कवि-परिचय रतन लाल जाट S/O रामेश्वर लाल जाट जन्म दिनांक- 10-07-1989 गाँव- लाखों का खेड़ा, पोस्ट- भट्टों का बामनिया तहसील- कपासन, जिला- च...
कवि-परिचय
रतन लाल जाट S/O रामेश्वर लाल जाट
जन्म दिनांक- 10-07-1989
गाँव- लाखों का खेड़ा, पोस्ट- भट्टों का बामनिया
तहसील- कपासन, जिला- चित्तौड़गढ़ (राज.)
पदनाम- व्याख्याता (हिंदी)
कार्यालय- रा. उ. मा. वि. डिण्डोली
प्रकाशन- मंडाण, शिविरा और रचनाकार आदि में
शिक्षा- बी. ए., बी. एड. और एम. ए. (हिंदी) के साथ नेट-स्लेट (हिंदी)
ईमेल- ratanlaljathindi3@gmail.com
(1) कविता-"दीन-देहाती की करूण-गाथा"
जरूरत है उस कर्म क्षेत्र की,
जो कर्म का सन्देश दे॥
जिन्दगी कठिन मेहनत से जीता।
धनिकों के धन -वैभव से न्यारा॥
ऐसी दीन-देहाती की करूण-गाथा॥
न शान-शौकत, न ऐशो-आराम।
बस अपनी जरुरतों को,
पूरा करने का बाकी है सवाल॥
बस, डर है उन नन्हें-मुन्नों का।
क्योंकि पालना है जीवन उनका॥
ऐसी दीन-देहाती की करूण-गाथा॥
जरूरत है उस कर्म क्षेत्र की,
जो कर्म का सन्देश दे॥
उस प्यासे चमन जैसी,
जिसकी जड़ों को भेदता है कीड़ा।
उस दर्द-भरी पीड़ा से, वो नहीं है खिला॥
दिन-रात कंठकों के होते हैं यहाँ।
ऐसी दीन-देहाती की करूण-गाथा॥
जरूरत है उस कर्म क्षेत्र की,
जो कर्म का सन्देश दे॥
मत खोना बुलन्द हौसला।
रख जीवन-पथ पर चलना का जज्बा॥
पराजित हो जायेगी मुश्किलें।
जाग उठेगी आशा की किरणें॥
याद रखना जीवन-मंत्र यही।
हटना नहीं जीवन-डगर से कभी॥
ऐसी दीन-देहाती की करूण-गाथा॥
जरूरत है उस कर्म क्षेत्र की,
जो कर्म का सन्देश दे
- रतन लाल जाट
(2) कविता-"पौष की प्रभात"
मौसम था सुहाना, किसको अच्छा नहीं लगता?
ठिकानों के लिए एक त्योहार-पर्व के जैसा॥
उस दिन कई व्यंजन पकते हैं।
पर, प्रकृति के रंग कितने बदलते?
पौष की प्रभात हिमरूपी परिधान धरे।
दीन-बन्धुओं के यहाँ न कोई उल्लास है॥
बस, उनको तो प्रभात होते ही,
जीवन-पथ की राह है खोजनी।
भूख मिटानी है उदर की,
इसीलिए चलना है डगर काँटों की॥
वो मार्ग की विघ्न की बाधाओं से ना डरते हैं।
श्रम करते-करते जब दिवस का अवसान हो जाये॥
तब राह ढूँढ़ते हैं अपने खण्डहर झोंपड़े की।
इसके विपरीत ठिकानेदार शोभा बढ़ाते हैं पर्व की॥
चारों तरफ पौष की प्रभात छायी है।
सभी के मन को वो खूब भायी है॥
एक तरफ बढ़ता है सम्मान महलों में।
उधर झेलते हैं लोग कष्ट तरह-तरह के॥
देखा है यह क्रुर-नजारा।
झेलता है दुःखी इन्सान बेचारा॥
नहीं सुहाना लगे मुझे भगवन्।
इन दरबारों का एश्वर्य-जीवन॥
सहसा कठिन-डगर पर मैंने भी,
अगले ही क्षण कदम बढ़ाये तभी।
ऐसा विषम जगत्, तो भी है ना गम।
फिर कैसे कहें कि- मानव हैं हम॥
- रतन लाल जाट
(3) कविता-“नवतरू"
जद् माटी में दाना डाला।
हजारों मंशाओं के साथ भला॥
कितने दर्दिले स्वर से।
कठिन कर्म-बल से॥
नवल अंकुर उग आई।
कोमल कोंपल खिल गई॥
संग-साथ हरीतमा के,
फिर क्या कहनी बात है?
कितनी पीड़ा में पला था?
कौन जाने इसकी व्यथा?
संजोया था सपना,
अनमोल ख्वाबों से सजा।
सोने-से चमन देगा,
हीरे-से फल देगा॥
नहीं है कोई ऐसी कामना।
दोषी है आज यह जमाना॥
पला था एक अभिलाषा के साथ।
मन में भी थी विलक्षण बात॥
फिर कहाँ से वो कंठीला
ताड़ बनकर बड़ा हुआ?
जो देता न बीज, न सुमन
खुद पर बनाये हैं एक भ्रम
अब क्या बची है इच्छा?
कोई अरमान नहीं शेष अपना॥
वो कोप-तुषारापात करता है पर
नहीं जानता है अपना उपहार अब
बस, कामना यही एक मेरी।
खता है नहीं कोई तेरी॥
जमाने का रंग है ऐसा।
नाराजगी का रूप है वैसा॥
अब और क्या कहूँ?
या सबकुछ भूल जाऊँ।
कुछ प्राप्त करने की ललक थी।
क्या अब वो कभी पूरी हो सकेगी?
- रतन लाल जाट
(4) कविता-“झपट पड़े"
कुछ तिनका पाने की आशा
निकली है एक गाय अबला
तपती धूप में, चलते हुए हाँफ रही है
एक सुन्दर-खेत जहाँ खड़ा पहरेदार है
वहाँ पहुँचते ही उस पर झपट पड़ा
वो जैसे एक हो शिकारी कुत्ता
देखते ही जिन्दे को निगलना चाहा
वो थके-हाँफते तन पर कौड़े बरसाने लगा
फिर कई धुधकार पायी
मानों अनूठी दुलार पायी
ऐसे दुर्दिन बीता रही है
फिर भी एक तिनका न रही है
हजारों ठोकरें झेलती हुई
रूक-रूककर चली लंगड़ाई
फिर भी जैसे पाया है ऊँची मानवता का प्रेम
ए मेरे पालनकर्त्ता देव ऐसे और हैं क्या स्वर्ग
जहाँ मिलता है ऐसा दुलार
वहाँ से आती है ऐसी पुकार
इंसान को सद्कर्मों से
यह अनमोल जीवन मिला है
फिर भी कमा रहा है ना यश-मान
ऐसे और कितने हैं माँ तेरे प्यारे लाल
जो इस धेनु पर बरसा रहे हैं उपकार
महिमा हो उनकी,
कैसे मिलेगी मुक्ति
फिर भी निभा रहे हैं वो जैसे अहिंसा-धर्म
ऐसे कर रहे हैं आज मानव कर्म
- रतन लाल जाट
(5) कविता-“किसान! तुझे कौन जानता?”
तू खून-पसीना बहाता
पर्वत को मैदान बनाता
जब खेत में दाना डाले
तो अपने देव को सुमरे
सो जतन करने के बाद भी
इन्द्र की कृपा पर किस्मत बनती
जब मेघों से घनघोर बारिश हो
तब नयी आशा बँधे उसको
यहीं से शुरू होती है एक गाथा
किसान! तुझे कौन जानता?
कंधे पर कुदाली रखे
खेतों में नव-जीवन डाले
खून-पसीने से जब तेरे
खेत हो जाता तर है
तब नव-अंकुर निकलता
मन ही मन हर्षाल्लास भरता
सपना सँजोये फसल पकने का
इसी इन्तजार में थक जाता
किसान! तुझे कौन जानता?
अन्न पकता है पीकर पसीना
फिर दिन-रात रखवाली करता
घर बनाता है खेत पर ही
टूटी-फूटी कुटिया में झेलता है सर्दी
शरीर ठिठुरता है हिम-वेग से
काया को साँचे में वो ढ़ाले
सो जतन के बाद फिर
फसल रस-बस जाये सदा
किसान! तुझे कौन जानता?
अन्त समय में वो जाये
खेत पर फसल कटाई करने
अपने हाथों को चलाये यंत्रवत
वही पुरानी बैलगाड़ी है उसके संग
जो फसल को खेत से खलिहान लाये
निकालकर अन्नदेव घर-कोठी में भरे
उस वक्त वो फूला नहीं समाता
किसान! तुझे कौन जानता?
जो मिले उसमें ही सब्र करे
पेट-गुजारा भी होये उसी से
फिर कभी जो कुछ बच जाये
उसे महाजन के हाथ बेंच दे
कितनी ही चालें और अटकलें
खून की कीमत कौड़ी बताये
फिर भी वो सब स्वीकार करता
किसान! तुझे कौन जानता?
पैसे माँगे, तो फटकार मिले
सेठ के घर जा-जाकर थक जाये
हजार को सैंकड़े में पाये
फिर जो आये हाथ उसके
वो उसे चुकाये कई जनों में
सब कुछ वो चुपचाप सहता
किसान! तुझे कौन जानता?
जाये तो जाये कहाँ
ऊपर धरती नीचे आसमां
हर ठौर पर संकट झेले
यहाँ न उसका कोई है
धीरता धरते एकदिन देह छोड़ जाता
किसान! तुझे कौन जानता?
- रतन लाल जाट
(6) कविता- “जेठ की लपेटों के बीच"
तपता है अवनि-तल, आग उगलता है रवि-प्रचण्ड।
श्वेत है आसमां, शिथिल है आज चन्द्रमा।
रूक-रूककर श्वाँसें, लेती है हवा जोर-से।
निश्चल-स्थिर बन भूधर है खड़ा।
कहीं नहीं कोई छोर है उसका॥
आये हैं यहाँ कई सारे ग्वाले।
संग गायों की टोलियाँ हैं॥
जलती ज्वाला को मात दे,
आगे नयी राह पर निकली है।
न वहाँ झरमर रूँख है,
न ही ठहरने की कोई ठौर है॥
मटकी से प्यास बुझती नहीं।
कौंधा हुआ सूरज परखता है सही॥
खून को पसीना बनाकर बाहर निकालता।
दिनकर का उग्र-रूप,
कुछ देर बाद हो जाता थम।
आखिर किरण के साथ वो डूब जाता।
तो ग्वाले देखकर उसे रूकते नहीं हँसना॥
फिर पूछते कि- जल्दी कैसे हुई सूरज भैया।
क्षणभर और रूकते तुम, तो अच्छा था॥
तेरा राज अमर है, फिर भी निश्चित पहर हैं।
बिना रूके सब गोपाल लौटे टोली के साथ।
उड़ती हुई धूल लग रही थी जैसे है गुलाल॥
आज निकले नीले-अम्बर के नीचे।
सरिता के किनारे धीरे-धीरे॥
उन पर शशि श्वेत-बर्फ बरसाये।
सूरज डरकर कहीं दूर जा छिप जाये॥
स्तब्ध धरती, मंद समीर।
अर्द्धनिशा में करती पुकार॥
ग्वाला संग टोली के ठिकाने पहुँचा।
अति-अजब भाव के साथ है एक पीड़ा॥
- रतन लाल जाट
(7) कविता-“भिखारी क्यों?”
इन फटे-पुराने चीथड़ों में रोता-बिलखता
खड़ा है एक स्थल पर कोई बेचारा
दुनिया के रंगों को लाचारी से स्वीकारता
जुझ रहा है धन-दौलत के बिना
वह भिखारी है,
मगर नहीं फैला रहा हाथ अपने।
अपने दिल का वो राजा है,
जो इन बाधाओं से लड़कर
आगे बढ़ रहा है,
झोंपड़े से निकलकर
बाहर कर्म-स्थल की कर रहा है खोज
नहीं पायी है किसी की छत्र-छाया उसने
राह ढूँढ़ी है खेत-खलिहानों और कार्यालयों से आगे
जग का नाता तोड़
पीस रहा है कानून की ओट
और वह गुजार रहा जिन्दगी
किसी से रोटी, कपड़ा और मकान माँगता नहीं
भिखारी तन से हैं, किन्तु इसमें कोई अचरज नहीं
इस जहां का मालिक, क्योंकि अपने मन का है धनी
वह किसी बंधन में जकड़ा है नहीं
उसके आगे दरवाजे खुले हैं सभी
फिर भी कह रही है दुनिया
बार-बार उसको भीखमंगा
कब रूकेगी यह पुकार
इसके आगे जल रहा संसार
नहीं देखता है कोई भू-तल
सब चाहते हैं अन्तरिक्ष में सैर
ऐसे लोगों की बराबरी तुम करना नहीं
एकदिन बुझी चिंगारी पुनः सुलग उठेगी
जगमग हो जायेगा यह जहां
जब हमने कर्मवीरों को पहचान लिया
उस वक्त यह माटी बन जायेगी
सोने से महँगी और हम सच्चे हिन्दुस्तानी
फिर नया सूरज उग आयेगा
और उसकी किरणें हर लेगी
भोग-विलास रूपी तिमिर
अब पहचान लो, उसे जो है भिखारी
- रतन लाल जाट
(8) कविता-“जागरूकता"
हे देश के कर्णधारों!
मानवता के खातिर मर मिटो।
आसमां ललकार रहा है तुमको,
अपने सर्व समर्पित कर दो॥
अग्नि नया तेज जगाती।
पवन एक लोरी सुनाती॥
फिर कब से तुम?
धीर-क्षीर बन बैठे हो।
त्याग दो इन बंधनों को॥
धारण करो तुम केसरिया बाना।
फिर गुनगुनाओ एक तराना॥
उस सिंह के समान,
जिसके आगे काँप उठे
सकल जीव-निर्जीव।
तब मिलेगा तुमको ऊँच-आसन
और उपजेगा जग-हित रे मानव॥
यही लोक बदलता है।
कभी स्वर्ग और नरक बनके॥
निश्चय ही झेलना पड़ता है सभी को,
निशाचरों का संताप और भार।
मिट्टी के ढ़ेर से कभी,
डरना नहीं तुम आज॥
हमेशा लड़ते रहना,
तुम हो वीर-सपूत।
उस भूधर के समान,
दृढ़ और बनकर मजबूत॥
इसी पुकार के साथ कस लो कमर
फिर उठाओ करों में एक कृपाण
ताकि विनाश हो जाये दुष्टों का
और उद्धार पाये अपनी धरा
तब नव-मानवता का बीज अंकुरित होगा।
चारों ओर नव-आलोक के साथ
अपना यह लोक स्वर्ग बन जायेगा॥
- रतन लाल जाट
(9) कविता-“चुनाव से पहले"
सुना है कि- नये चुनाव होने वाले हैं।
तभी से कई उम्मीदवार लड़ने को खड़े हैं॥
वो अपना नामांकन भरते ही।
एक नयी लहर फैलाते हैं अगले क्षण ही॥
लोग अपनी-अपनी पार्टी बनाते-बिगाड़ते हैं।
फिर कई दलों में अलग-थलग हो जाते हैं॥
कोई अपनी जाति में,
तो कोई अनपढ़ों में।
करते हैं ढ़ेर सारी बातें,
और जनमत जुटाते हैं॥
पैदल और साईकिलें,
साथ ही बसें और हवाई-जहाजें।
शामिल हो जाती है चुनाव प्रचार में॥
हर मानव का चित्त, जोश के ज्वार बीच।
इस गहन सागर में, तेज-तेज हिलोरें लेता है।
उसमें उठता तूफान, जगा देता है सारा संसार।
कोई ईमानदारों और बुद्धिमानों तक सीमित
तो कोई जाये भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी तक
कहीं गाँव के जमींदार का रोब,
तो कहीं मुखिया के दल का जोर।
हर किसी को वोट डालने को करता है मजबूर॥
किसी को धमकाया जाता है।
तो किसी को बहकाया जाता है॥
यहाँ तक कि- मारना-पीटना आम बात है।
साथ ही धन पानी की तरह बहाया जाता है॥
घर-घर में जाकर बोलते थोथी वाणी
और वादे करते विकासपूर्ण जिन्दगी।
फल-मिठाईयों से तौले जाते हैं नेताजी,
दलों के द्वारा बाँटी जाती है पूरी शराब की पेटी॥
हाँ, यही सच्चे विकासशील
होनहार राजनेता हैं हमारे।
कब करेंगे जनता का भला
यही दशा है चुनाव से पहले॥
बस, राजनेता की नजरें है टिकी।
इस मुल्क को कंगाल करने की॥
- रतन लाल जाट
(10) कविता-“फिर भी मानव"
कोई महान् है या कोई धनवान।
किन्तु फर्क नहीं, सब एक समान॥
भिक्षुक हो या हो गरीब।
सब हैं यहाँ पर नीच॥
फिर भी रखेंगे समानता।
अपनी महानता के बीच सदा॥
जो धनी है, वो महापुरूष भी।
सुन्दर और है पूज्य भी॥
फिर भी मानव और नीच-हीन।
कमीने हो या हो पापी,
फिर भी ना भूले शील॥
कुछ न कुछ तो शेष रहेगा।
क्योंकि बाहर कुछ भी होगा॥
किन्तु रखेंगे अपने भीतर,
मानवता की एक निशानी।
चाहे दबी हुई हो विकृत,
जो सदा के लिए है बची॥
वो कर्म से हीन होकर भी,
समाज से नहीं टूटेगा।
थोड़ा-बहुत पाने के साथ,
कुछ न कुछ तो जरूर देगा॥
कोई जन्म से नीच या अनगढ़ हो।
फिर भी हमारे लिए है बेजोड़ वो॥
जिनके कर्म की और बुद्धि की।
तारीफ हमको खूब करनी होगी॥
वो भी मानव, जो हैं दानव।
बने हैं हिसंक डाकू या वो निर्लज्ज॥
फिर भी मानव है, जहाँ तक जिसकी सीमा।
किन्तु जुड़ा है नाता, मानव और समाज का॥
इनकी भी जरूरत होगी हमको।
कहीं हमारे लिए वो अच्छे हो॥
महानता की भी एक सीमा,
उसके पार सब बराबर है।
हद तक है नीचता,
उसके बाद फिर पूज्यता है॥
आओ, हम आज से ही,
नीच को पास बुलाकर।
शिखर पर खड़े महाशय,
उनको थोड़ा नीचे उतारकर॥
सबको एक साथ मिलाकर खोजे समाधान।
यही होगी हमारी मानवता की पहचान॥
पशु नहीं है, न कीट-पतंगे।
अरे! वो भी मिलकर उड़ते हैं॥
जबकि कोई भी हो, है फिर भी मानव।
निश्चय ही हैं, हम पूज्य-रूप मानव॥
तभी तो कहा जाता है,
मानव जीवन निराला है।
चौरासी लाख योनियों में,
विशिष्ट मानव ही है॥
- रतन लाल जाट
(11) कविता-“दुनिया में कुछ करना है"
विधाता के हाथों दिया हुआ,
अनमोल उपहार है मानव जीवन।
जो अगणित जीवधारियों में,
श्रेष्ठ माना गया है यही एक जीवन॥
दुनिया में कुछ कर जाना है,
तभी जीवन की सार्थकता है।
नहीं तो और क्या?
कितने ही आये, फिर चले गये?
बिना कर्म किये, हम भी चले जायेंगे॥
एकदिन ऐसा आयेगा, जब जीर्णता से ढ़हकर।
नवीन रूप लेगी, यह दुनिया पुनः बदलकर॥
हमें क्या मिला? या औरों को कुछ दिया।
यह भी जीवन था कि- पशु बन हो गुजारा॥
दुनिया में कुछ करना है,
अपना ऐसा नाम लिखना है।
फिर छोड़ जानी है एक पहचान।
जो निशा में तारों के बीच जगमग॥
कुछ नया कर्म किया, वो इतिहास-निर्माता थे।
तभी अवनि-लोक में, मृदु-सुगन्ध फैली है॥
जुड़ जायें हम भी उन शुमारों में।
सदियों तक जिनको याद रखें॥
दुनिया में कुछ करना है,
इसी महानता की कतार में।
एक नाम अपना भी पिरोना है,
माला में हो मोती एक जैसे॥
आये हैं कुछ करने को,
क्यों रूके होड़ से हम?
सभी के बीच रहकर,
लिखेंगे अमरता के अक्षर॥
जिनकी महिमा धूलेगी नहीं,
चौगुनी फलेगी और फूलेगी।
दुनिया में कुछ करना है,
एक-एक क्षण बचाना।
अमूल्य जीवन में,
कुछ करना है नया॥
नयी इमारत का निर्माण,
करने वाले हैं हम शिल्पकार।
जो खड़ी कर देंगे अगणित,
विचित्र मंजिलें और आवास॥
नये इतिहास-निर्माताओं!
दुनिया में कुछ करना है॥
- रतन लाल जाट
(12) कविता-"कुबेर के गढ़ अरबपतियों"
कुबेर के गढ़ अरबपतियों!
नहीं हुई तृष्णा शान्त इतने में।
आप तो क्या? सैकड़ों पीढ़ियाँ भी,
मुश्किल से ही खर्च कर पायेगी।
इधर इतना धन, नहीं है जिसका आरपार।
तरस रहे हैं फूटी कौड़ी के लिए, उधर कई साल॥
क्या सारा सुख-वैभव आप ही पायेंगे?
थोड़ा-कुछ कर दें दान, मानव होने के नाते॥
यदि थोड़ी भी करूणा है।
और दया उमड़कर आये॥
हाँ, अपनी मेहनत और किस्मत के बल।
इन लोगों ने खूब पायी है धन-दौलत॥
हमें कण मात्र भी धन मिल गया।
तो नहीं भूलेंगे कभी यश और मान आपका॥
क्या ऐसा करने पर?
हो जायेंगे आप कंगाल।
क्या नहीं सुनी है कहावत?
समुद्र में कमी नहीं होती जाये बुन्द मात्र॥
बस, इतनी-सी करूणा-दान।
कर देगी कई जनों को खुशहाल॥
जग में हैं परमात्मा,
हम गरीबों के पालनहार।
रतिभर त्याग से,
सन्तुष्ट हो जायेगा संसार॥
फिर क्यों करते हो कंजूसी?
दीन-दुःखियों को दे दो थोड़ा तो सही॥
जब चले जाओगे आप।
धन-दौलत हो जायेगी खाक॥
नहीं तो मरने के बाद।
हम रखेंगे आपको याद॥
स्वर्ग से भी ज्यादा होगी प्रसन्नता।
और पायेगी शान्ति आपकी आत्मा॥
- रतन लाल जाट
(13) कविता-“वो मुस्कान"
नहीं मिला था कुछ दिनों से,
मुझे अपना वो यार।
इतने में विधाता ने कर दिया,
उसके परिवार पर एक साथ दो आघात॥
तीन दिन के भीतर, टूट गया था परिवार।
दादाजी के जाने से छूट गया वो दुलार।
तो भाई के मरने से खो गया दाहिना हाथ॥
तभी उस दिन शाम, पढ़ाई से लौटने के बाद।
जब मैं घर पहुँचा, तब सुनी वो घटना।
और मैं चल दिया, मित्र को देने सांत्वना।
देखते ही मुझे भाप गया, वो हाव-भाव मेरा॥
सहसा रूक गया, वहीं पर जहाँ था।
कुछ कहता उससे पहले, दिखाई दी मुस्कान चेहरे पे।
'यह क्या हो गया?' आगे कुछ न कहा गया।
किन्तु आश्चर्य था, अभी जो हुआ।
वह कहाँ छिप गया? साहस सामने आ गया॥
भूल गया अपनी वेदना-पीड़ा,
क्योंकि उसका है कोई सखा।
यह नियम है विधाता का,
फिर कौन इससे बच सकता॥
व्यर्थ है रोना और बीते पर जीना।
ऐसा करके हमारा भविष्य भी खो जायेगा॥
अब पता चला मुझे कि-
क्या भाव था उस मुस्कान का।
नव-जीवन का सन्देश
और जज्बा था जीवन जीने का॥
मित्र तू मेरा, बढ़कर है मुझसे।
हमको भी सीखा, लड़ना मुसीबतों से॥
घोर-विषाद में भी ना मिटे।
कभी मुस्कान चेहरे से॥
- रतन लाल जाट
(14) कविता-“धूल भरे हाथ"
आज छुट्टी का दिन था,
सोचा पढ़ेंगे-लिखेंगे और घुमेंगे।
मगर बहिन ने कहा,
आज तुम चले जाओ भैंसे चराने।
घर पर कई काम है करना,
बोला मैं, ठीक है कपड़े धोने होंगे।
फिर मैं चला गया चरागाह,
था पौष का वो सर्द माह।
मन्द नजर आ रहा सूरज,
छाँह-सी शिशिर में धूप।
लहराती-महकती रंग-बिरंगी फसलें।
हर किसी के दिल को वो खूब भाये॥
बाहर की दुनिया छोड़,
लीन था भीतर दुनिया में।
कि- आभास हुआ किसी का
और पहुँच गयी निगाहें॥
जहाँ काँटों की डगर थी, किनारे गेहूँ के खेत पर।
किसी के लिए, आ रहा है कोई दौड़कर॥
अरे! यह तो अपने हैं।
बड़े हैं फिर भी लगते भाई-से॥
कहते हैं मुझे लोग।
कहाँ के रहने वाले है कौन?
कैसे हुई मेरी पहचान?
या पड़ा था कोई काम॥
प्रथम परिचय में ही कर दिया सर्व-समर्पित।
एक-दूसरे को देख मानव भाव से हुए हर्षित॥
देखते ही उनको मैं उठकर दौड़ा।
उन्होंने भी मुस्काते हुए हाथ हिलाया॥
पास आते ही हमेशा की तरह।
हम दोनों ने मिलाये थे हाथ॥
उस वक्त नहीं दिखे थे उन्हें,
धूल भरे हाथ मेरे।
और बढ़ाये मेरी तरफ,
धूले हुए वो हाथ उनके॥
बिना कुछ सोचे।
जल्दी से मैंने लपक लिये॥
परिचय है अपना बस इतना ही।
मानव का मानव से निस्वार्थ प्रेम और कुछ नहीं॥
- रतन लाल जाट
(15) कविता-“स्वार्थ”
कोई बोलेगा किसी से, बिना काम के नहीं।
यह तो अच्छा है, काम होने पर ही बोले सभी॥
किन्तु बात और है, क्योंकि आज का जमाना।
जो जुड़ा हुआ है, किसी न किसी स्वार्थ से सदा॥
बिना स्वार्थ के लोग, देखते ही किसी को।
फेर लेते हैं मुँह जैसे, वो जानते ही नहीं हो॥
हाँ! आज यह महाशय प्यार से बोले।
उस बच्चे से, क्योंकि उसके बाप है ऊँचे॥
ऊँचे तो क्या कहें? अब राजनेता बन गये हैं।
किन्तु इनके लिए, तो एक देवता से ऊपर है॥
जो करने देते हैं, इनको काले-कारनामे।
इन्हीं की कृपा से, पाप भी पूण्य कहलाये॥
इनका भी है एक स्वार्थ, फिर लड़ना एक चुनाव।
यदि भलाई का दामन, थामें रहें कोई हरपल॥
तो नहीं मिलेंगे वोट, इन भ्रष्ट मतदाताओं से।
और इन लोगों से भरा पूरा समाज, तो हार पक्की है॥
इसीलिए यह सब कुछ होता है।
दुनिया भी शायद स्वार्थ पर टिकी है॥
यह हमारी धरा भी, किसी स्वार्थ के वश में।
दिन-रात सूर्य के चारों ओर पहरा लगाती है॥
ऐसा कोई भी गुण नहीं है अलौकिक सत्ता में।
मगर रहता है यह दानव बने मानव में॥
ढ़हनी होगी एकदिन यह मंजिल।
जिसकी बनी हुई है खोखली नींव॥
दबेंगे खुद निर्माता भी और आने वाले।
उनका दोष क्या? किन्तु पूर्वजों का दोष है॥
और सारा चराचर, इसी के बल पर।
कब-से बैठे हैं इसी ताक में रात-दिन॥
क्या यही है मानव-धर्म? ऐसी बातें ना करना।
मानव-धर्म के साथ, भूखा हमें मरना होगा॥
स्वार्थ से ही हम, पा सकेंगे जीवन का आनन्द।
नहीं तो अटक जाते हैं, हमारे पाश्विक कर्म॥
यही सोच लेकर हम गुनहगार बने हैं।
पशु भी छोड़ देते हैं घास अपनों के लिए॥
कहाँ तक देगा साथ अपने?
एकदिन तो मर-मिटना पक्का है॥
स्वार्थ को छोड़कर, चुम लेगी हमको मौत।
तब जाकर छुटेगा, चोली दामन का साथ॥
स्वार्थ से रहित मानव कहलायें हम।
निस्वार्थ-भाव से करें जग में कर्म॥
इसी में है, सकल लोक का भला।
जो दूसरों का कल्याण और हमें मुक्ति दे
- रतन लाल जाट
(16) कविता-“साहित्यकार”
समाज का अनमोल रतन है साहित्यकार।
लाखों में एक ही होता है इस दर्जे का हकदार॥
सामान्य से होती है उसकी अपनी विशिष्टता।
फिर भी वो सबके साथ घुलमिलकर रहता॥
साहित्यकार का जीवन-मंत्र है,
वर्तमान के साथ खड़े रहकर।
आने वाले भविष्य का सजाते हैं,
मार्ग कई फूल बिछाकर॥
लेकिन वो इनकी कोमलता नहीं,
अपितु काँटों की चुभन झेलता है।
तब जाकर सच्ची साधना से कहीं,
उनको यह साहित्य-फल मिलता है॥
समाज का चितेरा है साहित्यकार।
जो कल्पना से यथार्थ को लाये उभार॥
करता है सृजन वह, अर्द्धरात्रि को जगकर।
अपने हृदय से निकले अश्रु-मोती चुनकर॥
जब पिरोता है एक माला, तब रूप पाती है कविता।
कविता आत्मा से निकली, सत्य पुकार है परमात्मा की।
इसका धरातल है इस लोक से आगे।
अलौकिकता से बंधन इसके हैं जुड़े॥
हर खामोशी के बीच पाता है साहित्यकार।
मानव-जीवन के सत्य की गुँजती एक पुकार॥
जो भीतर से बाहर तक झकझोरती है उसको।
और प्रेरित करती है, नयी कविता रचने को॥
साहित्यकार सुख का हिमायती नहीं,
वह समाज का सच्चा सेवक है।
जो बड़े-मोटे महाशयों से नाता तोड़,
दीन-दुःखियों के साथ जीता है॥
ऐसा करते हुए मिलता है, अलौकिक आनन्द उसे।
और वह परम सुख नामुमकिन है, उन अमीरों के लिए॥
साहित्यकार की सच्ची-साधना, स्वयं ही है एक बेजोड़ ईनाम।
जो इस धरा पर उसको कराता है, अमृत का रसास्वादन॥
‘वह समाज के आगे एक जलती मशाल है।’
जिसकी औरों से अपनी विशिष्ट पहचान है॥
मानव जीवन की तस्वीर को,
तरासने वाला वही एक शिल्पकार है।
पृथ्वी पर ईश्वर का दूत,
वो सगुण रूप में जीवित है॥
जन-जन की आवाज, सच्चाई के साथ।
लेती है साहित्यकार के, दग्ध-हृदय से आकार॥
पहला सुखी और अकेला वियोगी।
रखे सादा जीवन और ऊँच विचार ही॥
यही साहित्यकार का अपना मर्म है।
सकल जग ही उसका जीवन है॥
अन्याय का विरोधी, दानवता का संहारक।
ऊँचे कर्मों के साथ, रखे परोपकारी भाव॥
उसमें करूणा का सागर और कई सद्गुणों की खान।
आँसूओं का कोषागार, साथ ही स्नेह की बहती धार॥
असीम प्रेम का पुजारी, वचन पर अटल।
अपना सर्वस्व कर दे परहित-न्यौछावर॥
- रतन लाल जाट
(17) कविता-“फिर क्यों आते हम?”
यदि हम अच्छे होते, देवता या महात्मा।
फिर क्यों आते हम? स्वर्ग छोड़कर यहाँ॥
हमनें पाया है धरती पर जन्म।
क्योंकि कुछ न कुछ बाकी है कर्म॥
उनका फल भोगने और नये कर्म करने को।
साथ ही अगले जन्म का भाग्य-विधाता बनने को॥
इसीलिए आते हैं हम, स्वर्ग छोड़कर यहाँ।
जरूर ही है हमारे में, कोई न कोई बुरी बला॥
वो ही पाते हैं यहाँ ठिकाना।
जिनमें अंश है दानवता का॥
हाँ! सच है यह, किन्तु होता कुछ और है।
दानव से मानव, मानव से महान् बनते हैं॥
कम ही होते हैं, ऐसे बिरले जन।
जो करते हैं यहाँ आकर सद्कर्म॥
ऐसा करने वालों को निश्चय ही स्वर्ग मिलता।
फिर उन्हीं मे से वापस त्रिदेव का अवतार होता॥
छोड़ इन दुष्कर्मों को, सद्कर्मों में लग जाओ।
मुश्किल तो होगा यह प्रवृति छोड़ना।
यदि छुट गयी, तो कंटक पथ मिट जायेगा॥
- रतन लाल जाट
(18) कविता-“ट्रक व टैंकर”
राह थी लम्बी-चौड़ी,
आ रहे थे आमने-सामने।
एक तरफ ट्रक,
दूसरी तरफ टैंकर॥
अभी-अभी हुआ उजाला,
सूरज की लालिमा फैल गयी।
न जाने ऐसा क्या हुआ?
ट्रक टैंकर से टकरा गयी॥
तेज थी रफ्तार, यूँ हुई मुलाकात वहाँ।
बड़ा-सा टैंकर रहा, अकेला ही खड़ा॥
और फूट गयी, चकनाचूर हो गयी।
वो ट्रक बेचारी, न जाने क्या बन गयी॥
टैंकर मुड़ गया उल्टा, ट्रक खा गयी पलटी खूब।
सड़क पर काँच का ढ़ेर, किनारे पर बहने लगा खून॥
कोई घायल हो सहम-सा गया।
तो कोई लहूलूहान हो मर गया॥
आने-जाने वालों की,
इकट्टी हो गयी भीड़ घनी।
कोई क्या कह रहा?
तो कोई समझा रहा॥
यह मेरा, वह तेरा।
कोई नहीं अपना॥
बुलायें उसके परिवार को।
या कॉल करो पुलिस को॥
कई लोगों की जमा भीड़।
कर रह हैं आपस में बातचीत॥
लेकिन कौन उठाये उसे?
जो मरने को गिन रहा पल थोड़े॥
उधर पड़ा लथपथ खून से,
कौन है जो उसको संभाले?
कोई किसी का नहीं यहाँ,
तो फिर कौन है इसका?
सब अपने तक ही सीमित हैं।
अपनों से भी हम अलग हैं॥
लेकिन मानव के सिवाय और कौन है?
जो दया-करूणा और सहयोग करता है॥
आज सब छिप गये हैं जैसे।
तड़प रहा मानव, कौन उठाये?
एक था स्तब्ध और एक जड़ है या चेतन।
मालुम नहीं, वो जिन्दा है या मर गया अब॥
सब दानव ताक रहे थे, उनको मरता देख रहे।
खून बह रहा था होली का रंग हो जैसे॥
तभी आ गयी थी गाड़ी,
उठाया उसको पुलिस ने।
वो कायर-डरपोक जनता खड़ी,
जो भोली-भाली कही जाती है॥
सब था झूठा, देखकर यह।
रोने लगा, तभी चली पवन॥
सूख गये थे अश्रु, प्यासे नयनों से।
सामने दिखायी दी राह वो ही है॥
चलो और आगे? क्या होगा न जाने?
- रतन लाल जाट
(19) कविता-“उम्मीदें तो सबकी हैं”
उम्मीदें तो सबकी हैं, छूना चाहते आसमां को।
वो खड़े तो हैं धरती पर, ज्यों के त्यों॥
एक समान हम सब, नहीं हैं अपने में फर्क।
एक ही तन और मन, एक ही है रब॥
कोई दे रहा है जोर ज्यादा।
तो कोई कर रहा कोशिश बेबस-सा॥
उम्मीदों को मिलता, तेज हवा में आधार।
जब हो जाता है, मन का पक्का विश्वास॥
धरती कभी किसी को, नहीं देती है धक्का।
खुद रोकर भी वो, सिखाती है सबको हँसना॥
क्योंकि सब उठते-गिरते हैं यहाँ।
फिर भी यह धरती नहीं करती विदा॥
कैसे हुआ है निर्माण इस काया का।
वही एक कलाकाल, जो इसका निर्माता॥
केवल एक वो ही है अकेला बटोही।
जो चलकर पहचान कराता है अच्छे की॥
हर कोई नहीं कर सकता, करने जैसा कोई काम।
ऐसा-वैसा काम तो मानव क्या? करते हैं जीव-संसार॥
स्वर्ग में सब होते हैं एक समान, न कोई बदलाव।
बस, यहीं पर मिलता है सबको नया जीवन-भार॥
जैसे कोई खड़ा है मझधार में।
जायेगा वो गिरकर नीचे पाताल में॥
यदि हिम्मत हो, तो कुछ कर जाये।
बस, केवल अपने कर्म के बल मात्र से॥
जाना चाहे कोई मझधार से ऊपर।
तो जितना होगा कई सारी मुश्किल॥
धीरे-धीरे ठोकरें खा-खाकर।
बढ़ाने होंगे मंजिल तक कदम॥
पहले करना पैर मजबूत।
फिर रखना निगाहें गगन॥
पहुँच जायेगा कोई बहुत ऊँचा।
यदि अपने कदमों से माप किया॥
उम्मीदें तो सबकी हैं, छूना चाहते आसमां को।
वो खड़े तो हैं धरती पर, ज्यों के त्यों॥
- रतन लाल जाट
(20) कविता-"वह पूज्य”
वह कोमल है कमल-सी।
ऐसे हिले-डुले, जैसे कोई कली॥
थोड़ी-सी रहम, करना उसके संग।
उसकी स्वछंद हँसी और सुखभरा आँचल॥
वो एक सितारा है, जो घोर तम में।
अपनी आभा से उजाला कर देता है॥
वह पूज्य और प्यारी, उसकी है मधुर वाणी।
तन उसका कोरा कागज, ना करना नाइंसाफी॥
उसको सहज रखना।
जीवित-देवी समझना॥
कहीं ऐसा ना हो कि- उसका।
नाश कर दे आज ये दानवता॥
जो कभी बनकर कीट-पतंग,
उस खिलती पँखुड़ी को कर देगी कतर।
साथ ही बड़े मौज से पीकर,
उड़ जायेगी वह मकरन्द॥
थोड़ी-सी रहम, क्योंकि वह पूज्य।
मालूम नहीं? वो चाहती है कोई संग॥
प्यार का दामन, किसी को सौंपना।
नहीं देती है वह किसी को धोखा॥
वह पावनता की मूरत,
सच कहने वाली।
सहज ही वह,
कह दे बात दिल की॥
वह नहीं रखती है कुछ
किसी से छिपाकर।
पाप-झूठ या अन्याय,
वो इनसे है बहुत दूर॥
उसके संग सब बदल सकते हैं।
यह जहां भी मिटने से रूक जाये॥
बस, उसके मन-मंदिर में,
जरूरत है एक पुजारी की।
जो नित करता रहे,
उस शक्ति की भक्ति॥
उस मूरत पर विश्वास है।
सात जन्म तक वो साथ दे॥
निभाना उसके दिल का वादा।
जो खायी है कसम, पूरी करना॥
थोड़ी-सी रहम, क्योंकि वह पूज्य।
वह कोमल साथ ही है अमूल्य॥
मत करना धोखा, असुर कर्म से कभी।
वह अमिट सत्य रूप, कलंकित करना नहीं॥
उसको सहज रखना,
जीवित-देवी समझना।
वह पूज्य, वह सत्य
अपने सारे जग का॥
गँवाना नहीं चाहती धर्म अपना।
लुट लेते हैं दानव, वो चाहती बचाना॥
तब वह देती है अभिशाप, अपने अन्तस् से।
देव भी उस शाप से, कभी बच नहीं पाते॥
अति-सावधान, उसको सहज रखना।
थोड़ी-सी रहम, उसका विश्वास नहीं तोड़ना॥
- रतन लाल जाट
(21) कविता-"वे दोनों”
माँ पीसती चक्की, जहाँ कोठरी है अंधेरी।
जग-जगकर वह अकेली, कई सारे काम करती॥
दिनभर कठोर धूप में, सभी दुःख-दर्द झेलते।
उनके बूढ़े पिताजी, जो सब भार ढ़ोते हैं॥
जैसे वो कोई मशीन हो, नहीं लगते है इंसान।
जो अनपढ़, फटे-पुराने कपड़े पहन॥
दिन-रात बस, करते हैं एक ही काम।
पलभर भी उनको नसीब नहीं आराम॥
पूत है उनका, जो बहुत लाडला।
बचपन से बिगड़ा, नहीं किसी ने बिगाड़ा॥
न मालूम है यह कैसे? बस, इतना ही पता है।
कि- आजकल वह सपूत, धनवान सेठ बन बैठा।
जो कहीं से दूसरी पत्नी उठाकर ले आया।।
अब माँ-बाप की आँखों से ओझल हो।
अकेले रहने लगे हैं पति-पत्नी दोनों॥
माँ-बाप दिन-भर धूप में, बहाते हैं पसीना।
खेत पर मेहनत करते हैं और वो रंगरेलियाँ॥
या फिर बैठकर कार में।
उड़ते हैं हवा से भी आगे॥
कभी जाते हैं मिलने को, तो कभी करते हैं दर्शन।
सोचते हैं लोग बहुत ही अच्छा।
कारण उनको हकीकत का नहीं पता॥
बस,मौज और दिखावा।
नहीं है विश्वास, सिर्फ धोखा॥
दुःखी माँ-बाप और ऐश्वर्य में पुत्र।
कौन करेगा चिन्ता उनकी कुछ?
वे जगे और काम करे।
उधर वो सोये और काम बुरा करे॥
फिर भी दुनिया को यह सब नहीं आये नजर।
क्योंकि धनवान से सभी रखते है बहुत डर॥
- रतन लाल जाट
(22) कविता-“कर्म अच्छे”
कभी देखा! मानव हैं जो कुछ।
रहते हैं सदा, परमसुखी और खुश॥
काश! ऐसी क्या अलग है बात?
जो कोई जताये अपना विश्वास॥
जब होंगे कर्म अच्छे,
साथ ही सच्चे और प्यारे।
उस वक्त लगेगा आपको,
दिल की खुशी का ठिकाना जो॥
हाँ, करके देखा कोई काम ऐसा।
अपना विरोधी भी याद करे हमेशा॥
कर्म अच्छे, फल मीठा।
खुश सभी जन, खुश आत्मा॥
देखो, अच्छे कर्मों का चमत्कार।
सब जगह हैं इनकी जय-जयकार॥
कहता है दिल, अच्छी बातें।
खुशी के गीत आत्मा गाती है॥
करूणा-भरे चेहरों पर।
आये मुस्कान, जब हो अच्छे कर्म॥
होती है कई खुशियाँ।
जब करे कोई काम अच्छा॥
कौन नहीं करता है दुलार?
जिसने किये हैं अच्छे काम॥
असुर भी चाहते हैं सुर को।
बुराई खोजती हैं अच्छाई को॥
काम बुरा, नाम बुरा।
जग बुरा, फल बुरा॥
फिर कौन अपनायेगा?
अपने सद्कर्मों के सर में
विकसित चमन।
जो कंठीला
और है गंधहीन॥
कर्म अच्छे देखकर,
दिल से निकलेगी पुकार।
उस पापी के मन से कि-
वो धन्य हैं बार-बार॥
सुना कभी उसके बारे में,
जो करता है कर्म दुष्ट।
हम तो क्या पशु तक उससे,
करते हैं व्यवहार घृणित॥
उस बुरे कर्ता की आत्मा भी,
पीठ पीछे देगी अभिशाप।
क्योंकि चोर कभी नहीं चाहता,
अपने घर में लूटमार॥
चाहे कुछ भी हो,
बुरे का साथ।
नहीं देता है,
कोई कभी यार॥
सुनो पुकार आत्मा की,
फिर करो कर्म कुछ ऐसे।
जो कर दे आपको खुश,
और तन-मन नाच उठे॥
कर्म अच्छे, तो जग भला।
चाहेगा दुश्मन भी दिल से सदा॥
एक क्षण को भी करेगा।
ईश्वर से वो आपकी दुआ॥
- रतन लाल जाट
(23) कविता-“अच्छाई का इन्तजार”
यह दुनिया की रीत है।
अच्छाई का इन्तजार,
हमें करना ही पड़ता है॥
झूठ औत बुराई को पहले मिलता मान।
ऐसा होते देखकर निराश ना होना आप॥
यदि पहली ही बार बुराई को उजागर कर दिया।
तो उसका नामोंनिशान मिट जायेगा॥
किन्तु नहीं, बुराई का है क्या?
कब तक छिपकर रहा जायेगा?
वक्त आते ही सामने, सत्य के अलावा।
जो हैं झूठापन, सम्पूर्ण मिट जायेगा॥
तब इन्तजार में खड़े, सच्चाई के साथी।
हम जनों को एक सुनहरी घड़ी मिलेगी॥
अच्छाई पसरकट करने हेतु,
उसी का नाम सत्य है।
अच्छाई का साथ निभाये,
जो अंत समय तक खड़े हैं॥
सामना करके ढ़ेर सारी कठीनाईयाँ॥
हार मान लेगी वो जीतेगी अच्छाईयाँ॥
अंत तक टिकने की, साहसपूर्ण शक्ति रखना।
फिर संघर्ष का उत्साह के साथ करें सामना॥
यही है अच्छाई की पहचान। जो करती है सदा इन्तजार॥
- रतन लाल जाट
(24) कविता-“सपनों का संसार”
बुनता हूँ मन में रंग-बिरंगे ख्वाब।
बनाता हूँ सपनों की प्यारी दुनिया एक॥
ऐसा करना है हमें, जो सभी के जीवन में।
बसंत की भाँति महकता-सा, सावन का झरना।
जो गीत गाये जीवन के, नद-दल की कलरव हो जैसे।
हर दिल की पुकार, पहुँचे प्रिय के कानों तक।
उनके आँसू की बुन्दें, मातियों-सी छलके॥
सभी को अपना चाहता है दिवाना।
जो है उसका मिल जाये आज यहाँ॥
फिर न जाने यह अनमोल क्षण।
मिलेंगे कि नहीं कहना है व्यर्थ॥
स्वर्ग को ढ़हने से रोकना है।
स्वप्न के मिलन को साकार करना है॥
सब खुश रहें और जीयें मधुर जीवन अपना।
जबकि यहाँ काँटों भरी डगर ना हो सांमना॥
फूलों की सुगन्ध, पराग से झरता अमृत।
जिसका पान करे, प्रत्येक दुःखी मनुज॥
यहीं पर रहते हुए हम,
अनुभव करें स्वर्ग-भरा।
जीवन का यह उपहार,
भेंट करें सबको प्यार अपना॥
सपनों का संसार वो, सजाना होगा हम सबको।
साथ ले अपने सच्चाई को, जोड़ना है प्यार के धागे जो॥
दो संगी मिल जाये स्वेच्छा से।
अपने अन्दर का अकेलापन भूला दे॥
सब बहा दें पीड़ा-वेदना, प्रेम का सागर है जहाँ।
फिर एक नयी जिन्दगी का निर्माण करें।
और जन-जन के प्यारे सपने भी पूरे॥
यही है मेरे सपनों का संसार।
जो सबको हो सहज ही प्रदान॥
- रतन लाल जाट
(25) कविता-“कुछ बदलाव नहीं"
हर साल मनाते हैं हम सब।
आजादी और गणतंत्र दिवस॥
फिर भी कोई बदलाव नहीं।
वही समस्याएँ हैंआज खड़ी॥
सुनो, उन दीन-दुःखियों की पीड़ा।
दर्द जिसका अभी तक कम नहीं हुआ॥
आज भी यहाँ शोषण होता है।
नन्हें बच्चों को मजदूरी करते देखा है॥
शिक्षा है कोरी-कल्पना।
कागजों तक संसार उसका॥
हिन्दुस्तानी नारी आज भी।
कई कुरीतियाँ झेल रही॥
फिर भी कोई बदलाव नहीं।
वही समस्याएँ हैंआज खड़ी॥
या कहें कि- वो और भी,
अपना दामन फैला रही।
भ्रष्टाचारी और आतंकवादी,
दोनों ने देश की जड़ें काट दी॥
आज भी तन पर कपड़ा नहीं।
ना ही नसीब है दो समय की रोटी॥
सरकार गणतंत्र हो या राजतंत्र।
भारत में है सदा ही गरीबतंत्र॥
हर साल मनाते हैं हम सब।
आजादी और गणतंत्र दिवस॥
फिर भी कोई बदलाव नहीं।
वही समस्याएँ हैं आज खड़ी॥
सरकार बनती और बिगड़ती।
लेकिन गरीब की झोंपड़ी है वही॥
आज भी करते हैं कर्ज से आत्महत्या।
देखते हैं हम सरकार की अधूरी योजना॥
आजादी से पहले एक था भारत।
आज एक नहीं, कई है भारत॥
पहले भाईचारा और एकता थी।
आज घर में ही झगड़ा है भारी॥
फिर भी कोई बदलाव नहीं।
वही समस्याएँ हैं आज खड़ी॥
हर साल मनाते हैं हम सब।
आजादी और गणतंत्र दिवस॥
- रतन लाल जाट
(26) कविता-“कुछ हो नया”
कुछ हो नया, लगता है आज।
किसी लता के मिल गये दो फूल॥
कई दिनों के बाद, आशा की घड़ी है आयी।
किन्तु फूलों से पहले, मिली थी पत्तियाँ और डाली॥
शायद वो देती है कुछ सन्देश हमको।
कि- होगा अब मिलन उनका तो॥
नयी हवा, नयी सौरभ।
लग रहा है, सब कुछ नव॥
जो भी हुआ, अपने बीच।
उसको भूल, हम जायें मिल॥
जग बदल रहा है, प्यार में डोलता-सा।
हम भी कुछ सीखें, लगाये दिल अपना॥
यही एक मात्र नहीं हमारी मंजिल है।
राहें विभिन्न और कई सीढ़ियाँ हैं॥
मिलन हमारा होगा, हमको है विश्वास पक्का।
शायद अब समय आ गया, दो फूल मिलने का॥
आओ, हम सब मिलकर यहीं बनायें स्वर्ग।
कहाँ आप और कहाँ हम? फिर भी होये मिलन॥
- रतन लाल जाट
(27) कविता-“कैसे पनपा आतंकवाद”
इतने दिन पकड़ रखा था पल्ला।
उन सब लोगों ने मानवता का॥
लेकिन कुछ भी नसीब न हो पाया।
और मरने लगे थे भूख से हमेशा॥
तब तोड़कर नाता दया-धर्म का।
थाम लिया था दामन आतंक का॥
आखिर इन्सान ही है।
कब तक रहेगा शांत?
एकदिन तो वो करेगा,
जरूर ही कोई घात॥
भूखा क्या न करेगा?
जहाँ भी कुछ होगी आशा॥
तो पहुँच जायेगा,
अगले ही पल वह वहाँ॥
दबी हुई आत्मा, क्षुब्ध उनका मन।
वो लोग खुलेआम, उठा लेंगे खड़्ग॥
अपने-पराये का भेद भूल।
करेंगे कोशिश मिटाने को भूख॥
कुछ भी करते हुए शर्म ना आयेगी।
होगा जो करेंगे बिना विचारे ही॥
हत्याएँ होगी, लुटी जायेगी मानवता।
जो न हुआ था, वो सबकुछ आज होगा॥
दूर से ही वो साधेंगे निशाने।
जहाँ भी होंगे आसार कुछ पाने के॥
जो फिर छिप-छिपकर असहाय जनों पर।
स्वयं से हटकर रूकेंगे लाखों का नाश कर॥
कौन थे पापी? झेलता है पाप।
क्यों मारे जाये? बेकसूर लोग॥
और बड़े मौज से, वो बदलकर वेश।
एकबार पुनः महान् बनकर करेंगे प्रवेश॥
कहाँ थी जड़ इसकी? और कहाँ तक फैली शाखाएँ?
घनी-लम्बी दूर-दूर तक, जो हमको सबको फँसाएँ॥
तब बचेगा ना उपाय
हम लोगों के पास कोई।
सहमकर रह जायेंगे,
बसम इतना ही कह पायेंगे।
हाय! कैसे पनपा आतंकवाद?
कर दिया हम सबका विनाश॥
- रतन लाल जाट
(28) कविता-“जनक”
जनक देवता है, आसमान से ऊँचे।
जनक है, तब ही हम यहाँ है।
उनकी बातें निस्संकोच सच्ची है॥
वो डाटते हैं हमको,
यदि कोई गलती हुई हो।
फिर भी रखते हैं वो,
हमसे सपने कई हजारों॥
जनक नहीं सिखाते कोई बुराई हमको।
कुछ अच्छा करने के लिए कर्मशील हैं वो॥
जनक से बढ़कर क्या है?
वो अपने धरती पर विधाता है।
उनकी प्रत्येक डाट और थप्पड़,
बदल सकती है आमूल-चूल हमें॥
सिहांसन जनक का ऊँचा है।
हम ही उनका एक सपना हैं॥
वो करूणा के सागर।
हिमालय जैसे सुदृढ़॥
जनक त्रिलोक के सृजक।
पूज्य और कर्मशील॥
जनक देवता है, आसमान से ऊँचे।
- रतन लाल जाट
(29) कविता-“बड़ी लगन से”
गाँव से पढ़ने शहर आना था।
दूर चलकर बस में बैठना पड़ा॥
इतना लम्बा मार्ग, चन्द पलों में कट गया।
बहुत कुछ भी देखा, फिर सब बिसर गया॥
जब रूक गयी बस जाकर
पैट्रोल-पम्प के निकट।
बारिश का मौसम था, बादलों की उमस।
सब कुछ तप रहा था, बस भरी खचाखच॥
बड़ी मुश्किल से , उतरा मैं नीचे।
मन में शीतलता के बजाय
एक दर्द-भरी चुभन हुई।
जब देखा था पम्प के पास
एक मजदूर को करते सफाई॥
वो जवान आदमी था।
बड़ी लगन से काम कर रहा॥
तो सन गया धूल से।
कपड़े भीग गये पसीने से॥
फिर भी वो बिन रूके।
माथे से पोंछ पसीना कर्मरत है॥
देखकर उसका समर्पण और आनन्द।
मैं रह गया कुछ सोचकरके दंग॥
कि- वो मेहनत करके खुश है।
साथ ही ईमानदारी से कर्तव्य निभाये॥
जबकि बड़े-बड़े लोग जो,
बन जाते हैं मंत्री-अफसर।
जो मिनटों में कमा लेते हैं कई हजार।
और एक दिन के काम में लगायें सप्ताह॥
उधर वह साठ रूपये में करता है काम दिनभर।
फिर भी नहीं माँगता है कोई भत्ता या रिश्वत॥
वो जो कुछ भी कमाता है। खुश होकर घर चलाता है॥
इधर ये करोड़पति मन में कुढ़ते रहते।
थोड़े और रूपये के पीछे दौड़ते-भागते॥
क्योंकि इनका परिवार बड़ा है।
बड़ी मुश्किल से गुजारा होता है॥
बेटे आलसी और कायर हैं।
जो काम करते हैं घिनौने॥
लाख को टक्के की तरह उड़ा देते हैं।
और वह एक कौड़ी जुटाके महल बना दे॥
- रतन लाल जाट
(30) कविता-"पैसा सब कुछ नहीं"
पैसा सब कुछ नहीं।
सारा सुख पैसा नहीं॥
मगर पैसे के पीछे।
दुनिया दौड़ते ना थके॥
पैसा हर रोग का इलाज नहीं।
पैसा प्यार से बड़ा तो है नहीं॥
पैसे वाले मरते हैं एक औलाद के लिए।
पैसे वाले जान देते हैं एक दिलदार के लिए॥
आलीशान हवेलियाँ हैं।
लाखों का कारोबार फैला है॥
फिर भी हवेली में कोई रहने वाला नहीं।
सौ-सौ रह सकते हैं एक भी रहता नहीं॥
इतना सारा कारोबार कौन संभाले?
दत्तक पुत्र भी इनके नहीं रह पाते॥
पैसा है साथ इसके।
चिन्ता भी है रोग-गम है॥
पैसा दिन-रात
पैसा जीवन-मरण।
पैसा भगवान
फिर क्यों परेशान?
पैसा साधन है साध्य नहीं।
थोड़ा मिले तो जाये अधिक कहीं॥
- रतन लाल जाट
(31) कविता-"फेरीवाला"
घने कोहरे के बीच
कड़ाके की ठंड-शीत
एक साइकिल दूर से आकर
रूक गयी घनी भीड़ के निकट
फेरी वाला कई चीजें लेकर आया
लोग अभी जगे और दस गाँव जगा आया
वो पेट के खातिर
एक-एक रूपये के लिए
कुछ बेचकर
कुछ खरीद करके
गुजारा करता
अपने परिवार का
लेकिन ईमान नहीं बेचता
मुनाफा कमाता तो कभी घाटा
वो खुद तो सन्तुष्ट
और दूसरे भी है सन्तुष्ट
उधर देखो बेईमानी
लाखों की लूटमार
फिर भी ना सन्तुष्टि
हजारों है नाराज
- रतन लाल जाट
(32) कविता-"कभी मिलती है खुशी तो "
कभी मिलती है खुशी तो कभी गम
श्वेत है कभी श्याम जिन्दगी के रंग
हर रंग में रंगना है
हर रूप में ढलना है
उसी का नाम है जीवन
हो जिसमें कुछ परिवर्तन
फूल खिलने से पहले शूल चुभते हैं
बिन गर्मी के बादल कब बरसते हैं
कड़वे से ही बनता है स्वाद
बिन कड़वे के क्या है मधु रस
रात ही रात होती है कब?
अंधेरा हो तो दिन की भी जरूरत
मरण ना हो तो क्या है जीवन?
जीवन का सार बनता है मरण
प्रकृति में दो पहलू सबके है
कभी विपरीत तो कभी है पर्याय
फिर क्यों है हमको दुःख
एक ही हैं खुशी और गम
- रतन लाल जाट
(33) कविता-"अनपढ़ देहाती मजदूरिन"
एक गरीब अनपढ़ देहाती मजदूरिन
चलाती है घर और परिवार की मालकिन
रोज आठ-दस घण्टे काम करती मजबूरन
सौ-दो सौ को पांच-दस जगह करती खर्च लाचारिन
अपनी औलाद के लिए पढाई-लिखाई
तो कभी सास-ससुर का इलाज-दवाई
हररोज का कमाया हररोज
नहीं बचत नहीं कोई संकोच
उस अमीर अरबपति से अलग
वो सुखी और चिंता से रहित
एक लाख कमाकर भी एक हजार खर्च नहीं
और वो एक कमाकर करे खर्च दो फिर भी
पैसे कमाने से इन्सान बड़ा होता नहीं
बंगला बनाने से दिल बड़ा होता नहीं
साधू बाना धरने से पावन नहीं
नेता नाम रखने से उपकारी नहीं
फिर क्या है इस जीवन का
जो कागजों-ऐश-आरामों पर बिकता
आँसू नहीं गैर पर, अपनों के लिए सागर गिरता
इंसान के लिए इंसान नहीं, तो फिर कौन विधाता
- रतन लाल जाट
(34) कविता-"एक आग-सी"
एक आग-सी लगी है सब कुछ जलाने को
मुश्किल बचना है अब हर किसी को
ना ज्वाला कोई नजर आती है
ना जलने पर दर्द कभी होता है
सब कुछ खत्म हो जायेगा
फिर यहाँ और क्या बचेगा
पानी डालने को नहीं अब कोई आता है कभी
हाथ बांधे खड़ी तमाशबिन की है भीड़ बड़ी
औरों की सोचने का वक्त नहीं बचा
कौन यहाँ किसको अब पूछता
धीरे-धीरे जलकर रख हम हो जायेंगे
मिट जायेगी पहचान जो बाकी है
- रतन लाल जाट
(35) कविता-"रिश्ते कोरे बंधन क्यों"
रिश्ते कोरे बंधन क्यों बन गये है
आपस में हम उलझ कैसे गये है
किसी को थामे रखना तो नामुमकिन है
बस, टूटकर बिखर जाने का ही डर है
जीवन-संगी है कौन और कौन निभानेवाला
सब आज स्वछन्द है नहीं मालुम कर्तव्य अपना
एक गलती भी अब माफ नहीं
सजा की भी कोई हद है नहीं
पिता औलाद से खफा
औलाद अपनों से जुदा
माँ के लिए बेटी रास्ते का काँटा
बेटी का है अपना अलग रास्ता
बहन-भाई के बीच पड़ी है दरार
पति-पत्नी तलाक को है तैयार
आशिक निकले झूठे अस्मत के प्यासे
यार सिर्फ शौहरत के मुसीबत में भागे
नहीं किसी को रहा विश्वास
नहीं कोई वादा या अहसास
हर कोई फंसा है इस भ्रमजाल में
निकालने वाला कोई ना साथ है
- रतन लाल जाट
(36) कविता-"अभाव"
अभाव व्यक्ति को तपाता है
तपता वो ही सोना होता है
कोई दुखों से लड़कर
सुखों का संसार सजाता
और सुख में भला है क्या
थोड़े समय का खेल है सारा
मगर संघर्ष का आनंद निराला है
फल मीठा वो ही होता है
जिस पेड़ को हमने बोया है
बिना मेहनत की दौलत ये
मिट्टी के समान राख है
औरों के सहारे जीना क्या है
पड़ी हुई वस्तु सड़ जाती
चलती है जो नहीं रूकती
या कहे कि मजबूत होती
कुछ ऐसी ही है अपनी कहानी
लड़ मरो मगर रोना-रूकना मना है
- रतन लाल जाट
(37) कविता-"ये बहुत बड़ी बात है"
आजकल कोई अपना हो तो ये बहुत बड़ी बात है
वरना स्वार्थ की दुनिया में कहाँ आदमी से आस है
कोई किसी का हाल जाने क्यों
कोई दिल की बात कहे क्यों
वो किस्मत वाले है
जिनका कोई तो है
जो एक-दूसरे पे
जीते और मरते
अपने अपनों से पराये
पराये अपने हुए तो क्या कहें
लोगों को आँसू पोंछना कम और रूलाना अधिक आता है
आदमी ही दिन-रात आदमी से बिना कारण जलता है
कोई अच्छे कदम उठाने की सोचे
उसके पहले ही हाथ कोई बांध ले
किसी पेड़ पर कभी फल-फूल आ गये
तो लाठी-पत्थर से तोड़ गिराये
मगर धनी वो लोग है
जो फिर भी कुछ करते
या कहें कि और भी हिम्मत करके
दिल की आवाज सुन कर्म करते
स्वार्थ पर बोलना
अनायास मिलना
मजबूरी में पुकारना
दिखावा प्यार का करना
फैशन है ये या कोई हुनर
मूर्ख वो लोग है या हैं हम
मानव होकर भी है जानवर
या जानवर से भी गये-बीते हम
- रतन लाल जाट
(38) कविता-"भगवान याद आते हैं "
हम कभी-कबार ही मंदिर जाते हैं
क्योंकि और लोग भी जाते हैं
जब कोई अवसर खास आता है
तब ही हमको भगवान याड आते हैं
हर रोज जाते रहे हम जिस रास्ते पर
वहाँ मन्दिर था कोई हमको ना थी खबर
मगर एकदिन जब जगमग रोशनी में
सजे हुए मन्दिर को देखा
और साथ ही अंधभक्तों की टोली को
आसपास मंडराते हुए देखा
हम समझ गये थे
कि आज जरूर भगवान के दर्शन करना है
हम ऐसे रूक गये थे जैसे चुम्बक ने खींच लिया हो
तन-मन में भक्ति ने एकाएक घर कर लिया हो
ऐसा लगा जैसे इतने दिन था
सब कुछ यहाँ पर सूना-सूना
लेकिन आज मन्दिर में भगवान है
क्योंकि आज देखने को एकत्र बड़ी भीड़ है
ना सुबह उठकर नाम लिया था तेरा
ना कभी दिन-भर ख्याल कोई आया
फिर भी ढोल-नगाड़े की तान पर
नाचने लगे हम हजार के संग
जब अचानक बंद हो जाये बैंड-बाजे
तो हम भी थम गये जैसे बिजली के खिलौने
उस वक्त भगवान नृत्य देखने को थे
और हम चुपचाप एक-दूजे को ताक रहे थे
पर्व-जयंती पर ही दीप जलाना
मेले-जुलूस में ही नाचना-कूदना
साल में चार दिन करना भक्ति
शेष बाकी समय रखना विरक्ति
यह कहाँ का भक्ति-भाव है
क्या कबीर-मीरा समान है
लेकिन आज भक्त किराये आते हैं
भगवान चंद दिनों को छोड़ मन्दिर विराना है
- रतन लाल जाट
(39) कविता-"एकबार फिर"
सालों से जमी हुई धूल
एकबार फिर सजे हैं फूल।
दफ्तरों की फटी-पुरानी फाइल्स
इधर रास्ते के अन्दर गढ़्ढ़े ऊपर स्माइल्स॥
सरकार आये करने को जब कभी जाँच
बिन स्वार्थ कब करती है यह काम?
उसका भी जरूर कोई ना कोई है मकसद
चोरों के घर चोरी करके होना है गायब॥
बेचारे गरीबों की सूद कौन ले?
बिन दुधारू गाय की लात क्यों खाये?
इनकी तकलीफें वही, जो बरसों पहले से हैं।
जनता ही अफसरों और मंत्रियों की शिकार हुई है॥
भ्रष्टाचारी चार पैसे लुटाकर
वसूलता है पूरा रूपया रौब जमाकर।
नेताजी को जीताने वाले हैं जितने वोटर
उनसे भी ज्यादा करोड़ करते है हजम॥
आज देखा जो वफादारों से लड़ते थे।
वो जनता के सामने वफादारी दिखा रहे हैं॥
सरकार है नयी, तो उम्मीदें जगी सभी की।
मगर पहले पाँच सालों की है कसर बाकी॥
कारण पहले की तुलना में, इसबार बेहतर घर बनाना है।
मेरे देश में सबकुछ दिखावा है, अवसर आने पर दिखावे में और दिखावा है॥
वरना आज दिल से कौन काम करता?
ईमानदार बेचारा मरने को मजबूर होता॥
देखो, पुलिस वो ही कहलाता। जो झूठ के सहारे ढ़ेर रिश्वतें लेता॥
इसी तरह न्यायमूर्ति होते हैं।
जो सच को कौड़ी, झूठ को हीरा समझते हैं॥
बाबू भी अफसर अब खुद को मान बैठे हैं।
कभी-कभी तो अफसर को भी चप्पत लगा देते हैं॥
अब बताओ, अपने आप से
यहाँ कौन, कहाँ और क्या है?
ईमानदारी सजा और बेईमानी तोहफा है।
सत्य-अहिंसा गैर, तो पाप-चोरी वाजिब है॥
विकसित राष्ट्र होते हैं नहीं।
वो खुद बनते हैं अपने बलबुते ही॥
मत देखो कभी तुम सपना,
जब तक बदल ना जाये चोला।
करो अब कुछ ऐसा, जो पहले कभी ना हुआ॥
- रतन लाल जाट
(40) कविता-“अनकही आदर्श बातें”
किसको कहूँ मैं? इतनी सारी बातें।
जो आदर्श हैं, जिन्हें मानता हूँ मैं॥
श्रीराम ने भी का था कि-
पुत्रवधु, भाई की पत्नी
और पराई स्त्री
तीनों हैं बेटी के जैसी।
इसी तरह कहा प्रभु ने
मरते हुए बाली से।
गुरू, पिता और बड़ा भाई
तीनों एक ही समान है॥
साथ ही यह कहा कि-
शिष्य, पुत्र और छोटा भाई
एक हैं तीनों ही, इनमें कोई भेद नहीं
कुछ ऐसी ही आदर्श बातें।
कहने बैठा हूँ जो अनकही है॥
हर किसी काम की सफलता में
नितांत जरूरी है ये तीन बातें।
सबसे पहले रखें अदम्य साहस
फिर दिखायें अटूट शक्ति के साथ
अपना असीम विश्वास,
जो बहुत ही है खास।
खाने-पीने या पहनने-ओढ़ने की कहें।
तो हमेशा इतना तो ध्यान रखिये॥
तो हम खाने में कोई जीव ना लें।
फल-फूल और अनाज खूब खाये॥
वो कपड़े पहने, जो तन पर सजे।
हो अपने वतन के, औरों के ना पहने॥
जब बात हो शादी की,
तो लड़की देखना पंचलक्षणी।
सुन्दर-सुशील-पतिव्रता,
और सुशिक्षित के साथ कार्यदक्षता।
सुन्दर तन के बजाय ज्यादा मन से हो।
कार्यदक्षता नौकरी से पहले गृहस्थी में हो॥
वो अपने से छोटी हो, जो गाँव में पली हो।
जाने-पहचाने समाज में, संबंधित हो जाति से।
अब मेरी अपनी कुछ अलग बातें।
जैसे कोई तुमसे वेगाना हो जाये।
फिर भी प्यार करते रहना।
तभी तो नाम है प्यार का॥
दिल की बात सुनें, उसके अनुरूप चलें।
पग-पग पर भगवान है, यह शाश्वत मान लें॥
नहीं कोई गलत राह पकड़े।
मन की बेकार खुमारी में ना पड़े॥
सोचे-समझे, पंचविकारों से बचे।
इसी में जीत है, जीवन सफल है॥
- रतन लाल जाट
(41) कविता-“नया साल”
एक बच्चा है नया साल
जो एक को जन्मा।
उधर पिछला बरस
हो गया है बूढ़ा॥
और मानो इकतीस को
कर गया प्रयाण।
फिर नहीं आयेगा
कभी एक बार॥
धीरे-धीरे नया साल होगा
बड़ा और फिर बूढ़ा॥
जो आज लग रहा
एक बच्चे के जैसा।
कभी कुछ रूकता नहीं
होने वाला होता है ही।
साल के शुरू में या अंत में
वक्त मिलते ही आ जाता सामने।
इन सालों के जैसे हम भी हैं
जो जन्म लेते,
तो नये लगते।
और जीवन-समर के बाद
विश्राम करते,
तो मानो बूढ़े हो, गुजर गये॥
कितने ही युग गुजरे?
कितने ही और आयेंगे?
कई साल बीते,
कई और बीतेंगे।
यानी पीढ़ियाँ निकली,
तो और नयी पीढ़ियाँ आयी।
- रतन लाल जाट
(42) कविता-"कर्म"
बस, कर्म अपना करते चलो।
कुछ मिले या ना मिले, परवाह ना करो॥
खुद वक्त ही बता देगा इस जमाने को।
अच्छा है या बुरा, कहो इसे जात या हार है वो॥
कभी सूरज अपने लिए नहीं निकलता।
चाँद कभी चाँदनी रात में नहीं जीता॥
फूल की खुशबू फूल को नहीं है पता।
फिर हम क्यों करें मातम कभी दुख का॥
रोशनी में दीपक जलाना आसान है।
सर्दी में होती धूप भी मनभावन है॥
मगर अँधेरे में जुगनू ही सब कुछ है।
आँधियों में बस एक पतवार ही बहुत है॥
फिर सद्कर्म में डर किस बात का है?
पाप-पूण्य देना नहीं लोगों के हाथ में॥
बस, तुम करते चलो अपने सपने पूरे।
बदल जायेगा जमाना खुद बाद में॥
- रतन लाल जाट
(43) कविता-"ये मन"
दुनिया परिवर्तनशील और
उससे भी अधिक ये मन
जो कल चाहता था कि ये पाना है
तो आज कहने लगा कि ये पाना है
एकदिन वो भी मिल जायेगा
फिर भी ये मन नहीं मानेगा
लाख कोशिश करके भी
कोई इसे रोक पाया नहीं
बड़ा लालची है चंचल ये मन
जितना मिले उतना ही बेचैन ये मन
फिर भी इसमें कोई बुराई नहीं
क्योंकि जिन्दगी नाम है बदलाव की
तो क्यों ना हम स्थिर हो जायें
कुछ हासिल करने की कोशिश छोड़ दें
नहीं-नहीं जीना है तब तक कुछ करना है
सीढ़ियाँ बहुत चढ़ ली फिर भी मंजिल चलना है
- रतन लाल जाट
(44) कविता-"अब मत आना"
अब मत आना मर्यादा पुरुषोत्तम
अब ना आना कभी ब्रज के नंदन
यहाँ त्रेता और द्वापर से भी आगे
निकल गया पाप-झूठ इस युग में
फिर कैसे सिया को लखन भरोसे छोड़ेंगे
लखन को नहीं बख्शेंगे लोग आरोपों से
और कान्हा पवित्र प्रेम राधा संग
रस नहीं आयेगा किसी को ये रंग
चाहे आप लीला करने वाले
ब्रह्माण्ड के सृजनहार हैं
मगर इस चराचर को क्या पता है
तुम्हें बिसरा समझे खुद को भगवान् है
विवेकानंद और बापू अब नहीं होगी
सिस्टर निवेदिता और मीरा-सरला बहन शिष्या तुम्हारी
क्योंकि राक्षस दानव का चोला सब धर चुके
और धर्म-कर्म का विश्वास खो हम चुके
सह नहीं पाते किसी को आगे बढ़ते
साथ देते नहीं कोई दे तो उल्टा झगड़ते
ना भाई बहन को साथ देख पाते हैं
ना ही दया-प्रेम सहयोग कर पाते हैं
अब ना कृष्ण-सुदामा कहीं नजर आते
और ना हनुमान-सुग्रीव प्यारे
कौन शबरी के बैर खाता है
लंका छोड़ जंगल में कौन जाता है
चारों ओर खर-दूषण मंडराने लगे
हर जगह कंस-रावण हैं छुपे
उठो जागो आगे बढ़ो का संदेश तुम्हारा
विवेकानंद अब कोई नहीं मानेगा
क्योंकि यहाँ कौन जगता और आगे बढ़ता है
कोई कोशिश करे तो दूसरा रोकता है
बस सोये-सोये सब औरों का धन हड़पना है
यहाँ राम नहीं है राजनीति
सच्चा प्रेम नहीं है सब स्वार्थी
न अयोध्यावासियों का समर्पण कहीं
न मिलते वृन्दावन में नन्द-यशोदा कहीं
आदमी आदमी है नहीं
और पहचानते भी हम नहीं
क्योंकि कौन-किसका मुखौटा
यहाँ धरे हुए आस-पास है खड़ा
विश्वास करे तो ठगाये
विश्वास दे तो कभी न आये
साथ माँगे तो मिले ना
साथ दे कोई तो चाहे ना
अधर में अटका हुआ युग-अक्ष है
सब पक्ष-विपक्ष नहीं कोई निष्पक्ष है
चैन से जीये कोई तो दुनिया जीने नहीं देती है
लाचारी में मरना चाहे तो मौत नहीं मिलती है
कोई तो इन्सान बने
और कोई इन्सान को जाने
भगवान् तो सब देख रहा
मगर तुम क्यों चुप हो यहाँ
लाख झूठ से जीतता एक सत्य है
सौ अन्याय से बड़ा एक न्याय है
कण-कण करके खड़ा किया एक महल
लूट-लूट कर कई युगों-युगों तक
और आया जब भूचाल एक
ताश के पत्ते सा गया बिखर
फिर भी मुर्ख समझा कहाँ
खून चूस औरों का हुआ खड़ा
दो कदम बढ़े और लुढका
फिर भी रतिभर ना बदला
हाय रे अनर्थ हो गया
द्रौपदी का चीर हर लिया
भरत ने राम को अयोध्या ना आने दिया
और लखन के संजीवन लाने नहीं कोई गया
ना अब कभी जेल के ताले टूटते
और नन्द अपने हाथों बेटी का गला घोंटते
हाय! राम-कृष्ण प्यारे
अब तो विवेकानंद और बापू भी ना रहे
- रतन लाल जाट
(45) कविता-"औलाद मम्मी-डैडी कहे"
नहीं है जरूरत कोई औलाद मम्मी-डैडी कहे
बस इतना ही काफी है वो चरण-स्पर्श कर ले
क्यों हम औरों के पीछे आँखें मूंदकर चलने लगे
खुद को भूल गुए और सब कुछ हासिल करने चले
हम इतने दरिद्र थे क्या
जो औरों के आगे पड़े गिडगिडाना
इन्हें तो चलना भी हमने सिखाया
और हाथ इनसे मिलाना बड़प्पन समझे
यहाँ कब किसकी कमी थी
मानव क्या देवों से कम थे कभी
धीरे-धीरे मूल्य अपने कहीं
बोझ समझ भूलने से हम लगे
आज नाम भूल पहचान खुद गँवाई
धर्म-कर्म छोड़ बर्बर हो करे लड़ाई
चाहे सामाजिक रिश्तों के बंधन से मुक्ति
और जो नाश का कारण है उससे नाता जोड़ने लगे
मन के फेर में आत्मा है घुटने लगी
स्वार्थ पूर्ति के भ्रम में आनंद मिलता है नहीं
ये कैसी बुद्धिमानी या है अपनी लाचारी
जो परसेवा भूलकर औरों के आश्रित बन गये
- रतन लाल जाट
(46) कविता-"और आगे क्या होगा"
अब तक तो लाश पीठ पर उठाते देखा
और देखा है लादते हुए हडिडयों का चुरा बना
लेकिन अब और आगे क्या होगा
नर-कंकाल नर के ही खेल का खिलौना होगा
मर गयी दया और वेदना
क्या पशुत्व भी कम पड़ गया
पशु भी अपने स्वजन में से
किसी को मरते देख नहीं पाता
और हमारे लिए तो वो सिर्फ
मजाक का जरिया एक बन जाता
मानव से मानव घबराता
एक-दूसरे से दूर भागता
अरे! पशु-पक्षी को भी झुण्ड बना
परस्पर साथ विचर करते देखा
हमने मनुज कहलाने का दर्जा भी खो दिया
औरों को क्या सिखाये खुद सीखना भी छोड़ दिया
हर्ष और शोक में फर्क नहीं नजर आता
जड़-पाषाण दिल हमारा अविचलित रहता
सब यंत्रवत हो चुके हैं
दिखावे की मात्र मशीनें यहाँ
जो रोना-हँसना जीना-मरना भी
केवल अभिनय बन बैठा
वो दिन दूर नहीं जब तांडव मचेगा
एक बार पुनः समय करवट लेगा
- रतन लाल जाट
(47) कविता-"बुरा नतीजा"
जब रास्ते में कांटा तुम कोई बिछाओगे
तब खिलता हुआ गुल भी दिल को चुभेगा
करोगे यदि काम बुरा तो समझो
दुनिया में नजर सब कुछ बुरा ही आयेगा
और देखो जब कातिल खून कोई करे
तो उसकी आत्मा का भी खून हो जायेगा
काम काले करके घर की तिजोरी भरते
देखते ही देखते खजाना सब खाली हो जायेगा
गिराकर किसी को हम जीत ना पाये
रुलाकर औरों को दिल अपना भी तड़पेगा
जैसे हम इस दुनिया को देखते
वैसा ही रूप चारों ओर नजर आयेगा
जब कभी गिरते हुए को सम्भालोगे
और डूबते को तेरे हाथ नया जीवन मिलेगा
भूखे का पेट भरकर अपने दिल से पूछे
खुशी के मारे वो गदगद हो झूम उठेगा
जब देखोगे बुरा तो रंग दुनिया के भद्दे नजर आयेंगे
बोलोगे यदि बुरा तो कोयल मन की खुद मार देगा
बुरे संग रहकर बुरी बात सुनेंगे
तो फिर भला काम अच्छा कैसे हो पायेगा
बबूल के पेड़ पर आम ना आयेंगे
चन्दन तो हमेशा ही सुगंध फैलायेगा
फिर बुरे काम का नतीजा अच्छा कैसे
बुरे का अंजाम तो सदा बुरा ही निकलेगा
- रतन लाल जाट
(48) कविता-"पैसे के ही पीछे"
दिन-रात पैसे के ही पीछे क्यों भागते
पैसे को ही सब कुछ तुम क्यों मानते
दौलत का अर्थ नहीं थोड़ा भी जानते
सार सब भूलकर थोथा ही क्यों चाहते
सुख-चैन अपना किसके नाम लुटाते
एकपल भी अपना कुछ ख्याल नहीं रखते
घर-बार सब छोडके पैसा ही क्यों कमाते
जीवन अनमोल पीछे इसके व्यर्थ ही गँवाते
अपनों के साथ नहीं रहते
जग-मालिक से भी नहीं डरते
नींद नहीं तुमको पैसा आने देता है
मुस्कुराने का वक्त कभी नहीं देता है
चिंता में ही चित्ता की ओर ले जाता है
इंसान की जगह मशीन ही बनाता है
दुश्मनी स्वार्थ सब पैसा बढ़ाता है
रोग-शोक सब पास अपने बुलाता है
अपनों से दूर अकेला ये रखता है
सपने सब अपने एक साथ भुला देता है
खाना नहीं खाने देता
जिन्दगी ना जीने देता
चैन देता नहीं नींद भी जगाता
अपनों का प्यार अपने से ही छीनता
संतोष बड़ा सबसे होता
ये भी पास अपने नहीं रखता
यदि अपने का मोल नहीं
तो पैसा अनमोल है कैसे
इंसान से बढ़कर जग में
और क्या कोई दौलत है
लाइलाज रोग का उपचार क्या हीरे-मोती है
दुःख दिल का सोने-चाँदी से कभी क्या कम होता है
बिछड़े को मिला दे ऐसा नोट कहाँ है
आत्मा को जगा दे वो चैक कहाँ है
- रतन लाल जाट
(49) कविता-"दुनिया दोनों तरफ"
दुनिया दोनों तरफ बोलेगी
कभी किसी एक की ना होगी
तू बस करना काम वो ही
जो तेरी आत्मा कहेगी
क्या कोई खुश सभी को रख पाया है
कोई ऐसा जिसको नहीं कोई दुःख हुआ है
नहीं है कोई जग में जो शत्रु बिना है
दुश्मन के मित को दुनिया दुश्मन ही मानेगी
किसी का तो सहारा ही पाप है
किसी के लिए पूण्य भी बुरा है
पाप की रोटी सबको प्यारी है
और मेहनत की बहुत कड़वी लगेगी
रास्ते से पत्थर उठाना पागलपन है
लेकिन कोई कांटे बिछाये तो कुशलता है
फिर बिना गिरे कोई कैसे चल पाता है
कुछ तो शैतानी अपने मन भी जगेगी
- रतन लाल जाट
(50) कविता-"यह अच्छी बात नहीं है"
कभी किसी की तारीफ़
यदि आपने कभी की है
खुद अपने इसी मुंह से
और फिर कभी तुम एकदिन
करो निंदा उसी की तो
यह अच्छी बात नहीं है
तुम हमेशा कहलाओगे मौकापस्त ही
क्योंकि इससे अच्छा यह होता कि
तुम उसे अच्छे से बुरा हो जाने के बाद भी
करते कोशिश एकबार नहीं
कई-कई हजार बार भी
उसे बुरे से अच्छा बनाने की
शायद वह बदल जाये
और सदा तुम्हारे लिए अच्छा रहे
जैसा पहले कभी था
लेकिन हम ऐसा कभी करते नहीं
हम तो आज जिसकी तारीफ़ करते हैं
कल उसी की निंदा करते नहीं थकते
यह अच्छी बात नहीं है
- रतन लाल जाट
(51) कविता-"देखो, यह दुनिया"
देखो, यह दुनिया
तन है उजाला-उजला
नहीं नजर आता
मन इनका है काला
तन को हर कोई धो देता
मन धुला या नहीं क्या पता
और आज मन को कौन जानता
हर कोई तन सुंदर ही चाहता
चाहे गंदा हो धुला
सुंदर मन का महत्त्व क्या
- रतन लाल जाट
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