लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की जयंती (23 जुलाई) पर विशेष पत्रकारिता के माथे का वह पवित्र 'तिलक' गिरीश पंकज लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक को ...
लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की जयंती (23 जुलाई) पर विशेष
पत्रकारिता के माथे का वह पवित्र 'तिलक'
गिरीश पंकज
लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक को साधारण लोग इसलिए याद करते हैं कि उन्होंने गणेश उत्सव की शुरुआत की थी । यह उनका छोटा- सा परिचय है। तिलक जी तो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास की ऐसी अद्भुत कड़ी हैं, जिसके बिना हम उस इतिहास की कल्पना ही नहीं कर सकते। तिलकजी का समूचा व्यक्तित्व धधकती ज्वालामुखी की तरह था। उनका अमर वाक्य 'स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा", जन-जन का अमर वाक्य बन गया। जिस तरह नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने 'तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा' का जयघोष किया और वह पूरे देश का कण्ठहार बन गया, उसी तरह तिलक जी ने स्वराज्य को अपना जन्मसिद्ध अधिकार बना कर उसे सब का अधिकार बना दिया। तिलक जी ने जब सन 1881 में विष्णु शास्त्री चिपलूणकर के साथ मिलकर 'केसरी' और 'मराठा दर्पण' नामक साप्ताहिक का प्रकाशन शुरू किया था। तब केसरी में तिलक ने साफ-साफ लिख दिया था कि "केसरी निर्भयता निष्पक्षता के सभी प्रश्न पर चर्चा करेगा"। उन्होंने यह भी लिखा कि "ब्रिटिश शासन की चापलूसी करने की जो प्रवृत्ति आज दिखाई देती है, वह राष्ट्रहित में नहीं है "। उस समय के जो छोटे-मोटे अखबार निकल रहे थे, उनमें ब्रिटिश सरकार की चाटुकारिता साफ दिखाई देती थी, उसे देखकर तिलक जी व्यथित हुए और यही कारण है कि उन्होंने 'केसरी' और 'मराठा दर्पण' के प्रकाशन का निर्णय किया । केसरी मराठी में निकल रहा था और मराठादर्पण अंग्रेजी का साप्ताहिक था। केसरी के तेवर को समझने के लिए तिलक जी के संपादकीय की यह एक पंक्ति अपने आप में पर्याप्त है, जिसमें वह कहते हैं "केसरी के लेख इस के नाम को सार्थक करेंगे", उनका आशय यही था कि जिस तरह से शेर गरजता है उसी तरह से केसरी की पत्रकारिता भी गरजेगी। और यही हुआ भी। बहुत जल्दी तिलक जी अंग्रेजों की आंखों की किरकिरी बन गये। अख़बार के प्रकाशन के बाद से अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ समाज में वैचारिक वातावरण भी बनने लगा।
बेबाक निर्भीक लेखन
तिलक जी ने समय-समय पर अंग्रेजी हुकूमत को आईना दिखाने का काम किया । सन 1905 में जब बंगाल के विभाजन की कोशिश की गई, तो तिलक जी ने अपने अखबारों के माध्यम से उसका जमकर विरोध किया। एक बार तो स्वदेशी के मुद्दे पर लंबा लेख लिखते हुए उन्होंने अंग्रेजी साम्राज्य को लताड़ लगाई और दो टूक लिखा था कि "ब्रिटिश सरकार भारत में भयमुक्त है इसलिए उसका दिमाग फिर गया है, और वह जनमत की उपेक्षा करती है ।"
तिलक जी की पत्रकारिता के चार सूत्र थे, जिसका उन्होंने आजीवन पालन किया । ये चार सूत्र थे, स्वदेशी, बहिष्कार, राष्ट्रीय शिक्षा नीति को लागू करना और स्वराज आंदोलन को निरंतर गति प्रदान करना। तिलक जी सिर्फ आजादी के पक्षधर नहीं थे, वह इस देश में स्वदेशी आंदोलन को भी व्यापक बनाना चाहते थे। वह चाहते थे, देश के कुटीर उत्पादों को महत्व मिले, लोग उसका ही अधिकतम उपयोग करें। अंग्रेजों ने अपने देश की वस्तुओं का को भारत मे खपाने का सिलसिला शुरू कर दिया था। धीरे-धीरे लोग उसी के आदी होते चले गए। यानी स्वदेशी वस्तुओं से दूर होने लगे इसलिए तिलक जी ने स्वदेशी पर पूरा जोर दिया। मैकाले ने अपनी शिक्षा नीति के बल पर इस देश को भ्रष्ट करने की कोशिश शुरू कर दी थी । इसे देखकर तिलक जी विचलित हुए और राष्ट्रीय शिक्षा की वकालत करने लगे। उन्होंने अपने अखबारों के माध्यम से विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का आह्वान भी किया और जल्दी- से -जल्दी स्वराज मिले, इसके लिए उन्होंने अंग्रेजो के खिलाफ लगातार लिखने का सिलसिला भी शुरू कर दिया। 'केसरी' में लिखे गए उनके संपादकीय की ये पंक्तियां काफी लोकप्रिय हुई, जिसमें वे कहते हैं "पराधीन देश चाहे कितना भी विवश क्यों न हो, एकता, हिम्मत और दृढ़ इच्छाशक्ति के सहारे वह बिना किसी हथियार के भी अहंकारी सत्ता को धूल चटा सकता है "। उनकी इन पंक्तियों ने देश के लोगों को हौसला मिला। यही कारण है कि महात्मा गांधी ने भी जब तिलक के अवदान को देखा, तो वे तिलक जी से बहुत प्रभावित हुए और तिलक के लिए उन्होंने कहा,"तिलक अपने आप में गीता हैं। गांधी जी ने लिखा, "तिलक-गीता का पूर्वार्ध है, 'स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है' और उत्तरार्ध है, 'स्वदेशी हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।" गांधी जी ने तिलक जी से ही प्रभावित होकर पूरे देश में स्वराज आंदोलन को और स्वदेशी आंदोलन के कार्य को और अधिक गतिशील किया। गांधी तिलक जी के समूचे जीवन से बहुत प्रभावित थे। तिलक जी ने गणेश उत्सव, शिवाजी उत्सव आदि जैसे कार्यक्रमों को शुरू किया। आज पूरे देश में गणेशोत्सव मनाने की जो परंपरा शुरू हुई ,है वह तिलक जी की ही देन है। दरअसल इस उत्सव के पीछे केवल गणेश वंदना का भाव नहीं था, एक भावना यह भी थी कि लोग इसी बहाने नौ दिन एकत्र होंगे और अपनी सांस्कृतिक जीवन शैली को और संपुष्ट करेंगे। तिलक जी उत्सव के दौरान विभिन्न प्रकार के आयोजन करते थे, जिससे प्रतिभाओं का भी विकास होता था और राष्ट्रप्रेम के साथ ही अपनी सनातन संस्कृति के प्रेम की भावना और प्रगाढ़ होती थी।
पत्रकारिता के प्रति समर्पण
पत्रकारिता के प्रति तिलक जी के समर्पण को समझने के लिए यह उदाहरण भी पर्याप्त है। जब 1891 में तिलक जी चिपलूणकर जी से अलग होकर केसरी और मराठा का स्वतंत्र रूप से प्रकाशन करने लगे, तब उनके सामने आर्थिक दिक्कतें जरूर आई, लेकिन वह पूरी हिम्मत के साथ अखबार का प्रकाशन में लगे। तिलक जी उस वक्त जाने-माने वकील भी थे और उनकी मासिक आय लगभग दो सौ रुपये थी । इसलिए वह हिम्मत करके केसरी का प्रकाशन जारी रख सके। अखबार को व्यवस्थित रूप से चलाने के लिए उन्होंने एक प्रेस भी खरीद लिया था। उसका नाम उन्होंने रखा, आर्यभूषण प्रेस । एक बार की बात है, जब पुणे में प्लेग फैला, तो कुछ प्रेस कर्मी छुट्टी लेकर अन्यत्र चले गए। तब प्रेस के प्रबंधक ने तिलकजी से कहा, "इस बार अपना अंक शायद नहीं निकल पाएगा", तब तिलक जी ने दृढ़ता के साथ कहा था कि "इस महामारी के कारण हम और तुम भले मर जाएं, लेकिन अगला अंक निकल कर डाक से जाना ही चाहिए । जो भी हो, अखबार का प्रकाशन रुके नहीं ।" और केसरी का अंक प्रकाशित हुआ । तो ऐसे दृढ़प्रतिज्ञ व्यक्तित्व का नाम था, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, जिनके बारे में हम कह सकते हैं कि वह भारतीय पत्रकारिता के माथे पर दमकते पवित्र तिलक थे।
'गीता रहस्य' एक कालजयी कृति
पत्रकारिता के क्षेत्र में तिलक जी के योगदान को हम सब बेहतर तरीके से जानते हैं लेकिन कालजयी सर्जन के क्षेत्र में उनका जो योगदान है, उसका भी परिचय लोगों को होना चाहिए। उनकी कृति 'गीता रहस्य' से अनेक लोग परिचित है। अपने विद्रोही तेवर के कारण अंग्रेजों की आंखों की किरकिरी बन चुके तिलक जी समय-समय पर प्रताड़ित तो होते रहते थे , गिरफ्तार भी होते थे लेकिन अंग्रेजी हुकूमत ने उन्हें 1908 को एक बार गिरफ्तार करके छह साल के लिए मंडाले जेल (बर्मा) भेज दिया। उन पर राजद्रोह का मुकदमा चला क्योंकि उन्होंने एक लेख लिखा, जिसका शीर्षक था, 'देश का दुर्भाग्य'। इस लेख में उन्होंने अंग्रेजी सरकार की कटु निंदा की थी। उन्होंने प्रफुल्ल चाकी और खुदीराम बोस द्वारा बम से किए गए हमले का भी समर्थन किया था। अंग्रेज सरकार इसे बर्दाश्त नहीं कर सकी और तिलकजी को फौरन गिरफ्तार कर लिया। अपनी गिरफ्तारी के बावजूद तिलक जी हताश-निराश नहीं हुए और जेल में ही स्वाध्याय करने लगे। वहां रहते हुए उन्होंने मात्र पाँच महीने में नौ सौ पृष्ठों का एक विशाल ग्रंथ रच दिया, जिसे पूरी दुनिया 'गीता रहस्य' के नाम से जानती है। 2 नवंबर 1910 से 30 मार्च 1911 तक की अवधि में तिलक जी ने इस ग्रंथ को पूर्ण किया और 'श्रीशाय जनतात्मने' कह कर जनमानस को समर्पित कर दिया। जेल में उन्हें जो कागज-पेंसिल मिली, उसी के सहारे उन्होंने इस अमर कृति की रचना की ।सन 1914 में जब वे रिहा हुए तो उन्हें तत्काल उनकी पांडुलिपि नहीं मिल सकी। समय बीतता गया, तो उनके चाहने वालों ने तिलकजी से कहा, "पता नहीं अब क्या होगा। कहीं आपकी कृति को नष्ट न कर दिया जाय"। यह सुनकर तिलक जी ने मुस्कराते हुए कहा, "चिंता की कोई बात नहीं। वह पूरा का पूरा ग्रंथ मेरे दिमाग में सुरक्षित है। मैं उसे जैसा का तैसा लिख डालूंगा।" हालाँकि ऐसी नौबत नहीं आयी। कुछ समय बाद उन्हें पांडुलिपि वापस लौटा दी गई। और 1915 में गीता रहस्य का पहला संस्करण प्रकाशित होकर सामने आ गया। सन 1900 में छत्तीसगढ मित्र नामक मासिक का सम्पादन करके छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता का आगज करने वाले पंडित माधवराव सप्रे ने उस कृति का हिंदी में अनुवाद किया जो 1916 में प्रकाशित हुआ। तिलक जी ने जेल में रह कर गीता का जो अध्ययन किया, उससे उनका यही निष्कर्ष था कि गीता निवृत्तिपरक नहीं है , यह कर्मयोग परक है। यानी गीता हमें पलायन नहीं सिखाती, वह जूझने का संस्कार देती है । गांधी जी ने भी तिलक जी के इस काम की सराहना की। गांधीजी गीता को 'गीतामाता' कहते थे । तिलक जी के गीता रहस्य पर गांधी जी ने कहा था, " गीता पर तिलक जी की टीका उनका शाश्वत स्मारक है । स्वतंत्रता के युद्ध में विजयश्री प्राप्त करने के बाद भी वह यथावत बना रहेगा ।" क्रांतिकारी संत अरविंद घोष ने भी कहा था, "गीता रहस्य नैतिक शक्तियों का योग्य निदर्शन है।" बाद में तो गीता रहस्य का अनेक भाषाओं में अनुवाद किया गया। मैंने पहले माधवराव सप्रे द्वारा अनूदित गीता रहस्य को पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त किया, बाद में डॉ मोहन बाडे द्वारा अनूदित ग्रन्थ को भी देखा। तिलक जी ने 'वेद काल का निर्णय' , 'आर्यों का मूल निवास स्थान ', 'वेदों का काल-निर्णय और वेदांग ज्योतिष ', 'हिन्दुत्व' आदि कृतियों का भी प्रणयन किया। पता नहीं, सृजन का समय कब निकालते थर। नई पीढ़ी के पत्रकारों को तिलक जी के प्रेरक व्यक्तित्व के बारे में पढ़ाया जाना चाहिए। बच्चों को भी उनके जीवन के अनेक प्रेरक प्रसंगों की जानकारी दी जानी चाहिए।
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