-एक- पल-पल छिन-छिन…. पल-पल छिन-छिन, बीत गए जीवन के दिन। आँगन में था सौन-चिरैयों का जमघट, मन-भावन था पीपल के नीचे पनघट, पीपल सूखा, पनघ...
-एक-
पल-पल छिन-छिन….
पल-पल छिन-छिन, बीत गए जीवन के दिन।
आँगन में था सौन-चिरैयों का जमघट,
मन-भावन था पीपल के नीचे पनघट,
पीपल सूखा, पनघट रीता, झुका गगन।
पल-पल छिन-छिन बीत गए जीवन के दिन।
बहुत बुने थे आँचल में धागों से नाम,
घनी भली थी गर्म सहर और ठंडी शाम,
चादर सिकुडी दिन परबत से हुए सघन।
पल-पल छिन-छिन बीत गए जीवन के दिन।
चलते-चलते चूक गया मेरा हर दाँव,
धीरे-धीरे रीत गया रिश्तों का गाँव,
साँसें बहकीं ,चढ़ी उमरिया, हुई थकन
पल-पल छिन-छिन बीत गए जीवन के दिन।
****
-दो-
धनिया ने क्या रंग जमाया
धनिया ने क्या रँग
जमाया होली में,
रँगों का इक गाँव बसाया होली में ।
आँखों से छुट रहे
शराबी फव्वारे ,
होठों ने उन्माद जगाया होली में ।
फँसती गई देह की
मछली मतिमारी,
जुल्फों ने यूँ जाल बिछाया होली में ।
सिर पे रखके पाँव
निगोड़ी नाच रही,
इस तौर लाज का ताज गिराया होली में ।
टेसू के रँगों का
फागुन हुआ हवा ,
कड़वाहट का रँग समाया होली में
****
-तीन-
चलो करें कुछ ऐसा यारो
चलो करें कुछ ऐसा यारो
एक साथ सब कदम उठें,
मानव, मानव को पहचाने,
प्रेम के प्याले छलक उठें ।
हवा समूची दुनिया की
यारब कुछ ऐसी बदले,
बस्ती-बस्ती हो खुशहाली
बाग-बगीचे महक उठें ।
मानव, मानव को पहचाने ,
प्रेम के प्याले छलक उठें ।
सूरज यूँ धरती पर उतरे
आँगन-आँगन धूप खिले,
सुबह-सवेरे बैठ मुँडेरी
चीं-चीं चिड़िया चहक उठें ।
मानव, मानव को पहचाने,
प्रेम के प्याले छलक उठें ।
होरी को धनिया मिल जाए
और धनिया को पैंजनियाँ,
छालों भरे हाथ को चूड़ी
घायल पायल छनक उठें ।
मानव, मानव को पहचाने,
प्रेम के प्याले छलक उठें ।
कोई हिन्दू हो या मुस्लिम,
कोई इसाई, सिख या बौद्ध,
आपस में यूँ मिले-जुलें सब
कि सबके चेहरे चमक उठें।
मानव मानव को पहचाने
प्रेम के प्याले छलक उठें ।
****
-चार-
गीत मिलन के कैसे गाऊँ?
गीत मिलन के कैसे गाऊँ ?
मैं भी चुप हूँ वो भी चुप है
अँधियारा पर बोल रहा है,
तुम ही कहो मैं इस आलम में
कैसे उलझा मन सुलझाऊँ ?
गीत मिलन के कैसे गाऊँ ?
जगते-जगते आँखें सूजीं
रंगीनी बदरंग लगे है,
आज लगे है खाली-खाली
कल को कैसे कंठ लगाऊँ ?
गीत मिलन के कैसे गाऊँ ?
कोई अपना ही खुद घर की,
निजता में विष घोल रहा है,
ग़र वो खुद से बाहर निकले,
पलक बिछाऊँ, कंठ लगाऊँ।
गीत मिलन के कैसे गाऊँ।
भारी-भारी उनका पलडा
क्या दुनियाँ में मोल मेरा,
सागर-सी गहराई पाकर
गीत नदी के कैसे गाऊँ ?
गीत मिलन के कैसे गाऊँ ?
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-पाँच-
मितवा काहे न आए
मितवा काहे न आए।
मनवा लाख बुलाए॥
पायल मोरी छम-छम बोलें,
भेद लजीले मन के खोलें,
बैरन ना शरमाए।
मितवा काहे न आए॥
चम्पई चाँदनी के अँगना,
बार-बार खनके है कँगना,
मोहे नींद न आए।
मितवा काहे न आए॥
बदरा गरजे बिजुरी चमके,
बैरन बिंदिया दम-दम दमके,
नैना नीर बहाए।
मितवा काहे न आए॥
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- छ: -
बादल- बादल पानी दे
बादल-बादल पानी दे,
पानी दे, गुड़धानी दे ।
हरिया को दो जून की रोटी,
धनिया को रजधानी दे ।
लेखक को कविता की दौलत,
कवि को एक कहानी दे ।
भाषा को आकाश निरन्तर,
शब्दों को कुछ मानी दे ।
चलता रहूँ सदा मैं यारा,
ऐसी मुझे रवानी दे ****
- सात -
टूट गया भ्रम सम्बन्धों का
टूट गया भ्रम सम्बन्धों का।
सुरभित शोभित चपल चाँद ने
घर-आँगन को खूब ठगा,
साँसों में उन्माद जगाकर
सपनों ने दी खूब दगा,
नवयुग की देहर पे अविरल,
मान बढा है अनुबन्धों का।
टूट गया भ्रम सम्बन्धों का।
दूषित है अब यमुना तट भी
लौट गईं घर को गैया,
कान्हा की नीयत बदली है
भूल गईं सुत को मैया,
मानव मूल्य गिरे इस तह तक
बुरा हाल है सम्बन्धों का।
टूट गया भ्रम सम्बन्धों का।
बेसुर हुई बाँसुरी मन की
दिल टूटा , तन क्षीण हुआ,
पंख काटने वाले ही अब
उड़ने की दे रहे दुआ,
चौतरफा बाजार गर्म है,
झूठ कपट के धंधों का।
टूट गया भ्रम सम्बन्धों का।
****
- आठ -
मीत मेरे अब आ भी जा।
फूल खिले हैं मँहका अँगना,
पायल छनके खनके कंगना,
मीत मेरे अब आ भी जा।
भोर हुई कलि-कुल हर्षाया,
दरपन देख जिया शर्माया,
मीत मेरे अब आ भी जा।
घर के कौले कागा बोला
रह रह मेरा मनवा डोला,
मीत मेरे अब आ भी जा।
कजरा महका अलकें बहकीं,
तुम नहीं आए साँसें दहकीं,
मीत मेरे अब आ भी जा।
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- नौ -
होने चली सजन अब रात
होने चली सजन अब रात ।
फूली साँझ बदरवा छाए,
मनवा मेरा भर-भर जाए,
आ भी जा लेके बरसात,
होने चली सजन अब रात ।
पी-पी रोज पपीहा बोले,
पुरवाई देती हिचकोले,
किससे कहूँ हिया की बात,
होने चली सजन अब रात ।
मैं वैरागन हूँ दीवानी,
अंधकार में घिरी जवानी,
झरने लगे फूल और पात,
होने चली सजन अब रात ।
*****
- दस -
अलकों की शीतल छाया में
अलकों की शीतल छाया में,
गीत खुशी के गाता हूँ,
मन ही मन मुस्काता हूँ ।
कुछ नई पुरानी रीत लिए,
कुछ भूले बिसरे गीत लिए,
मृदु साँसों का संगीत लिए,
दुल्हन-सी रात सजाता हूँ ।
मैं गीत खुशी के गाता हूँ ।
एक प्यार भरा संसार लिए,
औ’ फूलों भरी बहार लिए,
कुछ जीने का अरमान लिए,
मैं दुनियाँ नई बसाता हूँ ।
मैं गीत खुशी के गाता हूँ ।
मधुर मिलन की आस लिए,
रूप राशि मधुमास लिए,
अधरों पर मधुर सुहास लिए,
मन-मोहक चित्र बनाता हूँ ।
मैं गीत खुशी के गाता हूँ ।
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(‘टूट गया भ्रम संबंधों का’ गीत संग्रह से उद्धृत )
तेजपाल सिंह ‘तेज’ (जन्म 1949) की गजल, कविता, और विचार की कई किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं- ‘दृष्टिकोण ‘ट्रैफिक जाम है’, ‘गुजरा हूँ जिधर से’, ‘तूफाँ की ज़द में’ व ‘हादसों के दौर में’ (गजल संग्रह), ‘बेताल दृष्टि’, ‘पुश्तैनी पीड़ा’ आदि (कविता संग्रह), ‘रुन-झुन’, ‘खेल-खेल में’, ‘धमा चौकड़ी’ आदि ( बालगीत), ‘कहाँ गई वो दिल्ली वाली’ (शब्द चित्र), पाँच निबन्ध संग्रह और अन्य सम्पादकीय। तेजपाल सिंह साप्ताहिक पत्र ‘ग्रीन सत्ता’ के साहित्य संपादक, चर्चित पत्रिका ‘अपेक्षा’ के उपसंपादक, ‘आजीवक विजन’ के प्रधान संपादक तथा ‘अधिकार दर्पण’ नामक त्रैमासिक के संपादक रहे हैं। स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त होकर आप इन दिनों स्वतंत्र लेखन के रत हैं। सामाजिक/ नागरिक सम्मान सम्मानों के साथ-साथ आप हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार ( 1995-96) तथा साहित्यकार सम्मान (2006-2007) से सम्मानित किए जा चुके हैं। आजकल आप स्वतंत्र लेखन में रत हैं।
सम्पर्क : E-mail — tejpaltej@gmail.com
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