देवेन्द्र कुमार पाठक ग़ज़लें -- किसी लानत-मलानत का असर उस पर नहीं होता. कभी भी जगहँसाई का उसे कुछ डर नहीं होता. मुक़ाबिल है नहीं लफ़्फ़ाज़ को...
देवेन्द्र कुमार पाठक
ग़ज़लें
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किसी लानत-मलानत का असर उस पर नहीं होता.
कभी भी जगहँसाई का उसे कुछ डर नहीं होता.
मुक़ाबिल है नहीं लफ़्फ़ाज़ कोई भी हुआ उसके
किसी भी झूठ पर उसका नीचा सर नहीं होता.
किसी की आस्तीं या सूने घर में छुप के आ बैठे
कहावत है कि साँपों का अपना घर नहीं होता.
जो ओहदे और दौलत के लिये बिकने को आमादा
उन्हें अपनी फजीहत का कभी भी डर नहीं होता.
न कोई जाति, मजहब, कौम होती है गरीबी की
किसी का दुःख किसी से भी कभी कमतर नहीं होता.
कहीं से उड़ कहीं को भी ,कभी भी जा पहुँचती हैं
इन अफ़वाहों के 'महरूम' पाँव,पहिया,पर नहीं होता.
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तुझ पर मेरे यकीं की ज़मीं थरथरा गयी.
ले शक्ल तेरी सर पर मेरे मौत आ गयी.
जिसकी जड़ों ने छोड़ दी अपनी ज़मीन ही
ज़रा तेज -सी हवा भी वह शज़र गिरा गयी.
शब ढह गया बारिश में पीढ़ियों पुराना घर
आँखों में घर की आंसुओं की बाढ़ आ गयी.
जितना बढ़ी तादाद उसके तरफदारों की
उतना दिलों में ज्यादा फ़ासले बढ़ा गयी.
थी किताबे-याद में तेरी तस्वीर रखी जो
वो हवा-ए-गर्दिश-ए-उमर ले उड़ा गयी.
मुद्दत से दिल में राजे-मुहब्बत था छुपाये
मेरी ज़ुबां पर आज वो सच्चाई आ गयी.
जज़्बा-ए-दिल बयानी की अदा ये तुम्हारी
'महरूम' तुझसे ज़्यादा मेरे दिल को भा गयी.
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सब 'ठीक-ठाक' चल रहा है सब को लग रहा.
ये लफ़्ज़ ठग रहा था तब भी,अब भी ठग रहा.
शब सो गयी बुझा हर इक चराग़े-जगाहट
हर नींद में लेकिन चराग़े-ख़्वाब जग रहा.
हर दौरे-वक़्त हमने गुज़ारा है साथ पर
मेरा तुझसे,तेरा मुझसे तज़ुर्बा अलग रहा.
कटता था मैं कितनी दफे नाख़ून था उसका
तू जिस अनामिका की अंगूठी का नग रहा.
'महरूम' सारा खेत खा रहे हैं दो ही वे
इक खग की भाषा समझ दूसरा जो खग रहा.
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आत्मपरिचय
देवेन्द्र कुमार पाठक.
( जिला- कटनी,मध्यप्रदेश ) जिले के दक्षिणी-पूर्वी सीमांत पर आबाद छोटी-महानदी ग्राम्यांचल
के एक गांव में जन्म. (02/03/1955)
शिक्षा-M.A.B.T.C.(हिंदी/शिक्षण)
कविता,कथा,व्यंग्य,निबन्धादि विधाओं में लेखन, पत्र-पत्रिकाओं में 1981 से प्रकाशन और आकाशवाणी-दूरदर्शन से प्रसारण.
'महरूम' तखल्लुस से गज़लें कहते हैं.
'विधर्मी' उपन्यास 'दुष्यन्त कुमार पुरस्कार' ( म.प्र. साहित्य परिषद) से सम्मानित.
आत्मकथ्य-
"मुझसे शुरू हुयी थी मुझ पर खत्म कहानी मेरी होगी;
एक चिराग बुझे,बुझ जाये,दुनिया नहीं अँधेरी होगी."
2 उपन्यास,(विधर्मी/अदना सा आदमी)
4 कहानी-संग्रह,(मुहिम/ मरी खाल ; आखिरी ताल/धरम धरे को दंड/ चनसुरिया का सुख)
2 व्यंग्यसंग्रह,( दिल का मामला है/कुत्ताघसीटी )
ग़ज़ल संग्रह,(ओढ़ने को आस्मां है)
गीत-नवगीत संग्रह; (दुनिया नहीं अँधेरी होगी)
10 किताबें प्रकाशित.
सम्पादन- 'केंद्र में नवगीत' ( कटनी जिले के 7 नवगीतकारों का संग्रह)
मध्यप्रदेश के शिक्षा-विभाग में लगभग 40 साल सेवायें देने के बाद सेवानिवृत्त. 1981 से 2007 तक पत्र-पत्रिकाओं में लेखन- प्रकाशन.10 साल अंतराल के बाद पुनः लेखन में सक्रिय.
सम्पर्क-1315,साईपुरम् कॉलोनी,साइन्स कॉलेज डाकघर-कटनी-483501(म.प्र.)
Email - devendrakpathak.dp@gmail. com
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संध्या चतुर्वेदी
बहुत याद आता है मुझको वो यमुना किनारा।
वो नीला सा पानी,वो बहती सी धारा।
वो पावन सी भूमि,वो मथुरा हमारा।।
सुबह सवेरे वो मन्दिर को जाना, वो यमुना किनारे घँटों बिताना।।
वो बचपन की मस्ती,वो बहता सा पानी।।
बहुत याद आता है मुझ को यमुना किनारा।
वो बहनों के संग में यमुना पर जाना,ठाकुर जी के लिए पानी भर लाना।।
वो अपना जमाना,घाटों पर था जब अपना ठिकाना।।
बहुत याद आता है वो यमुना किनारा।।
वो कल कल सी धारा,वो निर्मल सा पानी।
वो कच्छप का दौड़ना,वो मछली सुनहरी।।
बहुत याद आता है वो गुजरा जमाना,
वो यमुना किनारा ,जहाँ घर था हमारा।।
घाटों पर चौबों की चौपाल लगाना,जारी अभी भी है।
पर बदल गया है वो सारा नजारा।।
बहुत याद आता है वो यमुना किनारा।।
वो कीड़ों का पानी,वो बास पुरानी।।
वो नालों का गिरना,वो झागों का उठना।।
वो नमामि यमुने का नारा,वो वोट बैंकिंग सहारा।।
वो गटरों का पानी ,वो सड़कों के नाले।
जो गिराए जा रहे है नदियों में सारे।।
कहा गए वो कृष्ण हमारे,कहा है यमुना पुत्र हमारे।
किया था जिन्होंने कलिया के विष से मुक्त यमुना को।।
कहा खो गया वो नदिया का पानी
क्या खो गयी अब ये बातें पुरानी।।
देखी नहीं जाती करूण दशा यमुना की।
बहुत याद आता है वो यमुना का पानी।।
✍संध्या चतुर्वेदी
अहमदाबाद, गुजरात
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अनिल कुमार
'बारिश'
खिल उठता है मन
जब होता है धरती से
बारिश का मधुर मिलन
बूँद-बूँद ऐसे झरती है
जैसे बजता हो कोई
वीणा के तारों का सरगम
धुल जाती है सारी माटी
कल तक थी जो बंजर सम
नाचते, गाते है नर, पशु गण
और खुशी मनाता
हल चल देता है खेतों के रण
खिल उठता है तब
धरती का सूना आँगन
धोकर बारिश की बूँदें
कर देती है धरती को पावन।
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ज्योत्सना सिंह
हरियाला सावन
साल बाद फिर सावन आया
बीते साल का दर्द भर आया
यही तीज त्यौहार के दिन थे
हरा-भरा हम सब का मन था
और आपका प्यार बहुत था
सर पर रखा हाथ बड़ा था
पीहर का अभिमान बहुत था
पापा आपका साथ बड़ा था
फिर सावन ने दस्तक दी जब
फिर नज़रों में घूम गया सब
वो आपके दर्द भरे दिन रात
वो मन्नत की एक-एक बात
बीत गया जब बरस के सावन
सूना हो गया भाई का आँगन
पापा तुम बिन अब जो आया
कैसे कह दूँ हरियाला सावन
ज्योत्सना सिंह
लखनऊ
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आशुतोष कुमार
सन् 1999 में पाकिस्तानी घुसपैठियों के द्वारा भारत में घुसपैठ करने की कोशिश की थी जिसे भारत द्वारा "ऑपरेशन विजय" से पाकिस्तानी की नापाक मंसूबे पर पानी फेर दिया। भारतीय सैन्य वीरों की बहादुरी ,त्याग और बलिदान ने कारगिल युद्ध में भारत को विजय दिलाई।
प्रस्तुत कविता के माध्यम कारगिल युद्ध में भारतीय सैन्यवीरों की विजयगाथा का वर्णन किया गया हैं।
(कविता- कारगिल विजयगाथा)
पाकसेना की नापाक बुद्धि, जब बुद्धिहीनता की परिचायक बन जाती हैं
भारतफतेह का ख्वाब देख घुसपैठी कारगिल तक आ जाती है||
परंतु सुप्त आँखों से देखि सपना कभी पूरा हो नही पाती हैं|
और मृत्यु निश्चित हो जहाँ, नियति उसे वही खिंच ले आती हैं।|
ललकार सुन आर्यवर्ति सेना शेरदिल बन डट जाता हैं
उठा तिरंगा हाथों में भारतविजयि संकल्प दोहराता है
बाँध केसरिया माथे पर कारगिल शीर्ष चोटी पर चढ़ जाता है
और नेत्रतेज की ओजस्विता से नभबिजलि भी जहाँ फीकी पर जाती है
भारतीयवीरों की अदम्य साहस ऐसा की उस बर्फीली घाटी की भी छाती फट जाती हैं
विक्रम बत्रा की पराक्रमता से दुश्मन का छक्का छूट गया
अंगार देख कैप्टन अहूजा की तारा भी अंबर में टूट गया||
रक्तरंजित कारगिल घाटी भी जिसकी विजयगाथा को
गाता है|
वटालिक नायक वो कैप्टन मनोज पाण्डेय कहलाता है||
कर फतेह कारगिल का पाक घुसपैठी को मार दिया
टाइगर हिल की बात ही छोडो , एक -एक दुश्मन के छाती में तिरंगा गाड़ दिया।|
विश्वपटल के जनमानस पर विजयीभारत की तस्वीर खींच दिया
मणिकर्णिका की धरती को अपने बलिदानी रक्तों से सींच दिया||
जिन सुहागन की सुहाग अमर और मातृकोख धन्य हो जाती हैं
आर्यवर्ति इतिहास में उन शहीदों की शहादत को स्वर्णाक्षरों में लिखी जाती हैं।
जय हिन्द ,जय भारत।
आशुतोष कुमार
( जवाहरलाल नेहरू विश्विद्यालय,नई दिल्ली)
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