तेजपाल सिंह 'तेज' की कुछ ग़ज़लें -एक- लगता है कि वो, कहीं अम्बर में रहता है, वो जुगनू है कि सबकी नज़र में रहता है। मंजिल की सू है आ...
तेजपाल सिंह 'तेज' की कुछ ग़ज़लें
-एक-
लगता है कि वो, कहीं अम्बर में रहता है,
वो जुगनू है कि सबकी नज़र में रहता है।
मंजिल की सू है आज भी उसकी नज़र,
इसी वजह से वो हरदम सफर में रहता है।
जहाँ इंसानियत ढूँढा करे है घर अपना,
वो, कि एक ऐसे उजड़े शहर में रहता है।
मैं जिन्दा तो हूँ पर मुर्दों से कम नहीं,
सो मेरा वजूद, फिर-फिर कुफर में रहता है।
इश्क की राह में तिश्नगी भी कम नहीं,
इसलिए ही बाकसम अश्कों में असर रहता है।
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-दो-
उजड़ा चेहरा देख रहा हूँ,
कि उल्टा शीशा देख रहा हूँ।
आने वाले कल के कल का,
कच्चा चिट्ठा देख रहा हूँ।
अपने ही जैसा बेटा है,
जानो सपना देख रहा हूँ।
धुंधलाई आँखों पर यारा,
अन्धा चश्मा देख रहा हूँ।
मौत के आँगन में जीवन का,
बुझता चूल्हा देख रहा हूँ।
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-तीन-
कभी जुगनू कभी आफ़ताब मांगे है,
कैसा बालक है, गुलाब मांगे है।
मैंने क्या-क्या किया है जीवन में,
मुझसे कोई हरिक हिसाब मांगे है।
वो मुझसे मेरी हक़परस्ती का,
अबकी ब्यौरा तमाम मांगे है।
नींद बाकी न रात बाकी है,
फिर भी फिर-फिर वो ख़्वाब मांगे है।
अपने आँचल में सजा कर सूरज,
नादां है कि आफ़ताब मांगे है।
उसने जिसने कभी खत भेजा ही नहीं,
खत का अपने वो कैसा जवाब माँगे है।
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-चार-
दुनिया की हर बिसात पर जो निगाह रखता है।
मेरे दिमाग में भी इक ऐसा सिपाह रहता है,
न दुख में दुखी होता कभी और न सुख में सुखी,
बड़ा अजीब शख्स है आँखों में ख्वाब रखता है।
गो दोस्ती उसकी है नदियों से बहुत, फिर भी,
वो आँखों में जलन, होठों पे प्यास रखता है।
न जाने उसकी आँख में कितने समंदर हैं निहां,
कि शांत परबत की तरह अपना मिजाज रखता है।
उसका सफ़र में भी कोई रहबर नहीं होता,
`तेज' दुनिया में वो कुछ ऐसा मुकाम रखता है।
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-पाँच-
सबके दिल में बसा हुआ हूँ,
न जाने कब ख़ुदा हुआ हूँ।
बीता कल कुछ ऐसे गुजरा,
आज मैं पूरा झुका हुआ हूँ।
वक्त के पैरोकार हुए वो,
मैं गए वक्त सा थका हुआ हूँ।
उम्र ने कुछ इस कदर उकेरा,
मैं खानों में बंटा हुआ हूँ।
सब कुछ लिखा नहीं जा सकता,
जो कुछ भी हूँ, कहा हुआ हूँ।
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-छह-
आवारा हूं, दीवाना हूँ, नाकारा हूँ सच में मैं,
क़ैद ख़यालों की डोली में भटक रहा हूँ नभ में मैं।
आँखों में कोई सपना अब होठों पर है प्यास कहां,
लिखते-लिखते सो जाता हूं तन्हाई के नग्में मैं।
गैरों की तो बात अलग है, अपने भी है अपने कब,
करने को हासिल अपनापन कितनी खाऊं कसमें मैं।
मेरे अंदर मेरा अपना कुछ भी है अब शेष नहीं ,
भीतर-भीतर इतना टूटा निभा-निभाकर रश्में मैं।
साँसों से उपवन खुशबू का, आंखों से छिटका सागर,
आलम-आलम वीराना है, न इसमें न उसमें मैं।
कब सोचा था खो जाऊंगा झुरमुट में तन्हाई के,
‘तेज' बताऊं अब किसको क्या, न बाहर न घर में मैं।
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-सात-
बचपन से पाई छुट्टी तो चढ़ी उमर ने लूटा मैं,
बाहर-बाहर साबित हूँ पर भीतर-भीतर टूटा मैं।
साँसों में जिनकी हर सूरत साजिश आती-जाती है,
मारके टंगड़ी आगे निकले बीच सफर में छूटा मैं।
गंध पले फूलों में कैसे? नजर बागबां की बदली,
चेहरों की अदला-बदली में खुद से पीछे छूटा मैं।
सूरज करने लगा जुगाली, धूप ने छोड़ा पैनापन,
चांद ने पहना काला चश्मा, तारों जैसा टूटा मैं।
जो भी चाहा किया हवा ने `तेज' न रोके रुकी हवा,
मेघों को ले गई उड़ाकर, रहा देखता तूफाँ मैं।
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-आठ-
आंखों-आखों जलन बहुत है,
पाँवों-पाँवों चुभन बहुत है।
धुआँ-धुआँ है सारा आलम,
साँसों-साँसों घुटन बहुत है।
धरती-धरती धूप घनी है,
अंबर-अंबर पवन बहुत है।
बस्ती-बस्ती धूल उड़ी है,
सहरा-सहरा तपन बहुत है।
कथनी – करनी में अंतर है,
नार्रों में यूँ कसक वहुत है।
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-नौ-
आज फिर आँख से निकला पानी,
बाद बरसों के है पिघला पानी।
कैसे लिक्खूँ मैं प्यार के नगमें,
मुट्ठी से मिरी रेत-सा फिसला पानी
हँसने-रोने का हुनर तक भूला,
भला किस सोच में उलझा पानी।
न हवा चली, न बिजली तड़की,
जाने किस तौर है बरसा पानी।
न तो रोता, न कभी हँसता है,
यूँ वक्त की मार से बदला पानी।
इस कदर हैं `तेज' हवाएं निकलीं,
छोड़के जमीं अपनी उछ्ला पानी।
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-दस-
वक्त से होकर ख़फा खुद को अनाम करलूँ क्या,
उनके कहने भर से ही खुद को तमाम करलूँ क्या।
कब तक बचूँगा मौत से, एक दिन जाना ही है,
डरके अपनी जान को उजड़ी दुकान करलूँ क्या।
पाँवों में गो थकान है, होठों पे तिश्नगी,
ताज़गी सोचों की मैं यूँ ही तमाम करलूँ क्या।
क्या किया, क्या न किया, बीते कल की बात है,
कल के किए पर आज को बेज़ा निसार करदूँ क्या।
आग का न `तेज' अब सूरज का खौफ़ है,
बस इसलिए दुश्मन को मैं मेहमान करलूँ क्या।
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(तूफां की ज़द में से उद्धृत)
तेजपाल सिंह तेज’(जन्म 1949) की गजल, कविता, और विचार-विमर्श की लगभग दो दर्जन किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं - दृष्टिकोण, ट्रैफिक जाम है, गुजरा हूँ जिधर से, हादसो के शहर में, तूंफ़ाँ की ज़द में ( गजल संग्रह), बेताल दृष्टि, पुश्तैनी पीड़ा आदि (कविता संग्रह), रुन - झुन, खेल - खेल में, धमाचौकड़ी आदि ( बालगीत), कहाँ गई वो दिल्ली वाली ( शब्द चित्र), पांच निबन्ध संग्रह और अन्य। तेजपाल सिंह साप्ताहिक पत्र ग्रीन सत्ता का साहित्य संपादक, चर्चित पत्रिका अपेक्षा का उपसंपादक, आजीवक विजन का प्रधान संपादक तथा अधिकार दर्पण नामक त्रैमासिक का संपादक भी रहे हैं। स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त होकर आप इन दिनों स्वतंत्र लेखन के रत हैं। हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार ( 1995-96) तथा साहित्यकार सम्मान (2006-2007) से सम्मानित किए जा चुके हैं।
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