डाल डाल की दाल (व्यंग्य) -दिलीप कुमार

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डाल डाल की दाल    (व्यंग्य)                                                                                                  "दाल रोटी ...

डाल डाल की दाल    (व्यंग्य)                                                                                               

  "दाल रोटी खाओ

प्रभु के गुण गाओ "

बहुत-बहुत वर्षों से ये वाक्य दोहरा कर सो जाने वाले भारतीयों का ये कहना अब नयी और मध्य वय की पीढ़ी को रास नहीं आ रहा है। दाल की वैसे डाल नहीं होती लेकिन ना जाने क्यों फीकी और भाग्य से प्राप्त चीजों की तुलना लोग दाल से ही करते हैं और अप्राप्त चीजों मीनू में दिख रही महंगी बिरयानी की तरह ललचाकर देखते हैं। उसी तरह काली दाल,पीली दाल और तरह तरह की दालें होती हैं लेकिन भारतीय लोग आम तौर पर दाल का मतलब पीली दाल ही समझते हैं। और मूंग की दाल को तभी याद करते हैं जब बाहर की शौकिया बिरयानी लगातार खाकर बीमार पड़ जाते हैं। दालों के रंग ढंग सभी की समझ से बाहर है।

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दालें हमारे इतिहास में तो रहीं ,मगर हमारा भूगोल ऐसा है कि दालें हिंदुस्तान में कम पैदा होती हैं  ,शायद इसीलिये बड़े बुजुर्ग कह गए हैं कि घर की दाल से काम चलाओ। बहुत दूर तक मत जाओ। "घर की मुर्गी दाल बराबर" से शायद बुजुर्गों का आशय ये रहा होगा की अगर कभी किसी को बिरयानी की जरूरत हो तो घर के आसपास की मुर्गी देखो ना कि बटेर जो कि ना सिर्फ महंगी है और गैर कानूनी भी। दालों को लेकर अर्थशास्त्र के पंडित भी हैरान हैं कि आखिर दालों की कमी के बावजूद बाजार में दाल की कीमतें बढ़ क्यों नहीं रही हैं। सट्टा वाले, कमोडिटी एक्सचेंज के मार्केट के लोग भी हैरान हैं कि दाल रोटी से खुश रहने वाले लोगों के देश में इतनी बिरयानी की खपत क्यों बढ़ रही है।

"सादा जीवन,उच्च विचार वाक्य दोहरा कर सो जाने वाले भारतीयों की नयी और मध्य वय की पीढ़ी को अब घर की दाल क्यों रास नहीं आ रही है। वैसे दाल के रंग ढंग सभी की समझ से बाहर है। इतिहास गवाह है कि हमारे ऊपर जब भी हमले हुए तो मसालों के लिये हुए जो बिरयानी में जायका लाते थे  ,दालों हमारे पास कम रहीं लेकिन किसी ने हमसे छीनने की कोशिश भी नहीं की। हमारे देश पर अतीत में मसालों की खुश्बू की वजह से हमले हुए ,प्याज ने सरकारें गिरायी मगर हमारा जुग्राफिया ऐसा है कि दालें हिंदुस्तान में कम पैदा होती रहीं मगर अमीर गरीब सबका पेट पालती रहीं। अमीरों ने दालों को छोड़कर बिरयानी की शरण ली तब तक तो ठीक था लेकिन जब आम आदमी भी दाल छोड़कर बिरयानी की तरफ लपका तो स्यापा खड़ा हो गया। वैसे भी अर्थशास्त्र के पंडित हैरान हैं कि आखिर दालों की कमी के बावजूद बाजार में दाल की कीमतें बढ़ क्यों नहीं रही हैं।

सट्टा वाले, कमोडिटी एक्सचेंज के मार्केट पंडित, जमाखोर, आढ़ती सब परेशान हैं कि आखिर कम उत्पादन के बावजूद और हर भारतीय के घर में खायी जाने वाली दाल की कीमत क्यों नहीं बढ़ रही है। दाल की कालाबाज़ारी करने वाले लोग सोने के बिस्किट की तरह दाल को दबाये बैठे हैं ,सूखे की फसल माने जाने वाली दालों की फसल बाढ़ की विभीषिका से हर साल तहस-नहस हो जाती हैं ,फिर आखिर दालों की कालाबाजारी करने वालों की दाल क्यों नहीं गल रही है। आखिर क्या कारण है कि नब्बे रूपये में जो दाल किसानों से सरकार खरीदती है ,वही दाल सत्तर रूपये की खुले बाजार में बिकती पायी गयी। इसके कारण जानने के लिये बॉलीवुड के 49 लोगों ने एक कमेटी बनाई। इन लोगों को दालों की ये असहिष्णुता नागवार गुजरी सो इनकी इनर वॉइस (अंतरात्मा की आवाज़) जाग उठी। ये और बात है कि इस कमेटी में ऐसे लोगों को रखा गया जिन्होंने बरसों से दाल नहीं खायी ,कुछ ऐसे हैं जो दाल रोटी भर का भी नहीं कमा पाते सो दालों से निपटने की तैयारी में हैं। कुछ इतने उम्रदराज लोग हैं इस कमेटी में कि उन्हें डॉक्टर ने दाल खाने से मना कर दिया है क्योंकि इस उम्र में अगर उनके शरीर में ज्यादा प्रोटीन जमा हो गया तो फिर उन्हें दादी नानी के संभावित रोल के बजाय घुटना प्रत्यारोपण के लिये अस्पताल में भर्ती होना पड़ेगा।

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वैसे भी इस कमेटी में देश के उन प्रान्तों के गायक और कलाकार काफी संख्या में हैं जहाँ हाल -फ़िलहाल चुनाव होने वाले हैं। उन्हें उम्मीद है कि भले ही फिल्म इंडस्ट्री में उनकी दाल नहीं गली ,लेकिन इस दाल के आंदोलन से अगर राज्यों में उनके पसंदीदा दल की सरकार बन गयी तो उनको कोई पद ऐसा जरूर मिल जायेगा कि जिससे ज़िन्दगी भर उनकी दाल रोटी चलती रही। वैसे इस दाल पीड़ित कमेटी में ऐसे लोग हैं जो घर की दाल बरसों से नहीं खाये हैं ,बाहर की बिरयानी ही खाते रहे हैं। अपने घर यदि मजबूरी में कभी दाल खा भी ली तो बाहर की बिरयानी ही खाते रहे हैं। कुछ तो इतने साहसी निकले कि घर पर जब बिरयानी का मनपसन्द लेग पीस नहीं ला सके तो लेगपीस वाली बिरयानी का शौक पूरा करने के लिये दूसरे के घर में ही रहने लगे। जैसे दाल के तड़के की खुश्बू घर की दहलीज के अंदर ही महसूस होती है मगर बिरयानी की जाफरानी खुश्बू दूर से ही आकर्षित कर लेती है ,ठीक उसी तरह इन दाल पीड़ित लोगों की अजब सी अदाएं हैं ये जिस राज्य में रहते हैं वहां की समस्या से ये वाबस्ता नहीं होते बल्कि बहुत दूर की घटनाएं इनको उद्वेलित कर देती हैं। मसलन पश्चिम बंगाल में रह रहा गायक उत्तर प्रदेश की घटना से इतना दुखी होता है कि बुक्का फाड़ के रोता है ,दूसरा महाराष्ट्र में रह रहा बन्दा झारखण्ड की घटना से इतना आहत होता है कि भारत उसे सीरिया से भी बदतर नजर आता है लेकिन अपने प्रान्त में" यहां पे सब शांति -शांति है "गाते हैं।

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उससे ज्यादा ख़ास बात ये है कि इस "पावर ऑफ़ 49"में ऐसे ऐसे लोग भी हैं जो आठ -दस बाउंसर के साथ चलते हैं मगर जब तब उनको देश में बमुश्किल दो वक्त की दाल रोटी कमा पाने वाले व्यक्तियों से डर लगने लगता है। कुछ ऐसी भी वीरांगनायें हैं जो राम राम करने की उम्र में देश के हालात सुधारने का बीड़ा उठा चुकी हैं। उम्र के सारे बन्धन टूट चुके हैं जिन्होंने इस मुल्क में सब दिन देखे हैं तब या तो वे अपनी घर गृहस्थी की दाल रोटी चला रही थीं या सिंगार -पटार कर गुमनामी की ज़िन्दगी जी रही थीं। लेकिन अब वो सबको बता रही हैं ना दाल खाओ,ना बिरयानी खाओ और प्रभु के गुण तो हर्गिज़ ना गाओ। क्योंकि प्रभु पर एक पार्टी का पेटेंट हो चुका है। उधर प्रभु भी परेशान होंगे कि पहले उनके रहने की जगह को लेकर मुकदमेबाजी हो रही थी ,अब उनके नाम को लेकर भी बवाल शुरू हो गया है। इस पावर ऑफ़ 49 को लेकर एक ज्योतिषी ने कहा है कि विषम संख्या दालों की कालाबाज़ारी बढ़ा ना सकेगी इसलिये किसी ऐसे बिरयानी प्रेमी को इस लिस्ट में शामिल कर लिया जाए जिसने लंबे समय तक घर की दाल रोटी की सुधि ना ली हो ,बीवी बच्चों को उनके हाल पर छोड़ दिया है। इस 49 की विषम संख्या को सम करने के लिये एक अवार्डधारी की खोज शुरू हुई। एक ऐसा व्यक्ति जो तुरंत अवार्ड लौटा सके ,अपने बाप -दादा की कुर्बानियों का सिला देकर इस मुल्क में रहने को अपना एहसान माने ,मुल्क से ज़िन्दगी भर कमाया हो ,मुल्क को दिन भर कोसे, मगर मुल्क को छोड़ कर भी ना जाये।

सबसे पहले एक बड़े फिल्म स्टार से सम्पर्क किया गया। उन साहब की खासियत ये थी कि जिस महिला को ज़िन्दगी भर दो जून की दाल रोटी देने का वादा किया था उसको दाना पानी देने के लिये हाथ झटक लिया। सबको भारत के टूरिस्ट स्पॉट्स की विशेषता बताते बताते अचानक उनको भारत में डर लगने लगा ,अपने आठ -दस बाउंसर और वाई श्रेणी की सुरक्षा के बावजूद। बेचारे इतना डरे कि किसी और देश में जाकर बसने का इरादा कर बैठे। लोग भी अपने इस चहेते फिल्म स्टार से इतना डरने लगे कि उनके द्वारा बेचे जाने वाले सामानों की खरीदारी से डरना शुरू कर दिया। सिर्फ दसवीं तक पढ़े इस फिल्मवाले को बांधों की ऊंचाई की खासी समझ है इसलिये लोगों ने इनकी फिल्मों और इनके द्वारा विज्ञापित सामानों को समझना बन्द कर दिया। व्यापारिक वेबसाइट ने इन्हें निकाला और काम मिलना कम हो गया तब से बेचारे सिर्फ अपनी फिल्मों या विज्ञापनों की चिंता करते हैं। आजकल देश की चिंता कम करते हैं ,लोगों से पानी बचाने की अपील कर रहे हैं क्योंकि पानी तो दाल में भी पड़ता है और बिरयानी में भी। सो उन्होंने कहा कि फिलहाल दाल पकने दो सही समय पर मैं पानी लेकर हाज़िर हो जाऊँगा। लेकिन पचासवें नाम के लिए दो अदद नाम सामने तो आये लेकिन उनके अपने ईगो थे ,इस पचासवें दस्तखती बनने की सारी योग्यता होने के बावजूद उन्होंने इस ग्रुप के अगुआ के पीछे चलने से इंकार कर दिया आखिर उनकी भी सीनियोरिटी है ,वो दगे कारतूस ही सही मगर उनकी नजरों में उनका स्टार स्टेटस है। सो वो इस मुहिम को चलायेंगे जरूर मगर एकला चलो रे के सिद्धांत पर।

चुनांचे कि एक ही प्रेस कॉन्फ्रेंस में अगर वो भी बैठते, गोया कि उनकी स्टार स्टेटस की इमेज को धक्का पहुंच सकता था। सो वो कुछ दिन बाद डरेंगे बाउंसरों से घिरे रहने के बाद भी,वो कुछ दिन बाद मुल्क के आम आदमी के दाल रोटी की चिंता करेंगे बिरयानी खाते हुए ग्लिसरीन लगाकर आंसू बहाएंगे। इधर हिंदी बेल्ट के एक हिंदी लेखक जो हर किस्म की दाल और हर किस्म की बिरयानी खा चुके हैं बेचारे हिंदी में उनकी अवहेलना से दुखी हैं। किसी दोस्त ने पूछा इन सभी से कि

"दिले नादान तुझे हुआ क्या है

आखिर इस मर्ज की दवा क्या है "

नेपथ्य में कहीं से एक आम हिंदुस्तानी को दिलासा देती हुई एक आवाज़ आयी

"दोस्त अपने मुल्क की किस्मत पर रंजीदा ना हो

उनके हाथों में है पिंजरा,उनके हाथों में शुआ"

--दिलीप कुमार

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रचनाकार: डाल डाल की दाल (व्यंग्य) -दिलीप कुमार
डाल डाल की दाल (व्यंग्य) -दिलीप कुमार
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