पुस्तक समीक्षा : पुस्तक का शीर्षक : मौजूदा राजनीति में लोकतंत्र लेखक : तेजपाल सिंह ‘तेज’ प्रकाशन वर्ष : 2019 प्रकाशक : पराग बुक्स : पृष्ठ ...
पुस्तक समीक्षा :
पुस्तक का शीर्षक : मौजूदा राजनीति में लोकतंत्र
लेखक : तेजपाल सिंह ‘तेज’
प्रकाशन वर्ष : 2019
प्रकाशक : पराग बुक्स :
पृष्ठ : 112 मूल्य : रु.300/-
मौजूदा राजनीति में लोक से विमुख होता लोकतंत्र
समीक्षक : ईश कुमार गंगानिया
तेजपाल सिंह ‘तेज’ जिन्हें अक्सर लोग टी. पी. सिंह के नाम से ही जानते हैं, मूल रूप से ग़ज़लकार हैं, कवि हैं और बाल-गीत लिखने वाले कोमल हृदय व्यक्तित्व के धनी हैं. उनके ग़ज़ल व काव्य संसार में प्यार-मुहब्बत के आग्रह के साथ-साथ .... संघर्ष और निरंकुश समाज के प्रति अर्थात उनके साहित्यिक संसार में व्यवस्था के विरुद्ध तेवरों की भी कोई कमी नहीं है. लेकिन मेरे लिए विचारणीय बिंदू यह है कि तीन-चार सालों में ऐसा क्या हो गया कि तेजपाल सिंह ‘तेज’ को अपनी 65 वर्ष से भी अधिक आयु के चलते अपनी पद्य की उर्वरा जमीन को छोड़कर गद्य में आना पड़ा. मौजूदा पुस्तक में संकलित आलेखों को पढ़ते हुए, मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि जो कुछ वह अपने आलेखों के माध्यम से कह पा रहे हैं, वह संभवत: पद्य की प्रतीकात्मकता के चलते संभव नहीं हो पाता. इन आलेखों से गुजरते हुए, ऐसा प्रतीत होता है कि वे मौजूदा व्यवस्था में ऐसा कुछ देख रहे हैं जिसके लिए संवाद जरूरी है. इसका विरोध/असहमति जरूरी है. शासन और प्रशासन की समाज विरोधी गतिविधियों में परिवर्तन जरूरी है क्योंकि लोकतंत्र व लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए यह नितांत आवश्यक है.
मौजूदा पुस्तक में वे अन्ना हजारे को आरक्षण के मामले में कठघरे में खड़ा करते हैं और व्यंग्य करते हैं कि अन्ना हजारे का जब लोकपाल बम फुस्स हो गया तो अनुसूचित/अनुसूचित जनजातियों को प्रदत्त संवैधानिक आरक्षण के विरोध पर उतर आए. यह साफ बताता है कि हर मामले में ठींकरा कमजोर के सिर ही फूटता है. यही नहीं, लेखक दलित तुष्टिकरण के मामले को बेनकाब करते हुए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री तक की क्लास लेते हुए करारा प्रहार करते हैं कि किस प्रकार सत्ता के लालची दलित महानायकों को अपना बनाने की कोशिश करते हैं और जनता को गुमराह करते हैं. सत्ता द्वारा ऐसा ही तथागत बुद्ध के बारे में, रैदास के बारे में, कबीर के बारे में और अब डा. अम्बेडकर के बारे में भी षडयंत्र जारी है ताकि इन्हें वर्णवाद और जातिवाद के खांचे में फिट किया जा सके. इन्हें हथियाकर अपना और अपनी पार्टी का राजनीतिक हित सुरक्षित किया जा सके.
आज इक्कीसवीं सदी में भी इनके कुतर्कों का निरंतर पर्दाफास होने के बावजूद भी सत्ता लोभी राजनेता अपने चारित्रिक ओछेपन से बाज नहीं आते हैं. यद्यपि दलित बुद्धिज्म के अनुयायी होने के नाते इनसे काफी दूरी बनाए हुए हैं और पुरोहिती संस्कृति का जमकर विरोध भी करते हैं. लेकिन एक षडयंत्र के तहत केरल में दलितों को पुरोहित बनाया गया. लेकिन मि. सिंह ने इनके षडयंत्रकारी मनसूबों को जगजाहिर करते हुए बताया है कि कैसे इन्होंने इस दलित पुरोहित को ऐसी जगह का पुजारी बनाया है जहां आर्थिक आमदनी कम है. जहां अधिक लोग इस्लाम में या इसाईयत में धर्मांतरित हैं या बुद्धिज्म के अनुयायी हैं. इनकी मंशा साफ हैं कि पार्टी विशेष के लोग ऐसे उपक्रम करने में बराबर सक्रिय है जिनसे इन प्रगतिशील दलितों को फिर से हिन्दूवाद के विवेकहीन खूंटे से बांधा जा सके और हिन्दूवाद का अंध-भक्त बनाए रखकर इनका इस्तेमाल अपने राजनीतिक और धार्मिक हित साधने के लिए किया जा सके.
आज व्यापक तौर पर पूरे देश में यह तस्वीर बनी हुई है कि मीडिया डरा हुआ है या फिर बिका हुआ है और सत्ता के विरुद्ध बोलना उसके लिए खतरे से खाली नहीं है. लेकिन लेखक है कि बेबाक अंदाज में संविधान समीक्षा या संविधान के साथ छेड़छाड़ की मंशा को लेकर, चुनावों के एक साथ कराए जाने को लेकर या मेक इन इंडिया के बहाने पकौड़े तलने जैसे मामलों को जस्टीफाई करने वालों पर जमकर कलम चलाता हैं और उनकी खुलकर अच्छी खबर लेता हैं. लेखक बेहद निर्भीक अंदाज में संवाद ही नहीं करता बल्कि खुलकर सवाल भी खड़े करता है.
आजकल दलित नेताओं पर भाजपा व अन्य पार्टियों के हाथों बिकने के अनेक आरोप व उदाहरण हमारे बीच मौजूद हैं. लेखक ऐसी बिकाऊ संस्कृति से बेहद आहत है और किसी भी दलित नेता के प्रति राजनीतिक विरोधियों की जरा सी भी हमदर्दी या कोई विशेष ट्रीटमैंट भी उनके कान खड़े कर देता है. ऐसे बिकाऊ माहौल में अभी नए-नए राजनीति में आए जिग्नेश मेवाणी उनके निशाने पर आ जाते हैं और अस्तित्व में आता है ‘जिग्नेश कहीं प्रायोजित दलित नेता तो नहीं...’ जैसा आलेख. अगर आज का दलित ऐसे जागरुक नहीं होगा तो उसकी ऐसी नासमझियों का खामियाजा आने वाली पीडि़यों को भुगतना ही पड़ेगा. ऐसा करना किसी भी जागरुक व जिम्मेदार नागरिक व लेखक का मौलिक धर्म होता है और मि. सिंह इस मामले में काफी सचेत नजर आते हैं.
मौजूदा परिस्थितियों में मुसलमानों व दलितों के साथ अमानवीय अत्याचार का बाजार काफी गर्म है. वर्तमान में मॉब-लिंचिंग एक बेहद भयंकर महामारी का रूप लेती जा रही है. यहां किसी भी व्यक्ति को जो सत्ता की नीतियों से इत्तेफाक नहीं रखता, वह देशद्रोही करार दे दिया जाता है. सता पक्ष के चहेतों द्वारा उसे पाकिस्तान भेजने के तानाशाही फरमान जारी कर दिए जाते हैं. उस पर उल्टे-सीधे आरोप चस्पा कर दिया जाना व उसके पूरे परिवार को ट्रोल करना आज की सत्ता की देशभक्ति हो गई है. ऐसे में एक सीनियर सिटीजन द्वारा देशभक्ति के नाम पर गुंडई पर इतनी दबंगई से आवाज उठाना बड़ी बात है. यह जज्बा तेजपाल सिंह को एक जिम्मेदार नागरिक ही नहीं, एक संवेदनशील लोकतंत्र के सशक्त प्रहरी की श्रेणी में लाकर खड़ा करता है. मुझे यह जज्बा एक सीमा पर तैनात सिपाही की देशभक्ति से किसी भी तरह कमतर नहीं लगता.
यद्यपि ये सभी आलेख फारवर्ड प्रेस, दलित दस्तक, साझा मकसद, स्वराज खबर, पड़ताल वैब-पोर्टल आदि किसी न किसी समाचार पत्र / वेब पोर्टल में प्रकाशित हो चुके हैं, तथापि इनकी विषयवस्तु, लेखक की भाषा शैली जिसमें व्यंग्य व प्रहार बेहद उल्लेखनीय है, ने पाठक वे बड़े वर्ग का प्रभावित किया है. लेकिन इनका एक साथ किसी पुस्तक में आना यकीनन तेजपाल सिंह ‘तेज’ की सोच की एक मुकम्मल तस्वीर प्रस्तुत करता है. यह लेखक को समझने में मदद करती है और मेरा मानना है कि मौजूदा परिस्थितियों के मूल्यांकन में भी काफी सार्थक सिद्ध होगी. मौजूदा परिस्थितियों के मूल्यांकन के आधार पर ही व्यक्ति समाज व देश के प्रति अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह कर सकता है. इस मायने में तेजपाल सिंह ‘तेज’ की प्रस्तुत पुस्तक बेहद प्रासांगिक व स्वागत योग्य है. संक्षेप में कहा जाए तो उनकी प्रस्तुत पुस्तक ‘मौजूदा राजनीति में लोकतंत्र’ शासन-प्रशासन के विरुद्ध एक संघर्षपूर्ण व धारदार स्वर है. मैं इस महत्ती कार्य के लिए साधुवाद देता हूं और उम्मीद करता हूं कि पाठको में बीच में यह अपनी अलग पहचान बनाएगी.
लेखक का मानना है कि इस पुस्तक में संकलित आलेखों में शासन-प्रशासन की कार्यविधि व सोच से असहमतियां हैं, तो संघर्ष भी. संघर्ष और असहमति के बीच कुछ ज्यादा अंतर नहीं होता किंतु यह भी जरूरी नहीं कि एक असहमति संघर्ष में बदल जाए. जब आप किसी से असहमत हैं तो यह निश्चित है कि आप भी अपनी एक निजी राय रखते हैं. इससे कोई सहमत हो, ये भी जरूरी नहीं. मैं समझता हूँ कि असहमति एक बुरी बात नहीं है. इसे एक फीडबैक के रूप में देखा जाना चाहिए. असहमति एक बड़ी लड़ाई के लिए नेतृत्व करने के लिए नहीं, अपितु शासन-प्रशासन को मानव मूल्यों, उसके हितों और गरीब और निरीह समुदायों, समूहों, जातियों और संगठनों के बीच तालमेल बिठाने के लिए एक वैचारिक विवाद / प्रयास है, ताकी परस्पर विचारमंथन के लिए अवसर पैदा हो सकें, से बिना किसी वाद-विवाद के सहमत हुआ जा सकता है किंतु इसके लिए बिना किसी पूर्वाग्रह / दुराग्रह विचार करने की आवश्यकता है।***
(समीक्षक कवि, कहानीकार व ख्यात आलोचक हैं)
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पुस्तक के लेखक तेजपाल सिंह ‘तेज’ (जन्म 1949) की गजल, कविता, और विचार की कई किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं- ‘दृष्टिकोण ‘ट्रैफिक जाम है’, ‘गुजरा हूँ जिधर से’, ‘तूफाँ की ज़द में’ व ‘हादसों के दौर में’ (गजल संग्रह), ‘बेताल दृष्टि’, ‘पुश्तैनी पीड़ा’ आदि (कविता संग्रह), ‘रुन-झुन’, ‘खेल-खेल में’, ‘धमा चौकड़ी’ आदि ( बालगीत), ‘कहाँ गई वो दिल्ली वाली’ (शब्द चित्र), पाँच निबन्ध संग्रह और अन्य सम्पादकीय। तेजपाल सिंह साप्ताहिक पत्र ‘ग्रीन सत्ता’ के साहित्य संपादक, चर्चित पत्रिका ‘अपेक्षा’ के उपसंपादक, ‘आजीवक विजन’ के प्रधान संपादक तथा ‘अधिकार दर्पण’ नामक त्रैमासिक के संपादक रहे हैं। स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त होकर आप इन दिनों स्वतंत्र लेखन के रत हैं। सामाजिक/ नागरिक सम्मान सम्मानों के साथ-साथ आप हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार ( 1995-96) तथा साहित्यकार सम्मान (2006-2007) से सम्मानित किए जा चुके हैं। आजकल आप स्वतंत्र लेखन में रत हैं।
सम्पर्क : फोन—9911414511 : E-mail — tejpaltej@gmail.com
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