-एक- पाँव पड़ी पाजेब ……. पाँव पड़ी पाजेब तो बिटिया, बचपन का सच भूल गई । केवल सपनों-सी आती है, माँ का आंचल भूल गई । जेठ की लू औ’ पौष की ...
-एक-
पाँव पड़ी पाजेब …….
पाँव पड़ी पाजेब तो बिटिया,
बचपन का सच भूल गई ।
केवल सपनों-सी आती है,
माँ का आंचल भूल गई ।
जेठ की लू औ’ पौष की सरदी,
रिमझिम सावन भूल गई ।
सास जिठानी का सँग पाकर,
साग में आलन भूल गई ।
पी का ऐसा प्यार मिला कि
खुद अपनापन भूल गई ।
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-दो-
कब तक उनके साथ ….
कब तक उनके साथ चलूँ मैं ?
वो नदी के नीर जैसे
पाँव में रखते सफ़र हैं,
आदमी से बात करने
भूमि पर आते उतर हैं,
मैं शज़र हूँ बाँझ हूँ पर
तुम ही कहो कैसे फलूँ मैं।
कब तक उनके साथ चलूँ मैं ?
तुम हँसी हो आसमाँ की
चन्द्रमा की हमसफ़र हो,
शांत सुरभित मौन हो तुम
जैसे कोई हिमशिखर हो,
मैं धरा का फलसफ़ा हूँ
शब्द में कैसे ढलूँ मैं।
कब तक उनके साथ चलूँ मैं ?
तुम समन्दर हो यकीनन
तुम हो नदियों का मुकद्दर,
तुम हो खुशबू उपवनों की
तुम हो सदियों को मय्यसर,
आग में ऊँचाइयों की
आखिरिश कब तक जलूँ मैं।
कब तक उनके साथ चलूँ मैं ?
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-तीन-
कब खुलेगी नींद तेरी ?
कब खुलेगी नींद तेरी ?
भौर का सूरज उगा है,
चाँद भी कुछ कुछ जगा है,
हर गली में रतजगा है,
कब खुलेगी नींद तेरी ?
फूल बगिया में खिले हैं,
बाद मुद्दत वो मिले हैं,
प्यार के बस सिलसिले हैं
कब खुलेगी नींद तेरी ?
बढ़ गया आगे जमाना,
छोड़ भी दो अब बहाना,
सहर ने बदला ठिकाना,
कब खुलेगी नींद तेरी ?
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-चार-
हर-नफ़स ...
हर-नफ़स क्यों कर जलूँ मैं ?
आँख में
आकाश लेकर,
तम-भरा
प्रकाश लेकर,
पतझरा
मधुमास लेकर,
बर्फ सा क्यों कर गलूँ मै ?
हर-नफ़स क्यों कर जलूँ मैं ?
सूरज से
मृदु शीत चुराकर,
व्यथा कथा से
छंद चुराकर,
फूलों से नित
गंध चुराकर,
मोम-सा क्यों कर ढलूँ मैं ?
हर-नफ़स क्यों कर जलूँ मैं ?
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-पाँच-
उपवन-उपवन आवारा है
उपवन-उपवन आवारा है,
मधुवन मधुवन आवारा है।
गन्ध चुराकर इतराता है,
गुलशन-गुलशन आवारा है।
सच का घूँघट नहीं खोलता,
दरपन-दरपन आवारा है।
उम्र से पहले हुई सुहागन,
धड़कन-धड़कन आवारा है।
नए दौर के रँग में डूबा,
बचपन-बचपन आवारा है।
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- छ: -
रात ढली …..
रात ढली अब हो गई भोर,
चलो चलें अम्बर की ओर ।
धरती और गगन को छोड़ो,
ढूँढो निज दुनिया का छोर ।
भरी दोपहरी में देखो तो ,
नाच रहा है मन का मोर ।
नए दौर की इस दुनिया में,
टूट रही रिश्तों की डोर ।
सत्य ढूँढता रहा खिलौना,
आगे बढ़ निकले चितचोर ।
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- सात -
कासे कहूँ कौन तुम मेरे ?
कासे कहूँ कौन तुम मेरे?
बासंती श्रृतु है आवारा
खुशबू-खुशबू सारा आलम,
खेतों-खेतों बगिया-बगिया
हरियाली का मनहर आलम,
मैं मतिमारी किस सँग खेलूँ
आँखों में हैं फ़कत अंधेरे।
कासे कहूँ कौन तुम मेरे?
मैंने चाहा था कुछ हँसना
पर किसके संग हँसती मैं,
अँधियारों की तंग गली में
चन्दा-सी कैसे हँसती मैं ?
आने वाला नहीं आया पर
आँखों में हैं स्वप्न घनेरे।
कासे कहूँ कौन तुम मेरे ?
जीवन अपना बिखरा-बिखरा
फूलों की कलियों के जैसा,
आँगन अपना सूना-सूना
बाबुल की गलियों के जैसा,
ध्वस्त हुए मनसूबे सारे
चिडियाँ रोईं बैठ मुँडेरे।
कासे कहूँ कौन तुम मेरे ?
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- आठ -
दुल्हिन होती तो ….
दुल्हिन होती तो मैं सजती,
पायलिया के जैसी बजती ।
लेकिन मैं रोटी की मारी,
धनीराम से कब तक बचती ।
गुरबत में इज्जत का लुटना,
रही देखती सारी बस्ती ।
पैसे से कानून बिके है,
पैसा है तो सत्ता सस्ती ।
बातों से नहीं बात बनेगी,
यार उठा हाथों में दस्ती ।
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- नौ -
….कैसी भाषा छोड़ गए
जाते-जाते तुम ये कैसी आभा छोड़ गए ?
उल्टे-सीधे अर्थ
उगलती है हरदम,
अपने पीछे तुम ये कैसी भाषा छोड़ गए?
दंश-प्रेम का
पोर-पोर पर तारी है,
तुम प्रेम-प्रीत की क्या परिभाषा छोड़ गए ?
जाते-जाते तुम ये कैसी आभा छोड़ गए ?
पीते-पीते मौत
गले तक आ पहुँची,
घर-आँगन में तुम ये कैसी हाला छोड़ गए ?
जाते-जाते तुम ये कैसी आभा छोड़ गए ?
उत्तर देते-देते
जीवन रीत गया,
पश्नों की तुम कैसी तृष्णा छोड़ गए ?
जाते-जाते तुम ये कैसी आभा छोड़ गए ?
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- दस -
टप-टप टप-टप….
टप-टप टप-टप टपके पानी,
बच्चे माँग रहे गुड़धानी ।
ना मेरी ना तेरी यारा,
राजाओं की है रजधानी ।
चलते-चलते हार गया गो,
हार मगर ना मैंने मानी ।
कुछ भी नहीं बदलने वाला,
लगा रहे हम मन नाघानी ।
पलभर में ही बिखर जाएँगे,
ख़ाक नहीं है हमने छानी ।
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(‘टूट गया भ्रम संबंधों का’ गीत संग्रह से )
तेजपाल सिंह ‘तेज’ (जन्म 1949) की गजल, कविता, और विचार की कई किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं- ‘दृष्टिकोण ‘ट्रैफिक जाम है’, ‘गुजरा हूँ जिधर से’, ‘तूफाँ की ज़द में’ व ‘हादसों के दौर में’ (गजल संग्रह), ‘बेताल दृष्टि’, ‘पुश्तैनी पीड़ा’ आदि (कविता संग्रह), ‘रुन-झुन’, ‘खेल-खेल में’, ‘धमा चौकड़ी’ आदि ( बालगीत), ‘कहाँ गई वो दिल्ली वाली’ (शब्द चित्र), पाँच निबन्ध संग्रह और अन्य सम्पादकीय। तेजपाल सिंह साप्ताहिक पत्र ‘ग्रीन सत्ता’ के साहित्य संपादक, चर्चित पत्रिका ‘अपेक्षा’ के उपसंपादक, ‘आजीवक विजन’ के प्रधान संपादक तथा ‘अधिकार दर्पण’ नामक त्रैमासिक के संपादक रहे हैं। स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त होकर आप इन दिनों स्वतंत्र लेखन के रत हैं। सामाजिक/ नागरिक सम्मान सम्मानों के साथ-साथ आप हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार ( 1995-96) तथा साहित्यकार सम्मान (2006-2007) से सम्मानित किए जा चुके हैं। आजकल आप स्वतंत्र लेखन में रत हैं।
सम्पर्क : E-mail — tejpaltej@gmail.com
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