कहानी–"इमला" - डॉ0 मृदुला शुक्ला "मृदु"

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शम्भू और उत्कट दोनों बचपन के लँगोटिया यार थे। दोनों एक-दूसरे के बिना अधूरा महसूस करते थे, जबकि दोनों के स्वभाव में कोई मेल नहीं था, आकाश-पात...

शम्भू और उत्कट दोनों बचपन के लँगोटिया यार थे। दोनों एक-दूसरे के बिना अधूरा महसूस करते थे, जबकि दोनों के स्वभाव में कोई मेल नहीं था, आकाश-पाताल का अन्तर था दोनों में। शम्भू शान्त स्वभाव का, साफ दिल का, सच्चा, सीधा-सादा इन्सान था, वो सबको सच्चे दिल से मानता था, सभी का आदर-सम्मान करता। झूठ, छल, कपट, फ़रेब, ईर्ष्या, द्वेष तो उसे कभी छू तक नहीं पाता था। प्रत्येक इन्सान को वह अपनी तरह ही समझ लेता और उसे खूब मानता, चाहे मित्र उत्कट हो, चाहे अफ़सर कार्तिक हो, चाहे कोई और।

       शम्भू अत्यधिक उच्च शिक्षित, महाविद्वान, महाज्ञानी, अतिशय शालीन, हमेशा लोगों की भलाई में लगा रहने वाला व्यक्ति था। उसका निरन्तर प्रयास रहता की उसके कारण कभी किसी को कोई तक़लीफ़ न हो।

      उसकी विद्वता एवं सद्गुणों के कारण दूर-दूर तक के लोग शम्भू की प्रशंसा करने से थकते नहीं थे। विद्यालयों एवं महाविद्यालयों के प्रवक्ता शम्भू के सामने कुछ बोलने में हिचकते रहते और मन ही मन में भयभीत रहते कि कहीं कुछ गलत न बोल जाएँ।

        लेकिन जहाँ शम्भू और उत्कट नौकरी कर रहे थे, वहाँ की स्थितियाँ कुछ और ही थीं।

         उत्कट प्रत्येक बात में शम्भू से बिलकुल विपरीत था। झूठ, फ़रेब, दलाली, चापलूसी और मौज-मस्ती आदि में डूबा रहने वाला व्यक्ति था। सही को गलत, सत्य को असत्य, अच्छे को बुरा, उचित को अनुचित सिद्ध करके लोगों को अपमानित करना, उनकी बेइज़्ज़ती करना, लोगों पर गलत आरोप लगाकर अफसरों और साथी लोगों की नज़रों से गिराकर, स्वयं उनकी नज़रों में ऊँचा उठकर उनका अतिशय प्रिय एवं सगा-सम्बन्धी बन जाना, यही उसका कार्य था और यही उसका स्वभाव।

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           उसके ख़िलाफ़ जाने की किसी की भी हिम्मत न पड़ती, भला उसकी ख़िलाफ़त कोई करता भी कैसे ? वो शहज़ादा जो ठहरा। अमीरी में पला-बढ़ा, अपने अमीर बाप का बिगड़ैल बेटा जो था। धन-दौलत की कमी नहीं, जिन-जिन लोगों से फ़ायदा लेना होता किसी भी तरह का, उन लोगों को सारी की सारी सुख-सुविधाएँ, सारी व्यवस्थाएँ उपलब्ध कराने में सक्षम जो था।

           राजनीति में माहिर, अपने साथ कार्य करने वाले तमाम सहकर्मियों पर अपना दबदबा बनाकर, उन्हें डरा-धमकाकर भारी रक़म वसूल कर थोड़ा-बहुत मंत्रियों, बड़े-बड़े नेताओं और बड़े-बड़े अफसरों को उपहार स्वरूप भेंट करता रहता। बोली, शक्ल-सूरत से सीधा, सज्जन, दानी, परोपकारी, धार्मिक प्रवृत्तियों से पूर्ण नैतिकतापूर्ण आचरण के दिखावे से परिपूर्ण उत्कट को कुछ लोग महापुरुष ही समझते थे।

          शम्भू ठहरा एक बेहद सीधा, सज्जन, नैतिक मूल्यों को मानने वाला, शान्त स्वभाव वाला, सत्यवादी, कर्मठ, निष्ठा और लगन से कार्य करने वाला, सभी को आदर और सम्मान देने वाला। बचपन में ही  न जाने कैसे इन दोनों के बीच में मित्रता का बीजारोपण हो गया।

          शम्भू अक्सर उत्कट को समझाता रहता-सारे गलत कार्य छोड़ दो, एक अच्छा इन्सान बनो, लेकिन उत्कट शम्भू की एक न सुनता। उसे शम्भू का इस तरह समझाना अच्छा नहीं लगता। धीरे-धीरे उत्कट शम्भू की पीठ में भी छुरा भोकने का, हर तरह से नुकसान पहुँचाने का मन बनाता रहता और सामने शहद में डूबी बातें करता रहता, जिससे शम्भू को अपने स्वयं के प्रति उत्कट की दुर्भावनाओं का एहसास तक न हो पाता।

         उत्कट और उसके तमाम खास-खास साथी शम्भू के विषय में अफ़सर कार्तिक से खूब बुराई करते, उलटी-पुलटी बातें कहते, मनगढ़न्त झूठी कहानियाँ सुनाते रहते। वो कहते हैं न कि "सौ फूंक मारने से ओदा भी जलने लगता है" फिर क्या था उन लोगों की योजनाएँ सफल होने लगीं। उत्कट और उसके पूरे समूह की बातों में  अफ़सर कार्तिक भी आ गए और उनकी सारी बातों पर आँखें मूदकर आखिरकार भरोसा कर ही लिया। इतनी धन-दौलत वाली,ऊपर तक काफ़ी पहुँच वाली बड़ी पार्टी पर भला अविश्वास कर भी कैसे कोई सकता है ? वो भी तब, जब हर तरह का फ़ायदा मिल रहा हो उनसे और आगे भविष्य में भी उन्हीं लोगों की बदौलत बड़े-बड़े फ़ायदे, मान-सम्मान, नाम, शोहरत और बड़े-बड़े पुरस्कार मिलने  की महत्त्वाकांक्षाएं पूर्ण होने का पूर्ण विश्वास हो।

       शम्भू एक छोटे से मकान में रहने वाला मेहनती और ईमानदार, व्यक्ति था। कोई भी अफ़सर भला उसकी बात क्यों सुनता और क्यों विश्वास करता ? हर किसी को आराम से सुकून भरी ज़िन्दगी जो चाहिए, ऐशोआराम और बहुत कुछ चाहिए , दो,तीन पीढ़ियों के भरण-पोषण की व्यवस्था जो  चाहिए । सच्चाई और मेहनत की दाल-रोटी से महत्त्वाकांक्षियों का भला कहाँ होने वाला ?

         जिस अफ़सर कार्तिक को शम्भू अभी तक सीधा,  सरल, न्यायप्रिय, अपनी बुद्धि और विवेक से कार्य करने वाला अफ़सर समझता था, सही-गलत, सच-झूठ, उचित-अनुचित आदि में भेद करने वाला समझता था, भावनात्मक रूप से उसे अपना भ्राता ही मानता था, परन्तु अफ़सोस ! उसके सारे क्रिया-कलाप देखकर, लोगों से बातें सुनकर  शम्भू अफ़सर कार्तिक को भली-भाँति समझ चुका था और उसका सारा विश्वास चकनाचूर हो चुका था। शम्भू मन ही मन बहुत दुखी होकर विचार करने लगा कि अफ़सर कार्तिक की जो छवि मैंने सोची थी, वो छवि तो उसकी कभी थी ही नहीं। अफ़सर कार्तिक तो उत्कट का ही दूसरा नाम है।

          एक दिन उत्कट ने अपने किसी व्यक्ति को दो आदर्श वाक्य लिखवाने के लिए अपने मित्र शम्भू के पास भेजा। उस व्यक्ति ने शम्भू से विनती की कि वो कोई दो अच्छे और छोटे आदर्श वाक्य लिख दे। शम्भू ने कागज़ पर दो आदर्श वाक्य लिख कर दे दिए। उस व्यक्ति ने जाकर वो कागज़ उत्कट को दे दिया।

         उन आदर्श वाक्यों में एक वाक्य पूरी एक पंक्ति का था। उत्कट ने सभी लोगों को और अफ़सर कार्तिक को भी शम्भू की अयोग्यता का विस्तृत रूप में वर्णन किया और उस कागज़ की फोटो भी  वायरल कर दी।

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         वह व्यक्ति बड़े विस्मय से यह सब देखता जा रहा था और बातें सुनता जा रहा था। कुछ देर बाद वह उत्कट से बोला–दादा यह तो तुम्हारा खास मित्र है, वो भी बचपन का मित्र। ये सब क्यों कर रहे हो, मत करो। वो परेशान हो जाएगा। उसने तो सही लिखा है , एक वाक्य थोड़ा बड़ा ही तो है । कहना था तो सिर्फ उसी से कह देते, बेवजह सबसे कहने की क्या ज़रूरत थी। तुम उसे गलत सिद्ध करके इतना परेशान क्यों करना चाहते हो ? इतना सुनते ही उत्कट उस व्यक्ति पर आगबबूला होकर चिल्लाने लगा–गरीब, फटीचर, बड़ा हरिश्चन्द्र बनने वाला वह शम्भू मेरा मित्र----हुँ : , कभी नहीं। वो ऐसी खाज है कि जिसके पास से गुज़र जाए, तो उसे भी खाज हो जाये। जब देखो तब वह मुझे सच्चाई, अच्छाई, ईमानदारी का पाठ पढ़ाता रहता है। बड़ा घमण्ड है उसे अपनी सच्चाई, ईमानदारी और विद्वता का । अब मज़ा आएगा, जब अफ़सर कार्तिक शम्भू को खूब फ़टकार लगाएगा, खूब अपमानित करेगा।

           तभी किसी तरह शम्भू को ये सारी बातें पता चलीं, उसने अफ़सर कार्तिक को फोन किया , अपनी बात कहने के लिए। शम्भू की कोई भी बात सुने बगैर कार्तिक ने उत्कट की बातों को अक्षरशः सत्य मानते हुए शम्भू पर क्रोधित होकर काफी फ़टकार लगाई। इतना ही नहीं , कार्तिक भी उत्कट और उसके साथियों के साथ मिलकर लगातार अपमानित ही करता रहा–शम्भू को कुछ आता-जाता भी है, वो कुछ कर भी पाता है ? कुछ लिखना तक तो आता नहीं है उसे। एक वाक्य तक ढंग से लिख नहीं पाया, इमला लिख कर रख दिया बस।

          अफ़सर कार्तिक को उत्कट के अन्दर सारी अच्छाइयाँ ही अच्छाइयाँ नज़र आती थीं, उसके समग्र दोषों को श्रेष्ठ गुण ही मानता था वो। उत्कट की असलियत सुनने, जानने को वह तैयार ही नहीं था। वह तो उत्कट को  साक्षात भगवान मानकर पूजता था, परब्रह्म परमेश्वर मानता, जो कार्तिक और उसी के जैसे तमाम अफसरों का पालक एवं सर्जक था, निरन्तर उनके भरण-पोषण, मनोरंजन आदि की व्यवस्था में जुटा रहता था।

        अब शम्भू ने उस अफ़सर कार्तिक को अपने बाप की तरह या बड़ा भाई समझने की अपनी गलती सुधार ली थी। वो भीतर ही भीतर अत्यधिक आहत हो चुका था। जिस मित्र को वह अपना सबसे अच्छा और सबसे पक्का मित्र समझता रहा, जी-जान से मानता रहा और वह मेरे लिए अपने दिल में इतना ज़हर भरे बैठा है, यही सोच-सोच कर शम्भू बहुत दुखी था। उसने भावनाओं का इमला कागज़ पर लिख कर आग में जला दिया, जो हमेशा के लिए नष्ट हो गया।

            धन-दौलत, हीरे-जवाहरातों को पूजने वालों से यह सारी दुनिया भरी पड़ी है। बुराई जश्न मनाने में लगी है और अच्छाई सिसकती हुई घिसट रही है, बिलकुल बेबस, एकाकी और असहाय। दूर-दूर तक एकदम वीरान, अच्छाई का साथ देने वाला कोई नहीं।

        कोयले की खानों को हीरे की खान समझ कर मैंने बहुत बड़ी भूल कर डाली- शम्भू एकान्त में बैठा स्वयं को दोषी मानता हुआ कोस रहा था। उसके मन में गहरा पछतावा था और स्वयं को क्रोधाग्नि में जला रहा था कि वह लोगों को पहचान कैसे नहीं सका, रह-रह कर यही सोचे जा रहा था और उसकी आँखों से अश्रुधारा प्रवाहित हो रही थी।

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डॉ0 मृदुला शुक्ला "मृदु"

114, महराज-नगर

लखीमपुर-खीरी (उ0प्र0)


कॉपीराइट–लेखिका डॉ0 मृदुला शुक्ला "मृदु"

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मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड 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रचनाकार: कहानी–"इमला" - डॉ0 मृदुला शुक्ला "मृदु"
कहानी–"इमला" - डॉ0 मृदुला शुक्ला "मृदु"
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