पुस्तक समीक्षा : पुस्तक का नाम : ' राजनीति का समाजशास्त्र ' लेखक : तेजपाल सिंह ' तेज ' प्रकाशक : पराग बुक्स : 9818197222/99...
पुस्तक समीक्षा :
पुस्तक का नाम : 'राजनीति का समाजशास्त्र'
लेखक : तेजपाल सिंह 'तेज'
प्रकाशक : पराग बुक्स : 9818197222/9911379368
पृष्ठ : 168 मूल्य : रु.400/-
राजनीतिक परिवेश का सूक्ष्म विश्लेषण
समीक्षक - ईश कुमार गंगानिया
आज हम ऐसे अजीब दौर से गुजर रहे हैं। यह दौर अवसरवादियों का है, चापलूसों का और जाहिर है कि यह बिकाऊ संस्कृति के पोषकों का भी सुनहरा दौर है। इस दौर में सत्तासीन राजनीतिक दलों को कोई खास मशक्कत भी नही पड़ती। बिकने वाला खुद अपने पर बिकाऊ होने का टैग लगाकर मंडी पहुंच जाता है और बड़े आराम से पालतू होने का रुतबा हासिल कर लेता है। इस पालतू बनने की होड़ में मीडिया, राजनेता, साहित्यकार और अन्य खासोआम पीछे नहीं रहना चाहता। यहां मानवीय मूल्य, नैतिक मूल्य और खुद्दारी जैसे सार्वभौमिक इंसानी मूल्यों का अकाल-सा पड़ता जा रहा है या यूं कहें कि ये विलुप्तिकरण की ओर अग्रसर हैं। देशभक्ति और देशद्रोह की परिभाषाएं सब बदल गई हैं। ऐसे अराजक माहौल में तेजपाल सिंह ‘तेज’ जैसे ज़िदादिल इंसान अपने ज़ज़्बात पर काबू नहीं रख पाते और बिना की अंजाम की परवाह किए बगैर रोज कोई न कोई मोर्चा खोले ही रहते हैं किसी न किसी ‘मैदान ए जंग’ में।
तेजपाल सिंह ‘तेज’ मूल रूप से ग़ज़लकार हैं वे सामान्यत: ग़ज़लें ही लिखते रहे हैं। लेकिन कब यह ग़ज़लकार पद्य की दुनिया से निकलकर गद्य की दुनिया में प्रवेश कर गया पता ही नहीं चला। कहने की जरूरत नहीं कि उनका ग़ज़ल-संसार भी समाज, राजनीति व इंसानियत के पतन की गंदगी को साफ करने के लिए सर्जिकल स्ट्राईक करता रहा है और उनका गद्य-संसार भी यही काम कर रहा है। जहां तक मैं समझ पाया हूं, उनका पद्य से गद्य की ओर प्रस्थान इसलिए हुआ कि उनकी ग़ज़लों की प्रतीकात्मकता मौजूदा परिस्थितियों के अनुरूप ठीक से प्रहार करने व उनका ठीक से पोस्टमार्टम करने में मदद नहीं कर पा रही थी। संभवत: इसलिए उन्होंने गद्य की ओर प्रस्थान किया। ऐसा नहीं है कि वे ग़ज़ल की दुनिया को अलविदा कह चुके है, उनकी शायराना खुराफात भी पूरी शिद्दत के साथ जिंदा है।
तेजपाल सिंह के विषय में यदि यह न बताया जाए कि वे किन-किन समस्याओं से दो-चार होते हुए अपने पैशन को अंजाम दे रहे हैं तो यह उनके प्रति ना-इंसाफी होगी। दरअसल तेजपाल सिंह जी सत्तर का दशक पार करने वाले हैं। शुगर, बल्डपैशर, हड्डियों की लाईलाज बीमारियों के साथ-साथ बुढ़ापा जो अपने आपमें एक मुकम्मल और परमानैंट बीमारी है, से जूझ रहे हैं। लेकिन उनकी जिंदादिली उन्हें बुढ़ापे के साथ उठने-बैठने ही नहीं देती अपितु दौड़ाए रहती है...दिनभर। जहां तक रात का सवाल है, वह भी उनकी अपनी कहां रही है। रात में भी वैचारिक चहलकदमी बनी ही रहती है... नेताओं की बयानबाजी की, लिंचिंग के ठेकेदारों...गुंडे मवालियों की और कभी न खत्म होने वाली घर-परिवार की जिम्मेदारियां भी खूब साथ निभाती हैं जनाब का। मौजूदा पुस्तक का अन्य दर्जनभर से भी अधिक पुस्तकों की फहरिश्त में शामिल होना इनके ‘ज़ज़्बात ए ज़िदादिली’ का ही परिणाम है।
तेजपाल सिंह ने अपनी पुस्तक ‘राजनीति का समाजशास्त्र’ के माध्यम से राजनीति और इसके कारण समाज में फैल रही या फैलाई जा रही अराजकता का अलग-अलग प्रकार विश्लेषण ही नहीं किया है बल्कि इस पर कठोरता से प्रहार भी किया है। तेजपाल सिंह उस राजनीतिक जमात को आड़े हाथों लेते हैं जो बाबा साहब डा. अम्बेडकर के मानमर्दन के लिए लिखी गई पुस्तक ‘वर्शिपिंग ऑफ फाल्स गोड’ के लेखक को मंत्रालय देकर महिमामंडित करते हैं। लेकिन आज उसी राजनीतिक जमात के पैरोकार और उनका तथाकथित माई बाप आर एस एस जैसा संगठन भी यू-टर्न लेकर उनकी शान में कसीदे काढ़ने का कोई मौका नहीं गवांता। तेजपाल सिंह अपने आलेखों में राजनीति को दलितों के वोट बैंक पर डाका डालने वाले, जनता को गुमराह करने और राजनीति के इस कुटिल तर्कशास्त्र को जबरदस्त तरीके से एक्सपोज करते हैं। इतना ही नहीं वे डा. अम्बेडकर के राष्ट्रवादी होने के मुद्दे को जोरदार अंदाज में उठाते हैं। इस सबके पीछे उनकी मंशा दलित समाज और दलित समाज के बुद्धिजीवियों को ऐसे षडयंत्रों से आगाह करते हैं और मुखोटा संस्कृति को बेनकाब करने की निरंतर जद्दोजहद करते हैं।
‘जाति’ भारत का ऐसा कोढ़ है कि यदि आप अपने नाक, आंख व कान कितनी भी जोर से क्यूं न बंद कर लें और अपने आपको कितने ही आधुनिक व जबरदस्त सेनेटाईज़र की मदद से कितना ही फुल-प्रूफ कवच क्यूं न बना लें लेकिन जाति की छूत जातिवादी समाज के दिलो-दिमाग से क्षणभर में इधर से उधर होती ही रहती है। परिणामस्वरूप, यह आर्थिक, सामाजिक, बौद्धिक व राजनीतिक जगत ‘जाति के कोढ़’ से अछूता नहीं रह पाता। तेजपाल अपने आलेखों के द्वारा बड़े साहस से बताते हैं कि किस प्रकार देश के प्रधानमंत्री और प्रधानमंत्री ही क्यूं देश के सर्वोच्च पद यानी राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के चयन के मामले भी कितने घिनौने अंदाज में ‘जाति’ का कार्ड खेला गया। चयन ही क्यूं निर्वाचन की पूरी प्रक्रिया में भी ‘जाति’ का भूत निरंतर दलित समुदाय और देश की अस्मिता को कैसे निरंतर तार-तार करता रहा। इतना ही नहीं, तेजपाल सिंह ऐसी घटिया कारनामों के पीछे की मानसिकता के सच को भी अपने आलेख में जगजाहिर करने से नहीं चूकते। यह उनकी बेबाकी, अदम्य साहस और लेखन के प्रति ईमानदारी का जीता जागता ठोस प्रमाण है।
नोट बंदी और उत्तर प्रदेश के 2017 के चुनाव को लेकर विभिन्न राजनीतिक दलों ने जिस प्रकार का नंगा नाच किया है और लोकतांत्रिक मूल्यों के साथ किस प्रकार सामूहिक बलात्कार किया है, उस पर भी तेजपाल सिंह की पैनी नजर लगातार बनी रही है। उन्होंने अपने निबंधों के द्वारा इन सब मामलों की जो तस्वीर अपनी लेखनी से प्रस्तुत की है, वह काबिल ए तारीफ है। जब मुख्यधारा का प्रिंट और इलैट्रानिक मीडिया सत्तासीन पाटियों के पक्ष में अपने नमक का हद अदा कर रहा था तब अनेक स्वतंत्र पत्रकार रहे हैं (जो बिकाऊ व चापलूस संस्कृति का हिस्सा नहीं बने) जिनमें से तेजपाल सिंह भी एक हैं, जिन्होंने ईमानदार पत्रकारिता के खतरों से दो-चार होते हुए भी अपनी लेखनी की पैनी धार बराबर बरकरार रखी और खासोआम को आईना दिखाने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं छोड़ी। इस अदम्य साहस के लिए तेजपाल सिंह निस्संदेह साधुवाद के पात्र हैं।
तेजपाल सिंह के निशाने पर हर वह मुद्दा रहा जो किसी समुदाय विशेष, जाति विशेष, धर्म विशेष के मामलों में अनावश्यक घुसपैठ करने का दुस्साहस करता रहा है। वे अपने आपको ऐसे किसी भी ज्वलंत मुद्दे पर अपनी प्रतिक्रिया दिए बगैर अपने आपको रोक नहीं पाते हैं। अपनी निरंतर प्रतिक्रिया देते रहने के चलते उन्हें ऐसा भ्रम भी होता है कि कहीं वे रिएक्शनरी यानी प्रतिक्रियावादी तो नहीं हो रहे हैं। वे इसके लिए आत्ममंथन भी करते हैं। यह एक जिम्मेदार लेखक का धर्म है। यदि उनके कार्यकलापों पर गौर करें तो वे निरे प्रतिक्रियावादी नहीं हैं। कारण साफ है कि उनकी प्रतिक्रिया सकारात्मक है, रचनात्मक है और बेहतर समाज निर्माण की भावना से ओतप्रोत है। पाठकों को अपनी बात समझाने के लिए मैं यहाँ उनके कुछ लेखों के शीर्षक देना जरूरी समझता हूँ ताकि पाठक को किसी प्रकार का भ्रम न रहे और मेरे विचार के साथ सहमति बनाने में संशय के घेरे से बाहर आ सके। यथा -
> कसौटी पर दलित लेखक संघ ;
> बाबा साहेब के ब्राह्मणीकरण की साजिश;
> सर्जीकल स्ट्राइक : मोदी का इलेक्शन मिशन;
> आज का राष्ट्रवाद : एक राजनीतिक प्रपंच;
> मीडिया की निष्पक्षता सवालों के घेरे में;
> शासन - प्रशासन ही नहीं, धर्म गुरु भी भ्रष्ट...
ऐसे तीक्षण लेखों के जरिए तेजपाल सिंह का यह बेहतर समाज का निर्माण की अवधारणा मानव कल्याण की दिशा में उठाया गया एक महत्तवपूर्ण कदम है। मुझे लगता है कि तेजपाल सिंह को अपनी ऐसी सकारात्मक व रचनात्मक प्रतिक्रियाओं को निरंतर किसी न किसी रूप में देते रहना चाहिए। उनके प्रतिक्रिया के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आए सभी लेख उनकी लेखकीय जिम्मेदारी और ईमानदारी के परिचायक है। इसलिए मुझे लगता है कि उन्हें इस मामले में पीछे मुड़कर देखने की जरूरत नहीं है।
वैसे ऐसा लगता नहीं है कि तेजपाल सिंह आत्ममंथन की प्रक्रिया में कहीं विचलित हुए हैं। यदि ऐसा हुआ होता तो उनकी कलम इतनी बेबकी से कभी नहीं चलती। चाहे मुद्दा लव जिहाद का हो, गोरक्षा का हो, राम मंदिर निर्माण का हो, हिन्दुत्व का हो, राष्ट्रप्रेम का हो या किसी हिन्दू-मुसलमान का हो, हर विषय पर उनकी कलम हमेशा पूरी ईमानदारी व जिम्मेदारी से जमकर चली है और चल रही है। स्पष्ट है कि आत्ममंथन की कसौटी पर भी वे खरे ही उतरे हैं। मौजूदा पुस्तक में तेजपाल सिंह के चौबिस निबंध शामिल है। इन निबंधों के शीर्षक और इनकी विषय वस्तु बताते हैं कि तेजपाल सिंह का वैचारिक कैनवास कितना व्यापक, कितना वैविध्यपूर्ण और कितने शूक्ष्म विश्लेषण पर आधारित है।
गौरतलब यह भी है कि उनका प्रत्येक निबंध किसी न किसी अखबार, पत्रिका, वैब-पोर्टल पर कम से कम एक बार अवश्य प्रकाशित हुआ है। यह प्रमाणित करता है कि उनके लेखन में दम है। कहना जरूरी है कि यह दम ऐसे ही किसी निजी संबंधों पर आधारित नहीं है। यदि ऐसा होता तो इन निबंधों में वह बेबाकी व साहस नहीं होता जो मौजूदा शुरु से आखिर तक मौजूद है। मैं आने अपने निजी व लेखकीय संबंधों के आधार पर इतना दावे से कह सकता हूं कि तेजपाल सिंह किसी व्यक्ति, संस्था व राजनीति के पैरोकारों से डिक्टेट होकर नहीं लिखते हैं। यह उनका मूल लेखन है और उनके अंतर्मन की आवाज है जो बेबाब है, निर्भीक है, नि:स्वार्थ है और समसामयिक कसौटी पर खरी उतरती है। मैं इस आवाज के और अधिक मुखर और बहुआयामी होने की कामना करता हूं। मैं तेजपाल सिंह 'तेज' को इस विचारोत्तेजक पुस्तक के लिए ह्रदय से साधुवाद देता हूं। उम्मीद करता हूं कि यह पुस्तक पाठकों के मन-मस्तिष्क में जगह बनाएगी। विभिन्न विषयों पर लिखे गए और एक साथ संग्रहित ये निबंध निस्संदेह पाठक वर्ग में एक नई ऊर्जा के संचार में सहायक होंगे।
(समीक्षक एक ख्यात आलोचक-समीक्षक है)
लेखक परिचय :
तेजपाल सिंह ‘तेज’ (जन्म 1949) की गजल, कविता, और विचार की कई किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं- ‘दृष्टिकोण ‘ट्रैफिक जाम है’, ‘गुजरा हूँ जिधर से’, ‘तूफाँ की ज़द में’ व ‘हादसों के दौर में’ (गजल संग्रह), ‘बेताल दृष्टि’, ‘पुश्तैनी पीड़ा’ आदि (कविता संग्रह), ‘रुन-झुन’, ‘खेल-खेल में’, ‘धमा चौकड़ी’ आदि ( बालगीत), ‘कहाँ गई वो दिल्ली वाली’ (शब्द चित्र), पाँच निबन्ध संग्रह और अन्य सम्पादकीय। तेजपाल सिंह साप्ताहिक पत्र ‘ग्रीन सत्ता’ के साहित्य संपादक, चर्चित पत्रिका ‘अपेक्षा’ के उपसंपादक, ‘आजीवक विजन’ के प्रधान संपादक तथा ‘अधिकार दर्पण’ नामक त्रैमासिक के संपादक रहे हैं। स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त होकर आप इन दिनों स्वतंत्र लेखन के रत हैं। सामाजिक/ नागरिक सम्मान सम्मानों के साथ-साथ आप हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार ( 1995-96) तथा साहित्यकार सम्मान (2006-2007) से सम्मानित किए जा चुके हैं। आजकल आप स्वतंत्र लेखन में रत हैं।
सम्पर्क : E-mail — tejpaltej@gmail.com
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