ पहुँच गया। जटायु ने रावण से कहा कि इस वन में मेरे होते हुए तुम जानकी को कैसे ले जा सकते हो? मैं तुमसे युद्ध करूँगा। रावण ने यह सुनकर जटायु पर सैकड़ों बाण चलाये। जटायु ने तत्परतापूर्वक उनसे रक्षा करते हुए पंखों को फड़फड़ाकर रावण के ऊपर झपट कर आक्रमण किया। जटायु के आक्रमण से रावण के मस्तक में लगे मुकुट, ध्वज, चन्द्रांकित छत्र सभी भूमि पर गिर पड़े। जटायु ने अपने नाखूनों से रावण के शरीर पर अनेक घाव कर दिये। जटायु के विशाल पंखों की हवा से रावण भयभीत होकर थरथर कांपने लगा। जटायु ने चोंच से रावण के रथ को धक्का दे दिया। रावण सीता को पकड़कर रथ से कूद पड़ा। जटायु ने अपने नखों के प्रहार से रथ में जुते हुए खरों (गदहों) को एवं सारथी को डाला। रथ के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। भयभीत होकर रावण ने अपने जीवन की आशा छोड़ दी।
रावण का सामर्थ्य जब जटायु के समक्ष नगण्य हो गया तब उसने जटायु से राक्षसवृत्ति से कपट कर श्रीराम की शपथ देते हुए पूछा- जटायु तुम्हारी मृत्यु किस स्थान पर है, यह सच-सच मुझे बताओ। जटायु ने उत्तर देते हुए कहा कि तुम भी अपनी मृत्यु बताओं तभी मैं भी तुम्हें बताऊँगा। जटायु बोला-रावण तुमने मुझे श्रीराम की शपथ दी है अत: मेरे प्राण जाने पर भी मैं असत्य नहीं बोलूंगा। मेरी मृत्यु मेरे दोनों पंखों में निहित है। रावण धूर्त, कपटी और पातकी था उसने झूठ बोलते हुए बताया कि उसकी मृत्यु बांये पांव के अँगूठे में है।
जटायु सत्यवादी सात्विक योद्धा था। उसने उछलकर रावण के बांये पैर के अंगूठे का नख छेद दिया। उस समय जटायु के पंख रावण के हाथों में आ गये। उसने उनको जड़ सहित उखाड़ दिये। रावण के इस कपटपूर्ण कार्य से जटायु मूचर््िछत होकर भूमि पर गिर पड़ा। इतना होने पर भी श्रीराम से भेंट हेतु जटायु प्राण, कंठ में रोककर उनका स्मरण करने लगा।
कपट मृग के आखेट उपरान्त श्रीराम एवं लक्ष्मण को मार्ग में रक्त से भरा क्षत-विक्षत जटायु दिखायी दिया। वह ऐसा प्रतीत हो रहा था मानों विशालकाय पर्वत पर किसी ने सिन्दूर का लेप कर दिया। श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा- सौमित्र सीता का भक्षण कर उसका रक्त पीने के कारण यह राक्षस रक्त से सना हुआ दिखायी दे रहा है। श्रीराम बोले- मेरी पत्नी का भक्षण करने वाले इस वन में तुम कौन हो? मैं अभी तुम्हारा वध करता हूँ। श्रीराम के इन गर्जनायुक्त शब्दों को सुनकर पृथ्वी पर पड़ा घायल जटायु अत्यन्त ही दीन होकर बोला- मैं धन्य हूँ। मेरा उद्धार करने के लिये स्वयं श्रीराम पधारे। आप मृग के पीछे गये तत्पश्चात् लक्ष्मण भी पर्णकुटी से चले गये। उस समय रावण आकर सीता सुन्दरी का बलपूर्वक हरण कर गया। मैंने स्वयं अपनी आँखों से यह सब देखा है। मेरे वचन सुनकर आप मुझे नपुंसक समझोगे लेकिन मैंने सीता को बचाने के लिये रावण की दुर्दशा कर दी। हम दोनों के मध्य भीषण संग्राम हुआ। मैंने उसका ध्वज और रथ तोड़ दिया। उसके सिर के मुकुट को भूमि पर गिरा दिया। रथ में जुते खरों एवं सारथी को भी मार डाला।
रावण के मन में कपट था। हे राम उसने मुझे तुम्हारी शपथ देकर पूछा कि तेरे प्राण किसमें निहित है। प्राण-हानि होते हुए भी असत्य न बोलने और तुम्हारी शपथ न तोड़ने का दृढ़ निश्चय कर तुम्हारी भक्ति से सत्य और सात्विक भावना से, मेरी मृत्यु दोनों पंखों में निहित है-यह मैंने रावण को बता दिया। तत्पश्चात् मैंने भी रावण से पूछा कि तुम्हारी मृत्यु उसके बांये पैर के अंगूठे के नाखून में है। बस फिर क्या था? हम दोनों ने एक दूसरे के मर्मस्थल को लक्ष्य बनाकर आकाश में युद्धरत हो गये। मैंने पंखों से रावण को घायल कर दिया। उसके बांये पैर के अंगूठे के नाखून को भेद दिया फिर भी रावण मरा नहीं क्योंकि उसने मुझसे झूठ बोला था। मैंने फिर उसका अंगूठा ही छेद डाला ऐसा करते समय मेरे पंख रावण के हाथ में आ गये और उसने उन्हें उखाड़ दिया। मेरे पंख उसने उखाड़े इसका मुझे लेशमात्र दु:ख नहीं था किन्तु रावण सीता का हरण कर मेरे समक्ष ले गया, मुझे इसका अत्यन्त ही दु:ख है।
जटायु का कथन सुनकर श्रीराम ने उसे कृपापूर्वक गले लगा लिया। श्रीराम और लक्ष्मण को उस समय दु:ख की ऐसी अनुभूति हो रही थी, जिस प्रकार रण भूमि में अपना कोई सखा, बन्धु, पुत्र घायल होकर भूमि पर धराशायी हो गया हो। श्रीराम से जटायु ने कहा कि अब मेरा देह-लोभ समाप्त कर मुझे कृपा दृष्टि से देखें। रावण द्वारा पंख तोड़ने पर अब पंखों का अभिमान भी नष्ट हो गया है। अत: आपके दोनों चरण पकड़कर मैं विनती करता हूँ कि हे राम मुझे जन्म-मरण के बंधन से मुक्त करो। श्रीराम ने जटायु को उत्तम गति प्रदान की।
श्रीराम ने पवित्र जटायु को बैकुण्ठ भेजा श्रीराम बोले- बैकुण्ठ में तुम्हारी अगाध कथा सुनकर त्रिलोक में तुम्हारी ख्याति होगी। बैकुण्ठ में मेरे पिता दशरथ तुम्हें मिलेंगे। मेरे वनवास के विषय में तुमसे पूछेंगे तब रावण ने सीता का हरण किया है, यह उनसे कदापि मत कहना। दशरथजी को इस विषय में कैसे ज्ञान प्राप्त होगा, इस सम्बन्ध में श्रीराम का विचार था कि रावण स्वयं जाकर अपने मुख से सम्पूर्ण वृत्तान्त बतायेगा।
प्रो. डॉ. बालकृष्ण कुमावत ने अपनी प्रसिद्ध कृति, ''आतंक निर्मलूनं रामराज्ये" में जटायु का बहुत विस्तृत रूप से गुण-गान करते हुए उसे प्रथम शहीद गृघ्रराज जटायु से सम्मानित किया है। रावण राक्षस वृत्ति का था अत: राक्षसवृत्ति के बारे में हमारे सभी ग्रन्थों में उल्लेख है।
आज हमारे समाज में जटायु जैसे निस्वार्थ, त्यागी, सत्यवादी धर्म की रक्षा में रत, देश प्रेम के लिये बलिदान करने वाले की नितांत आवश्यकता है। रामायण, श्रीराम चरित्रमानस एवं सभी भाषाओं की श्रीराम कथाएँ समाज में प्रकाश स्तम्भ के रूप में मार्गदर्शन कर रही है तथा भौतिकवादी समाज की संस्कृति में अध्यात्म की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा देती है। यदि हम अपने आपाधापी के जीवन में अनेक नहीं अपितु एक ही दशरथ जी के मित्र एवं सीता जी के रक्षक के रूप में जटायु सा मित्र प्राप्त कर लेते हैं तो हमारे जीवन की उससे बड़ी उपलब्धि-सार्थकता दूसरी नहीं होगी। यह भी सत्य है कि कूट युद्धा: हि राक्षसा (वाल्मीकि रामायण बाल २०-८) अर्थात् माया छल कपट से युद्ध करते हैं।
आधुनिक समय में समाचार पत्रों में हम लगभग प्रतिदिन निरीह महिलाओं के अपहरण, बलात्कार तथा निर्मम अत्याचार की घटनाएँ पढ़ते हैं। काश! उन्हें भी जटायु जैसे उनके स्वामियों के हितेषी मित्रगण मिल जावें और वे निर्भया जैसी दुर्घटनाओं की शिकार न हो तो ऐसा भारत विश्व में पुन: राम राज्य को स्थापित कर देगा।
---
डॉ. नरेन्द्रकुमार मेहता
'मानसश्री, मानस शिरोमणि, विद्यावाचस्पति एवं विद्यासागर
सीनि. एमआईजी-१०३, व्यास नगर,
ऋषिनगर विस्तार, उज्जैन (म.प्र.)
Email : drnarendrakmehta@gmail.com
पिनकोड- ४५६ ०१०
COMMENTS