ग़ज़ल-1 छूना नहीं है चाँद को तकने दें दूर से बस इल्तजा यही है हमारी हुज़ूर से साक़ी ने बेहिसाब पिला दी है, क्या करूँ उसकी ख़ता भी कम नहीं...
ग़ज़ल-1
छूना नहीं है चाँद को तकने दें दूर से
बस इल्तजा यही है हमारी हुज़ूर से
साक़ी ने बेहिसाब पिला दी है, क्या करूँ
उसकी ख़ता भी कम नहीं मेरे क़ुसूर से
इतराते माहताब से मैंने भी कह दिया
तुझ पर ये आबो-ताब है सूरज के नूर से
गर हैं नवाब आप तो फ़नकार हम भी हैं
करियेगा हमसे बात अदब से, शऊर से
कुछ बातें काम-धाम की समझा भी दूँ मगर
फ़ुरसत मिले तो दिल को मुहब्बत के टूर से
मैं तिश्नगी फिर अपनी छुपा कर गुज़र गया
तकता ही रह गया मुझे दरिया गुरूर से
तासीर ही 'अकेला' ग़मों की बदल गयी
राहत बहुत मिली है ग़ज़ल के सुरूर से
ग़ज़ल-2
हुआ जादू सा रग-रग में खुशी दौड़ी चली आई
ज़ुबाँ पर नाम क्या आया तुम्हारा ज़िन्दगी आई
किसी ने छत पे चढ़कर भीगी ज़ुल्फों को झटक डाला
घटाओं से झरा अमरित फ़ज़ा में ताज़गी आई
जो देखा जाये तो अपनी जगह दोनों अनाड़ी हैं
न हमको दुश्मनी आई न उसको दोस्ती आई
तो ये तुम हो जो अंदर से निकल आये हो छज्जे पर
वही सोचूँ अमावस में कहाँ से चाँदनी आई
अब इतना भी न इतरा ऐ अँधेरी शब, ज़रा सुन ले
तराना सुब्ह छेड़े है 'अभी आई अभी आई
मैं कैसे मान लूँ मुझसे बिछड़ने का है ग़म तुझको
न माथे पर शिकन तेरे न आँखों में नमी आई
ग़मों के नाज़-नखरे उम्र भर मैंने उठाये हैं
'अकेला' तब कहीं जाकर मुझे ये शायरी आई
ग़ज़ल-3
कुसूर क्या है जो हमसे ख़ताएँ होती हैं
हुज़ूर आपकी क़ातिल अदाएँ होती हैं
बरसना आता नहीं इनको है यही रोना
फ़लक पे रोज़ ही काली घटाएँ होती हैं
गुनाहे-इश्क़ तो आँखों का मशग़ला ठहरा
ये क्या सितम है कि दिल को सज़ाएँ होती हैं
ज़रा सी ओट अगर ले सको तो अच्छा है
दिये की ताक में शातिर हवाएँ होती हैं
हमारे पास भला क्या है और देने को
तुम्हारे वास्ते दिल में दुआएँ होती हैं
तुझे भी सैकड़ों सम्मान मिल गए होते
‘अकेला’ तुझसे कहाँ इल्तिजाएँ होती हैं
ग़ज़ल-4
इस दास्ताँ को फिर से नया कोई मोड़ दे
टूटा हुआ हूँ पहले से कुछ और तोड़ दे
अब देके ज़ख्म मेरे सितमगर खड़ा है क्यों
मिर्ची भुरक दे ज़ख्म पे नीबू निचोड़ दे
बर्बाद हम हुए कि तेरे मन की हो गई
अब जा के नारियल किसी मन्दिर में फोड़ दे
उकता गया क़फ़स में है सय्याद अब तो दिल
ऐसा न कर कि तू मेरी गर्दन मरोड़ दे
तुझको भी पत्थरों से रहम की उमीद है
नाहक़ पटक पटक के न सर अपना फोड़ दे
क़ातिल ही ऐ ‘अकेला’ अचानक पलट गया
मैंने कहाँ कहा था मुझे ज़िन्दा छोड़ दे
ग़ज़ल- 5
चाह छुपती है कहाँ लाख छुपाई जाये
एक भी झूठी क़सम और न खाई जाये
मैं भी हाज़िर हूँ हुज़ूर आपकी इस महफिल में
इस तरफ़ को भी नज़र थोड़ी घुमाई जाये
मेरा इज़हारे-वफ़ा वो कहीं ठुकरा ही न दें
डर है फोकट में न लाखों की कमाई जाये
कोशिशे-गुफ्तगू नाकाम न हो जाये कहीं
हम नहीं चाहते तलवार उठाई जाये
दोस्ती करनी नहीं थी तो न करते लेकिन
दोस्ती हो ही गई है तो निभाई जाये
हौसला तोड़ना मत कोशिशें जारी रखना
जीतने की भले उम्मीद न पाई जाये
राह में छोड़ गया है जो 'अकेला' मुझको
उस फ़रेबी की न फिर याद दिलाई जाये
ग़ज़ल-6
सच्ची अगर लगन है सफल हो ही जायेगी
मतला हुआ है पूरी ग़ज़ल हो ही जायेगी
माना कि पूर्णिमा की खिली चाँदनी है वो
शरमा गई तो नीलकमल हो ही जायेगी
यूँ ही बनी रही जो इनायत ये आपकी
ये ज़िन्दगानी रंग महल हो ही जायेगी
उम्मीद है रिज़ल्ट तो अच्छा ही आयेगा
सख्ती हो चाहे जितनी नक़ल हो ही जायेगी
छिड़ ही गया है बज़्म में जब उसका ज़िक्र तो
लाज़िम है आँख मेरी सजल हो ही जायेगी
माना कि प्रॉब्लम है बड़ी फिर भी क्या हुआ
हिम्मत से काम लोगे तो हल हो ही जायेगी
घबराइए न, चार क़दम चल के देखिए
बेहद कठिन ये राह सरल हो ही जायेगी
माना 'अकेला' आज है रूठी सी ज़िन्दगी
हम पर भी मेहरबान ये कल हो ही जायेगी
ग़ज़ल-7
जो जैसा दिख रहा है उसको वैसा मत समझ लेना
खड़ी हो जायेगी वरना बड़ी दिक्कत समझ लेना
उसे तो बेसबब ही मुस्कुरा देने की आदत है
सो उसके मुस्कुराने को न तुम चाहत समझ लेना
कभी सोचा नहीं था तुम भी धोखेबाज़ निकलोगे
सरल होता नहीं इंसान की फ़ितरत समझ लेना
भरोसा ख़ुद पे कितना भी हो लेकिन जंग से पहले
ज़रूरी है ज़रा दुश्मन की भी ताक़त समझ लेना
अदावत की डगर पे आखि़रश चल तो पड़े हैं हम
न होगी वापसी की कोई भी सूरत समझ लेना
तुम्हारी सात पुश्तें भी चुका पायें नहीं मुमकिन
लगाते हो मिरे ईमान की क़ीमत, समझ लेना
किसी की भी मदद को ‘ऐ अकेला’ दौड़ पड़ते हो
कहीं का भी नहीं छोड़ेगी ये आदत समझ लेना
ग़ज़ल-8
कुछ ऐसे ही तुम्हारे बिन ये दिल मेरा तरसता है
खिलौनों के लिए मुफ़लिस का ज्यों बच्चा तरसता है
गए वो दिन कि जब ये तिश्नगी फ़रियाद करती थी
बुझाने को हमारी प्यास अब दरिया तरसता है
नफ़ा-नुक़सान का झंझट तो होता है तिज़ारत में
मुहब्बत हो तो पीतल के लिये सोना तरसता है
न जाने कब तलक होगी मेहरबानी घटाओं की
चमन के वास्ते कितना ये वीराना तरसता है
यही अंजाम अक्सर हमने देखा है मुहब्बत का
कहीं राधा तरसती है कहीं कान्हा तरसता है
पता कुछ भी नहीं हमको मगर हम सब समझते हैं
किसी बस्ती की खातिर क्यों वो बंजारा तरसता है
कि आख़िर ऐ 'अकेला' सब्र भी रक्खे कहाँ तक दिल
बहुत कुछ बोलने को अब तो ये गूंगा तरसता है
ग़ज़ल- 9
जिसपे मरते हैं उस पे मरते हैं
क्या बुरा है जो इश्क़ करते हैं
दिल की धड़कन सम्हल नहीं पाती
तेरी गलियों से जब गुज़रते हैं
हमको परवाह जान की भी नहीं
आप रूसवाईयों से डरते हैं
देते क्यों हैं उड़ान की तालीम
बाद में पर अगर कतरते हैं
बात उनसे जो हो तो हो कैसे
वो फ़लक से कहाँ उतरते हैं
ज़िन्दगी उनको सौंप दी हमने
जिनसे गेसू नहीं संवरते हैं
अब के कैसी बहार आई है
पत्ता पत्ता शजर बिखरते हैं
सब्र से काम लें ‘अकेला’ जी
वक़्त के साथ ज़ख़्म भरते हैं
ग़ज़ल-10
वो चलाये जा रहे दिल पर कटारी देखिए
हँस रहे हैं फिर भी हम हिम्मत हमारी देखिए
पायलागी सामने और पीठ पीछे गालियाँ
आजकल के आदमी की होशियारी देखिए
एक हरिजन दर्द अपना क्या बयां कर पाएगा
सामने शुक्ला, दुबे, चौबे, तिवारी देखिए
सारे अपराधों पे है हासिल महारथ आपको
आप संसद के लिए उम्मीदवारी देखिए
मैकशों के साथ उठना-बैठना अच्छा नहीं
मौलवी जी आप अपनी दीनदारी देखिए
कब तलक लटका के रक्खेंगे ये दिल का मामला
सामने वाले की कुछ तो बेक़रारी देखिए
काम हो पाया नहीं तो घूस लौटा दी गई
बेईमानों की ज़रा ईमानदारी देखिए
ऐ ‘अकेला’ इक तमाशा बन गई जम्हूरियत
एक बंदर को नचाते सौ मदारी देखिए
वीरेन्द्र खरे 'अकेला' का परिचय
जन्म : 18 अगस्त 1968 को छतरपुर (म.प्र.) के किशनगढ़ ग्राम में
पिता : स्व० श्री पुरूषोत्तम दास खरे
माता : श्रीमती कमला देवी खरे
शिक्षा :एम०ए० (इतिहास), बी०एड०
लेखन विधा : ग़ज़ल, गीत, कविता, व्यंग्य-लेख, कहानी, समीक्षा आलेख ।
प्रकाशित कृतियाँ :
1. शेष बची चौथाई रात 1999 (ग़ज़ल संग्रह), [अयन प्रकाशन, नई दिल्ली]
2. सुबह की दस्तक 2006 (ग़ज़ल-गीत-कविता), [सार्थक एवं अयन प्रकाशन, नई दिल्ली]
3. अंगारों पर शबनम 2012(ग़ज़ल संग्रह) [अयन प्रकाशन, नई दिल्ली]
उपलब्धियाँ :
*वागर्थ, कथादेश,वसुधा सहित विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं रचनाओं का प्रकाशन ।
*लगभग 25 वर्षों से आकाशवाणी छतरपुर से रचनाओं का निरंतर प्रसारण ।
*आकाशवाणी द्वारा गायन हेतु रचनाएँ अनुमोदित ।
*ग़ज़ल-संग्रह 'शेष बची चौथाई रात' पर अभियान जबलपुर द्वारा 'हिन्दी भूषण' अलंकरण ।
*मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन एवं बुंदेलखंड हिंदी साहित्य-संस्कृति मंच सागर [म.प्र.] द्वारा कपूर चंद वैसाखिया 'तहलका ' सम्मान
*अ०भा० साहित्य संगम, उदयपुर द्वारा काव्य कृति ‘सुबह की दस्तक’ पर राष्ट्रीय प्रतिभा सम्मान के अन्तर्गत 'काव्य-कौस्तुभ' सम्मान तथा लायन्स क्लब द्वारा ‘छतरपुर गौरव’ सम्मान ।
सम्प्रति :अध्यापन
सम्पर्क : छत्रसाल नगर के पीछे, पन्ना रोड, छतरपुर (म.प्र.)पिन-471001
संस्तुतियाँ
'अकेला' की ग़ज़लों में भरपूर शेरियत और तग़ज़्जुल है । छोटी बड़ी सभी प्रकार की बहरों मे उन्होंने नए नए प्रयोग किए हैं और वे खूब सफल भी हुए हैं । उनके शेरों में यह ख़ूबी है कि वे ख़ुद-ब-ख़ुद होठों पर आ जाते हैं जैसे कि यह शेर-
इक रूपये की तीन अठन्नी माँगेगी
इस दुनिया से लेना-देना कम रखना
-पद्मश्री डॉ० गोपाल दास 'नीरज'
'अकेला' की ग़ज़ल वो लहर है जो ग़ज़ल के समुन्दर में नई हलचल पैदा करेगी ।
- डॉ. बशीर बद्र
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